कानून-कचहरी

संविधान दिवस : कैसे लोकतंत्र और संविधान की सफलता संविधानवाद की मजबूती पर टिकी है?

महिलाओं के खिलाफ अपराध सात फीसदी, अनुसूचित जाति के खिलाफ अपराध सात फीसदी और अनुसूचित जनजाति के खिलाफ अपराध 26 फीसदी बढ़ गया. यह हकीकत साल 2019 की है जो नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट से सामने आई है. असलियत में ऐसे मामले काफी हैं जो दर्ज ही नहीं हो पाते हैं. क्या आपने कभी सोचा है कि देश में संविधान को लागू हुए 70 साल से ज्यादा का वक्त बीत चुका है, फिर ऐसे अपराध क्यों जारी हैं, क्यों संविधान को मानने वाली सरकारें और समाज ऐसे अपराधों को नहीं रोक पा रहे हैं? क्या यह देश में संविधानवाद के प्रभावी न हो पाने का सबूत नहीं है?

मजबूत संविधानवाद क्या है

संविधानवाद के लागू होने का मतलब सरकार से लेकर आम नागरिकों तक संविधान को अपनाना और उसे अपने रोजाना के फैसलों का आधार बनाना है. इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि किसी देश में लोग अपने संविधान को किस तरह से महसूस करते हैं और कैसे उसे अपने जीवन में उतारते हैं, उससे तय होगा कि उस देश में संविधानवाद मजबूत है या कमजोर. अब अगर इस आधार पर भारत की बात करें तो यहां आपको निराशाजनक माहौल दिखाई देगा. यहां समाज में वर्चस्ववादी तबका ही नहीं, बल्कि सरकारें तक संविधान की मूल भावना और उसके तहत तय कर्तव्यों को निभाने में कमजोर साबित हो रही हैं.

लोग संविधान को कितना मानते हैं

समाज के स्तर पर संविधानवाद के कमजोर होने का ताजा मामला उत्तर प्रदेश के हाथरस में दिखा. जहां बलात्कार पीड़ित दलित युवती ने इलाज के दौरान दम तोड़ दिया. इसके बाद पुलिस पर परिजनों की मर्जी के बगैर लड़की के शव को आधी रात में जलाने का आरोप लगा. इसके बाद आरोपियों के समर्थन में खड़े लोगों द्वारा पीड़ित परिवार को धमकाने और उस पर मामला वापस लेने का दबाव बनाने जैसी शिकायतें सामने आईं. अगर देश में संविधानवाद मजबूती से कायम है तो ऐसी सूरत कैसे बन सकती है, जहां पुलिस और अपराधी एक ही पक्ष में खड़े दिखाई देने लगे.

सरकार के फैसलों में कितना संविधानवाद 

केंद्र सरकार ने कृषि क्षेत्र को लेकर तीन कानून पारित किए. किसान इसके खिलाफ लगातार आंदोलन कर रहे हैं. किसानों को संविधान दिवस के दिन दिल्ली आकर शांतिपूर्ण तरीके से अपनी बात को कहने से रोका जा रहा है. यह पूरा मामला शुरूआत से संविधानवाद के कमजोर पड़ने की गवाही दे रहा है. दरअसल, कानून बनाने की शर्त है कि उससे जुड़ी सभी पक्षों से राय ली जाए ताकि उसकी कमियों को दूर किया जा सके. लेकिन केंद्र सरकार कृषि कानून बनाने से पहले न तो किसानों से बात की और न विपक्षी दलों से. अध्यादेश के आपातकालीन विकल्प को अपनाया गया और फिर संसद में विपक्ष और यहां तक कि सत्ता पक्ष के राजनीतिक दलों के विरोध के बावजूद उसे पारित करा लिया गया. इन कानूनों को पारित कराने में जिस तरह से नियमों की अनदेखी हुई, उससे संविधानवाद की मौजूदगी सवालों के घेरे में आ गई.

कानून की नजर में संविधावनाद क्या है

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दरअसल, संविधानवाद कोई नई चीज नहीं है, यह कानून की सर्वोच्चता के रूप में काफी पहले से लागू है. कानूनी भाषा में समझे तो संविधानवाद सरकार की शक्तियों पर रोक लगाता है. यह मानता है कि कार्यपालिका और विधायिका को शक्तियां मिलनी चाहिएं, लेकिन उसके साथ उस पर पाबंदियां भी होनी चाहिए, ताकि किसी को भी मनमाने तरीके से काम करने से रोका जा सके. सत्ता या शक्ति संपन्न की मनमानी का सीधा मतलब जनता की आजादी का दमन और संविधान की गारंटी का टूटना है.

संविधानवाद कैसे मजबूत होता है

विधि विशेषज्ञों का मानना है कि किसी भी देश में लिखित संविधान, न्यायिक समीक्षा की शक्ति के साथ स्वतंत्र न्यायपालिका, रूल ऑफ लॉ यानी विधि का शासन, शक्तियों का बंटवारा, स्वतंत्र चुनाव, पारदर्शी और जवाबदेह सरकार, लोगों के मूल अधिकार, संघवाद और शक्तियों के विकेंद्रीकरण कुछ ऐसे सिद्धांत या शर्तें हैं, जो किसी देश में संविधानवाद को प्रोत्साहित या प्रेरित करते हैं. अब इस लिहाज से भारत को देखें तो यहां पर बीते कुछ सालों से एक देश एक कानून, एक देश एक कर व्यवस्था और एक देश एक बाजार जैसी बातों को हवा दी जा रही है. एक अतिराष्ट्रवादी माहौल में असहमति की आवाजों को दबाने के आरोप लग रहे हैं. यही वजह है कि संसद के मानसून सत्र में राज्य सभा में नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी आजाद ने कहा था कि सरकार ‘एक देश-एक कानून’, ‘एक देश-एक कर’ और ‘एक देश-एक बाजार’ जैसी बातें कर रही हैं, लेकिन कहीं ऐसा ना हो कि बात ‘एक पार्टी-एक देश’ की तरफ बढ़ जाए.

इसे संविधानवाद तो नहीं कहा जा सकता है

देश में संविधान अपनी जगह पर कायम है, लेकिन सभी संस्थाओं में संविधान की मूल भावना का सम्मान न करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है. उत्तर प्रदेश सरकार ने इसी साल एक विशेष सुरक्षा बल बनाया है, जिसे बिना मजिस्ट्रेट के आदेश के किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने, छापा डालने और तलाशी लेने जैसे अधिकार दिए गए हैं. राज्य सरकार का दावा है कि यह कानून केंद्र के केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल  (सीआईएसएफ) के अलावा महाराष्ट्र और ओडिशा में विशेष पुलिस बलों के बराबर ही अधिकार देता है, कुछ भी नया नहीं है. लेकिन कानूनों के जानकार बताते हैं कि सरकार जिन सुरक्षा बलों का उदाहरण दे रही है, उनमें किसी को भी बिना वारंट गिरफ्तारी करने या तलाशी लेने जैसे अधिकार हासिल नहीं हैं, वे अगर किसी को पकड़ते हैं तो उसे अंत में पुलिस को ही सौंपते हैं.

यह कोई अकेला मामला नहीं है. इससे पहले सरकार ने बीते दिनों आंदोलन के दौरान संपत्ति के कथित नुकसान की भरपाई के लिए लोगों को नोटिस जारी करना और उनकी तस्वीरों के साथ चौराहों पर पोस्टर लगाना शुरू कर दिया. बाद में इलाहाबाद हाई कोर्ट की दखल के बाद सरकार को इन पोस्टरों को हटाना पड़ा, क्योंकि यह न्याय की प्रक्रिया से गुजरे बगैर किसी व्यक्ति को अपराधी की श्रेणी में खड़ा करता था.

अभी केरल सरकार ने अभिव्यक्ति की आजादी को सीमित करने वाले अध्यादेश को लागू किया. हालांकि, आलोचना के दबाव में सरकार ने अपने फैसले को वापस ले लिया. सवाल सीधा सा है कि सरकारें अगर अपनी शक्तियों का इस्तेमाल जनता की सहूलियत की जगह उसे मुश्किल में डालने के लिए करने लगें या ऐसे कानून बनाने लगें जो नागरिक आजादी सीमित करते हों तो ऐसे हालात को किस तरह से मजबूत संविधानवाद का सबूत माना जाए? अगर समाज से लेकर सरकार तक संविधानवाद कायम है तो फिर अदालतों में मुकदमों की संख्या, कमजोरों के साथ अन्याय और उत्पीड़न के मामले क्यों बढ़ रहे हैं? क्या संविधानवाद के बगैर संविधान और लोकतंत्र के असरदार रहने की कल्पना की जा सकती है?

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अलका सिंह

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