संसदीय राजनीति का यह नया स्वरूप सामने आया है, जहां संसद का कामकाज ठप करके सिर्फ राजनीति को आगे बढ़ाया जा रहा है. सरकार ने संसद का शीतकालीन सत्र नहीं बुलाया है कि कहीं सांसद कोरोना संक्रमण की चपेट में न आ जाएं, लेकिन उसके मंत्री और नेता हजारों-हजार की भीड़ वाली चुनावी रैलियां कर रहे हैं. सत्ताधारी बीजेपी के वरिष्ठ नेता और देश के गृहमंत्री अमित शाह पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार कर रहे हैं, प्रधानमंत्री के लिए किसान सभाओं का आयोजन किया जा रहा है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या कोरोना महामारी को संसद सत्र टालने के लिए बहाना बनाया जा रहा है? गौरतलब है कि संसद सत्र को बुलाने की व्यवस्था पर संविधान सभा में विस्तृत चर्चा हुई थी. इसके बाद राष्ट्रपति को सत्र बुलाने का अधिकार दिया गया था.
किसानों की आवाज कौन सुनेगा
इस बारे में केंद्र सरकार का कहना है कि सभी राजनीतिक दलों की राय से संसद सत्र नहीं बुलाया जा रहा है. लेकिन कांग्रेस और डीएमके जैसे विपक्षी दलों ने न केवल सरकार के इस फैसले का विरोध किया है, बल्कि किसानों के आंदोलन से पैदा हुए हालात को देखते हुए संसद का सत्र तत्काल बुलाने की मांग की है. दरअसल, कड़ाके की सर्दी के बीच पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के हजारों किसान दिल्ली की सीमाओं पर धरना दे रहे हैं. यहां पर धरना इसलिए दे रहे हैं, क्योंकि सरकार ने उन्हें दिल्ली नहीं जाने दिया है. अगर लोकतंत्र में जनता के प्रति जवाबदेह उसकी या उसके किसी हिस्से की आवाज नहीं सुनेगी और संसद तक उसकी आवाज नहीं पहुंचने देगी तो संसदीय राजनीति से उम्मीद रखने वाले कहां जाएंगे? क्या सरकार बहुमत और चुनावी लोकप्रियता के आधार पर संसद का रास्ता रोक रही है?
सत्र बुलाने के क्या-क्या प्रावधान हैं
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-85 में संसद सत्र बुलाने, सत्र समाप्त करने और लोक सभा का विघटन करने का प्रावधान है. इसके खंड (1) के मुताबिक, राष्ट्रपति समय-समय पर, संसद के प्रत्येक सदन को ऐसे समय और स्थान पर, जो वह ठीक समझे, अधिवेशन के लिए बुलाएगा, लेकिन एक सत्र की अंतिम बैठक और आगामी सत्र की प्रथम बैठक के लिए तय तारीख में छह महीने का अंतर नहीं होगा. खंड (2) के मुताबिक, राष्ट्रपति, समय-समय पर- (क) सदनों का या किसी सदन का सत्रावसान कर सकेगा; (ख) लोकसभा का विघटन कर सकेगा.
संसद का सत्र पूरे साल चलाने की उठी थी मांग
संविधान सभा में संसद का सत्र बुलाने, सत्रावसान और विघटन संबंधी अनुच्छेद-69 (बाद में अनुच्छेद-85 बना) पर 18 मई 1948 को चर्चा हुई थी. इस पर चर्चा की शुरुआत करते हुए प्रोफ़ेसर के टी शाह ने सुझाव रखा था कि हर साल की शुरुआत में कम से कम एक सत्र बुलाया जाए और किन्हीं दो सत्रों के बीच तीन महीने से ज्यादा का अंतर न रखा जाए. इसके साथ उन्होंने यह शर्त भी जोड़ने का सुझाव दिया कि जो भी सत्र बुलाया जाए, वह ब्रिटेन की तरह पूरे संसदीय वर्ष तक चालू माना जाए. इन सुझावों के पीछे प्रोफेसर के टी शाह का सीधा तर्क था कि इससे संसदीय कामकाज को निपटाने के लिए समय की कमी नहीं रहेगी. ब्रिटिश संसद से तुलना करते हुए उन्होंने यह भी कहा था कि वहां साल भर में 200 दिन से ज्यादा काम होता है, लेकिन यहां (भारत) 100 दिन भी विधायिका काम नहीं करती है. उनका यह भी कहना था कि भविष्य में संसदीय कामकाज का विस्तार होने पर समय की कमी संसदीय जिम्मेदारियों को निभाने में बाधा बन जाएगी.
साल में कम से कम तीन बैठक की मांग
संविधान सभा के एक अन्य सदस्य एच वी कामथ ने एक साल में संसद के दो नहीं, बल्कि तीन सत्र बुलाने का प्रावधान करने का सुझाव दिया था. उन्होंने भी संसदीय कामकाज के लिए समय की कमी का हवाला दिया. एच वी कामथ ने कहा कि भारतीय संविधान के मसौदे में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट-1935 के प्रावधान को हूबहू कॉपी कर लिया गया है जो ठीक नहीं है, अमेरिकी कांग्रेस और ब्रिटिश संसद साल में कम से कम आठ से नौ महीने तक सत्र में रहती हैं. उन्होंने आगे कहा, “मैं देश में लोकतंत्र के भीतर संसद की बात कर रहा हूं, न कि तानाशाही की, और मुझे उम्मीद है कि हम देश में लोकतंत्र रखने जा रहे हैं, न कि तानाशाही, इसलिए लोकतंत्र में कोई भी संसद साल में छह महीने के बाद बैठक करते हुए जनता के प्रति जिम्मेदारियों को नहीं पूरा कर सकती है.” एच वी कॉमथ ने यह भी कहा कि गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के तहत साल में दो बार संसद सत्र बुलाने का प्रावधान था, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ जब साल में दो बार से ज्यादा संसद सत्र बुलाया गया हो, इसलिए भारतीय संविधान में संसद के कम से कम तीन सत्र (पहला बजट सत्र, साल के बीच में-जुलाई से अगस्त- लगभग दो महीने का और तीसरा सर्दी में अक्टूबर से नवंबर के बीच) बुलाने का प्रावधान किया जाए.
अगर राष्ट्रपति सत्र बुलाने से इनकार कर दे तो?
प्रो. के टी शाह ने राष्ट्रपति द्वारा संविधान के तहत तय समय में संसद सत्र न बुलाने का विकल्प जोड़ने का सुझाव दिया था. उन्होंने कहा था कि गर राष्ट्रपति तय समय में संसद सत्र नहीं बुलाएं तो लोक सभा में अध्यक्ष और राज्य सभा में सभापति को अपने-अपने सदन का सत्र बुलाने और सभी विधायी कार्य संचालित करने का अधिकार होना चाहिए. सवाल उठता है कि क्या प्रोफेसर के टी शाह की यह आशंका आज सही साबित हो रही है? चूंकि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह से काम करता है, इसलिए आज कहा जा सकता है कि उसने संसद का शीतकालीन सत्र नहीं बुलाया है. यह अलग बात है कि दो सत्रों के बीच छह महीने से ज्यादा समय नहीं हुआ है, इसलिए किसी संवैधानिक प्रावधान का उल्लंघन नहीं हो रहा है.
राष्ट्रपति निरंकुश हो जाए तब क्या होगा?
प्रो. के टी शाह का यह भी कहना था कि दुनिया में राष्ट्रपति द्वारा संविधान की शक्तियों को अपने हाथ में लेने के मामले देखे गए हैं, इसलिए संविधान में ऐसी किसी स्थिति से निपटने का उपाय होना चाहिए. उन्होंने कहा कि इसकी कोई गारंटी नहीं है कि भारत में कभी ऐसा नहीं हो सकता है. इसलिए प्रोफेसर के टी शाह ने संविधान में यह प्रावधान जोड़ने का सुझाव दिया कि किसी संसद सत्र अवसान के बाद 90 दिन बीतने पर अगर राष्ट्रपति संसद सत्र बुलाने में सक्षम न हों या उनकी इच्छा न हो तो प्रधानमंत्री को दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों को सत्र बुलाने के लिए कहने का अधिकार होना चाहिए. इतना ही नहीं अगर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों ही संसद सत्र बुलाने में अनिच्छुक हों या सक्षम न हो तो यह संवैधानिक जिम्मेदारी दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों के पास होनी चाहिए कि वह अपने-अपने सदनों का सत्र बुलाएं और सामान्य विधायी कामकाज को जारी रखें. हालांकि, प्रो. के टी शाह की आशंका को संसदीय प्रणाली के ढांचे में पूरी तरह असंभव माना गया, क्योंकि यहां विधायिक और कार्यपालिका के बीच अमेरिकी सिस्टम जैसा अलगाव नहीं है. इसीलिए संविधान सभा में सवाल उठा कि क्या के टी शाह प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को अलग-अलग देख रहे हैं?
प्रधानमंत्री को मिले संसद सत्र बुलाने का अधिकार
संविधान सभा के अन्य सदस्य तजामुल हुसैन ने एच वी कामथ और के टी शाह के सुझाए संशोधनों का समर्थन किया. उन्होंने के टी शाह के संशोधन में यह भी जोड़ दिया कि अगर आपातकालीन स्थिति में प्रधानमंत्री के कहने पर लोक सभा और राज्य सभा के पीठासीन अधिकारी संसद सत्र नहीं बुलाते हैं तो प्रधानमंत्री को संसद सत्र बुलाने का अधिकार होना चाहिए.
वहीं, संविधान सभा के सदस्य शिब्बन लाल सक्सेना ने कहा कि संसद सत्र निरंतरता में होना चाहिए और राष्ट्रपति को ऐसा कोई अधिकार नहीं होना चाहिए कि वह संसद सत्र बुलाने से इनकार करके विधायिका की पूरी व्यवस्था को व्यर्थ बना दे. उन्होंने आगे कहा कि विदेशी सत्ता ने हमारे यहां एक काल्पनिक संसद बनाने की कोशिश की थी, लेकिन हमें उस संसद के साथ आगे नहीं बढ़ना चाहिए, बल्कि वास्तविक संसद बनानी चाहिए, जिसके सत्र लंबे हों ताकि वह जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को पूरा कर सके.
संसद सत्र बुलाने की शक्ति स्पीकर को देने के सुझाव पर शिब्बन लाल सक्सेना ने कहा कि भारत में राष्ट्रपति ब्रिटेन में राजा की जगह पर आएगा, जो कि एक सांकेतिक पद है, उसके पास बहुत ज्यादा शक्तियां नहीं होंगी, इसलिए कोई खतरा नहीं है, इसलिए वे इस मांग से सहमत नहीं है, लेकिन संसद सत्र को निरंतरता में रखने का सुझाव मान लेना चाहिए. एक अन्य सदस्य आर के सिध्वा ने भी संसद सत्र की संख्या और समय बढ़ाने का सुझाव दिया था.
डॉ अंबेडकर ने क्या कहा था?
संविधान सभा में आए इन तमाम सुधारों का मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉक्टर बी आर अंबेडकर ने जवाब दिया था. उन्होंने कहा कि गवर्मेंट ऑफ इंडिया एक्ट-1935 और आजाद भारत के राजनीतिक माहौल से तुलना करना सही नहीं है. उन्होंने आगे कहा कि आगे सरकार कभी इतनी सक्षम होगी कि वह विधायिका की अनदेखी करने की कोशिश करें.
ज्यादा संसद सत्र बुलाए जाने के सुझाव पर डॉ बी आर अंबेडकर ने कहा कि मौजूदा प्रावधान ज्यादा संसद सत्र बुलाने से नहीं रोकता है. उन्होंने आशंका जताई कि अगर बार-बार सत्र बुलाया गया तो ज्यादा और बोझिल सत्र की वजह से संसद सदस्य शायद सत्रों से ऊब जाएं. संसद सत्र न बुलाने या इसमें देरी की आशंका को खारिज करते हुए डॉ बी आर अंबेडकर ने कहा कि सरकार की जिम्मेदारी जनता के प्रति है लेकिन यह जिम्मेदारी सिर्फ अच्छा प्रशासन देने तक सीमित नहीं है, बल्कि विधायिका जैसे उपायों को प्रभावी बनाए रखने से भी जुड़ी है, यह उनकी पार्टी के कार्यक्रमों को लागू करने के लिए भी जरूरी होगा.
पीठासीन अधिकारी संसद बुलाकर क्या करेंगे
डॉ. बी आर अंबेडकर ने संसद सत्र बुलाने की शक्ति दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों को देने के सुझाव को भी गैर-जरूरी बताया. उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति जब प्रधानमंत्री की सलाह पर काम करेंगे तो उनके संसद सत्र न बुलाने जैसी कोई गुंजाइश ही नहीं बनती है. डॉ. अंबेडकर ने आगे कहा कि अगर कोई राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह के बावजूद संसद सत्र नहीं बुलाता है तो जाहिर है कि वह ऐसा करके संविधान का उल्लंघन करेगा और उसके खिलाफ महाभियोग लाकर उसे हटाया जा सकता है. उन्होंने आगे कहा कि इस सुझाव को मान लिया जाए तो जब कभी किसी सही कारण से राष्ट्रपति संसद सत्र नहीं बुलाएंगे और फिर पीठासीन अधिकारी संसद सत्र बुला लेंगे तो आगे क्या होगा?
राष्ट्रपति के संसद सत्र न बुलाने का मतलब होगा कि सरकार के पास संसद को देने के लिए कोई काम नहीं होगा, क्योंकि सत्र न बुलाने का फैसला तो राष्ट्रपति आखिरकार सरकार की सलाह पर ही करेगा. ऐसी सूरत में विधायिका को लोक सभा अध्यक्ष या राज्य सभा के सभापति में से कोई भी काम नहीं दे पाएगा, इसलिए के टी शाह के संशोधनों को स्वीकार करने की कोई वजह नहीं है.
लोक कल्याण की भावना है शासन की शर्त
संविधान सभा की इस पूरी बहस से साफ है कि भारतीय संविधान को सकारात्मक सोच और लोक कल्याण की भावना से प्रेरित शासन व्यवस्था को ध्यान में रखकर बनाया गया है. यही वजह है कि संविधान सभा ने उन तमाम आशंकाओं को यह कहकर खारिज कर दिया कि जनता के बीच से चुनकर आई सरकारें उसके प्रति जवाबदेह होंगी और संविधान के प्रावधानों में जिस बात का उल्लेख नहीं होगा, उसमें लोक हित और उच्चतर नैतिक आदर्शों के आधार पर फैसले करेंगी. संविधान निर्माताओं का यह भी मानना था कि भारत की जनता ने दासता के दौरान जो दर्द झेला है, जो मौलिक अधिकारों का हनन और पक्षपात सहा है, उसे भारतीय संविधान के तहत बनने वाली शासन व्यवस्था के सभी अंग किसी भी सूरत में नहीं दोहराएंगे और जनकल्याण प्रेरित व राग-द्वेष से मुक्त होकर काम करेंगे. यही वजह है कि डॉ. बी आर अंबेडकर ने संसद सत्र न बुलाने या इसमें देरी की सारी आशंकाओं को खारिज करके इसे सरकार की जनता के प्रति जवाबदेही में शामिल बताया था.
तो फिर समस्या कहां है
लेकिन क्या आज वास्तव में ऐसा हो रहा है? शासन व्यवस्था संविधान के उच्चतर आदर्शों और लोक कल्याण की लोकप्रिय उन्माद को बढ़ावा देने वाली नीतियों पर काम कर रही हैं. सरकारें संविधान की मूल भावना को नहीं, बल्कि उसके प्रावधानों की अस्पष्टता या विवेकाधीन शक्तियों के जरिए शासन करने की कोशिश कर रही हैं. इसी का नतीजा है कि आज हजारों किसान सड़कों पर उतरे हुए हैं. कृषि कानूनों को अध्यादेशों के जरिए लागू किया गया, जबकि इस आपातकालीन प्रावधान को इस्तेमाल करने की स्थिति नहीं थी. इतना ही नहीं, कानून बनाने से पहले व्यापक विचार-विमर्श की लोकतांत्रिक जरूरत को नजरअंदाज किया गया. संसद में भी विधेयकों को पारित कराते समय मत विभाजन की जगह ध्वनिमत जैसी कमजोर प्रक्रिया को अपनाया गया. ऐसे में इन कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन इस बात का स्पष्ट सबूत हैं कि अगर सरकार ने कानून बनाने से पहले असहमतियों को दूर करने के उपाय किए होते तो आज उसे न तो इतनी सफाई देनी पड़ती और न ही देशव्यापी किसान आंदोलन का सामना करना पड़ता.