कोरोना महामारी के चलते देश में लॉकडाउन लगा तो ऑनलाइन कामकाज या इंटरनेट का इस्तेमाल बढ़ गया. बच्चों की पढ़ाई से लेकर इलाज और कारोबार तक सब कुछ ऑनलाइन होने लगा. लेकिन देश का एक ऐसा हिस्सा है जहां महामारी का पूरा प्रकोप है, लेकिन उसे ऐसी कोई सुविधा हासिल नहीं है. यह हिस्सा धरती का स्वर्ग कहा जाने वाला कश्मीर है, जहां हाईस्पीड इंटरनेट सेवा पर रोक बच्चों की पढ़ाई से लेकर इलाज और कारोबार सब कुछ प्रभावित कर रही है. यहां बीते 14 महीनों से हाई स्पीड इंटरनेट सेवा बंद है. कश्मीर में बीते साल अनुच्छेद-370 को खत्म करने से एक दिन पहले यानी 3 अगस्त को इंटरनेट सेवा पर रोक लगाई गई थी, जो चार मार्च 2020 तक चालू रही. इसके बाद केवल 2जी इंटरनेट सेवा को बहाल किया गया है. सरकार ने एक बार फिर 11 दिसंबर तक हाईस्पीड इंटरनेट सेवा पर पाबंदी को बढ़ा दिया है.
संसदीय समिति ने सरकार से मांगा जवाब
लोक सभा सदस्य शशि थरूर की अध्यक्षता वाली सूचना तकनीक मामलों की संसदीय समिति बुधवार को केंद्रीय गृह मंत्रालय से इस पर जवाब मांगा. समिति ने सरकार से पूछा कि आखिर कश्मीर में अब तक इंटरनेट सेवा को क्यों नहीं बहाल किया गया है? गृह मंत्रालय ने इस सवाल का जवाब देने से इनकार कर दिया. स्क्रॉल में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने कहा कि यह मामला राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा है और अदालत में विचाराधीन है, इसलिए इस पर बात नहीं की जा सकती है. अगस्त में भी संसदीय समिति को इस मामले को इन्हीं आधारों पर अपने विचाराधीन विषयों की सूची से हटाना पड़ा था.
क्या सरकार जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश नहीं मान रही?
गृह मंत्रालय ने कहा कि केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर समेत विभिन्न राज्यों में इंटरनेट सेवाओं पर रोक लगाने या हटाने का ब्यौरा नहीं रखती है. लेकिन यह दलील तो जिंदा मछली निगलने की कोशिश है. शायद सरकार भूल गई कि बीते साल यानी 2019 में पांच अगस्त के बाद से जम्मू-कश्मीर पूर्ण प्रदेश नहीं, बल्कि केंद्र शासित प्रदेश है, क्योंकि केंद्र सरकार संविधान के अनुच्छेद-370 को रद्द करने के साथ इसे दो हिस्सों में विभाजित कर चुकी है. केंद्र शासित प्रदेश होने का मतलब है कि उसका सारा कामकाज केंद्र सरकार की निगरानी में चल रहा है. यहां तक कि स्थानीय प्रशासन का कोई फैसला चाहे इंटरनेट बंद करना हो या कोई और, केंद्र सरकार की जवाबदेही के दायरे में आता है. फिलहाल, यह मामला अदालत में विचाराधीन है.
कश्मीर के मामले से इतनी दूरी क्यों?
कश्मीर में इंटरनेट के मुद्दे पर पहले भी विवाद हो चुका है. अगस्त में भी सूचना तकनीकी मामलों की संसदीय समिति को इसे अपने एजेंडे से हटाना पड़ा था. इसके ठीक बाद लोकसभा स्पीकर ओम बिरला ने सभी संसदीय समितियों के अध्यक्षों को निर्देश दिया था कि वह ऐसे मामलों को अपनी चर्चा में शामिल न करें जो अदालतों में विचारधीन हैं. लोक सभा की कार्यवाही की नियमवली कहती है कि संसद में उन मामलों या विषयों पर चर्चा नहीं हो सकती है, जो अदालत में लंबित हैं. हालांकि, संसदीय परंपरा में इस नियम को हर मौके पर नहीं माना गया है.
संसद को सभी विषयों पर चर्चा करने का हक है
Advertisement. Scroll to continue reading. दरअसल, अदालत में लंबित मामलों पर संसद में बहस को रोकने की वजह अदालत में उस मामले की सुनवाई को प्रभावित होने से बचाना है. लेकिन भारतीय संसद में घोटालों और भ्रष्टाचार को छोड़कर अदालत में लंबित अन्य विषयों में लोक महत्व के आधार पर बहस होती रही है. इसकी सीधी वजह है कि संसद, देश की सर्वोच्च विधायी संस्था है और उसे किसी भी मुद्दे पर चर्चा करने का अधिकार हासिल है. जैसा कि भारत के पहले लोकसभा अध्यक्ष जीवी मावलंकर ने कहा था, ‘पीठ (chair) यह सुनिश्चित करेगी कि सदन में कोई भी बहस अदालत को लेकर पूर्वाग्रही नहीं होनी चाहिए. इसके अलावा इस बात का भी ख्याल रखेगी कि सदन को लोक महत्व के मुद्दों पर तत्काल चर्चा करने से भी न रोका जाए.’ अब सवाल उठता है कि क्या देश के किसी हिस्से में 14 महीने से हाई स्पीड इंटरनेट पर पाबंदी और लाखों लोगों की जिंदगी पर इसका बुरा असर संसद या संसदीय समिति में तत्काल बहस करने लायक लोक महत्व का मुद्दा है या नहीं?
विस्तार से यहां पढ़ें – क्या संसद कोर्ट में विचाराधीन मुद्दों पर चर्चा कर सकती है?
इंटरनेट बंद, लेकिन आतंकी वारदातें चालू हैं
केंद्र सरकार का बार-बार कहना है कि इंटरनेट चालू होने से आतंकियों को दुष्प्रचार करने और राष्ट्रीय सुरक्षा को जोखिम में डालने का मौका मिल जाएगा. लेकिन आंकड़े बताते हैं कि जम्मू-कश्मीर में 2020 में इस दशक की सबसे ज्यादा आतंकी वारदात दर्ज की गई है. इसके अलावा आए दिन सुरक्षा बलों और आतंकियों के बीच मुठभेड़ जारी है. इसका सीधा मतलब है कि इंटरनेट पर पाबंदी का आतंकी घटनाओं को रोकने से कोई सीधा रिश्ता नहीं बन पाया है. तब क्या सरकार केवल जम्मू-कश्मीर के मुद्दे पर चर्चा करने और अपनी जवाबदेही से बचने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद का इस्तेमाल कर रही है? क्या इससे जम्मू-कश्मीर की जमीनी हकीकत बदल जाएगी? सरकार जम्मू-कश्मीर के नागरिकों को देश के दूसरे नागरिकों के बराबर अधिकार और सुविधाएं देने से पीछे क्यों भाग रही है?