भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा-309 के तहत आत्महत्या का प्रयास दंडनीय अपराध घोषित है. हालांकि, यह सवाल अक्सर पूछा जाता रहा है कि आत्महत्या का प्रयास करने वाले व्यक्ति को सजा देना कितना सही है? इस सवाल और कानून की संवैधानिक वैधता पर सुप्रीम कोर्ट ने कई बार अपने मत दिए हैं, लेकिन यह मामला एक बार फिर सुर्खियों में है.
सुप्रीम कोर्ट ने 11 सितंबर 2020 को एक गैर-सरकारी संगठन की याचिका की सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार से मानसिक स्वास्थ्य देख-रेख अधिनियम-2017 पर जवाब मांगा, जो कि भारतीय दंड संहिता की धारा-309 का मूल रूप से खंडन करता है. केंद्र को नोटिस जारी करते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश शरद अरविंद बोबडे ने कहा कि जहां एक ओर धारा-309 आत्महत्या के प्रयास को दंडनीय अपराध मानती है, वहीं मानसिक स्वास्थ्य देख-रेख अधिनियम-2017 यह मानता है कि अवसादग्रस्तता ही आत्महत्या के प्रयास का मूल कारण है.
सुप्रीम कोर्ट ने कब क्या कहा?
सुप्रीम कोर्ट ने कई मौकों पर भारतीय दंड संहिता की धारा-309 को संवैधानिक माना है. यह अलग बात है कि सुप्रीम कोर्ट के भीतर इस पर काफी मतभेद रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने सबसे पहले पी रतिनाम बनाम भारत सरकार मामले में धारा-309 को असंवैधानिक माना और इसे अवैध घोषित कर दिया. लेकिन यह आदेश बहुत ज्यादा दिन तक लागू नहीं रह सका. इसको सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने ही ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य मामले में नकार दिया. संविधान पीठ ने अपने फैसले में कहा कि संविधान के अनुच्छेद-21 के अंतर्गत ‘जीवन के अधिकार’ में ‘मरने का अधिकार’ शामिल नहीं है और घोषित किया कि भारतीय दंड संहिता की धारा-309 और धारा-306 (आत्महत्या के लिए उकसावा) दोनों ही संवैधानिक और वैध हैं.
जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने क्या कहा?
संविधान पीठ के इस ऐतिहासिक फैसले के 20 साल बाद कॉमन कॉज बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने इससे अलग राय जाहिर की. इसी संविधान पीठ ने निष्क्रिय इच्छा मृत्यु को वैधता दी थी. इस मामले में आए फैसले में न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ ने मानसिक स्वास्थ्य देख-रेख अधिनियम 2017 की धारा-115 का हवाला देते हुए राय व्यक्त की थी कि आने वाले वक्त में ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य में दिए गए फैसले, जिसमें कहा गया था कि संविधान के अनुच्छेद-21 के अंतर्गत जीवन के अधिकार में मरने का अधिकार शामिल नहीं है, पर पुनर्विचार किया जा सकेगा.
विधि आयोग का क्या कहना है?
जिस तरह सुप्रीम कोर्ट अपने आदेशों द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा-309 के मूल चरित्र में बदलाव करता रहा है, उसी तरह विधि आयोग ने भी इस पर समय-समय पर विभिन्न मत दिए हैं. विधि आयोग ने 1971 में अपनी 42वीं रिपोर्ट में धारा-309 को खत्म करने की सिफारिश की थी और इसे न्याय के विपरीत बताया. हालांकि, 156वीं रिपोर्ट, जो कि ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य के फैसले के बाद आई थी, में विधि आयोग ने धारा-309 को बनाए रखने की सिफारिश की. इसके बाद 2009 में अपनी रिपोर्ट में विधि आयोग ने धारा-306 को बनाए रखने की सिफारिश की लेकिन धारा-309 को हटाने की जरूरत बताई.
कब आत्यहत्या का प्रयास अपराध बना?
यह सही है कि 1860 में बनी भारतीय दंड संहिता की धारा-309 ब्रिटिश शासन की देन है, जिसने आत्महत्या के प्रयास को एक दंडनीय अपराध माना और एक वर्ष के सामान्य कारावास की सजा का प्रावधान किया. फिर 1882 में एक संशोधन लाकर इसमें जुर्माने का प्रावधान किया गया. तब से अदालतें कारावास के बजाए जुर्माने की भी सजा के विकल्प का इस्तेमाल कर रही हैं.
नए कानून की धारा-115 क्या कहती है?
वैसे धारा-309 पर अगर किसी ने सबसे ज्यादा प्रभावी असर डाला तो वह 2017 में संसद से पारित मानसिक स्वास्थ्य देख-रेख अधिनियम है. इसकी धारा-115 यह कहती है कि धारा-309 में निहित किसी बात के होते हुए किसी व्यक्ति को, जो आत्महत्या का प्रयास करता है जब तक कि साबित ना हो जाए, गंभीर दबाव से ग्रस्त माना जाएगा और उसके खिलाफ सजा पर विचार नहीं किया जाएगा. दूसरे शब्दों में कहें तो कोई भी व्यक्ति जो आत्महत्या का प्रयास करता है, सबसे पहले यह माना जाएगा कि वह गंभीर दबाव से ग्रस्त है और उसके खिलाफ मामले की सजा पर सुनवाई नहीं की जाएगी. इस तरह से यह धारा सरकारी अभियोजन पर दबाव डालती है कि पहले वह यह साबित करें कि आत्महत्या का प्रयास करते वक्त आरोपित व्यक्ति किसी गंभीर मानसिक दबाव से ग्रस्त नहीं था, तभी धारा-309 के तहत ऐसे व्यक्ति के खिलाफ मामले की सुनवाई संभव है.
इसके बावजूद वर्तमान में भारतीय दंड संहिता की धारा-309, जो आत्महत्या के प्रयास को दंडनीय अपराध बनाती है, जो संवैधानिक और वैध है. सुप्रीम कोर्ट ने अभी इसे असंवैधानिक नहीं घोषित किया है, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य देखरेख अधिनियम-2017 की धारा-115 के तहत आत्महत्या के प्रयास करने वाले व्यक्ति के बारे में सिर्फ अपनी राय जाहिर की है.
नए कानून की धारा-115 का क्या असर पड़ा है?
यहां पर यह जानना जरूरी है कि फिर मानसिक स्वास्थ्य देख-रेख अधिनियम-2017 के आने के बाद भारतीय दंड संहिता की धारा-309 को लागू करने पर क्या फर्क पड़ा है? इसे कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है जैसे:- पहला, कोई व्यक्ति जो अपनी पत्नी की हत्या करता है या उससे लड़ाई झगड़ा करते-करते उससे हत्या हो जाती है और वह डर के कारण या लोक-लाजवश आत्महत्या करने की कोशिश करता है और उसे गहरी चोट आती है तो ऐसे मामले में धारा-309 के तहत अपराध दर्ज किया जाएगा और उसकी सुनवाई भी की जाएगी. इसमें सरकारी वकील को बगैर किसी विरोधाभास के यह साबित करना होगा कि आत्महत्या का प्रयास करते वक्त आरोपित व्यक्ति किसी गंभीर दबाव में नहीं था.
दूसरा, यदि कोई व्यक्ति यह एलान करता है कि वह अपनी मृत्यु तक उपवास रखेगा और वह ऐसा करने की कोशिश करता है और उसकी स्थिति यहां तक पहुंच जाती है कि किसी भी वक्त उसकी मृत्यु हो सकती है तो ऐसे मामलों में भी धारा-309 के तहत अपराध दर्ज किया जाएगा और सुनवाई भी होगी.
इन उदाहरणों के अतिरिक्त अगर कोई व्यक्ति मानसिक रोगी है या अवसादग्रस्त है या परिस्थिति जन्य किसी कारण से गंभीर दबाव में है और इसके चलते अगर वह आत्महत्या का प्रयास करता है तो ऐसे व्यक्ति के खिलाफ धारा-309 के अंतर्गत किसी मामले पर कोई विचार नहीं किया जा सकता है.
आत्महत्या को मानसिक स्वास्थ्य से जोड़ने की जरूरत
यह कहना काफी हद तक सही होगा कि मानसिक स्वास्थ्य देख-रेख अधिनियम-2017 की धारा-115 ने आत्महत्या के प्रयास को गैर-अपराधिक बनाने की पूरी कोशिश की है. मानसिक स्वास्थ्य देख-रेख बिल लाते वक्त स्वास्थ्य मंत्री जे पी नड्डा ने कहा था कि अब आत्महत्या के प्रयास से जुड़े मामलों को आईपीसी प्रावधानों के तहत नहीं देखा जा सकता, अगर कोई व्यक्ति अवसादग्रस्त होकर आत्महत्या करने की कोशिश करता है तो उसे मानसिक बीमारी माना जाएगा, ना कि अपराध.
न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन ने नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत सरकार मामले में भारतीय दंड संहिता की धारा-377 के अंतर्गत समलैंगिकता के अधिकार को वैध ठहराने वाले फैसले में धारा-309 पर भी अपना मत व्यक्त किया था. उन्होंने कहा था कि मानसिक स्वास्थ्य देख-रेख अधिनियम 2017 की धारा-115 ने भारतीय दंड संहिता की एक और धारा-309 को बहुत हद तक निष्क्रिय कर दिया है, कोई व्यक्ति जो आत्महत्या का प्रयास करता है, माना जाएगा कि उसने गंभीर दबाव में ऐसा कदम उठाया है, उसके विरुद्ध कोई भी सुनवाई नहीं की जाएगी. उसे भारतीय दंड संहिता की धारा 309 के अंतर्गत दंडित नहीं किया जाएगा. इसके अलावा सरकार का यह दायित्व होगा कि वह ऐसे व्यक्ति को समुचित देखभाल, चिकित्सा और पुनर्वास प्रदान करें, जिससे कि वह व्यक्ति दोबारा आत्महत्या के प्रयास ना करें.
सरकारों की जिम्मेदारी क्या है?
भारतीय संसद ने मानसिक स्वास्थ्य देख-रेख अधिनियम-2017 की धारा-115 के जरिए यह बात बिल्कुल साफ कर दी कि आत्महत्या का प्रयास करने वाले व्यक्तियों के प्रति सरकार को मानवीय दृष्टिकोण से विचार करने और ऐसे व्यक्तियों को दंडित करने की जगह पर उचित इलाज और देखभाल मुहैया कराने की जरूरत है.