पंचायतनामा

क्यों पंचायती राज सिस्टम निर्वाचित नौकरशाही बन गया है?

पंचायती राज व्यवस्था चुने हुए प्रतिनिधियों की संख्या के लिहाज से देश का सबसे बड़ा निर्वाचित संगठन है. लेकिन जनता की प्रत्यक्ष भागीदारी होने के बावजूद पंचायती राज व्यवस्था स्वशासन में कितना सक्षम हो पाई है, यह सवाल हमेशा उठता रहता है. गौर से देखें तो इसकी बनावट ही इस संदेह की वजह है, क्योंकि इसका मौजूदा ढांचा संसदीय लोकतंत्र की बुनियादी शर्तों का उल्लंघन कर रहा है.

संसदीय लोकतंत्र में दलीय भागीदारी होती है. भारत में लोक सभा और विधान सभा का चुनाव भी दलीय आधार पर होता है. लेकिन कुछ राज्यों को छोड़कर स्थानीय चुनाव से राजनीतिक दल दूर ही रहते हैं. अगर कहीं पर इनकी भागीदारी आती भी है तो वह राजस्थान की तरह सिर्फ ऊपरी स्तर तक सीमित रहती है. इसका नतीजा है कि पंचायत राज व्यवस्था आज तक परिपक्व राजनीति की तरफ नहीं बढ़ पाई है. पंचायत चुनावों के पहले और बाद में होने वाली हिंसा इसी अपरिपक्वता का सबूत है.

पंचायती राज से जुड़ी तमाम संस्थाएं स्थायी तौर पर ‘शक्ति असंतुलन’ की समस्या का शिकार हैं.

पंचायती राज से जुड़ी तमाम संस्थाएं स्थायी तौर पर ‘शक्ति असंतुलन’ की समस्या का शिकार हैं. यहां प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष चुनाव के जरिए निर्वाचित सत्ता पक्ष तो साफ-साफ बन जाता है. लेकिन राजनीतिक दलों की भागीदारी न होना से राजनीतिक विपक्ष जैसी जरूरी संस्था बन ही नहीं पाती है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष ऐसी संस्था है जो सत्ता पक्ष की जवाबदेही तय करती है, उसकी नाकामियों और मनमानेपन के खिलाफ आवाज उठाती है और ऐसे मुद्दों को जनता के बीच ले जाकर शक्ति संतुलन कायम करती है. इसकी कमी के चलते पंचायती राज व्यवस्था सामंती परिवेश से लड़ने और स्वशासन लाने के लक्ष्य से चूक रही है.

इस पर आगे बात करने से पहले यह जान लेते हैं कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी शासन व्यवस्था के तौर पर पंचायती राज को लागू करना चाहते थे. उनका मानना था कि पंचायतों की व्यवस्था गांव की इकाई से शुरू हो और ब्लॉक, जिला, राज्य से होते हुए केंद्र तक जाए. लेकिन इसकी जगह देश में त्रिस्तरीय व्यवस्था लागू है, जो अपने कामकाज में ऊपर के दो चरणों से बिल्कुल ही अलग है. केंद्र और राज्य के स्तर पर विपक्ष की निगरानी में संसदीय व्यवस्था की शर्तों के हिसाब से काम होता है, वहीं पर विपक्ष के अभाव में पंचायती राज व्यवस्था एक तरह की निर्वाचित नौकरशाही बन जाती है.

शक्ति-संतुलन का काम करने के लिए विपक्ष खुद को संगठित करता है. इसमें शीर्ष नेतृत्व से लेकर जमीनी कार्यकर्ता तक एक सांगठनिक ढांचा बनता है. यह ढांचा जनता के बीच सामूहिक समझ और प्रतिरोध का विकास करता है. यही वजह है कि राजनीतिक दलों के माध्यम से आने वाले विरोध या समर्थन को सामूहिक समझ से जोड़ा जाता है, न कि इसे व्यक्तिगत माना जाता है. इसके अभाव में पंचायती राज में जब कोई किसी गलत काम का विरोध करता है तो उसे व्यक्तिगत विरोध के तौर पर लिया जाता है और जिससे न केवल चुनावों में, बल्कि बाद में हिंसा के रूप में सामने आता है.

पंचायतों में महिला सशक्तीकरण के मकसद से महिलाओं को 33 फीसदी (कहीं-कहीं पर 50%) आरक्षण दिया गया है. लेकिन जमीनी सूरत नहीं बदली है.

विपक्ष न होने का नुकसान संस्थागत सुधारों को भी हुआ है. पंचायतों में महिला सशक्तीकरण के मकसद से महिलाओं को 33 फीसदी (कहीं-कहीं पर 50%) आरक्षण दिया गया है. लेकिन जमीनी सूरत नहीं बदली है. महिला प्रतिनिधियों के परिजन ही उनके अधिकारों और शक्तियों का इस्तेमाल करते हैं. इसी वजह से ग्राम प्रधानपति, ब्लॉक प्रमुखपति और जिला पंचायत अध्यक्षपति जैसे अनौपचारिक पद पैदा हो गये हैं. इसके अलावा पंचायत चुनावों के समय लगाए जाने वाले पोस्टरों में इस बात को दूर से देखा जा सकता है. इन पोस्टरों पर महिला उम्मीदवारों का नाम होता है, लेकिन फोटो उनके पति या पुत्र की लगी होती है. यह महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के मकसद के साथ मजाक है.

पंचायती राज व्यवस्था की यह संस्थागत खामी ही इसमें भ्रष्टाचार की वजह बन रही है. निर्वाचित नौकरशाही (बिना विपक्ष के लिए चुने हुए जनप्रतिनिधि) नेतृत्व करने की जगह स्थानीय नौकरशाही की सहयोगी बनकर काम करती है. केंद्र और राज्य सरकारों के स्तर पर सक्रिय विपक्ष के बावजूद भ्रष्टाचार के तमाम मामले सामने आते हैं. ऐसे में पंचायतों की विपक्षविहीनता यहां पर सरकारी पैसे के बंदरबांट का जोखिम बढ़ा देती है. यह इस दावे को कटघरे में खड़ा कर देती है कि जनता की प्रत्यक्ष भागीदारी से भ्रष्टाचार नहीं पनप सकता है. वास्तविकता तो यह है कि विपक्ष के अभाव में जनता की तरफ से जो सक्रियता चाहिए, वह उदासीनता में बदल जाती है.

ग्राम प्रधान को 15 दिन के नोटिस के बाद उपस्थित और मतदान करने वालों के दो-तिहाई बहुमत से हटाया जा सकता है.

जन भागीदारी, जन नियंत्रण हो या जन नियोजन, ऐसी बातें हैं जो अपने आप किसी संस्था का हिस्सा नहीं बन पाती हैं. इसके लिए संस्थागत प्रयासों की जरूरत होती है. संसदीय लोकतंत्र में राजनीतिक दल इसी संस्था का काम करते हैं. इसे समझने के लिए उत्तर प्रदेश में ग्राम प्रधान को हटाने की प्रक्रिया का उदाहरण लिया जा सकता है. यहां ग्राम प्रधान को 15 दिन के नोटिस के बाद उपस्थित और मतदान करने वालों के दो-तिहाई बहुमत से हटाया जा सकता है. इसकी प्रक्रिया शुरू करने के लिए न्यूनतम संख्या (कोरम) ग्राम सभा की एक-तिहाई आबादी है.

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चूंकि ग्राम प्रधान को हटाने के लिए एक तरह की सामूहिक समझ और भागीदारी की जरूरत होती है. संसदीय लोकतंत्र में शीर्ष के दोनों चरणों पर इस काम को करने में राजनीतिक दल संस्था के तौर पर काम करते हैं. लेकिन ग्राम पंचायत स्तर पर राजनीतिक दलों की मौजूदगी न होने से कोई ग्राम प्रधान चाहे जितनी गड़बड़ी करे, उसे हटाना लगभग असंभव होता है. राजनीतिक दल के बगैर इस काम को व्यक्तिगत क्षमता में करे तो उसे ग्राम प्रधान की रंजिश झेलनी पड़ती है.

अगर पंचायतों में राजनीतिक दलों की भागीदारी लाकर सक्रिय विपक्ष बना दिया जाए तो यह संस्था रोटी-कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी जरूरतों पर केंद्रित राजनीति को जमीनी हकीकत दे सकती है. इसमें प्रत्यक्ष भागीदारी और जनता से निकटता की संभावना देश में जवाबदेह लोकतंत्र का बेहतरीन नमूना भी बन सकती है.

ऋषि कुमार सिंह

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