लोकतंत्र में आंदोलन होते रहना चाहिए, क्योंकि यह सत्ता पर जनता के मध्यावधि नियंत्रण का उपाय है. लोकतंत्र में सरकारें जनता के प्रति जवाबदेह होती हैं, संपूर्ण जनता के प्रति, न कि सिर्फ उनके प्रति जिनके मतों से चुनकर आई हैं. जब-जब सरकारें यह बात भूलने लगती हैं, जनता को आंदोलन करके या सामूहिक जुटाव से उसे यह बात याद दिलानी पड़ती है. यह एक तरह का अहिंसात्मक हथियार है. इसका वही मकसद है, जिसके लिए अमेरिका अपने नागरिकों के हाथों में हथियार देता है. इसका सिद्धांत है कि अगर सरकार जनता के हितों को सुरक्षित न रखे तो जनता को ऐसी सरकार को उखाड़ फेंकने का पूरा अधिकार है.
असल में यह जॉन लॉक का ‘सामाजिक संविदा सिद्धांत’ (Social Contract Theory) है, जिसके आधार पर अमेरिका ने अपनी आजादी की लड़ाई लड़ी थी. इसे सभी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में स्वीकार किया गया है.
किसानों के हाथ खाली रह गए
अब लौटते हैं शीर्षक में आए सवाल पर. केंद्र के कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन को गौर से देखा जाए तो यह अचानक या रातोंरात या बेवजह नहीं खड़ा हुआ है, बल्कि यह धीरे-धीरे आगे बढ़ा है और ठोस तर्क पर आधारित है. यह एक-दो प्रदेशों से नहीं, बल्कि देश भर के किसानों से जुड़ा है. केंद्र सरकार ने कोरोना से निपटने के लिए मार्च में पूरे देश में लॉकडाउन घोषित कर दिया. इससे खेती को बाहर रखा, लेकिन यातायात और वस्तुओं की खपत गिरने से किसानों को जल्दी खराब होने वाली फल-फूल, साग-सब्जी और दूध जैसे उत्पादों का भारी नुकसान उठाना पड़ा. इस दौरान केंद्र सरकार ने कई लाख करोड़ रुपये के पैकेज देेने के दावे किए, लेकिन किसानों को लॉकडाउन से हुए नुकसान की भरपाई के लिए कुछ भी हाथ नहीं आया. सिवाय इसके कि वे सस्ता कर्ज ले सकते हैं. वैसे यह लू लगने से परेशान व्यक्ति को गर्म पानी पीने की सलाह देने जैसी सलाह थी.
पंजाब और हरियाणा के किसानों को ज्यादा नुकसान
यह हकीकत है कि सरकार की न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी का लाभ पंजाब और हरियाणा के किसानों को ज्यादा मिलता है. इसकी दो वजह हैं- एक तो वहां पर सरप्लस प्रोडक्शन यानी अपनी खपत के अतिरिक्त उत्पादन बहुत ज्यादा है, यानी यहां के किसानों के पास बेचने के लिए अनाज है. दूसरा कि अनाज को खरीदने की व्यवस्था यानी मंडियां चाक-चौबंद हैं.
इसे ऐसे समझिए कि जितना धान या गेहूं खरीदने में उत्तर प्रदेश सरकार तीन महीने का समय लगाती है, इन राज्यों में यह काम एक महीने में ही हो जाता है. यानी किसी भी तरह से अगर एमएसपी पर खरीद को चोट पहुंचती है तो इन दोनों राज्यों के किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा. लेकिन ऐसा नहीं है कि जिन राज्यों में एमएसपी पर इतनी ज्यादा खरीद नहीं होती है, वहां पर इसके खत्म होने का कोई असर नहीं पड़ेगा.
दरअसल, एमएसपी पर खरीद किसी भी समय में फसलों की एक न्यूनतम कीमत निर्धारित करती है. जिन जगहों पर फसलों की एमएसपी पर खरीद होती है, वहां पर खुले बाजार में सरकारी खरीद वाली फसलों के दाम सामान्य तौर पर एमएसपी के मुकाबले बहुत कम नहीं होते हैं.
Advertisement. Scroll to continue reading. एकाधिकार कायम होने का खतरा
जब पूरा देश लॉकडाउन से उबरने की कोशिश कर रहा था, तब केंद्र सरकार ने संविधान के आपातकालीन प्रावधान का इस्तेमाल करके खेती-किसानी से जुड़े तीन अध्यादेश लागू कर दिए. ये अध्यादेश खेत से लेकर बाजार तक की मौजूदा व्यवस्था में कॉरपोरेट या संगठित बड़ी पूंजी की दखल का रास्ता खोलने वाले हैं.
संगठित बड़ी पूंजी कैसे और किस कदर जनता के लिए घातक है, इसे रिलायंस जियो के बाजार में उतरने से पहले और बाद के हालात की तुलना करके समझा जा सकता है. उसने पहले सेवाओं को फ्री में दिया गया, फिर जब बाजार में प्रतिद्वंदी खत्म हो गए या गिने-चुने ही बच गए, तब मनमाना दाम वसूलने की शुरुआत कर दी. बड़ी पूंजी की एकाधिकार कायम करने की यह प्रवृत्ति अन्य क्षेत्रों में भी मौजूद है. इसलिए यह कहना कि कृषि क्षेत्र में इसके आने से एकाधिकार का खतरा नहीं है, कबूतर की तरह आंख बंद करके बिल्ली के भागने की उम्मीद करने जैसा है.
लोकतंत्र में असहमतियों की अनदेखी क्यों
संगठित पूंजी की दखल के खतरे और सरकार के भविष्य के रुख को भांपते हुए पंजाब और हरियाणा के किसानों ने अध्यादेशों के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया. जुलाई में पहला बड़ा आंदोलन हुआ, फिर छिटपुट आंदोलनों के साथ सरकार को इस बात के लिए सचेत किया गया कि वह इन अध्यादेशों को संसद की मंजूरी दिलाने में जल्दबाजी न दिखाए. लेकिन, सरकार ने तब इस पर ध्यान नहीं दिया.
कोरोना संकट के बीच संसद का मानसून सत्र बुलाया गया. तब तक किसान आंदोलन एक संगठित आकार ले चुका था. हालांकि, इसमें आक्रामकता नहीं थी, क्योंकि उसे भरोसा था कि एक तो सरकार इसे संसद में पेश करने की जल्दबाजी नहीं दिखाएगी और अगर ऐसा करेगी तो यह पारित नहीं हो पाएगा.
लेकिन केंद्र सरकार ने न तो अध्यादेश लाने से पहले किसानों और विपक्ष को, यहां तक कि सहयोगी दलों को भरोसे में लिया, और न ही अध्यादेशों की जगह लेने वाले विधेयकों को संसद में पेश करने से पहले. इसका नतीजा हुआ कि विपक्ष को छोड़िए शिरोमणि अकाली दल जैसे गठबंधन के पुराने सहयोगी दल ने न केवल समर्थन देने से इनकार कर दिया, बल्कि संसद से लेकर सड़क तक विरोध शुरू कर दिया. इतना ही नहीं, पार्टी से केंद्र सरकार में मंत्री हरसिमरत कौर ने इस्तीफा दे दिया.
ध्वनिमत का इस्तेमाल क्यों
लोक सभा में सत्ता पक्ष के पास पर्याप्त संख्या थी तो विधयेकों को पारित कराने में कोई दिक्कत नहीं हुई. राज्य सभा में संख्या कम थी और गठबंधन के सहयोगी दलों के छिटकने का भी अंदेशा था. लेकिन यहां पर विधेयक को पारित कराने की विवादित या लोकतंत्र को खतरे में डालने वाली प्रक्रिया का इस्तेमाल किया गया. सदन में विधेयकों को ध्वनिमत से पारित करने पर सभी सदस्यों की सहमति नहीं थी. लेकिन सभापति ने बगैर मत विभाजन कराए इन्हें पारित कर दिया. विरोध में विपक्षी दलों ने हंगामा करते हुए सत्र की बाकी कार्यवाही का बहिष्कार कर दिया.
Advertisement. Scroll to continue reading. इससे पहले विपक्षी सांसदों ने जमकर विरोध किया, जिसे अनुशासनहीनता बताते हुए आठ सांसदों को सत्र की बाकी कार्यवाही के लिए सदन से निलंबित कर दिया गया. इसके बाद विपक्ष की मौजूदगी में खेती ही नहीं, श्रम कानूनों में उलटफेर करने वाले विधेयक भी पारित करा लिए गए. सवाल यह बना हुआ है कि इतने महत्वपूर्ण विधेयकों को ध्वनिमत से क्यों पारित कराया गया, क्या इसे लोकतंत्र की सेहत के लिए अच्छा माना जा सकता है?
विपक्ष को छवि का मोह छोड़ना होगा
कानून बनाने की इस प्रक्रिया और किसानों की आवाज को अनसुना करने से अगर विपक्ष वाकई नाराज है तो उसके पास सड़क और जनता के बीच जाने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं है. ऐसे समय में जब किसान अपने हक के लिए संगठित हो रहे हैं, विपक्ष को उनके साथ खड़ा होना लोकतंत्र में जनता का भरोसा बनाए रखने के लिए जरूरी है. इसकी वजह है कि किसान इन कानूनों को कॉरपोरेट्स के हित में उठाया गया कदम बता रहे हैं. यही वजह है कि किसान एकाधिकारवादी कॉरपोरेट्स का विरोध भी कर रहे हैं. जियो सिम का बहिष्कार इसी का हिस्सा है.
ऐसे में अगर विपक्ष अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं करता है तो उस पर भी एकाधिकारवादी कॉरपोरेट्स और कानूनों के पक्ष में होने के आरोप लग सकते हैं. हालांकि, इससे कहीं बड़ा सवाल किसानों की उस वाजिब मांग का है, जो इस आंदोलन की मूल वजह है. किसान अपनी फसलों की उचित कीमत के तौर पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी चाहते हैं.
विपक्ष को किसानों की मांग के पक्ष में खुलकर सामने आना होगा और लोकतंत्र में बात न सुने जाने से निराश किसानों को हौसला देना होगा. इसके साथ उसे इस बात की झिझक भी छोड़नी पड़ेगी कि इसके लिए सरकार उसकी कैसी छवि गढ़ने की कोशिश करती है.