आंदोलनरत किसानों की केंद्र सरकार के साथ बातचीत बेनतीजा रही. किसानों ने तीनों कानूनों को वापस लेने और न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने की मांग से पीछे हटने और सरकार ने इसे मानने से इनकार कर दिया. लेकिन इस आठवीं बैठक में सरकार ने किसानों को सुप्रीम कोर्ट जाने की सलाह दे डाली.
आखिर ऐसा क्या हुआ कि सरकार अपने खिलाफ किसानों को सुप्रीम कोर्ट जाने की सलाह देने लगी, जबकि आर्थिक नीतियां तय करना सुप्रीम कोर्ट की नहीं, बल्कि सरकार की जिम्मेदारी है. जाहिर है कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट जाने का कोई तुक नहीं है. आखिर सरकार में यह भरोसा कहां से आ रहा है कि अगर किसान अदालत चले जाएं तो फैसला हरहाल उसके पक्ष में ही आएगा?
सुप्रीम कोर्ट से कैसा रिश्ता हो
इस सवाल का जवाब सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच उभरते रिश्ते से मिल रहा है. कैसा रिश्ता, यह समझने के लिए 25-26 नवंबर 2020 को गुजरात के केवड़िया में हुए पीठासीन अधिकारियों के 80वें सम्मेलन को देखा जाना चाहिए, जिसकी थीम “विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच सौहार्द्रपूर्ण समन्वय – गतिशील लोकतंत्र की कुंजी” थी. इसमें राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री तक वक्ता रहे. न्यायपालिका के साथ सरकार और विधायिका के संबंध पर सबसे मुखर होकर उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू बोले. उन्होंने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट को अपने को शासकों का शासक या शासन की स्वेच्छाचारी संस्था नहीं समझना चाहिए.’ उपराष्ट्रपति ने पटाखों पर रोक, दिल्ली में पुराने वाहनों पर रोक लगाने, पुलिस जांच की निगरानी करने, जजों की नियुक्ति में कार्यकापालिका की भूमिका को खारिज करने जैसे मामलों का हवाला दिया. वेंकैया नायडू ने कहा, ‘इसलिए, शासन के तीनों अंगों के बीच सामंजस्य के साथ काम करने को लेकर कुछ चिंता है. संविधान अपने नियमों के जरिए शासन के तीनों अंगों के बीच नियंत्रण-संतुलन और एकता आधारित व्यवस्था देता है. यह स्थापित बात है कि सिर्फ संविधान सर्वोच्च है, न कि तीनों अंगों में से कोई एक.’
वहीं, प्रधानमंत्री ने कहा, ‘राष्ट्र के रूप में लिए गए हर संकल्प को सिद्ध करने के लिए विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, उसको बेहतर तालमेल के साथ काम करते रहना है. हमारे हर निर्णय का आधार एक ही तराजू से तौलना चाहिए, एक ही मानदंड होना चाहिए और वो मानदंड है राष्ट्रहित. राष्ट्रहित, यही हमारा तराजू होना चाहिए.’
ब्रेक की पहिए से दोस्ती हो जाए तो क्या होगा
लेकिन सुखद तालमेल कायम रखने की मांग करते हुए सरकार के ये पदाधिकारी भूल गए कि संविधान ने तीनों अंगों को एक शक्ति संतुलन के तहत बनाया है. जैसा कि खुद उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने कहा था कि संविधान में न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के बीच ‘चेक-बैलेंस’ (नियंत्रण-संतुलन) कायम किया गया है. ऐसे में तीनों अंगों के बीच सुखद तालमेल कायम करने की मांग कैसे की जा सकती है? यह तो गाड़ी के पहियों और उसे रोकने और रफ्तार घटाने के लिए लगाए गए ब्रेक के बीच सुखद तालमेल कायम करने जैसी मांग हो गई. अगर कभी पहिया और ब्रेक के बीच सुखद ताममेल हो जाए तो फिर क्या होगा? सुप्रीम कोर्ट से सुखद तालमेल का मतलब तो यही है कि सरकार और संसद जो भी फैसले करे या कानून बनाए, उस पर सुप्रीम कोर्ट बगैर कोई आपत्ति किए अपनी मुहर लगा दे?
और कितना सुखद हो तालमेल?
Advertisement. Scroll to continue reading. इन बयानों से साफ है कि मौजूदा केंद्र सरकार के पदाधिकारी नहीं चाहते कि सुप्रीम कोर्ट उसके फैसलों से असहमति जताए या कहीं पर भी एक्टिविज्म (सक्रियतावाद) करे. यह हाल तब है, जब सरकार को तमाम विवादित मामलों में सुप्रीम कोर्ट से चौंकाने वाली राहत मिली है. राफेल सौदों से लेकर अनुच्छेद-370 (जम्मू-कश्मीर विशेष राज्य का दर्जा) और सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट, सारे मामलों में सरकार को सुप्रीम कोर्ट से कोई परेशानी नहीं हुई है. सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच बढ़ते तालमेल की बात को खुद राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में दिए गए अपने भाषण में स्वीकार किया है. उन्होंने कहा, ‘भारत की शासन व्यवस्था के तीनों अंगों अर्थात- कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका द्वारा आपसी समन्वय और सामंजस्य से काम करने की परंपरा अब सुदृढ़ हो चुकी है. मुझे बहुत प्रसन्नता है कि इस परंपरा को पुष्ट करने के लिए ‘सशक्त लोकतंत्र हेतु विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का आदर्श समन्वय’ विषय पर विचार विमर्श किया जाएगा.’
सुखद तालमेल पर उठ रहे सवाल
सरकार के फैसलों के प्रति सुप्रीम कोर्ट के बदले हुए रुख ने अन्य लोगों का ध्यान खींचा है. इस सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मार्कंडेय काटजू का एक लेख गौरतलब है, जो 25 मई 2020 को अंग्रेजी वेबसाइट द वायर में प्रकाशित है. इसमें उन्होंने लिखा, ‘जनता में यह धारणा बनी है कि सुप्रीम कोर्ट राजनीति और कार्यपालिका के मनमानेपन, स्वेच्छाचारिता और अनियमितता से जनता को बचाने की अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी नहीं निभा रहा है.’ उन्होंने आगे लिखा, ‘इसकी जगह पर, ऐसा लगता है कि सरकार के आगे समर्पण कर दिया है, जिसकी अक्सर बोली लगाई जा रही है.’
सुप्रीम कोर्ट संविधान का रक्षक-संरक्षक
पूर्व जज मार्कंडेय काटजू ने आगे लिखा, ’26 जनवरी, 1950 से लागू भारतीय संविधान में जनता के मूल अधिकारों की व्यवस्था है जो अमेरिकी संविधान के मूल अधिकारों से प्रेरित है. न्यायपालिका को इन अधिकारों का रक्षक और संरक्षक नियुक्त किया गया है, वरना वे केवल पेपर पर ही रह जाएंगे.’ इस लेख में जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने तमाम फैसलों का हवाला देकर मूल अधिकारों को बचाने में अदालत की भूमिका को सामने रखा है. उन्होंने यह भी कहा कि कैसे कश्मीरी नेताओं के लिए सुप्रीम कोर्ट में लगाई गई हैबियस कार्पस याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने कई महीने तक सुनवाई को टाले रखा, जबकि मनुष्य की दैहिक स्वतंत्रता को मूल अधिकारों में सबसे ऊपर रखा जाता है. जस्टिस काटजू के इस पूरे लेख से एक बात बहुत साफ है कि मूल अधिकारों की रक्षा करना सुप्रीम कोर्ट की मूल जिम्मेदारी है और यही जिम्मेदारी उसे शासन के अन्य दोनों अंगों से थोड़ा ऊपर रखती है. ऐसे में सरकार का यह कहना कि सुप्रीम कोर्ट को संविधान में वरीयता नहीं मिली हुई है और उसे सुखद तालमेल के साथ काम करना चाहिए, वह स्वतंत्र न्यायपालिका को जनता के हाथ से छीनने की कोशिश है.
सरकार और अदालत के जनहित में फर्क है
एक सवाल आता है कि क्या सरकार और अदालत का जनहित अलग-अलग है? इसका जवाब ‘हां’ है. इसका कारण है कि सरकार लोकप्रिय मत से बनती है, उसके फैसलों का मकसद अपनी लोकप्रियता बरकरार रखना और बढ़ाना होता है. ऐसे में संभव है कि वह पूरे देश को एक समान नजर से न देख पाए या उसकी नीतियां चुनावी राजनीति के तहत किसी खास वर्ग के हित में झुकी हों और अन्य वर्गों की उपेक्षा करती हों. चूंकि, संसदीय लोकतंत्र में विधायिका और कार्यपालिका में अलगाव नहीं होता है, इसलिए सरकार और विधायिका की राय में अंतर हो यह भी जरूरी नहीं है. इसके बनिस्पत सुप्रीम कोर्ट की स्थिति अलग होती है. उसे लोकप्रियता के आधार पर फैसला नहीं करना होता है, बल्कि संविधान की कसौटी और विधि शास्त्र के आधार पर न्याय करना होता है. इसलिए अक्सर सरकार की सोच और अदालत के फैसले में अंतर आता है. हालांकि, भारत में अब यह अंतर घटा है, जिसका नतीजा मूल अधिकारों पर बढ़ते हमले और किसानों को सरकार की ओर से अदालत जाने की सलाह मिलने के रूप में सामने आ रहा है.
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