देश और दुनिया में रफ्तार बढ़ी है. आज हर बात रफ्तार के अंदाज में होने लगी है. इसका लोगों के सोचने-समझने और समाज के ढांचे पर भी असर पड़ रहा है. कल जो सूचना या अफवाह महीनों बाद सब तक पहुंच पाती थी, अब यह काम कुछ मिनट में होने लगा है. शासन-प्रशासन भी ठोस फैसलों की जगह तेजी से फैसला करने के दावे करने लगे हैं. देश और दुनिया के तमाम नेता कहते हैं कि तेजी से फैसला करने में उनका कोई मुकाबला ही नहीं है. लेकिन उनका फैसला क्या है, उस फैसलों का व्यापक असर क्या है? कोई भी फैसला करने के लिए उससे जुड़ी सारी सूचनाएं जुटाने, उसे लागू करने की दशाओं का आकलन, उसके तत्काल और दीर्घकालिक असर का मूल्यांकन और लाभ-हानि का अंदाजा एक अनिवार्य प्रक्रिया है. क्या इस प्रकिया को मानते हुए कोई फैसला किया गया है या इसे तोड़कर, क्या प्रक्रिया को तोड़ना सही है या गलत, यह समझना बेहद जरूरी है.
सुस्त संतोष और फुर्तीला दुर्गा प्रसाद
यह कहानी राजस्थान के जयपुर की एक ऑफिस की है. यहां सभी कर्मचारियों की डेस्क पर दो लीटर के पानी के एक जग रखने का चलन है, ताकि कर्मचारी काम के साथ पानी पीने में कोई कोताही न करें. सभी कर्मचारियों की डेस्क की सफाई और उस पर पानी रखने के लिए संतोष और दुर्गा प्रसाद नियुक्त थे. संतोष के सुस्त कामकाज से लगभग सभी नाखुश और दुर्गा प्रसाद की फुर्ती से सभी खुश. सबका कहना था कि दुर्गा सारा काम चट से कर देता है, सबके आने से पहले ही सारी डेस्क की साफ-सफाई करके जग में पानी रख देता है, जबकि संतोष यही काम दोपहर तक कर पाता है.
चुस्ती और फुर्ती का सच
लेकिन एक दिन उस ऑफिस का एक कर्मचारी अपने तय समय से तकरीबन एक घंटे पहले ऑफिस पहुंच गया. उसने देखा कि दुर्गा प्रसाद ने, जिसे बहुत फुर्तीला बताया जाता था, सभी जग को एक डेस्क पर जमा करके रखा है, रात के बचे पानी को एक-दूसरे जग में डालकर उन्हें भरकर फिर से सभी डेस्क पर वापस रख रहा है. अब इसके बाद जो जग खाली बच रहे हैं, उनमें बाहर लगे वाटर फिल्टर से पानी भर रख रहा है. अब संतोष के काम करने का तरीका देखें, वह पहले सारे जग को इकट्ठा करता, उसे साफ करता और फिर उनमें पानी भरकर सबकी डेस्क पर वापस रखता. डेस्क पर पानी रखने की शर्त यही थी कि वह साफ-सफाई से रखा गया हो. लेकिन फुर्तीला दुर्गा प्रसाद रात का बचा पानी और गंदे जग में लोगों को पानी पिला रहा था, जबकि सुस्त संतोष सबको साफ जग में ताजा भरा पानी. यानी प्रक्रिया और मूल्यों का उल्लंघन करने वाला दुर्गा प्रसाद सबकी नजरों में फुर्तीला था, जबकि मूल्यों और नैतिकता को मानने वाला संतोष सुस्त. असलियत में फुर्तीला, लेकिन मूल्यों से समझौता करने वाला दुर्गा प्रसाद कर्मचारियों की सेहत को जोखिम में डालने वाला था.
मूल्यों की कीमत पर त्वरित फैसले कितने सही
संतोष और दुर्गा प्रसाद की यह कहानी निर्णयन (डिसीजन मेकिंग) में मूल्यों के असर की अकादमिक और सैद्धांतिक बहस से जुड़ी है, जिसे प्रबंधन और लोक प्रशासन में पढ़ाया जाता है. इसमें कहा जाता है कि अगर कोई व्यक्ति मूल्यों और नैतिकता को बहुत ज्यादा महत्व देता है तो वह तेजी से फैसले नहीं कर पाएगा. लेकिन कोई व्यक्ति अगर मूल्य और नैतिकता को तवज्जो नहीं देता है तो वह तेजी से फैसले कर सकता है, लेकिन इसके नतीजे सबके हित में हों, यह जरूरी नहीं है. यह बात किसी एक व्यक्ति की निजी जिंदगी से लेकर किसी कंपनी या सरकार तक सभी जगहों पर सटीक बैठती है. इस आधार पर देखें तो मौजूदा केंद्र सरकार अपने जिन फैसलों को त्वरित बताती है, वे समाज, लोकतंत्र और अर्थव्यवस्था को जबरदस्त चोट पहुंचाने वाले साबित हुए हैं. इसे नोटबंदी से लेकर लॉकडाउन और कृषि कानूनों को देखा जा सकता है. सरकार ने अपने फैसले में मूल्यों और प्रक्रियाओं को नजरअंदाज किया है, इसका सबूत ऐसे तमाम बड़े फैसलों में बार-बार की गई व्यवहारिक तब्दीलियां हैं, जिनका सचेत रहने पर पहले ही अंदाजा कर लेना संभव था.
केंद्र सरकार के त्वरित फैसलों का असर
केंद्र सरकार ने नवंबर 2016 में पांच सौ और हजार रुपये के पुराने नोटों को एक झटके में बंद कर दिया. लोगों के अपने पैसे रद्दी में बदल गए. इलाज से लेकर शादी-ब्याह तक के काम फंस गए. बैंक से लेकर एटीएम तक सारे इंतजाम लोगों की जरूरत पूरी करने में नाकाम साबित हो रहे थे. सरकार ने तेजी से फैसला किया, इसमें कोई शक नहीं, लेकिन क्या इसमें सारी बातों का ध्यान रखा गया था? अगर रखा गया था तो लोगों को पैसों के लिए क्यों भटकना पड़ा? कैशलेस लेन-देने की अपील ठीक थी, लेकिन क्या सरकार को देश में मौजूद डिजिटल डिवाइड की जानकारी नहीं थी?
अगर सरकार ने बहुत सोच-समझकर फैसला किया था तो फिर उसे नोट बदलने के नियमों में बार-बार बदलाव क्यों करने पड़े? सबसे बड़ा सवाल कि कल्याणकारी शासन का बुनियादी मूल्य कहता है कि कतार के अंत में खड़े व्यक्ति का ख्याल रखा जाएगा, क्या सरकार ने नोटबंदी करते समय उनका ख्याल रखा? सरकार ने नोटबंदी से आतंकवाद रुकने से लेकर कैशलेश इकोनॉमी बनाने जैसे दावे किए थे. बेशक ऑनलाइन ट्रांजैक्शन बढ़ा है, लेकिन नोटों के प्रचलन में कोई कमी नहीं आई है, क्योंकि यह लेन-देन का सबसे आसान तरीका है. इसी तरह सरकार को ‘एक देश-एक कर’ के नाम से लाए गए वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) में बार-बार बदलाव करना पड़ा, जो फैसला करने से पहले जरूरी तैयारी न किए जाने का सबूत है.
अंतिम व्यक्ति का ख्याल क्यों नहीं
तेजी से फैसला करने की यह आदत यहीं तक सीमित नहीं है. इसी साल मार्च में कोरोना के बढ़ते मामलों के बीच सरकार ने पूरे देश में एक मुस्त लॉकडाउन लगा दिया. लोग जगह-जगह फंस गए, मजदूर शहरों से पैदल ही अपने गांव लौटने लगे. इससे कोरोना संक्रमण रुकने की जगह ज्यादा रफ्तार से फैला. आज भारत कोरोना संक्रमण के मामले में दुनिया में दूसरे नंबर पर खड़ा है. अर्थव्यवस्था के सुस्त होने से लोगों को रोजगार से लेकर आमदनी के दूसरे स्रोतों को खोना पड़ा.
किसान और सरकार इतने दूर क्यों खड़े हैं
केंद्र सरकार के कथित त्वरित फैसले में कश्मीर के विशेष दर्जे से जुड़े अनुच्छेद 370 की समाप्ति को भी देखा जा सकता है, जहां आज तक हालात सामान्य नहीं हो पाए हैं. कृषि सुधारों के नाम पर लाए गए कानूनों को भी ऐसे ही त्वरित फैसलों में गिना जा सकता है, जिसने आज एक बड़े किसान आंदोलन को जन्म दे दिया है. सरकार संसद से आपाधापी में पारित कानूनों से किसानों को आजादी मिलने के दावे कर रही है, लेकिन किसान इसे अपने भविष्य के लिए खतरा बताते हुए इन्हें तत्काल वापस लेने की मांग कर रहे हैं.
कृषि सुधार के लिए आपातकालीन उपाय का इस्तेमाल क्यों
किसानों की आशंका के बीच कुछ वाजिब सवाल हैं कि अगर सरकार किसानों की भलाई करने का फैसला करना चाहती थी तो उसने अध्यादेश जैसे आपातकालीन व्यवस्था का इस्तेमाल क्यों किया? इसके लिए लॉकडाउन जैसा मुश्किल वक्त क्यों चुना? कानून निर्माण में किसानों और दूसरे साझेदारों को शामिल क्यों नहीं किया गया, जिसे दूसरे मामलों में अपनाया जाता है. संसद में विपक्ष के तीखे विरोध को नजरअंदाज करके कानून क्यों पारित कराया गया? क्या संसदीय लोकतंत्र में बहुमत को संसदीय नियमों और परंपराओं या भावनाओं को दांव पर लगाने की छूट है? क्या सत्ता में होने का मतलब हर बात में सही हो जाना है? क्या जनता की आवाज को अनसुना करना लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन नहीं है, आज ऐसे तमाम सवाल देश की जनता, न्यायपालिका, विधायिका और सरकार के सामने खड़े हैं. अंत में सवाल यही है कि ऐसे तेज फैसलों का क्या फायदा, जिसमें फायदे से ज्यादा नुकसान होता हो?