एक स्वतंत्र देश के रूप में भारत के सभी नागरिकों को अपने राजनीतिक विचारों का चुनाव करने और उन्हें मानने की पूरी आजादी है. लेकिन जब कोई व्यक्ति सत्ता में हो तब उसकी विचारधारा के मायने व्यापक हो जाते हैं, क्योंकि तब वह देश के सामाजिक-आर्थिक वर्तमान और भविष्य को तय करने लगता है. आज की सरकारें भले ही सरकारी उपक्रमों को अक्षम बताकर उनमें अपनी हिस्सेदारी घटा रही हों, उन्हें निजी पूंजी के हाथों सौंप रही हों, लेकिन इंदिरा गांधी ने अपने कार्यकाल में तमाम उद्योगों और क्षेत्रों के राष्ट्रीयकरण पर जोर दिया था.
राष्ट्रीयकरण पर उठ रहे थे सवाल
हालांकि, तब संसद में उनकी औद्योगिक नीति की सफलता और सरकारी नियंत्रण में निजी क्षेत्र के उद्योगों के विकास की संभावनाओं और आशंकाओं को लेकर तीखे सवाल पूछे गए थे. 27 फरवरी, 1973 को लोक सभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा का जवाब देते हुए उन्होंने इसका भी जवाब दिया था. इसी भाषण में उन्होंने अपने राजनीतिक विचारों और नीतियों को भी सामने रखा था.
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पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा था, ‘हमारी औद्योगिक नीति बिल्कुल स्पष्ट है…सरकारी निर्णय 1956 के औद्योगिक नीति संकल्प के तहत लिये जाते हैं, जिसमें साफ तौर पर कहा गया है कि कौन से ऐसे क्षेत्र हैं, जिनमें दोनों (सरकारी और निजी क्षेत्र) अपना-अपना योगदान कर सकते हैं. उन्हें मिलने वाली प्राथमिकता में बदलाव के लिए समय-समय पर बदलाव किया जाता है, ताकि योजना निर्माण और विकास की जरूरतें पूरी की जा सकें.’
प्रबंधन ठीक नहीं होने पर राष्ट्रीयकरण
इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए बैंकों और खानों समेत कई संस्थाओं के राष्ट्रीयकरण के कदम उठाए थे. इसकी जरूरत पड़ने के कारण के बारे में उन्होंने कहा था, ‘अगर किसी कारखाने या खान का प्रबंध ठीक नहीं पाया जाता या उसमें आधुनिकीकरण के अभाव में और अधिक गिरावट आती है या पूंजी का पुनर्निवेश नहीं होता तो उसे सरकार अपने नियंत्रण में ले लेती है, जिससे उत्पादन का तारतम्य बना रहे, रोजगार के अवसर बरकरार रहे और उन्हें आधुनिक रूप दिया जा सके. लेकिन उस स्थिति में हौव्वा खड़ा किया जाता है कि हर चीज का राष्ट्रीयकरण किया जा रहा है. माननीय सदस्यों के मन में अगर ऐसी कोई अनिश्चितता है तो यह निजी क्षेत्र के कुछ लोगों की कारगुजारी है.’
समाजवाद में निजी क्षेत्र के अस्तित्व का सवाल
Advertisement. Scroll to continue reading. इंदिरा गांधी सरकार ने जिस तरह से निजी संस्थाओं या क्षेत्रों के राष्ट्रीयकरण की नीति अपनाई, उससे समाजवाद में निजी क्षेत्र के लिए जगह ही न होने जैसी बातें कही जाने लगीं थीं. लेकिन इसका जवाब देते हुए उन्होंने कहा था, ‘हमारा समाजवाद राष्ट्रीयकरण का पर्याय नहीं है. मैं यह कई बार कह चुकी हूं. अगर किसी चीज के सुसंचालन के लिए या सार्वजनिक हित में राष्ट्रीयकरण को जरूरी समझा जाएगा तो हम उसके लिए हिचकिचाएंगे नहीं. लेकिन हमारा विश्वास यह नहीं है कि राष्ट्रीयकरण केवल किसी कंपनी या कारखाने को हाथ में लेने के लिए किया जाए.’
‘समाजवाद की मेरी परिभाषा क्या है?’
इंदिरा गांधी ने कहा था, ‘एक माननीय सदस्य ने मुझसे जानना चाहा है कि समाजवाद की मेरी परिभाषा क्या है?…मेरे अनुसार समाजवाद का यह आशय नहीं है कि सरकार सभी काम अपने हाथों में ले ले. न हम ऐसी आशा करते हैं, न इसे वांछनीय मानते हैं. हमारी कोशिश तो यह है कि अवसरों की ऐसी समानता हो, जिससे हमारी करोड़ों की जनता अपनी सहायता खुद कर सके.’
‘मैं मार्क्सवादी नहीं हूं’
उद्योगों में सरकार की सीधी दखल बढ़ाने की वजह से पूंजीवाद के समर्थक पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को मार्क्सवादी बताने लगे थे. हालांकि, इसका जवाब देते हुए उन्होंने कहा था, ‘मैं मार्क्सवादी नहीं हूं. लेकिन मैं यह भी कहना चाहूंगी कि इस शब्द से मुझे भय नहीं लगता. मार्क्स ने कुछ ऐसी गहरी बातें कही हैं जिनकी सच्चाई को पूंजीवादी व्यवस्था के कुछ हामी (मानने वाले) भी स्वीकार करते हैं. मार्क्स या गांधी जैसे महापुरुषों को किसी एक वाद के दायरे में नहीं रखा जा सकता- उन्हें मार्क्सवाद या गांधीवाद की जंजीरों में नहीं जकड़ा जा सकता. उनके विचार इतने ठोस हैं कि ऐसी आलोचनाओं का उन पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है.’
निजीकरण का मकसद क्या है?
आज देश में उन्हीं संस्थाओं को अक्षम बताकर निजी क्षेत्र को सौंपा जा रहा है, जिन्हें इंदिरा गांधी के कार्यकाल में निजी क्षेत्र की अक्षमता की वजह से सरकारी नियंत्रण में लिया गया था, उनमें रोजगार के अवसरों को बचाए रखा जा सके. सवाल यह है कि आखिर अब ऐसा क्या हुआ कि सरकार अपने मजबूत प्रदर्शन करने वाले कल-कारखानों और संस्थाओं तक के संचालन में शामिल नहीं रहना चाहती, बल्कि उस पूंजी के हवाले करना चाहती है जिसका एक मात्र ध्येय मुनाफा कमाना है? क्या इसकी वजह से जो शोषण और कपटमारी सामने आएगी, वह सरकार के सामने अतिरिक्त जिम्मेदारियां नहीं पैदा करेंगी? निजी क्षेत्र में आए दिन होने वाली छंटनी बेरोजगारी की समस्या को और भयावह नहीं बना देगी?
(पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सारे बयान प्रकाशन विभाग से प्रकाशित उनके भाषणों से लिये गए हैं.)
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