राज्य सभा

कप-प्याले से समझिए कि दुनिया में राज्य सभा जैसे ऊपरी सदन क्यों बने हैं?

दुनिया के किसी भी देश में, अगर वहां लोकतांत्रिक शासन और संसद है, ऊपरी सदन को लेकर सरकारों की एक शिकायत सभी जगह एक जैसी है. यह शिकायत ऊपरी सदन (भारत में राज्य सभा) के चलते कानून बनाने में देरी से जुड़ी है. खास तौर पर संसदीय व्यवस्था में जब भी कानून बनाने में कोई देरी होती है, सरकारें सारा दोष ऊपरी सदन के ऊपर डाल देती हैं. कई बार तो बात यहां तक पहुंच जाती कि आखिर ऐसे स्थायी सदन की जरूरत क्यों है? अगर इससे कानून बनाने में देरी होती है तो इसे क्यों बनाए रखा जाए? लेकिन यह शिकायत और सवाल हाल-फिलहाल में नहीं पैदा हुए हैं, बल्कि उतने ही पुराने हैं, जितनी कि आधुनिक संसदीय व्यवस्था. सबसे रोचक बात तो यह है कि सैद्धांतिक तौर पर ऊपरी सदन या स्थायी सदन को कानून निर्माण को धीमा करने के लिए नहीं, बल्कि उसे चुस्त-दुरुस्त और सटीक बनाने के लिए रखा गया है.

दुनिया में सबसे पहले लिखित संविधान को अपनाने वाले अमेरिका में ऊपरी सदन की जरूरत पर तीखी बहस हुई थी. अमेरिका में ‘स्वतंत्त्रता की घोषणा’ (Declaration of Independence) के प्रमुख लेखक थॉमस जेफरसन, जो बाद में राष्ट्रपति भी बने, ने एक बार राष्ट्रपति जॉर्ज वाशिंगटन के सामने सीनेट यानी ऊपरी सदन की उपयोगिता पर संदेह जताया.

लंच के समय दोनों की बात चल ही रही थी कि तभी थॉमस जेफरसन अपनी कॉफी को प्लेट में डालकर पीने लगे. तब जॉर्ज वाशिंगटन ने उनसे ऐसा करने की वजह पूछी. इस पर थॉमस जेफरसन ने कहा, ‘कॉफी को ठंडा करने के लिए उन्होंने इसे कप से प्याले में डाला है?’ इस पर जॉर्ज वाशिंगटन ने कहा, ‘हम विधेयकों को भी इसी तरह सीनेट (के प्याले) में डालते हैं ताकि इसे ठंडा किया जा सके यानी उतावलेपन की जगह पर सोच-विचार कर कानून बनाए जाएं.’ लगभग दुनिया में ऊपरी सदन की भूमिका कप के साथ प्याले जैसी ही है.

वास्तव में, ऊपरी सदन (राज्य सभा) की जरूरत लोकप्रियता के रथ पर सवार निचले सदन (लोक सभा) की वजह से आई है. चूंकि, निचला सदन जनता के बीच से सीधे चुनकर आए प्रतिनिधियों से बनता है. इसलिए इसके सदस्य चुनावी लोकप्रियता से प्रेरित होते हैं. ऐसे में यह सदन जल्दबाजी में ऐसा कानून बनाने की पहल कर सकते हैं जो कानूनी तौर पर भले ही सही हो, लेकिन व्यापक समाज पर उसके गंभीर असर पड़ते हों.

अक्सर देखा भी गया है कि निचले सदन (लोक सभा) ने दलीय राजनीति और समूहवाद की सीमाओं के चलते बहुत जल्दबाजी में कानून बनाए हैं. इसी जल्दबाजी और इससे होने वाले नुकसान को रोकने में ऊपरी सदन (राज्य सभा) की भूमिका आती है. ऊपरी सदन, ऐसे कानूनों पर विस्तार से विचार करके और देश के व्यापक हितों के हिसाब से बदलाव करके समाज के लिए उपयोगी बनाता है.

अमेरिका ही नहीं, भारत में भी संविधान सभा में भी दो सदनों वाली विधायिका (संसद या राज्य विधायिका) बनाने के मुद्दे पर गंभीर बहस हुई थी. यहां पर भी आशंका जताई गई थी कि ये लोक सभा के कानून बनाने के अधिकार में बाधा पैदा करेगी. खास तौर पर राज्यों को विधानपरिषद बनाने की छूट देने के मुद्दे पर सहमति का अभाव था. इस पर चर्चा के दौरान एल कृष्णास्वामी ने भी जॉर्ज वाशिंगटन और थॉमस जेफरसन के बीच कप-प्याले की बातचीत वाला किस्सा संविधान सभा सुनाया था. आखिरकार, संविधान सभा ने ऊपरी सदन की जरूरत को मान्यता दी ताकि जल्दबाजी में बने कानूनों से पैदा होने वाले खतरे को सीमित किया जा सके.

दुनिया भर में ऊपरी सदन की व्यवस्था ब्रिटेन के हाउस ऑफ लॉर्ड्स(House of lards) से प्रेरित है. भारत में राज्य सभा, काउंसिल ऑफ स्टेट्स (Council of states) के रूप में संसदीय व्यवस्था का हिस्सा है. इसका मतलब है कि लोक सभा में जहां जनता के और राज्य सभा राज्यों के प्रतिनिधि होते हैं. 250 सदस्यों वाली राज्य सभा में 12 सदस्य नामित किए जाते हैं. लोक सभा के मुकाबले इसके सदस्यों का कार्यकाल एक साल ज्यादा यानी छह साल का होता है. हालांकि, राज्य सभा के एक-तिहाई सदस्य हर दूसरे साल रिटायर हो जाते हैं. राज्य सभा को धन विधेयक छोड़कर बाकी सभी मुद्दों पर कानून बनाने की प्रक्रिया शुरू करने या उन पर विचार करने का अधिकार है.

हालांकि, राज्य सभा में संख्या बल की कमी के चलते सरकारें राज्य सभा को बायपास (bypass) करने की कोशिश करते हैं. इसके लिए सामान्य विधेयकों को धन विधेयक घोषित करने या सामान्य विषयों को धन विधेयक में शामिल कर दिया जाता है. इसके लिए सरकार लोक सभा स्पीकर के विशेषाधिकार की मदद लेती हैं, क्योंकि उसे ही किसी विधेयक को धन विधेयक मानने या ना मानने का अधिकार हासिल है.

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किसी विधेयकों को धन विधेयक घोषित करने के साथ उस पर राज्य सभा के आधिकार सीमित हो जाते हैं. वह ऐसे विधेयकों में चाहकर भी कोई संशोधन नहीं कर पाती है. लेकिन ऐसे तमाम टकरावों के बावजूद संसदीय व्यवस्था में स्थायी सदन यानी ऊपरी सदन की जरूरत ना तो खारिज की जा सकती है और ना ही इसे कानून निर्माण में बाधा ही करार दिया जा सकता है.

ऋषि कुमार सिंह

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