कोविड-19 मामले में तेज चढ़ाव-उतार से बनने वाली घंटीनुमा वक्र और वायरस का व्यवहार, सरकार में बदलाव के साथ मेल खाता है. मध्य जनवरी में, संयुक्त राज्य अमेरिका में नोवल कोरोनवायरस बीमारी (कोविड-19) के रोजाना आने वाले मामलों की संख्या दो लाख से ज्यादा थी. नए राष्ट्रपति जो बाइडेन ने 20 जनवरी को पद संभाला. फरवरी मध्य तक, रोजाना आने वाले नए मामले तेजी से घटकर 50 हजार हो गए.
आप दलील दे सकते हैं कि यह गिरावट इसलिए आई थी, क्योंकि अमेरिका में कोविड-19 लहर अपनी चोटी पर पहुंच गई थी, लेकिन सच्चाई यही है कि शासन मायने रखता है. यह एक हकीकत है कि तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने महामारी संबंधी वैज्ञानिक सबूतों का मजाक उड़ाया था, रैलियों को रोकने या यहां तक कि मास्क पहनने की सलाह तक को खारिज कर दिया था. बाद में यह सब बदल गया. नए राष्ट्रपति सभी सरकारी बैठकों में मास्क पहनते थे. इसका लोगों के बीच बहुत स्पष्ट संदेश गया है. इसने असर पैदा किया है.
इसके अलावा, संपूर्ण आबादी के टीकाकरण के लिए एक सक्रिय पहल की गई है. अमेरिका में 11 मई तक लगभग 36 फीसदी आबादी का टीकाकरण हो गया था और जुलाई तक सभी लोगों को टीका लगा देने की योजना है. इसका मतलब है कि देश दोबारा कामकाज पर लौट आया है.
अब भारत का कोविड की डरावनी और रक्तरंजित बढ़ोतरी अमेरिका से मिले सबक को सिखा रही है. अमेरिका के शीर्ष विज्ञान सलाहकार एंथोनी फौसी ने देश के सीनेटर्स को बताया कि भारत ने जो सबसे बड़ी गलती की, वह इस वायरस को कमतर आंकना है, इसने अपने को बहुत जल्द (लॉकडाउन से) खोल दिया; सुरक्षात्मक उपायों को बहुत जल्द हटा लिया गया. इस प्रकार, अमेरिका अब जन स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे में निवेश सहित दीर्घकालिक उपायों, यहां तक कि अपनी अर्थव्यवस्था को खोलने, के बारे बात कर रहा है. अमेरिका बूस्टर टीका लगाने पर काम कर रहा है, ताकि अपनी आबादी को सुरक्षित रखा जा सके.
मैं इसे लिख रही हूं, यहां तक कि अभी मुझे एंबुलेंस के सायरन सुनाई दे रहे हैं. मैं इसे लिख रही हूं, यहां तक कि एक वायरस लगातार मेरे चारों तरफ परिवारों को उजाड़ और बर्बाद कर रहा है. हर दिन (अपने आप में) एक नया खौफ है. हमने देखा कि कैसे अस्पतालों में ऑक्सीजन की सप्लाई रुकने से मरीजों की मौत हो गई. फिर हमने परिवार और दोस्तों से डरावनी और दुखद खबरें सुनी कि कैसे उन्हें श्मशानों में भीषण भीड़ के चलते अपने प्रियजनों को ससम्मान अंतिम विदाई तक के लिए संघर्ष करना पड़ा. हमने सुना कि कैसे इन चिताओं से उठी लपटें आस-पास के इलाकों में फैल रही हैं. और अब हमने नदियों में तैरते शवों का डरावना सच भी देख लिया है, इस बारे में सरकारों के बीच की तमाम तकरार को भूल जाइए; ऐसा इसलिए हुआ है, क्योंकि बहुत सारे लोग मारे गए और उनके दाह संस्कार के लिए न तो जगह थी, न ही दूसरे उपाय. यह मानवीय त्रासदी की तस्वीर है, जिसे हम कभी भूल नहीं सकते हैं.
फिलहाल, जैसा मैंने लिखा है, वायरस ग्रामीण भारत में अपने लिए रास्ता बना चुका है. पिछले साल, हम सभी आश्वस्त थे कि हमारे शहरों के आसपास रहने वाले लोगों में कुछ जादुई प्रतिरक्षा मौजूद है. माना गया था कि वायरस ने इनके घरों को अपना ठिकाना नहीं बनाया है. ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसी किसी भी आपदा से निपटने लायक नाममात्र का स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा मौजूद न होने की सारी सख्त चेतावनियों के बावजूद, सारे पूर्वानुमान झूठे निकल गए. ऐसा कहा गया था कि यह अमीरों की बीमारी है. गरीब (इस) वायरस से बचे हैं.
अब और नहीं. अब यह चारों तरफ है; यह गांवों में है और यह उन घरों में है, जहां के लोगों की जांच सुविधाओं या यहां तक कि स्वास्थ्य की बुनियादी सेवाओं तक कोई पहुंच ही नहीं है. यह बेहद डरावना दुष्स्वप्न है. मुझे इस बात का भरोसा है कि हम इस महामारी पर काबू पा लेंगे और सरकारें वायरस का फैलाव रोकने के हर संभव प्रयास करेंगी. लेकिन किस इंसानी कीमत पर? वहां किस कदर दुख और तकलीफ होगी, जहां परिवार अपने प्रियजनों को खो रहे हैं, जहां पर घर के एकमात्र कमाऊ सदस्य अपनी जान गवां रहे हैं, जहां बच्चे अनाथ हो रहे हैं? इन शब्दों को लिखना तक मुझे डराता है.
अब किसी पर तोहमत लगाने, कौन दोषी है या नहीं, का सवाल नहीं है. अहमियत रखने वाला एकमात्र सवाल है कि क्या हम अपनी गलतियों से कुछ सीखेंगे और आने वाले वक्त में बेहतर करेंगे. या फिर हमें अभी निगलने वाला (कोविड का) घातक उछाल दोबारा लौट आएगा, क्योंकि हम इतने अहंकारी हो गए हैं कि हमने यह मान लिया है कि हमने प्रकृति को अपने अधीन कर लिया है. हमें कुछ सीखना ही नहीं है.
Advertisement. Scroll to continue reading. और इसलिए यहां पर सबक हैं, जिन्हें हमें निश्चित तौर पर सीखना और गंभीरता से लेना चाहिए: पहला, क्या हम अपने वैज्ञानिक संस्थानों को दोबारा से मजबूत बनाएंगे, ताकि वे बोल सकें और ज्ञान व सार्वजनिक विश्वास की साख को हासिल कर सकें? इस तरह, सबूतों से किसी तरह का कोई समझौता नहीं होता है, भले ही, राजनेता उसे नहीं सुनते हैं, क्योंकि उनकी परस्पर विरोधी प्राथमिकताएं होती हैं.
दूसरा, क्या हम अपने सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे को खड़ा करने के लिए निवेश करेंगे? वेंटिलेटर के टोकन गिफ्ट भेजकर नहीं (जैसा कि खबरों में आया है कि वे काम करने की हालत में नहीं हैं), बल्कि वह सब करते हुए, जिसे किए जाने की जरूरत को हम सभी जानते हैं; स्वास्थ्य सुविधाओं में उपकरणों (हार्डवेयर) और पेशेवर निपुणता (सॉफ्टवेयर) लाने के लिए वास्तविक धन का निवेश करके. भारत के लिए शर्मिंदगी की बात यह वायरस नहीं है, बल्कि यह सच्चाई है कि हम स्वास्थ्य सेवाएं देने, यहां तक कि सामान्य समय में भी, के लिए बहुत कम उपाय करते हैं.
तीसरा, क्या हम तेजी से और इसकी जो भी कीमत आए, टीके खरीदेंगे, केंद्र सरकार के टेंडर के माध्यम से अच्छे से संभव है, ताकि हम जितना जल्द कर सकते हैं, उतना तेजी से सभी का टीकाकरण कर सकें? टीकों के निर्माण और खरीद की योजना से जुड़ी यह सारी दुविधाएं खत्म होनी चाहिए.
चौथा, क्या हम शासन के तौर-तरीके पर के बारे में भी गंभीर होंगे, ताकि लोगों तक काम पहुंचाया जा सके. हम सरकारी अधिकारियों और आम लोगों की उद्यमता और नवाचार के बारे में अध्ययन कर रहे हैं, जिन्होंने न केवल साहस, बल्कि वायरस के रास्ते को बदलने का तरीका खोजा है. यह सिर्फ इंसानी प्रयास के बारे में नहीं है; यह शासनके सर्वोत्तम उपायों को इस्तेमाल करने के बारे में भी है. यही है जो हमें सीखना चाहिए और आगे बढ़ाना चाहिए. यही हमारी उम्मीद है. लेकिन हमारी चुनौती इस सीख को हमेशा बनाए रखने की है. भूलने की नहीं है.
इस लेख को सीएसई की महानिदेशक और डाउन टु अर्थ पत्रिका की संपादक सुनीता नारायण ने लिखा है और यहां पर डाउन टु अर्थ से साभार प्रकाशित है।