सामाजिक विकास की अपनी एक अलग ही धारा होती है. यह राष्ट्र या राष्ट्रीयता की तमाम सीमाओं से परे होकर बहती है. खास तौर पर खुली अर्थव्यवस्था और सूचना तकनीक के विस्तार ने दुनिया को एक-दूसरे से प्रभावित होने का भरपूर मौका दिया है. लेकिन इस दौरान अतिराष्ट्रवाद जैसी संकुचित सोच ने भी तेजी से जगह बनाई है. इसका असर है कि लोग अक्सर उन व्यवस्थाओं या प्रक्रियाओं को बदलने की मांग करने लगते हैं, जो बतौर औजार किसी देश और उसकी जनता के बीच जगह बना चुके हैं. ऐसी ही व्यवस्था भारत की संसदीय प्रणाली है, जिसे अप्रासंगिक ठहराकर बदलने की मांग अक्सर उठती है.
संसदीय व्यवस्था वेस्टमिंटर मॉडल पर
भारत की संसदीय प्रणाली ब्रिटेन के वेस्टमिंस्टर मॉडल पर आधारित है. इसका बुनियादी ढांचा अंग्रेजी हुकूमत के समय लागू हो गया था. आज यह भारत में पूरी तरह से रच-बस चुका है. वैसे इसे बदलने की सबसे सशक्त आवाज उठाने वालों में ‘एन इरा ऑफ डार्कनेस : द ब्रिटिश एंपायर इन इंडिया’ के लेखक शशि थरूर सबसे आगे हैं. उनके मुताबिक, ‘लोकतंत्र का वेस्टमिंस्टर मॉडल भारत के लिए ठीक नहीं है. यह व्यवस्था ब्रिटेन में जन्मी, जो भारत के मुकाबले बहुत छोटा सा द्वीप देश था. जहां एक सांसद केवल कुछ हजार मतदाताओं का प्रतिनिधि होता था. अब भी यह संख्या एक लाख से कम है. संख्या की इस शर्त को सामान्य तौर पर भारत में लागू कर पाना नामुमकिन है.’
सांसद शशि थरूर के मुताबिक, वेस्टमिंस्टर मॉडल में सांसदों की सरकार बनाने में भागीदारी होती है, इसके चलते ऐसे लोग संसद में पहुंच जाते हैं, जिनकी दिलचस्पी संसद में कानून बनाने में नहीं, बल्कि सरकार का हिस्सा बनने की होती है. वे आगे कहते हैं कि संसद में बहुमत के आधार पर सरकार बनाने की व्यवस्था से सांसदों का सारा ध्यान सत्ता में बने रहने पर चला जाता है और कानून बनाने या सरकार के कामकाज का आकलन करने की जिम्मेदारी पीछे छूट जाती है. शशि थरूर को वेस्टमिंस्टर मॉडल पर आधारित संसदीय व्यवस्था की जगह अमेरिका की अध्यक्षीय प्रणाली को लागू करने का समर्थक माना जाता है.
सांसद शशि थरूर की बातें और तर्क सही हैं, क्योंकि यही संसदीय प्रणाली की बुनियादी खामियां हैं. लेकिन सवाल उठता है कि क्या अध्यक्षीय प्रणाली खामियों से मुक्त है?
अध्यक्षीय प्रणाली, विधायिका और कार्यपालिका के पूर्ण अलगाव आधारित है. चूंकि, इसमें प्रत्यक्ष चुनाव होता है इसलिए यह न केवल चुनाव खर्चीला हो जाता है, बल्कि बहुदलीय व्यवस्था की संभावना लगभग-लगभग खत्म हो जाती है. बहुदलीय व्यवस्था का न होना भारत जैसी विविधता वाले देश में उचित प्रतिनिधित्व का संकट खड़ा कर सकता है. इतना ही नहीं, अमेरिका की अध्यक्षीय प्रणाली अक्सर दूसरे संकटों से जूझती रहती है. इसमें कार्यपालिका और विधायिका का आपसी टकराव प्रमुख है. बीते दिनों राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की आप्रवासन नीति से असहमत संसद ने बजट अनुदान पारित करने से इनकार कर दिया था. इसके जवाब में ट्रंप प्रशासन ने कई विभागों में तालाबंदी कर दी थी. इससे जनता को मिलने वाली तमाम सेवाएं ठप पड़ गई थीं.
कुल मिलाकर कोई भी शासन प्रणाली खामियों से मुक्त नहीं हैं. तमाम तर्कों के बीच ये ध्यान रखना होगा कि शासन प्रणाली आखिरकार एक उपकरण है, जिसके नफा-नुकसान उसके इस्तेमाल करने वालों की सोच पर निर्भर करता है. बतौर उदाहरण अल्ट्रासाउंड मशीन, जिसका रोगों की पहचान में इस्तेमाल होता है, लेकिन भारत में इसे गर्भस्थ शिशु की लिंग जांच कर लड़कियों को मारने में इस्तेमाल किया जाने लगा. इस दुरुपयोग के बावजूद ना तो अल्ट्रासाउंड मशीन को गलत कहा जा सकता है और न ही बीमारियों का पता लगाने की इसकी क्षमता को कटघरे में खड़ा किया जा सकता है.
ऐसा नहीं है कि भारत में अध्यक्षीय प्रणाली को लागू नहीं किया जा सकता. लेकिन ऐसा करना बीते सात दशक में यमुना के पानी में घुल चुके टेम्स के पानी को अलग करने जैसी असंभव कवायद होगी. कहने का मतलब है कि वेस्टमिंस्टर मॉडल (टेम्स नदी के किनारे बसे लंदन) पर आधारित भारतीय संसदीय प्रणाली (यमुना नदी के किनारे बसी दिल्ली) लोगों के अभ्यास में आ चुकी है. इसे बदलने के बाद इस बात की कोई गारंटी नहीं कि संसदीय प्रणाली के बरक्स अध्यक्षीय प्रणाली की जो कमियां हैं, वे भारत में नहीं आएंगी.
कभी भारतीय संविधान की सफलता को लेकर भी सवाल उठे थे. तब डॉ भीमराव अंबेडकर ने साफ शब्दों में कहा था कि संविधान की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि इसे चलाने वाले लोग कैसे हैं? इसका मतलब है कि अगर चलाने वाले कुशल हों तो ससंदीय प्रणाली से भी देश प्रगति के रास्ते पर चल सकता है.
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