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गुलाम नबी आजाद ने इतिहास पढ़कर बताया कि कैसे किसानों के सामने अंग्रेजों को भी झुकना पड़ा था

राज्य सभा में बुधवार को विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद ने किसान के ऐतराज को देखते हुए कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग की. राष्ट्रपति अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव चर्चा के दौरान अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा कि किसानों से लड़कर कोई नतीजा नहीं निकलेगा. सांसद गुलाम नबी आजाद ने कहा कि किसान सैकड़ों सालों से अपने हक के लिए लड़ता आया है. नेता प्रतिपक्ष ने बताया कि कैसे अंग्रेजों को भी किसानों की ताकत के सामने झुकना पड़ा था.

‘जय जवान- जय किसान का नारा आज भी प्रासंगिक है’

कांग्रेस नेता और राज्य सभा में नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी आजाद ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा करते हुए किसान आंदोलन और जम्मू-कश्मीर का मुद्दा उठाया. जय जवान-जय किसान का नारा याद करते हुए देश की सुरक्षा करने वाले फौजियों और अन्न उगाने वाले किसानों को याद किया. उन्होंने कहा, ‘मैं उन पौने दो सौ किसानों को, जो सरकार से अपनी मांगें मनवाने के लिए पिछले दो-ढाई महीने में शहीद हुए, ठंड में और कई अन्य कारणों से वे मर गए, शहीद हो गए, मैं अपनी तरफ से उनको श्रद्धांजलि देता हूं.’

किसान सैकड़ों साल से संघर्ष कर रहा है

गुलाम नबी आजाद ने आगे कहा कि किसानों और सरकार के बीच जो गतिरोध बना हुआ है, यह पहली बार नहीं हुआ है, किसान सैकड़ों सालों से संघर्ष करता रहा है, अपने हक के लिए लड़ाई लड़ता रहा है, कभी सामंतवाद (feudalism) के खिलाफ तो कभी जमींदारी के खिलाफ लड़ते रहे हैं. उन्होंने कहा, ‘अंग्रेजों के शासन के समय के आंदोलन के बारे में पढ़ रहा था, तो आंदोलन का नतीजा यह हुआ कि सरकार को झुकना पड़ा, (कानून) वापस लेना पड़ा. मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि किसान की ताकत, हिंदुस्तान में सबसे बड़ी ताकत है. किसानों से लड़ाई करके हम किसी नतीजे पर नहीं पहुंचे हैं और न पहुंच सकते हैं.’

पंजाब में हुआ था बड़ा किसान आंदोलन

किसान आंदोलन का इतिहास सामने रखते हुए उच्च सदन के वरिष्ठ सांसद गुलाम नबी आजाद ने कहा, ‘साल 1900 से 1906 के बीच में तीन कानून, यूनाइटेड इंडिया और ब्रिटिश इंडिया की हुकूमत में बने, जिनमें पंजाब जमीन हस्तांतरण अधिनियम (The Punjab Land Alienation Act 1900), दोआब बारी अधिनियम (The Doab Bari Act) और पंजाब जमीन औपनिवेशीकरण अधिनियम (The Punjab Land Colonization Act) शामिल हैं. इन तीन कानूनों में यह था कि ज़मीन की मालिक ब्रिटिश सरकार होगी और मालिकाना हक से किसानों को वंचित रखा जाएगा. उन्हें अपनी ज़मीन पर इमारत, घर बनाने और पेड़ काटने का कोई हक नहीं होगा. परिवार का बड़ा बेटा अगर बालिग नहीं होगा और मर गया तो ज़मीन छोटे भाई को, जो नाबालिग है, उसे नहीं मिलेगी, बल्कि सरकार की हो जाएगी. इस पर बवाल मच गया और इस पर साल 1907 में आंदोलन हुए. इनकी अगुवाई भगत सिंह जी के बड़े भाई सरदार अजीत सिंह, भगत सिंह के पिता किशन सिंह जी, घसीटा राम जी और सूफी अंबा प्रसाद जी कर रहे थे.’

अंग्रेजों को तीनों कानून वापस लेना पड़ा था

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गुलाम नबी आजाद ने जंग के संपादक बांके लाल के लिखे गीत को भी संसद में सुनाया, जिसने 1907 के किसान आंदोलन को जोश भरने में भूमिका निभाई थी. उन्होंने कहा, ‘उस क्रांतिकारी गीत में से कुछ अंश यहां पर बताना चाहता हूं-
पगड़ी संभाल जट्टा, पगड़ी संभाल!
तेरा लुट गया माल वे जट्टा, पगड़ी संभाल!
सारे जग दा पेट भरे तू, अन्नदाता कहलाए तू
उठ और उठ के खाक के जर्रा, एक सितारा बन जा तू,
बुझा-बुझा सा क्यूं है दिल तेरा, एक अंगारा बन जा तूं
ओ सदियों के ठहरे पानी, बहती धारा बन जा तूं
लुट गया माल तेरा, लुट गया माल वे
पगड़ी संभाल जट्टा, पगड़ी संभाल!’
गुलाम नबी आजाद ने कहा कि किसानों के आंदोलन के बाद अंग्रेजी हुकूमत ने कानूनों में बदलाव का प्रस्ताव रखा, लेकिन किसान आंदोलन और बढ़ गया, क्योंकि वह किसानों की मांगों के अनुरूप नहीं था, रावलपिंडी, गुजरांवाला और लाहौर में हिंसा हुई, जिसका यह नतीजा हुआ कि अंग्रेजी हुकूमत ने तीनों बिल (कानून) वापस ले लिए.

किसान आंदोलन ने बंद कराई थी नील की खेती

नेता प्रतिपक्ष ने 1917 में हुए चम्पारण सत्याग्रह का भी उदाहरण दिया, जिसका नेतृत्व गांधी जी ने किया था. नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी आजाद ने कहा कि किसानों से जबरन नील की खेती कराने के खिलाफ आंदोलन इतना मजबूत था कि सरकार नील की खेती को खत्म करने के लिए कानून लाने के लिए मजबूर हो गई. उन्होंने कहा, ‘पहले बिहार और ओडिशा एक ही राज्य थे. उसमें एक बिल लाया गया, लेकिन सदस्यों ने यह मांग की कि इस बिल को सेलेक्ट कमेटी को भेजा जाए. ब्रिटिश सरकार ने सदस्यों की वह मांग मानी और इसे सेलेक्ट कमेटी में भेजा गया. इसकी एक कॉपी गांधी जी को भी दी गई और उनसे कहा गया कि आप भी इस बारे में अपने सुझाव दें. इस तरह से गांधी जी के सुझाव लिए गए और सेलेक्ट कमेटी के भी सुझाव आए और नील की खेती बंद हो गई.’ (नोट- मौजूदा केंद्र सरकार पर कानून निर्माण में सेलेक्ट और स्थायी समितियों की व्यवस्था को नजरअंदाज करने के आरोप लगते रहे हैं.)

खेड़ा से बारदोली तक किसानों ने अंग्रेजों को कैसे झुकाया

गुलाम नबी आजाद ने 1918 में खेड़ा सत्याग्रह का भी उदाहरण दिया, जो अकाल के बीच भारी-भरकम टैक्स वसूली के खिलाफ था. अंग्रेजी हुकूमत ने टैक्स न जमा करने पर जमीन जब्त करने और जेल भेजने जैसी धमकियां दी थीं. उन्होंने कहा, ‘सर, (इसके खिलाफ) विद्रोह इतना बढ़ा कि लोगों ने उसकी (चेतावनी) की कोई परवाह नहीं की. उनकी संपत्ति जब्त की गई, उनकी ज़मीन छीन ली गई, गिरफ्तारी हुई, लेकिन आंदोलन खत्म नहीं हुआ. नतीजा यह हुआ कि उस साल के टैक्स माफ किए गए, सरकार ने बढ़े हुए टैक्स घटा दिए.’ उन्होंने 1928 के बारदोली सत्याग्रह का भी उदाहरण दिया, जो 1925 में बम्बई प्रेसीडेंसी की ओर से किसानों पर 22 फीसदी टैक्स लगाने के खिलाफ था. इस आंदोलन का नेतृत्व सरदार वल्लभभाई पटेल ने किया था. इसके उल्लेख के साथ गुलाम नबी आजाद ने कहा, ‘आंदोलन का यह नतीजा निकला कि गवनर्मेंट ने तमाम ज़मीनें वापस कर दीं और जो 22 फीसदी टैक्स लगा था, लगान लगा था, उसको 6.03 कर दिया. एक बार फिर किसानों की जीत हुई. तेलंगाना में 1946 से 1950 तक ज़मींदार, जिनके पास सारी ज़मीनें थीं, उन्होंने एक गरीब वॉशर वुमन की ज़मीन हड़प ली. उसके बाद आंदोलन शुरू हुआ और वह आंदोलन इतना बढ़ा कि जो ज़मींदारों की अपनी ज़मीनें भी थीं, वे भी लोगों ने वापस ले लीं.’ उन्होंने आगे कहा, ‘इस तरह के आंदोलन हमारे इतिहास में हुए हैं और ताकत को हमेशा उनके सामने सिर झुकाना पड़ा.’

बोट क्लब में टकराव कैसे टाला गया था

गुलाम नबी आजाद ने अपने भाषण में अक्टूबर, 1988 में किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत की अगुवाई में बोट क्लब में हुए आंदोलन का भी जिक्र किया. उन्होंने कहा कि बोट क्लब में कांग्रेस की रैली प्रस्तावित थी, लेकिन एक दिन पहले किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत 50 हजार लोगों के साथ बिस्तर, खाट, हुक्के और अनाज लेकर बोट क्लब आ गए, सरकारी अधिकारियों ने कहा कि उन्हें निकाला जाए, लेकिन हमने कहा कि किसानों के साथ लड़ाई नहीं करनी है और हमने अपना धरना स्थल बदलकर लाल किला कर दिया. उन्होंने कहा, ‘हम पीछे हटे, हमने लड़ाई नहीं लड़ी, वरना अगर उन्हें हटाते तो कितने लोग ज़ख्मी होते. उसका नतीजा हुआ कि दो-तीन दिन के बाद टिकैत जी खुद वापस चले गए. माननीय प्रधानमंत्री, ये किसान हमारे किसान हैं. जब मैं ‘हमारे किसान’ कहता हूं, तो वे कांग्रेस के नहीं, बल्कि आपके, हमारे और पूरे हिंदुस्तान के 130 करोड़ लोगों के अन्नदाता हैं. इनके बगैर हम कुछ भी नहीं हैं…इनसे क्या लड़ाई लड़नी है? हमें लड़ाई लड़ने के लिए और बहुत मोर्चे हैं.’

‘किसानों के सामने अंग्रेज झुके तो हम क्यों नहीं झुक सकतेट’

गुलाम नबी आजाद ने आगे कहा, ‘हमारे बॉडर्र पर जो दुश्मन खड़ा है – पाकिस्तान है, चीन है, हम उनसे मिलकर लड़ाई लड़ेंगे. इसमें हम बिल्कुल आपके साथ हैं, पूरा देश आपके साथ है, हमारी पार्टी आपके साथ है. चीन और पाकिस्तान अगर हमारी तरफ नज़र उठाकर भी देखता है, तो हम आपके साथ हैं. लेकिन किसानों के लिए क्या है? वह बेचारा तो पहले से मुश्किल में है.’ प्रधानमंत्री से तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की अपील करते हुए उन्होंने कहा, ‘हमने किसानों के साथ लड़ाई नहीं लड़नी है. मैंने ये तमाम चीज़ें दी कि आखिरकार अंग्रेजों ने (कानून को) वापस किया, तो हम क्यों नहीं कर सकते हैं? किसान हमारे भाई हैं और हम एक हैं. अगर यह (कानून) उस वक्त सेलेक्ट कमेटी या स्टैंडिंग कमेटी में भेजा जाता, तो शायद यह वक्त नहीं आता. मेरी सरकार से यह विनती है कि आप इन तीनों बिलों (कानूनों) को वापस ले लें. कुछ लोग (26 जनवरी को हुए प्रदर्शन के बाद) गुम हो गए हैं, उनके बारे में मैं माननीय प्रधानमंत्री से अनुरोध करूंगा कि कोई कमेटी बनाएं जो उनकी छानबीन करे.’

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आंदोलन जारी है

संसद के मानसून सत्र में पारित तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग के साथ हजारों किसान दो महीने से ज्यादा समय से दिल्ली की अलग-अलग सीमाओं पर धरना दे रहे हैं. किसानों की मांग में फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी गारंटी देने की मांग भी शामिल है. इस आंदोलन में ठंड और दूसरी वजहों से किसानों को जान भी गंवानी पड़ी है.

डेस्क संसदनामा

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