लेख-विशेष

केंद्र सरकार में नीतिगत पंगुता देखने के लिए और कितने सबूत चाहिए?

याद कीजिए कि आपने ‘पॉलिसी पैरालिसिस” यानी नीतिगत पंगुता टर्म को आखिरी बार कब सुना था? शायद केंद्र में बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार के आने से पहले. तब ‘पॉलिसी पैरालिसिस” शब्द का कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपी सरकार के खिलाफ धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जा रहा था. इसका इस्तेमाल करने वालों में विपक्ष के नेताओं के साथ-साथ तमाम राजनीतिक और आर्थिक विश्लेषक भी शामिल थे.

कॉमनवेल्थ गेम्स (2010), 2-जी और कोलगेट जैसे घोटाले के आरोपों से घिरी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली यूपीए-2 सरकार पर ‘नीतिगत पंगुता’ के आरोप लगाए जा रहे थे. साथ में, कहा जा रहा था कि यूपीए-2 सरकार को नीतिगत स्तर पर लकवा मार गया है और वह कोई फैसला नहीं कर पा रही है. केंद्रीय अधिकारी फाइलों को लेकर बैठे हुए हैं, लेकिन वे उसे आगे नहीं बढ़ा पा रहे हैं. इन आधारों पर बड़ी संख्या में राजनीतिक और आर्थिक विश्लेषक देश में मध्यावधि चुनाव की जरूरत पर जोर दे रहे थे.

लेकिन, मई 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार बनने के बाद से ऐसा लगता है कि राजनीतिक और आर्थिक विश्लेषकों के बीच पॉलिसी पैरालिसिस टर्म ‘विलुप्तप्राय श्रेणी’ में चला गया है. ऐसा कहने के लिए कई आधार हैं.

मई, 2014 के बाद राष्ट्रीय स्तर पर कई ऐसे नीतिगत बदलाव हुए हैं, जिन्होंने पूरे सिस्टम को बदल कर रख दिया. चाहे वह नोटबंदी का फैसला हो या जीएसटी को लागू करने का. इनसे लगभग हर तबका प्रभावित हुआ है. लेकिन सबसे अधिक चोट आम जनता और छोटे व्यापारियों को लगी है, जिसकी मार वे अब तक सह रहे हैं.

नोटबंदी के चलते छोटे-मझोले उद्योग लड़खड़ा गए. इससे लाखों लोगों के हाथों से रोजगार छिन गया. देश इससे बाहर निकल भी नहीं पाया था कि एक जुलाई, 2017 को ‘एक देश-एक राष्ट्र’ के सपने को साकार करने वाली जीएसटी प्रणाली को पूरे देश में लागू कर दिया गया. एक बार फिर व्यापारी वर्ग को एक बड़ा झटका लगा था. यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य गुजरात के कारोबारियों ने बड़े पैमाने पर इसका विरोध किया.

वहीं, राज्य सरकारों को भी कर राजस्व के रूप में भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है. केंद्र सरकार ने राज्यों को पांच साल तक इस घाटे को कम करने के लिए मुआवजा देने की बात कही है. लेकिन नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी या कैग) ने अपनी एक रिपोर्ट में खुलासा किया है कि केंद्र सरकार ने जीएसटी प्रणाली को लागू करने के पहले दो साल में राज्यों की जीएसटी क्षतिपूर्ति के 47,272 करोड़ रुपये की रकम को अनुचित तरीके से रोक लिया था. ऐसा करके केंद्र सरकार ने एक तरफ जीएसटी कानून का उल्लंघन किया तो दूसरी तरफ राज्यों को उसके मुआवजे से वंचित कर दिया.

नोटबंदी और जीएसटी के बाद हम इस श्रेणी में पिछले साल कोरोना महामारी के चलते बिना तैयारी के लगाए गए लॉकडाउन के फैसले को भी शामिल कर सकते हैं. पिछले साल मार्च में केंद्र सरकार यह मानने से इनकार करती रही कि कोरोना वायरस से भारत भी प्रभावित होगा, जबकि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस मामले में सरकार को ध्यान देने के लिए भी कहा था. लेकिन सरकार अपनी जिद्द पर अड़ी रही.

लेकिन, मार्च के आखिरी हफ्ते में जब दिल्ली और मुंबई सहित देश के कई बड़े शहर इस बीमारी के गिरफ्त में आते दिखाई दिए तो सरकार ने अचानक पूरे देश में एक साथ लॉकडाउन लगाने का फैसला ले लिया. पूरा देश एक साथ ठप्प हो गया. केंद्र सरकार ने इसके लिए कोई तैयारी नहीं की. देश के अलग-अलग हिस्सों में काम करने वाले मजदूर जहां थे, वहीं पर फंस गए. उनके पास काम नहीं था. खाने और किराया चुकाने के लिए पैसे नहीं थे.

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सरकार की तरफ से आजीविका की ठोस नीति के अभाव में वे अपने परिवार और छोटे बच्चों के साथ सैकड़ों किलोमीटर पैदल, साइकिल और अन्य साधनों से निकल पड़े. जब वे अपने गृह राज्य पहुंचे तो वहां भी रोजगार का कोई पुख्ता इंतजाम नहीं मिला. इससे जुड़े सारे वादे और घोषणाएं कागजों तक सिमट कर रह गईं. एक बार फिर लाखों मजदूर बेरोजगार हो गए. सरकारी आंकड़ों से बाहर सैकड़ों लोगों ने सड़क और अन्य रास्तों पर अपना दम तोड़ दिया. इन सबके बावजूद किसी भी राजनीतिक विश्लेषक ने इस केंद्र सरकार को नीतिगत लकवा मारने का आरोप नहीं लगाया.

अब इसी नीतिगत पंगुता की चरम स्थिति ‘टीकाकरण अभियान’ में भी देखने को मिल रही है. इस साल की शुरुआत में टीकाकरण को अपनी उपलब्धियों में शामिल करने वाली केंद्र सरकार देश में कोरोना की दूसरी लहर के बीच चुप है. शुरुआत में केंद्र सरकार देश में पर्याप्त टीकों के उत्पादन और आयात को लेकर चुप्पी साधे रखी. जब कोरोना महामारी की दूसरी लहर के चलते प्रतिदिन लाखों लोगों के संक्रमित होने और हजारों लोगों की जान जाने लगी, तब केंद्र सरकार टीकों को लेकर अपने हाथ खड़े करते दिखी.

नीतिगत पंगुता का यह मामला यही पर खत्म नहीं होता है. देश में टीकों की भारी कमी के बावजूद 18 साल से अधिक उम्र के लोगों को टीका लगाने का ऐलान कर दिया गया. राज्यों के पास पर्याप्त टीके नहीं थे, उन्होंने केंद्र सरकार से इसकी मांग की. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने दावा किया कि देश में टीके की कोई कमी नहीं है. लेकिन इस दावे के कुछ हफ्ते बाद ही मामला यहां तक पहुंच गया कि दिल्ली और पंजाब सहित कुछ अन्य राज्यों ने 18 वर्ष से ज्यादा आयु के लोगों के लिए टीकाकरण अभियान को बंद कर दिया है. इतना ही नहीं, अभी भी 45 से अधिक उम्र वाले लोगों की एक बड़ी संख्या टीके की दूसरी खुराक से वंचित है और युवा कतार में हैं. देश की कुल आबादी में 18 साल से अधिक उम्र के लोगों की संख्या 90 करोड़ से अधिक है.

टीके की भारी किल्लत को भांपते हुए केंद्र सरकार ने बीते 19 अप्रैल, 2021 को राज्यों से कह दिया कि वे निजी कंपनियों से अपने स्तर पर टीके खरीद सकते हैं. ऐसा यह जानते हुए किया गया कि राज्यों को विदेश की निजी कंपनियों से सीधे टीके खरीदने का कोई अनुभव नहीं है. आजादी के बाद से ही देश में टीकाकरण की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की रही है. इसके बावजूद राज्यों सरकारों ने ग्लोबल टेंडर के जरिए विदेशी कंपनियों को आमंत्रित भी किया. लेकिन एक महीने के बाद इसके नतीजे ‘निल बट्टे सन्नाटा’ ही हैं.

इसकी वजह है कि उत्तर प्रदेश, पंजाब और दिल्ली सहित नौ राज्यों ने विदेशी कंपनियों से टीके खरीदने के लिए ग्लोबल टेंडर जारी किए थे. लेकिन टीका उत्पादन करने वाली कंपनियों ने राज्यों को टीके की आपूर्ति करने से साफ इनकार कर दिया है.

दैनिक भास्कर की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिकी टीका उत्पादक कंपनी फाइजर और मॉडर्ना ने कहा कि उन्होंने भारतीय राज्य सरकारों के आवेदनों पर विचार नहीं किया है. यहां तक कि इन कंपनियों ने राज्यों के अलग-अलग टेंडर पर सवाल उठाया है. उनका कहना है कि राज्यों के साथ काम करने में अधिक समय लगेगा. भारत ने पहले ही टीका का सौदा करने में देरी कर दी है. वहीं, फाइजर के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि दुनियाभर में यह नीति है कि सीधे केंद्र सरकार कंपनियों को टीके का ऑर्डर देती हैं. इससे काम करना आसान हो जाता है.

वहीं, देश में टीके की कमी के चलते पैदा हुई टीकाकरण संकट की स्थिति से निपटने के लिए अब केंद्र सरकार सक्रिय दिखने की कोशिश कर रही है. इसके तहत सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी (पीएसयू)- इंडियन इम्युनोलॉजिकल्स लिमिटेड (आईआईएल) और भारत इम्यूसनोलॉजिकल्स) एंड बॉयोलॉजिकल्सट लिमिटेड (बीआईबीसीओएल) के साथ महाराष्ट्र सरकार का उपक्रम- हाफकिन संस्थान ने भी भारत बायोटेक के साथ एक प्रौद्योगिकी हस्तांतरण समझौता किया है.

वहीं, केंद्र सरकार की मानें तो इम्यूनोलॉजिकल्स लिमिटेड सितंबर, 2021 से कोवैक्सीन का उत्पादन कर पाएगी, जबकि हाफकिन संस्थान और बीआईबीसीओएल नवंबर, 2021 से कोवैक्सीन का उत्पादन करने लगेंगी। दूसरी ओर, विदेशी कंपनियों का कहना है कि टीके को लेकर अगर केंद्र सरकार के साथ उनका सौदा तय होता है तो अगले साल (2022) की शुरूआत में ही वह भारत को वैक्सीन की सप्लाई कर पाएंगी, क्योंकि अन्य देशों के साथ पहले ही सौदा हो चुका है.

यानी देश में टीकाकरण अभियान इस साल के आखिर में या अगले साल की शुरूआत में ही सही से चल पाएगा. इन तमाम बातों से साफ-साफ दिख रहा है कि टीकाकरण के लिए भी केंद्र सरकार ने कोई नीतिगत मुस्तैदी नहीं दिखाई यानी ‘पॉलिसी पैरालिसिस” में कोई सुधार नहीं हुआ. और इसका खामियाजा आज पूरा देश भुगत रहा है. यह अलग बात है कि इतना कुछ होने के बावजूद राजनीतिक और अकादमिक गलियारे से केंद्र सरकार की नीतिगत पंगुता की चर्चा पूरी तरह गायब दिखती है.

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हेमंत कुमार पाण्डेय

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