लेख-विशेष

केंद्र सरकार पर संसद को बाईपास करने के आरोप क्यों लग रहे हैं?

मौजूदा केंद्र सरकार को इतिहास में सबसे तेजी से कानून बनाने वाली सरकार के रूप में याद किया जाएगा. हालांकि, संसदीय मामलों और प्रक्रियाओं के जानकार इस पर चिंता जता रहे हैं. उन्होंने सरकार पर संसद को बाईपास करने का आरोप लगाया है. इसको लेकर बीते महीने अंग्रेजी अखबार द इंडियन एक्सप्रेस में सीआईआरआई-साइंसेज के सीनियर रिसर्च फेलो और किंग्स इंडिया इंस्टीट्यूट में भारतीय राजनीतिक और समाजशास्त्र के प्रोफेसर क्रिस्टोफ जेफरलेट और इकिगाई लॉ से जुड़े सुहाग जुमले ने एक लंबा लेख लिखा.

एकतरफा संवाद का आरोप

लेख में कहा गया कि सैद्धांतिक तौर पर संसद राष्ट्रीय मुद्दों पर विचार करने, सरकार से सवाल पूछ कर उसकी जवाबदेही करने और देश के लिए जरूरी मुद्दों पर आम राय बनाने की जगह होती है. लेकिन फिलहाल इसकी कमी देखी जा रही है. इसमें विभिन्न प्रधानमंत्रियों के संसद में बोलने की भी तुलना की गई है. लेखकों ने रेडियो और सोशल मीडिया के जरिए होने वाली बातचीत को एकतरफा संवाद और असहज सवालों से बचने की कोशिश बताया है.

संसदीय समितियों की अनदेखी क्यों?

लेखकों ने कहा कि संसद में विधेयकों को जांच के लिए संसदीय समितियों को भेजने की संख्या नाटकीय तौर पर गिरी है. इन समितियों को 15वीं लोक सभा में 68 और 16वीं लोकसभा में 24 विधेयक भेजे गए थे. लेकिन 2020 में अब तक एक भी विधेयक किसी भी संसदीय समिति को जांच-पड़ताल के लिए नहीं भेजा गया है. जबकि इस दौरान संसद से कई ऐसे कानून पारित हुए हैं, जिनको लेकर विरोध था. इसे एक तरह से संसद को बाईपास करने के तौर पर देखा जा रहा है.

संसदीय समितियां ट्रेनिंग देती हैं

संसदीय व्यवस्था में बेहतर कानून निर्माण के लिए किसी विधेयक को संसदीय समितियों को भेजना अच्छा माना जाता है. इससे विधेयकों में मौजूद सारी कमियां दूर हो जाती हैं, वे ज्यादा प्रभावी बनते हैं और इससे सांसदों की कानून बनाने की ट्रेनिंग भी मिलती है.

हालांकि, हाल के वर्षों में बेहद खास विधेयकों, यहां तक कि अनुच्छेद-370 को हटाने या जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश बनाने संबंधी विधेयक भी संसदीय समिति को नहीं भेजे गए. बीते वर्षों में संयुक्त संसदीय समिति को भेजा गया आखिरी विधेयक द राइट टू फेयर कंपनसेशन एंड ट्रांसपेरेंसी इन लैंड एक्विजिशन, रिहैबिलिटेशन और रिसेटलमेंट (सेकंड अमेंडमेंट) बिल-2015 था.

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धन विधेयक का इस्तेमाल बढ़ा

शोधकर्ताओं ने संसद में विधेयकों के बहुत से हिस्सों को धन विधेयक के रूप में पारित कराने पर भी सवाल उठाया है. लेख के मुताबिक, ऐसे विधेयकों का धन विधेयक के मूल स्वरूप से कोई लेना-देना नहीं होता है, क्योंकि धन विधेयक तो टैक्स लगाने और सरकार के खर्च से जुड़े होते हैं. इसके बावजूद किसी विधेयक को महज इसलिए धन विधेयक घोषित कर दिया जाता है ताकि बहुमत की कमी वाले राज्य सभा को बाईपास किया जा सके. केंद्र सरकार ने आधार विधेयक को इसी तरह से पारित कराया. लोक सभा अध्यक्ष ने इसे धन विधेयक के रूप में सत्यापित किया और इससे राज्य सभा से प्रस्तावित किए गए सारे सुझाव अपने आप खारिज हो गए.

पूर्व केंद्रीय मंत्री और ‘प्रिपेरिंग फॉर डेथ’ के लेखक अरुण शौरी ने भी इंडियन एक्सप्रेस के साथ अपने हालिया इंटरव्यू में मौजूदा केंद्र सरकार द्वारा राज्य सभा को नजरअंदाज किए जाने का मुद्दा उठाया है.

विधेयकों पर सही से बहस न होने का आरोप

शोधकर्ता लेखकों की एक शिकायत यह भी है कि संसद में सामान्य विधेयकों पर बहुत अच्छी चर्चा नहीं होती है. सांसदों को या तो आखिरी वक्त में विधेयक का मसौदा दिया जाता है या फिर चर्चा के लिए समय को बहुत कम रखा जाता है. इस दौरान विधेयकों को लेकर विपक्ष के लाए संशोधनों को भी खारिज कर दिया जाता है. इसका मकसद विधेयकों के मूल स्वरूप को बनाए रखना होता है. सामान्य तौर पर अगर कोई बहस होती भी है तो वह बहुत औपचारिक और प्रक्रिया से बंधी होती है. शोधकर्ता लेखकों के मुताबिक, 2018 में तो संसद में बजट पर भी सही से चर्चा नहीं हुई थी. उन्होंने सितंबर में हुए संसदीय सत्र को इसका चरम बताया है.

कानून फटाफट बनाए जा रहे हैं

बीते साल मानसून सत्र में लोकसभा और राज्यसभा को मिलाकर कुल 40 विधेयक पेश किए गए थे. इनमें से चार विधेयकों को एक ही दिन में पारित कर दिया गया. लेकिन 2020 के मानसून सत्र में 22 विधेयकों में से तीन विधेयकों को एक ही दिन में पारित किया गया. इसमें कृषि उपज व्यापार और कारोबार (प्रोत्साहन और सुविधाएं) विधेयक-2020 भी शामिल था, जिसका विपक्षी सांसद विरोध कर रहे थे. इस विधेयक को लेकर सदन में हंगामे के बाद जब आठ सांसदों को निलंबित कर दिया गया और विपक्ष ने सदन की बाकी कार्यवाही का बहिष्कार कर दिया तो सत्ता पक्ष के सांसदों ने श्रम सुधार समेत 15 विधेयक फटाफट पारित कर डाले. लेख में सवाल पूछा गया है कि संसदीय प्रक्रिया में गिरावट तो सभी को दिखाई दे रही है, लेकिन क्या कोई इस पर ध्यान भी दे रहा है?

लोकतंत्र में रुझान घट क्यों रहा?

लेख में सीएसडीएस के सर्वे का हवाला भी दिया गया है जो 2017 में किया गया था. इसका नाम है- ‘द स्टेट ऑफ डेमोक्रेसी इन साउथ एशिया.’ यह बताता है कि 2005 से 2017 के बीच लोकतंत्र का समर्थन करने वालों के प्रतिशत में गिरावट आई है. सर्वे में शामिल उत्तरदाताओं में लोकतंत्र का समर्थन करने वाले 2005 में 70 फीसदी थे, जो 2017 में घटकर 63 फीसदी हो गए. इसके अलावा इसी समयवधि में लोकतंत्र से संतुष्ट रहने वालों की संख्या भी 79 फीसदी से घटकर 55 फीसदी हो गई, जो बड़ी गिरावट है.

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ताकतवर व्यक्ति की मांग बढ़ी

सरकार के प्रतिनिधिकारी स्वरूप का समर्थन करते हुए उत्तरदाताओं ने ताकतवर व्यक्ति और विशेषज्ञों को प्राथमिकता देने की बात कही. संसद और चुनाव को खत्म करने के बारे में पूछे जाने पर 52 फीसदी उत्तरदाताओं ने इसका समर्थन किया. इनमें 42 फीसदी स्नातक, जबकि 46 फीसदी उत्तरदाताओं की उम्र 25 साल से कम थी. वहीं, 54 फीसदी उत्तरदाता इस बात पर सहमत दिखे कि चुनाव और संसद को खत्म करके विशेषज्ञों को लोगों के पक्ष में फैसले करने की जिम्मेदारी दे देनी चाहिए.

लेखकों ने अपने लेख के अंत में लिखा है कि भारतीय संसद में ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है, क्योंकि लोकतंत्र की कीमत पर विशेषज्ञ नहीं लाए जा सकते, फिर भी महत्वपूर्ण सवाल है कि बिना प्रतिनिधिकारी संस्था के लोकतंत्र कैसे काम करेगा?

(द इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित लेख पर आधारित है.)

ऋषि कुमार सिंह

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