संसदीय समाचार

केंद्र सरकार आंकड़ों के मामले में इतनी कंगाल क्यों है या यह कोई रणनीति है?

केंद्र की मौजूदा सरकार अक्सर ‘न्यूनतम सरकार-अधिकतम शासन’ की बात दोहराती है. मगर तल्ख हकीकत है कि यह सरकार संसद में पूछे जाने वाले सवालों के जवाब ‘आंकड़े नहीं हैं’ या ‘कोई अध्ययन नहीं है’ कहकर देती है. उदाहरण के लिए केंद्र सरकार ने कोरोना संक्रमण से निपटने के लिए लॉकडाउन घोषित कर दिया. अनिश्चितता में घिरे प्रवासी मजदूरों ने शहरों से गांव-घर की ओर पैदल चलना शुरू कर दिया. लेकिन सभी मजदूर अपनी तय मंजिल पर नहीं पहुंच पाए. रास्ते में सैकड़ों मजदूर हादसे के शिकार हो गए. लेकिन जब केंद्र सरकार से ऐसे मजदूरों की जानकारी मांगी गई तो उसने साफ-साफ कह दिया कि उसके पास आंकड़े नहीं हैं.

सड़क दुर्घटनाओं का आंकड़ा है तो मजदूरों का क्यों नहीं?

दरअसल, लोक सभा में सांसद जसवीर सिंह, डॉ. मोहम्मद जावेद, डी. के. सुरेश डीन कुरियाकोस ने सरकार से पूछा था- (1) देश में लॉकडाउन के दौरान मार्च और अप्रैल 2020 के दौरान कितने मजदूर पैदल चलकर अपने घर गए? (2) देश में उक्त अवधि के दौरान सड़क घटनाओं में कितने प्रवासी मजदूर मारे गए? (3) प्रवासी मजदूरों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय ने क्या कदम उठाए हैं?

लोक सभा में सड़क परिवहन और राजमार्ग राज्य मंत्री जनरल वीके सिंह ने लिखित जवाब दिया. उन्होंने बताया कि लॉकडाउन के दौरान पैदल यात्रा करने वालों सहित 1.06 करोड़ से अधिक प्रवासी मजदूर अपने गृह राज्य लौटे. उन्होंने आगे बताया कि मार्च-जून के दौरान राजमार्गों सहित सभी सड़कों पर 81,385 सड़क दुर्घटनाएं हुईं, जिनमें 29,415 दुर्घटनाएं घातक थीं. इसके ठीक बाद राज्य मंत्री जनरल वीके सिंह ने कहा, ‘हालांकि, यह मंत्रालय लॉकडाउन के दौरान सड़कों दुर्घटनाओं में मारे गए प्रवासी श्रमिकों के संबंध में अलग से डेटा नहीं रखता है.’ अब सवाल उठता है कि जब सरकार सड़क हादसों की जानकारी जुटा सकती है तो उसमें मारे गए लोगों की सूचना क्यों नहीं इकट्ठा कर सकती है?

बच्चों पर लॉकडाउन के बुरे असर का कोई अध्ययन नहीं

केंद्र सरकार के पास आंकड़े के ना होने का यह कोई अकेला मामला नहीं है. लॉकडाउन में जब जरूरी सेवाओं को छोड़कर सारी गतिविधियों पर रोक लग गई तो बच्चे, बड़े और बूढ़े सभी घरों में कैद हो गए. इसका सबसे बुरा असर बच्चों पर पड़ा, उनकी सारी शारीरिक गतिविधियां और खेलकूद बंद हो गया. मानसून सत्र में लोक सभा में सांसद बालूभाऊ उर्फ सुरेश नारायण धानोरकर ने केंद्र सरकार से पूछा- (1) क्या कोविड-19 लॉकडाउन का बच्चों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर कोई विपरीत प्रभाव पड़ा है? (2) अगर हां तो उसका ब्यौरा क्या है? (3) बच्चों और अभिभावकों के बीच मानसिक स्वास्थ्य की जागरूकता फैलाने और कोरोना वायरस के डर को दूर करने के लिए क्या कदम उठाए गए हैं? इस पर केंद्रीय परिवार कल्याण राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने बताया कि सरकार ने बच्चों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर लॉकडाउन से पड़े प्रभाव का मूल्यांकन करने वाला कोई अध्ययन नहीं कराया है.  उन्होंने बताया कि  उनके मंत्रालय ने मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक हेल्पलाइन नंबर जारी किया था. सवाल उठता है कि लगभग 130 करोड़ की आबादी वाले देश में एक हेल्पलाइन नंबर से कितने बच्चों को मानसिक स्वास्थ्य संबंधी सलाह मिल पाई होगी?

लॉकडाउन में खुदकुशी बढ़ने की भी जानकारी नहीं

लोकसभा में सांसद किरण खेर ने पूछा कि बीते कुछ महीनों के दौरान आत्महत्या के मामलों में कितनी बढ़ोतरी हुई है, अगर हुई है तो इसकी क्या वजह है, क्या महामारी के कारण अनेक लोग मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना कर रहे हैं? इस सवाल के जवाब में केंद्रीय परिवार कल्याण राज्यमंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने कहा कि सरकार ने खुदकुशी या मानसिक स्वास्थ्य पर कोविड-19 महामारी का मूल्यांकन करने वाला कोई अध्ययन नहीं कराया है.

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निजी अस्पतालों की मनमानी का भी आंकड़ा नहीं

लोकसभा में कोरोना महामारी के दौरान सरकार से रियायती दरों पर जमीन लेने वाले अस्पतालों की मनमानी को लेकर भी सवाल पूछा गया. सांसद पी वेलुसामी ने पूछा कि कि क्या निजी अस्पताल ओपीडी मरीजों के लिए तय कोटे के बिस्तरों का भुगतान वाली सेवाओं के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं, क्या बिस्तर न खाली होने पर आरक्षित कोटे की सीटों को भुगतान वाले बिस्तरों में बदल दिया गया है, अगर हां तो सरकार के पास अस्पताल के दावों की निगरानी करने वाला कोई तंत्र है? इसके जवाब में केंद्रीय राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने कहा कि संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक स्वास्थ्य राज्य का विषय है, इसलिए केंद्र सरकार इस बारे में कोई आंकड़े नहीं जुटाती है. सरकार भले ही स्वास्थ्य को राज्यों विषय बता रही हो, लेकिन कोरोना महामारी के समय एपिडेमिक एक्ट लागू है, जो मूलत केंद्र सरकार की शक्तियों के अधीन आता है.

जनहित याचिकाओं की संख्या का भी पता नहीं

इन सवालों के विषय कोरोना महामारी से जुड़े थे तो संभव है कि सरकार आंकड़े न जुटा पाई हो. लेकिन आंकड़े जुटाने के लिहाज से दूसरे मामले में भी यही हाल है. जब लोकसभा में सरकार से सवाल पूछा गया कि क्या उसके पास मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए दायर होने वाली जनहित याचिकाओं का ब्यौरा है? क्या मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए दायर होने वाली पीआईएल को कोई महत्व दिया जाता है यदि हां तो उसका व्यवहार क्या है, बीते तीन सालों में और मौजूदा वर्ष के दौरान सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में कितनी जनहित याचिकाएं दाखिल की गई, कितने मामलों का निपटारा किया गया, इनके लंबित रहने के क्या कारण है, क्या सरकार को जनहित याचिकाओं में अनावश्यक मुकदमे दर्ज किए जाने के बारे में जानकारी है?

लोकसभा में इन सवालों को सांसद जी सेल्वम, धनुष एम कुमार, सीएन अन्नादुरई, गजानन कीर्तिकर और गौतम सिगामणि पोन ने पूछा. लेकिन इस को लेकर केंद्र सरकार के पास कोई आंकड़ा नहीं था. केंद्रीय विधि और न्याय मंत्री श्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि इस बारे में सूचना जुटाई जा रही है,  सदन के पटल पर रख दी जाएगी. सवाल उठता है कि जब देश की अदालतें लंबित मामलों के बोझ से कराह रही हों. तब सरकार के पास ऐसे मुकदमों की जानकारी क्यों नहीं है जो जनहित के नाम पर स्वहित की पूर्ति के लिए लगाए जा रहे हों?

केंद्र सरकार के पास अपने मंत्रालयों के ही आंकड़े नहीं हैं

न्यायपालिका तो सरकार से अलग है, लेकिन केंद्र सरकार के पास तो अपने ही विभागों के आंकड़े नहीं है. लोक सभा में सांसद उपेंद्र सिंह रावत ने कहा कि केंद्र सरकार के मंत्रालयों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिला कर्मचारी की संख्या कितनी है? क्या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग की महिला कर्मचारियों की भर्ती के लिए कोई विशेष अभियान चलाने का प्रस्ताव है, यदि हां तो इसका ब्यौरा क्या है? यदि नहीं तो इसकी वजह क्या है? इन सवालों का केंद्रीय लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय के राज्य मंत्री डॉक्टर जितेंद्र सिंह ने जवाब दिया. उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार अपनी सेवाओं में लैंगिक आधार पर आंकड़ों को अलग से नहीं जुटाता है. यह तो हैरान करने वाली बात है कि सरकार के पास अपने ही कर्मचारियों की जानकारी कैसे नहीं है, जबकि नियुक्ति से लेकर प्रमोशन तक कर्मचारियों की सामाजिक पृष्ठभूमि की जानकारी ली जाती है.

बीपीएल परिवारों का 9 साल पुराना आंकड़ा

आंकड़ों को लेकर केंद्र सरकार की लापरवाही का एक और नमूना देखे. लोक सभा में सांसद कृष्ण पाल सिंह यादव ने पूछा कि क्या सरकार के पास गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले (बीपीएल) परिवारों की संख्या का राज्यवार आंकड़ा हैं? क्या बीपीएल परिवारों की संख्या में बीते दो सालों में कोई कमी आई है? इसका जवाब केंद्रीय सांख्यिकी राज्यमंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने दिया. उन्होंने बताया कि साल 2011-12 (नौ साल पहले) में एनएसएस के 68वें दौर के सर्वे के आधार पर योजना आयोग ने गरीबी रेखा और गरीबी अनुपात का आकलन किया था. इसके मुताबिक राष्ट्रीय स्तर बीपीएल परिवारों की संख्या लगभग 22 फीसदी (21.9%) थी.  चौंकाने वाली बात है कि सांसद कृष्ण पाल सिंह यादव ने जब बीते दो साल में बीपीएल परिवारों की संख्या घटने की जानकारी मांगी थी तो सरकार लगभग नौ साल पुराना आंकड़ा क्यों बता रही है? इसका सीधा मतलब है कि सरकार ने इस दौरान गरीबी रेखा  और बीपीएल परिवारों की संख्या को लेकर कोई आंकड़े ही नहीं जुटाए हैं.

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किसानों की आमदनी कितनी बढ़ी, नहीं पता

गरीबों की संख्या ही नहीं, किसानों की आमदनी बढ़ने के आंकड़ों के मामले में भी सरकार का यही हाल है. उसके पास अपने प्रयासों से खेती की लागत घटने के आंकड़े तो हैं, लेकिन इसका जवाब नहीं है कि इससे किसानों की आमदनी कितनी बढ़ी है? अब सवाल और चिंता है कि जब सरकार के पास जरूरी आंकड़े ही नहीं हैं तो उसकी बनाई नीतियों सटीक और सफलता हासिल करने वाली कैसे हो सकती हैं?

आंकड़ों की कमी का खामियाजा

क्या आंकड़ों की कमी ही वजह नहीं है कि सरकार को नोटबंदी, जीएसटी और लॉकडाउऩ जैसे फैसलों से जुड़े दिशा-निर्देशों को बार-बार बदलना पड़ा? न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन का नारा देने वाली सरकार को अपने दिशानिर्देशों में बार-बार बदलाव करने पड़े. अब सवाल उठता है कि क्या सरकार जवाबदेही से बचने के लिए आंकड़ों को जुटाने से बच रही है या यह खामी बहुत तेज फैसले लेने वाली सरकार साबित करने से उपजी है? वजह जो भी हो लेकिन केंद्र सरकार के पास आंकड़ों की यह तंगी जनता के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक विकास को खतरे में डाल सकती है.

ऋषि कुमार सिंह

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