हर तरफ आर्थिक उन्नति, तकनीकी विकास और आधुनिक दुनिया बनने की चर्चा होती है. क्या इसे सामाजिक विकास को हासिल किए बगैर संतोषजनक कहा जा सकता है? यहां सामाजिक विकास का मतलब समाज के सभी सदस्यों को ससम्मान और साधिकार जीवन जीने का अवसर मिलना है. क्या आज सभी को यह अवसर हासिल है?
साफ-साफ हक था, फिर भी जाना पड़ा अदालत
इस बात को समझने के लिए कानपुर के इस मामले को जानना जरूरी है. यहां की रहने वाली पूजा की 2016 में शादी हुई. लेकिन इसी साल पति की मौत हो गई. फिर ससुर का भी देहांत हो गया. इसके बाद रही सही कसर ससुराल में बची सास व अन्य लोगों ने पूरी कर दी. पूजा को पति के घर और संपत्ति से बेदखल कर दिया. ससुराल वालों पर आरोप यह भी कि उन्होंने पूजा के गहने भी छीन लिए. हालात ऐसे बने कि पूजा के सामने ससुरालीजनों से भरण-पोषण पाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा. अब फेमिली कोर्ट ने ससुरालीजनों को उन्हें हर महीने 15 हजार रुपये भरण-पोषण भत्ता देने का आदेश दिया है.
संपत्ति की कमी नहीं, फिर भी हक देने में आनाकानी
यह सब तब हुआ, जब पूजा की ससुराल में सास के पास संपत्ति की कोई कमी नहीं थी. उनके पास लगभग 90 बीघा जमीन और 20 दुकानें हैं, जिनसे हर महीने लगभग डेढ़ लाख रुपये की कमाई होती है. सवाल यही उठता है कि पति के न रहने के बाद एक महिला को अपना वाजिब हक पाने के लिए अदालत क्यों जाना पड़ा? क्यों समाज उसे संरक्षण देने में नाकाम रहा, जबकि कानून ऐसे संरक्षण की साफ-साफ गारंटी देता है.
कानून में राहत देने के स्पष्ट प्रावधान
अगर ऐसे मामलों में कानूनी आधार की बात करें तो इसके लिए दंड प्रक्रिया संहिता यानी सीआरपीसी की धारा-125 में प्रावधान किया गया है. इसके तहत पत्नी अपने पति से, बच्चे माता-पिता से और माता-पिता अपने नाबालिग बच्चों से भरण पोषण और अंतरिम राहत की मांग कर सकते हैं. चूंकि, लोगों को बेसहारा छोड़ने के ऐसे अपराध को समाज के खिलाफ अपराध माना जाता है, इसलिए सीआरपीसी की धारा-125 के तहत सभी धर्मों के लोग राहत पा सकते हैं. यानी इसका किसी पर्सनल लॉ से कोई टकराव नहीं है.
विवाह शून्य तो भरण-पोषण नहीं मिलेगा
Advertisement. Scroll to continue reading. सीआरपीसी की धारा-125 के तहत पत्नी अपने पति से, पति के जीवित न होने पर ससुर से संपत्ति में पति की हिस्सेदारी के आधार पर भरण-पोषण और अंतिम राहत की मांग कर सकती है. लेकिन तलाकशुदा महिलाएं तभी तक पति से भरण-पोषण की मांग कर सकती हैं, जब तक वे दोबारा शादी नहीं करती हैं. हालांकि, जिन महिलाओं की शादी शून्य घोषित हो चुकी है, वे भरण-पोषण की मांग नहीं पा सकती हैं, क्योंकि सीआरपीसी में पत्नी का मतलब केवल कानूनी रूप से मान्य पत्नी है. हिंदू मैरिज एक्ट की धारा-24 भरण-पोषण के लिए अदालत में मामला लंबित रहने तक पत्नी को पति से अंतरिम भरण-पोषण पाने का हक देता है.
मां-बाप को बच्चों से भरण-पोषण पाने का हक
सीआरपीसी की धारा-125 नाबालिग बच्चों को अपने मां-बाप से और माता-पिता को अपने बच्चों से भरण-पोषण पाने का भी हक देता है. डॉ विजय मनोहर अबर्ट बनाम काशीराम राजाराम मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यहां तक कहा है कि अगर माता पिता अपने भरण पोषण में असमर्थ हैं और विवाहित बेटी साधनों से संपन्न है तो वे अपनी बेटी से भरण-पोषण की मांग कर सकते हैं. कुछ उच्च न्यायालयों ने माता-पिता की परिभाषा में सौतेली मां को शामिल किया है. लेकिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सौतेली मां को माता-पिता की परिभाषा में शामिल नहीं माना है.
कानून की नैतिकता और समाज की सोच में दूरी
इतने सारे उपायों के बावजूद भरण-पोषण पाने के सपाट मामलों में भी अदालत की भूमिका आना कई गंभीर सवाल खड़े कर रहा है. इसमें सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि आखिर कानून में दर्ज तमाम नैतिक बातें समाज की नैतिकता क्यों नहीं बन पा रही हैं? क्या कानून और समाज की नैतिकता के बीच की इस दूरी को खत्म किए बगैर सामाजिक विकास का कोई लक्ष्य हासिल किया जा सकता है? क्या सामाजिक विकास के बगैर किसी आर्थिक या तकनीकि विकास टिकाऊ हो सकेगा?