भारत महामारी में तो भारतीय राजनीतिक विद्वेष और अहंकार के भंवर में फंसी है. कुछेक राजनीतिक पार्टियां सत्ता की इतनी भूखी हो चुकी है कि वे राजनीतिक विरोधियों को लोकतंत्र में सहयोगी नहीं, बल्कि दुश्मन की तरह देखने लगी हैं. उनका विरोध विपक्ष मुक्त राजनीति की शक्ल ले लेता है, जबकि संसदीय कार्यप्रणाली में विपक्ष अनिवार्य अंग है और वह कई मौकों पर सत्ता पक्ष के साथ मिलकर काम करता है., जैसे संसद/विधानमंडल की स्थायी या अस्थायी समितियां.
अगर विपक्ष को दरकिनार या अनसुना करने का उदाहरण तलाशें तो यह केंद्र की राजनीति में प्रमुखता से दिखाई देता है. केंद्र सरकार संसदीय समितियों में विपक्ष की मौजूदगी से खुद को इतना असहज महसूस करती है कि उसे कानून निर्माण की प्रक्रिया से अलग रखने के लिए सारे हथकंडे अपना रहा है. इसके लिए दोनों सदनों के सभापति या अध्यक्ष की विवेकाधीन शक्तियां का इस्तेमाल करने, साधारण कानूनों के लिए अध्यादेश लाने और विधेयकों को वित्त विधेयक के रूप पेश करके राज्य सभा को निष्क्रिय करने जैसे तमाम उदाहरण बिखरे पड़े हैं.
खास तौर पर, इस महामारी के दौर में जब सभी को मिलाकर काम करने की जरूरत है, केंद्र सरकार कोई सर्वदलीय बैठक करने तक में असफल रही है. लेकिन राज्य सरकारों के स्तर पर यह चूक नहीं दिखाई देती है. कोरोना महामारी के नियंत्रण को लेकर छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्य या तो सर्वदलीय बैठक कर चुके हैं या फिर नेता प्रतिपक्ष के साथ संपर्क में हैं. इसके विपरीत उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में विपक्ष के वाजिब सुझावों को भी राजनीति करार देकर खारिज करने की प्रवृत्ति दिखाई दे रही है.
हालांकि, इन सब आधारों पर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन अन्य राज्यों और केंद्र सरकार से बेहतर नजर आते हैं. उन्होंने कोरोना महामारी से निपटने पर सलाह देने के लिए 13 सदस्यीय सर्वदलीय समिति बनाई है. इसमें विधानसभा में प्रतिनिधित्व करने वाले पक्ष-विपक्ष के सभी दलों के प्रतिनिधि शामिल हैं. इस समिति के साथ हफ्ते में एक दिन बैठक होती है और कोरोना नियंत्रण के बारे में विधायकों से सलाह ली जाती हैं. राजनीतिक विश्लेषक एम. के. स्टालिन इस कदम को राजनीतिक दुश्मनी और परदेदारी से ऊपर उठने के प्रयास के तौर पर देख रहे हैं.
एम. के. स्टालिन के उलट इस महामारी के दौरान भी विपक्ष को लेकर केंद्र सरकार के रवैये में कोई फर्क नहीं आया है. केंद्र सरकार विपक्ष की मांगों, सवालों या सरकार की खामियों को उजागर करने के प्रयासों को कोरी राजनीतिक कहकर खारिज करने में जुटी है. यह अलग बात है कि कुछ दिन उन्हीं सुझाव पर अमल करती दिखाई देती है. उदाहरण के लिए, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वैक्सीनेशन का दायरा बढ़ाने और इसके लिए वैक्सीन की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए विदेशी निर्माताओं से वैक्सीन खरीदने का सुझाव दिया था. इस पर केंद्र सरकार और सत्ताधारी पार्टी हमलावर हो गई. फिर केंद्र सरकार ने विदेशी वैक्सीन निर्माताओं से वैक्सीन की आपूर्ति को मंजूरी दे दी.
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि सीएम एम. के. स्टालिन का 13 सदस्यीय समिति बनाकर काम करने का प्रयास व्यक्तिवादी या करिश्माई राजनीति पर भी चोट करता है. यह आज केंद्र और दूसरी राज्य सरकारों में देखा जा सकता है. ज्यादा नहीं, किसी भी दिन का अखबार उठाकर देखें तो लगेगा कि केंद्र और राज्य में एक या दो व्यक्ति ही सारा काम कर रहे हैं, बाकी सभी बैठे हैं. एक ही आदमी विशेषज्ञों से लेकर फ्रंटलाइन वर्कर्स तक से बात कर रहा है, वही दवा कंपनियों के प्रतिनिधियों से भी चर्चा कर रहा है, वही जनता को भी कोरोना से बचाव के तरीके सिखा रहा है, वही सेना और सुरक्षा बलों का भी मनोबल बढ़ा रही है, एक ही व्यक्ति सभी जिलों के अधिकारियों से ही जायजा ले रहा है.
शासन-प्रशासन के स्तर पर मात्र एक या दो व्यक्तियों के सक्रिय होने का खामियाजा यह है कि पूरा सिस्टम एक या दो लोगों की छवि बनाने के काम जुट जाता है, और अपना असल काम करना छोड़ देता है. इस विकेंद्रीकृत सोच के अभाव का खामियाजा यह रहा कि कुछेक जिलों और राज्यों को छोड़कर कहीं पर भी कोरोना वायरस की दूसरी लहर से निपटने के लिए जरूरी इंतजाम नदारद मिले. उदाहरण के लिए, केरल में संक्रमण के मामलों की तुलना मौतों की संख्या कम रही, जबकि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में अनगिनत शव नदियों तैरने लगे.
राजनीतिक विश्लेषक के मुताबिक, यह सामने आना अभी बाकी है कि सीएम एम. के. स्टालिन अपनी इसी समावेशी राजनीति को आगे बढ़ाएंगे, या वक्त के साथ तमिलनाडु की पुरानी टकराव और रहस्यों से भरी राजनीति की तरफ लौट जाएंगे. हालांकि, कुछ जानकार एम. के. स्टालिन को व्यवहारिक नेता बताते हैं और ऐसी किसी आशंका को खारिज कर रहे हैं.
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