सवाल-जवाब

देश के नागरिकों को समय पर न्याय पाने की गारंटी क्यों नहीं है?

भारत की अदालतों में उसकी अवमानना के मामले बढ़ने लगे हैं. पहले वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण के ट्वीट को सु्प्रीम कोर्ट ने अपनी अवमानना मान लिया. विवाद निपटा तो अब अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल को लगता है कि कॉमेडियन कुणाल कामरा की टिप्पणियां सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करने वाली हैं. अब देखना होगा कि इस पर सुप्रीम कोर्ट का क्या मानना है? फिलहाल अदालतों में लंबित मामलों की जो संख्या है, वह कहीं से भी अदालतों का मान बढ़ाने वाली नहीं है.

सरकार ने मानसून सत्र में क्या कहा

संसद के मानसून सत्र में केंद्र सरकार ने अदालतों में लंबित मामलों का जो आंकड़ा पेश किया है, वह हैरान करने वाला है. लोक सभा में सांसद परितभाई सवाभाई पटेल, जसवंत सिंह सुमन भाई भाभोर, गीताबेन वी राठवा, नारण भाई काछड़िया, शांतनु ठाकुर ने 21 सिंतबर को यह मुद्दा उठाया. उन्होंने सरकार से पूछा कि (1) उच्च न्यायालयों और निचली अदालतों में कुल कितने मामले लंबित है? (2) अगर ग्राम पंचायत स्तर पर ग्रामीण न्यायालय बनाकर उन्हें सीमित अधिकार दिए जाएं तो क्या लंबित मामलों के बोझ को घटाया जा सकता है?(3) अगर हां तो सरकार की तरफ से ऐसी अदालतें बनाने की क्या संभावना है? (4) अगर नहीं, तो इसके क्या कारण हैं? [लोक सभा | अतारांकित प्रश्न-1827]

इलाहाबाद हाई कोर्ट में सबसे ज्यादा मामले लंबित

सांसदों के इन सवालों का लिखित जवाब केंद्रीय विधि और न्याय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने दिया. इसके मुताबिक, देश की जिला और अधीनस्थ न्यायालयों में कुल तीन करोड़ 44 लाख से भी ज्यादा मामले लंबित हैं. वहीं हाई कोर्ट में लंबित मामलों की संख्या भी 51 लाख से ज्यादा है. इनमें सिविल और फौजदारी दोनों तरह के मामले शामिल हैं. लंबित मामलों के लिहाज से इलाहाबाद हाई कोर्ट सबसे ऊपर है. इनमें 10-10 साल से ज्यादा समय से लंबित मामले भी शामिल हैं.(देखें टेबल-1)

इतने मामले लंबित होने की वजह क्या है

21 सितंबर को ही केंद्रीय विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद ने अदालतों में मामले लंबित होने की वजहों की जानकारी दी. उन्होंने कहा कि अदालतों में मामलों को निपटाना प्रारंभिक तौर पर न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में आता है. उन्होंने आगे कहा कि अदालतों में मामलों के लंबित होने के पीछे जजों की पर्याप्त संख्या, सहायक कर्मचारियों की उपलब्धता, भौतिक ढांचा, मामले की जटिलता, साक्ष्यों की उपलब्धता, जांच से जुड़े पक्षों का सहयोग और नियमों व प्रक्रियाओं के उचित पालन जैसे कारण जिम्मेदार होते हैं. इसी जवाब में केंद्रीय मंत्री ने बताया कि लंबित मामलों की संख्या घटाने के लिए अधीनस्थ न्यायालयों में ई-कोर्ट मिशन मोड परियोजना चलाई जा रही है. दूसरे चरण में लक्ष्य के मुताबिक 16,845 अधीनस्थ न्यायालयों का कंप्यूटरीकरण किया जा चुका है.

लेकिन जजों के पद खाली क्यों हैं?

हालांकि, केंद्रीय विधि और न्याय मंत्रालय के न्याय विभाग की वेबसाइट पर मौजूद जानकारी के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट से हाई कोर्ट तक जजों के सैकड़ों पद खाली पड़े हैं. एक नवंबर 2020 तक सुप्रीम कोर्ट में जजों के चार पद खाली थे. यानी 34 में से सिर्फ 30 जजों की ही नियुक्ति है. वहीं, हाई कोर्ट में जजों के कुल 1079 पदों में से 406 पद खाली हैं. इसमें सबसे ज्यादा पद इलाहाबाद हाई कोर्ट में खाली हैं, जहां लंबित मामलों की संख्या भी सबसे ज्यादा है. कई हाई कोर्ट में तो जजों के लगभग आधे पद खाली हैं. (देखें टेबल-2)

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अब तक कितने ग्राम न्यायालय बने

निचले स्तर पर मामलों को तेजी से निपटाने के लिए ग्राम न्यायालय बनाने के कदम को कारगर माना जा रहा है. लेकिन इनके गठन की रफ्तार भी बहुत सुस्त बनी हुई है. इस बारे में केंद्रीय विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि नागरिकों को उनके दरवाजे पर न्याय मुहैया कराने और लंबित मामलों की संख्या कमी लाने के लिए केंद्र सरकार ने ग्राम न्यायालय अधिननियम-2008 को पारित किया. इसके तहत मध्यवर्ती पंचायत के स्तर पर ग्राम न्यायालय बनाए जाने हैं. राज्य सरकारें अपने-अपने हाई कोर्ट से बात करके ग्राम न्यायालयों के गठन के लिए उत्तरदायी हैं. अब तक 12 राज्यों में 395 ग्राम न्यायालयों के गठन की अधिसूचना जारी की गई. इनमें से 225  ग्राम न्यायालय काम कर रहे हैं. केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने बताया कि जिला व सत्र न्यायालय और अधीनस्थ न्यायालयों में जो मामले ग्राम न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र आते हैं, उनको इन्हें सौंपा जा सकता है.

ग्राम न्यायालय के लिए केंद्र सरकार मदद देती है 

अपने लिखित जवाब में केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने यह भी बताया कि ग्रान न्यायालय बनाने के लिए केंद्र सरकार राज्यों को वित्तीय सहायता देती है. इसके तहत प्रति ग्राम न्यायालय अधिकतम 18 लाख रुपये का अनुदान दिया जाता है. इसके अलावा ग्राम न्यायालयों को पहले तीन साल तक चलाने के लिए सालाना तीन करोड़ 20 लाख रुपये भी दिए जाते हैं.

लेकिन सबसे अहम सवाल यह है कि इतना सब कुछ करने के बावजूद आखिर अब तक 225 ग्राम न्यायालयों में ही कामकाज क्यों शुरू हो पाया? क्या न्यायिक सुधार के लिए राज्यों और न्यायपालिका को जिम्मेदार बता देना ही काफी है? आखिर सरकार सुप्रीम कोर्ट से लेकर हाई कोर्ट तक जजों के खाली चल रहे इतने पदों को भरने में सरकार कोई मुस्तैदी क्यों नहीं दिखा रही, जबकि इससे जुड़ी पहल उसके अपने अधिकार क्षेत्र में आती है.

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ऋषि कुमार सिंह

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