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कानून-कचहरी

यूपी में कथित लव जिहाद को रोकने वाले अध्यादेश ने एक महीने में क्या असर डाला?

शादी के मकसद से धर्म परिवर्तन और धर्म परिवर्तन के मकसद से शादी यानी कथित लव जिहाद को रोकने वाले अध्यादेश को लागू हुए एक महीने बीत चुके हैं. इस दौरान इसका जिस तरह से इस्तेमाल हुआ है, वह कानून को बनाने और लागू करने की नीयत पर सवाल खड़े कर रहा है

कथित लव जेहाद को रोकने वाले अध्यादेश को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती

मुजफ्फरनगर के रहने वाले नदीम ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका लगाई कि उनके खिलाफ पुलिस ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 504, 506, 120बी और यूपी प्रोहिबिशन ऑफ अनलॉफुल कन्वर्जन ऑफ रिलीजन ऑर्डिनेंस-2020 (कथित लव जिहाद के खिलाफ कानून) की धारा 3/5 के तहत झूठे तथ्यों के आधार पर मामला दर्ज किया है. उन्होंने अदालत से इस मामले को खारिज करने की अपील की है. इस मामले में शिकायतकर्ता का आरोप है कि नदीम उसकी पत्नी को बहला-फुसलाकर शादी के मकसद से उसका धर्म परिवर्तन कराना चाहता है. वहीं, सोनू उर्फ सादिक पर आरोप हैं कि वह अपने पड़ोसी गांव की एक नाबालिक लड़की को बहला-फुसलाकर, पिज्जा खिलाकर शादी के मकसद से उसका धर्म परिवर्तन कराना चाहता है. ये बानगी हैं उन मामलों की, जो 28 नवंबर को यूपी प्रोहिबिशन ऑफ अनलॉफुल कन्वर्जन ऑफ रिलीजन ऑर्डिनेंस-2020 लागू होने के बाद इसके तहत दर्ज किए गए हैं.

एक महीने में कितने मामले, कितनी गिरफ्तारी

उत्तर प्रदेश में पुलिस ने यूपी प्रोहिबिशन ऑफ अनलॉफुल कन्वर्जन ऑफ रिलीजन ऑर्डिनेंस 2020 के तहत बीते एक महीने में कुल 14 मामले दर्ज किए हैं. इन मामलों में 51 लोगों को नामजद और 49 लोगों को गिरफ्तार किया गया है. इनमें से 13 मामलों में हिंदू महिलाओं का जबरन धर्म परिवर्तन कराने या कोशिश करने का आरोप है. द इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, इन 14 मामलों में से केवल दो मामलों में ही महिलाओं ने खुद शिकायत की है, जबकि 12 मामलों में रिश्तेदार शामिल हैं. इनमें से दो मामले तो ऐसे हैं, जिसमें दक्षिणपंथी हिंदू संगठन के कार्यकर्ता शामिल हैं.

पुलिस की भूमिका पर सवाल

इस अध्यादेश के तहत दर्ज मामलों को देखने से साफ हो जाता है कि उन सभी मामलों में जहां पर हिंदू महिला और मुस्लिम पुरुष के बीच कोई प्रेम संबंध पाया जाता है, पुलिस उनमें इस अध्यादेश की धाराओं का इस्तेमाल करके उसे एक अलग ही रुख दे रही है. यूपी सरकार ने 28 नवंबर, 2020 को यूपी प्रोहिबिशन ऑफ अनलॉफुल कन्वर्जन ऑफ रिलीजन ऑर्डिनेंस-2020 लागू किया. इसके माध्यम से जबरन धर्म परिवर्तन को एक गैर जमानती अपराध बनाया गया है. इसके लिए 10 साल तक की सजा हो सकती है. इसके अन्य प्रावधान इस प्रकार हैं –
• अगर कोई धर्म परिवर्तन झूठ, धोखा, लालच या प्रलोभन देकर, जबरदस्ती, विवाह द्वारा या किसी और तरह का दबाव देकर कराया जाता है तो वह अपराध की श्रेणी में आएगा

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• अगर किसी नाबालिग अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति की महिला का जबरन धर्म परिवर्तन कराया जाता है तो धर्म परिवर्तन कराने वालों के लिए कठोर से कठोर सजा का प्रावधान है

• अगर कोई महिला धर्म परिवर्तन केवल विवाह करने के मकसद से करती है तो ऐसा विवाह पूरी तरह से अवैध और गैर-कानूनी माना जाएगा

• अगर कोई व्यक्ति अपना धर्म बदलना चाहता है तो उसे जिलाधिकारी या अतिरिक्त जिलाधिकारी को शेड्यूल वन में दिए गए फॉर्म के जरिए सूचित करना होगा कि वह अपनी स्वतंत्र इच्छा से बिना किसी जोर-जबरदस्ती या प्रलोभन के अपना धर्म परिवर्तन करना चाहता है. इस सूचना पर जिलाधिकारी या उसके द्वारा नियुक्त अधिकारी मामले की जांच करेगा और धर्म परिवर्तन के असल मकसद और कारण को एक रिपोर्ट के माध्यम से जिलाधिकारी को सौंपेगा, जिसके बाद जिलाधिकारी ऐसे धर्म परिवर्तन के लिए इजाजत देने पर फैसला करेगा.

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• अध्यादेश में इस बात का भी प्रावधान है कि धर्म परिवर्तन कराने वाले व्यक्ति को भी एक महीने पहले इस बात की सूचना जिलाधिकारी या उसके द्वारा नियुक्त अधिकारी को तय फॉर्म के माध्यम से देनी होगी. ऐसा न करने पर उसे कम से कम छह महीने और अधिकतम तीन साल तक सश्रम कारावास हो सकता है

• अध्यादेश सामूहिक धर्म परिवर्तन को भी अपराध बनाता है

• अध्यादेश प्रावधान करता है कि धर्म परिवर्तन कराने वाले व्यक्ति को ही साबित करना होगा कि धर्म परिवर्तन मिथ्या या बलपूर्वक या लालच या धोखे या विवाह के जरिए नहीं कराया गया है

अध्यादेश को अदालत में चुनौती

हालांकि, इस अध्यादेश की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाएं इलाहाबाद हाईकोर्ट में दाखिल की जा चुकी है. इनमें कहा गया है कि यह अध्यादेश दो आधारों पर असंवैधानिक है. पहला यह कि कानून बनाने की जिम्मेदारी विधानसभा की होती है. लेकिन सरकार ने विधानसभा में बिना चर्चा कराए और विधान परिषद को दरकिनार करके यह अध्यादेश लाई है जो कि संविधान के लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है.

संविधान का आपातकालीन अनुच्छेद-213 राज्य सरकारों को राज्यपाल के माध्यम से अध्यादेश लाने की शक्ति देता है. लेकिन यह भी प्रावधान करता है कि जब राज्य की विधानसभा और जिस राज्य में विधान परिषद है वहां पर विधान परिषद, दोनों या उनमें से किसी का भी अधिवेशन न चल रहा हो और राज्य के राज्यपाल इस बात से आश्वस्त हों कि परिस्थितियां इतनी गंभीर हो चुकी हैं कि उससे निपटने के लिए तत्काल कानून बनाना जरूरी है तो ऐसी परिस्थिति में अध्यादेश लाया जा सकता है. लेकिन यूपी प्रोहिबिशन ऑफ अनलॉफुल कन्वर्जन ऑफ रिलीजन ऑर्डिनेंस-2020 के मामले में ऐसी कोई स्थिति दिखाई नहीं देती है.

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सरकार की नीयत पर सवाल

इलाहाबाद हाईकोर्ट में लगाई गई याचिका में यह भी आरोप लगाया गया है कि इस अध्यादेश को लेकर सरकार की नीयत साफ नहीं है, सरकार केवल अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करने के लिए यह अध्यादेश लेकर आई है और इसे अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करने के लिए पुलिस द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा है. हालांकि, प्रदेश सरकार अपने बचाव में इलाहाबाद हाईकोर्ट के ही दो फैसलों का हवाला दे रही है. ये दोनों फैसले नूरजहां बेगम बनाम स्टेट ऑफ यूपी,16 दिसंबर 2014 और प्रियांशी उर्फ कुमारी समरीन बनाम स्टेट ऑफ यूपी, 23 सितंबर 2020 को आए हैं. इसमें कहा गया था कि अगर धर्म परिवर्तन केवल विवाह के मकसद से किया जाता है तो ऐसे विवाह को अवैध और गैर-कानूनी माना जाएगा. सरकार का कहना है कि प्रदेश में जबरन या विवाह के प्रलोभन में धर्म परिवर्तन कराया जा रहा है, जिसे रोकना सरकार की प्राथमिकता में आता है. हालांकि, उसके पास इस बात को साबित करने के लिए ठोस सबूत मौजूद नहीं है.

लव जिहाद की एसआईटी जांच

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सितंबर 2020 में कानपुर की आठ सदस्यीय एसआईटी ने 14 अंतर-धार्मिक शादियों की जांच और पाया कि इनमें से आठ मामलों में हिंदू लड़कियों ने अपनी मर्जी से मुस्लिम लड़कों से शादी की थी, जबकि छह मामलों में एसआईटी अभी तक किसी नतीजे पर नहीं पहुची है. इतना ही नहीं, खुद केंद्र सरकार संसद में कह चुकी है कि राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एएनआई) ने अपनी जांच में ‘लव जिहाद’ (धर्म परिवर्तन कराने के मकसद से शादी) का एक भी मामला सही नहीं पाया है.

मूल अधिकार में दखल का आरोप

हालांकि, इलाहाबाद हाईकोर्ट में लगाई गई याचिकाओं में इस अध्यादेश के जरिए व्यक्ति के निजता के अधिकार के हनन का भी आरोप लगाया गया है. सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कई निर्णयों में व्यक्ति के निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार माना है. अपने कई निर्णयों में यह भी माना है कि कोई भी व्यक्ति जो बालिग है, वह अपने मर्जी से किसी से भी विवाह करने के लिए स्वतंत्र है, इस पर कोई भी रोक नहीं लगा सकता है. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी अपने निर्णयों में इस बात को मान्यता दी है कि कोई भी व्यक्ति, चाहे पुरुष हो या महिला, अपने मन से अपना साथी चुनने के लिए स्वतंत्र है, अगर उसके माता-पिता उसकी शादी से संतुष्ट नहीं हैं तो उनसे अपने रिश्ते तोड़ सकते हैं, लेकिन अपनी मर्जी के अनुसार जीवनसाथी चुनने के लिए मजबूर नहीं कर सकते हैं.

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जबरन धर्म परिवर्तन रोकने का तर्क

इस पर प्रदेश सरकार का कहना है कि संविधान का अनुच्छेद-25 व्यक्ति को धर्म की स्वतंत्रता देता है और यह भी अधिकार देता है कि व्यक्ति अपनी मर्जी से धर्म का परिवर्तन कर सके. इसलिए सरकार इस अध्यादेश के जरिए केवल ऐसे धर्म परिवर्तन को रोक रही है, जो कि किसी व्यक्ति की इच्छा के विरुद्ध और मिथ्या तत्वों के आधार पर या विवाह के प्रलोभन में जबरन कराए जा रहे हैं. सरकार का मानना है कि यह अध्यादेश प्रदेश में शादी के लिए होने वाले धर्म परिवर्तन को रोकेगा, जो कि लव जिहाद का रूप ले रहे हैं.

7 जनवरी तो तय होगा अध्यादेश का भविष्य

जबरन होने वाले धर्म परिवर्तन को रोकने के लिए आजादी से पहले कई राजघरानों जैसे रायगढ़ व उदयपुर ने कानून बनाए थे. आजादी के बाद मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, झारखंड, गुजरात और अरुणाचल प्रदेश जैसे कई राज्यों ने फ्रीडम आफ रिलिजन एक्ट पारित किए हैं. इसी तरह यूपी का यह अध्यादेश भी दो धर्मों के बीच के विवाह संबंधों पर कोई रोक नहीं लगाता है. लेकिन इसे जैसे लागू किया जा रहा है, पुलिस जिन मामलों में इसका इस्तेमाल कर रही है और जैसे दक्षिण पंथी तत्वों की गैर-आधिकारिक भागीदारी सामने आ रही है, वह न केवल सरकार की नीयत, बल्कि इस अध्यादेश के भविष्य पर भी सवाल खड़े कर रहा है. इलाहाबाद हाईकोर्ट इसे चुनौती देने वाली याचिकाओं पर 7 जनवरी को सुनवाई करेगा और इसी दिन इस अध्यादेश के तहत गिरफ्तार नदीम और सादिक जैसे दर्जनों लोगों के भाग्य का फैसला हो जाएगा.

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कानून-कचहरी

दिल्ली दंगा: सुप्रीम कोर्ट ने कहा, छात्रों की जमानत का फैसला दूसरे मामलों में नजीर नहीं बन सकता

दिल्ली दंगा मामले में छात्रों की जमानत को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘आतंकवाद रोधी कानून यूएपीए को इस तरह से सीमित करना प्रमुख मुद्दा है और इसका पूरे भारत पर असर हो सकता है…’

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Photo Credit- Mandeep Punia Twitter

सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को दिल्ली दंगा मामले में आरोपी तीन छात्रों- जेएनयू छात्र नताशा नरवाल और देवांगना कालिता और जामिया के छात्र आसिफ इकबाल तन्हा की जमानत को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई की. यह याचिका दिल्ली पुलिस ने लगाई है. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने तीनों छात्रों को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इन छात्रों को मिली जमानत में दखल देने से इनकार कर दिया है. हालांकि, अदालत ने यह कहा है कि गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) कानून (यूएपीए) के तहत जमानत के इस मामले को दूसरे किसी मामले में मिसाल के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है.

दिल्ली पुलिस की तरफ से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने यह दलील दी कि उच्च न्यायालय ने तीन छात्र कार्यकर्ताओं को जमानत देते हुए पूरे आतंकवादी रोधी कानून यूएपीए को पूरी तरह पलट दिया है. इस पर जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस वी रामसुब्रमण्यम की अवकाशकालीन बेंच ने कहा, ‘हमारी परेशानी यह है कि उच्च न्यायालय ने जमानत के फैसले में पूरे यूएपीए पर चर्चा करते हुए ही 100 पृष्ठ लिखे हैं और शीर्ष अदालत को इसकी व्याख्या करनी पड़ेगी.’

शीर्ष अदालत ने ने कहा, ‘कई सवाल खड़े हुए हैं, क्योंकि हाईकोर्ट में यूएपीए की वैधता को चुनौती नहीं दी गई थी, ये जमानत अर्जियां थी.’ अदालत ने आगे कहा, ‘आतंकवाद रोधी कानून यूएपीए को इस तरह से सीमित करना प्रमुख मुद्दा है और इसका पूरे भारत पर असर हो सकता है. हम नोटिस जारी करना और दूसरे पक्ष को सुनना चाहेंगे. जिस तरीके से कानून की व्याख्या की गई है उस पर संभवत: उच्चतम न्यायालय को गौर करने की आवश्यकता होगी. इसलिए हम नोटिस जारी कर रहे हैं.’ इस मामले पर 19 जुलाई को शुरू हो रहे हफ्ते पर सुनवाई की जाएगी.

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छात्रों की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा कि इसमें कोई शक नहीं है कि उच्चतम न्यायालय को यूएपीए के असर और व्याख्या पर गौर करना चाहिए, ताकि इस मुद्दे पर शीर्ष अदालत से फैसला आ सके.

दिल्ली हाईकोर्ट ने 15 जून को जेएनयू छात्र नताशा नरवाल और देवांगना कालिता और जामिया के छात्र आसिफ इकबाल तन्हा को जमानत दे दी थी. हाईकोर्ट ने तीन अलग-अलग फैसलों में छात्र कार्यकर्ताओं को जमानत देने से इनकार करने वाले निचली अदालत के आदेश को रद्द कर दिया था.

जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल और जस्टिस एजे भंभानी की बेंच ने कहा था, ‘हम यह कहने के लिए विवश हैं कि ऐसा लगता है, कि असहमतियों को दबाने की उलझन में, राज्य के मन में, संवैधानिक गारंटी वाले विरोध के अधिकार और आतंकवादी गतिविधि के बीच की रेखा कुछ धुंधली होती जा रही है. अगर यह मानसिकता जोर पकड़ती है, तो यह लोकतंत्र के लिए एक दुखद दिन होगा, जो खतरे में होगा.’ अदालत ने आगे कहा कि (आरोपियों के खिलाफ) आतंकवादी कृत्य करने से जुड़े कोई सबूत नहीं है.

कानून-कचहरी

छात्रों को जमानत देते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने यूएपीए के दुरुपयोग पर सरकार को फिर आईना दिखाया है

24 फरवरी 2020 को उत्तर-पूर्व दिल्ली में संशोधित नागरिकता कानून के समर्थकों और विरोधियों के बीच हिंसा भड़क गई थी, जिसने सांप्रदायिक टकराव का रूप ले लिया था. हिंसा में कम से कम 53 लोगों की मौत हो गई थी.

दिल्ली हाईकोर्ट,
Photo Credit- The Hindu

दिल्ली हाईकोर्ट ने उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगों से जुड़े एक मामले में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय की छात्राओं नताशा नरवाल, देवांगना कालिता और जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्र आसिफ इकबाल तन्हा को मंगलवार को जमानत दे दी. अदालत ने सभी लोगों को 50-50 हजार रुपये के निजी मुचलके और इतनी ही राशि के दो जमानतदारों के आधार पर रिहा करने का निर्देश दिया. इन लोगों को पिछले साल फरवरी में दंगों से जुड़े एक मामले में गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) कानून के तहत मई 2020 में गिरफ्तार किया गया था.

समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल और न्यायमूर्ति एजे भंभानी की पीठ ने कहा, ‘हम यह कहने के लिए विवश हैं कि ऐसा लगता है, कि असहमतियों को दबाने की उलझन में, राज्य के मन में, संवैधानिक गारंटी वाले विरोध के अधिकार और आतंकवादी गतिविधि के बीच की रेखा कुछ धुंधली होती जा रही है. अगर यह मानसिकता जोर पकड़ती है, तो यह लोकतंत्र के लिए एक दुखद दिन होगा, जो खतरे में होगा.’ अदालत ने आगे कहा कि (आरोपियों के खिलाफ) आतंकवादी कृत्य करने से जुड़े कोई सबूत नहीं है.

हालांकि, अदालत ने ‘पिंजड़ा तोड़’ की कार्यकर्ता नताशा नरवाल, देवांगना कालिता और आसिफ इकबाल तन्हा को किसी भी गैर-कानूनी गतिविधि में हिस्सा न लेने और कारागार के रिकॉर्ड में दर्ज पते पर रहने के लिए कहा है. इसके अलावा इन लोगों को अपने-अपने पासपोर्ट जमा करने, गवाहों को प्रभावित न करने और सबूतों के साथ कोई छेड़खानी न करने के निर्देश दिए हैं.

आसिफ इकबाल तन्हा ने निचली अदालत के 26 अक्टूबर, 2020 के उसे आदेश को दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दी थी. इसमें अदालत ने इस आधार पर उसकी जमानत याचिका खारिज कर दी थी कि आरोपी ने पूरी साजिश में कथित रूप से सक्रिय भूमिका निभाई थी और इस आरोप को स्वीकार करने के लिए पर्याप्त आधार हैं कि आरोप पहली नजर में सही लगते हैं.

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वहीं, नताशा नरवाल और देवांगना कालिता ने निचली अदालत के 28 अक्टूबर के फैसले को चुनौती दी थी. इसमें अदालत ने यह कहते हुए उनकी याचिका को खारिज कर दिया था कि उनके खिलाफ लगे आरोप पहली नजर में सही दिखाई देते हैं और आतंकवाद विरोधी कानून के प्रावधानों को इन मामले में सही तरीके से लागू किया गया है.

दिल्ली हाईकोर्ट ने इन याचिकाओं पर आए तीन अलग-अलग फैसले दिए हैं. इनमें हाई कोर्ट ने कहा है कि यद्यपि सख्त गैर-कानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) की धारा-15 में ‘आतंकवादी गतिविधि’ की परिभाषा बहुत छितरी हुई और कुछ हद तक अस्पष्ट है, फिर इसका आतंकवाद की अनिवार्य पहचान के अनुरूप होना जरूरी है और ‘आतंकवादी गतिविधि’ वाक्यांश को आपराधिक कृत्यों वाले मामले में आक्रामक तरीके से लागू करने की छूट नहीं दी जा सकती है, जो पूरी तरह से आईपीसी के तहत आते हैं.

दिल्ली हाई कोर्ट ने यह भी कहा कि भड़काऊ भाषणों, चक्का जाम करने, महिलाओं को विरोध करने के लिए उकसाने और विभिन्न चीजों को जमा करने और अन्य ऐसे आरोप इस बात के सबूत हैं कि वे विरोध प्रदर्शन करने में शामिल हुए थे, लेकिन इसमें ऐसा कोई विशेष आरोप नहीं है कि उन्होंने हिंसा भड़काई, आतंकवादी कृत्य करने के बारे में चर्चा की या उसे अंजाम देने की साजिश रची.

देवांगना कालिता के बारे में, अदालत ने कहा कि कुछ महिला अधिकार संगठनों और अन्य समूहों के सदस्य के रूप में, उन्होंने दिल्ली में सीएए व एनआरसी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन आयोजित करने में हिस्सा लिया, और कहा कि विरोध करने का अधिकार, जो हथियारों के बिना शांतिपूर्वक इकट्ठा होने का एक मौलिक अधिकार है,निश्चित रूप से गैर-कानूनी नहीं है और इसे यूएपीए के अर्थों में एक आतंकवादी कृत्य नहीं कहा जा सकता है, जब तक कि अपराधों की सामग्री आरोपों से स्पष्ट न हो रही हो।

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गौरतलब है कि 24 फरवरी 2020 को उत्तर-पूर्व दिल्ली में संशोधित नागरिकता कानून के समर्थकों और विरोधियों के बीच हिंसा भड़क गई थी, जिसने सांप्रदायिक टकराव का रूप ले लिया था. हिंसा में कम से कम 53 लोगों की मौत हो गई थी और करीब 200 से ज्यादा लोग घायल हो गए थे.

कानून-कचहरी

2015 के बाद ऐसा क्या हुआ कि देश में राजद्रोह के मामले बढ़ गए?

संसद में पेश आंकड़ों से एक बात साफ नजर आती है कि 2015 के बाद से देश में राजद्रोह के मामलों में गिरफ्तारियां बढ़ी हैं. आखिर इस दौरान ऐसा क्या हुआ कि 2015 के बाद लोग राजद्रोही होने लगे?

राजद्रोह, आईपीसी, धारा-124(ए)
Photo credit- Pixabay

सुप्रीम कोर्ट ने वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ राजद्रोह की एफआईआर को खारिज कर दिया. इसके साथ याद दिलाया कि पत्रकारों को 1962 के केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले के तहत विशेष संरक्षण हासिल है. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह को असंवैधानिक नहीं माना गया था, लेकिन सरकार से सवाल पूछने या उसकी आलोचना करने को राजद्रोह मानने को बेबुनियाद करार दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने इसी संरक्षण का हवाला दिया है.

लेकिन संविधान ने तो पत्रकारिता को सिर्फ पत्रकारों तक सीमित नहीं किया है, बल्कि इसे नागरिकों की वाक् और अभिव्यक्ति की आजादी में शामिल बताया है. अगर इस विवाद को छोड़ दें तब भी सवाल आता है कि अगर राजद्रोह की इतनी व्यापक परिभाषा मौजूद है तब इसका इतना दुरुपयोग क्यों हो रहा है?

संसद के बजट सत्र में राज्य सभा सांसद छाया वर्मा, संजय सिंह और सतीश चंद्र दुबे ने केंद्र सरकार से भारतीय दंड संहिता की धारा-124 (ए) के तहत दर्ज होने वाले राजद्रोह के मामलों पर जवाब मांगा था. सांसद सतीश चंद दुबे ने पूछा था कि राजद्रोह और राष्ट्रद्रोह में क्या अंतर है (Difference Between Sedition And Treason), क्या सरकार इस पर कोई स्पष्ट नजरिया रखती है, क्योंकि कोई भड़काऊ भाषण देता है तो उस पर राजद्रोह लग जाता है, लेकिन सशस्त्र बगावत करने वाले नक्सलियों पर इस धारा का इस्तेमाल नहीं किया जाता है.

वहीं, सांसद छाया वर्मा ने पूछा कि बीते पांच साल में आईपीसी की धारा-124 (ए) के अधीन गिरफ्तारियों का ब्यौरा क्या है, कितने प्रतिशत लोगों को दोषमुक्त और दंडित किया गया, क्या यह सच है कि इस धारा के तहत गिरफ्तार होने वाले 90 फीसदी लोगों को अदालत दोषमुक्त घोषित कर देती है, क्या दोषमुक्त और दंडित किए जाने वाले व्यक्तियों की संख्या को देखते हुए इस धारा में बदलाव करने का विचार है? इसके अलावा सांसद संजय सिंह ने पांच वर्षों में राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार और मुक्त किए गए युवाओं का ब्यौरा मांगा था.

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संसद में इन तमाम सवालों का जबाव केंद्रीय गृह राज्यमंत्री जी किशन रेड्डी ने दिया. उन्होंने बताया कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत धारा-124 (ए) के अंतर्गत केवल राजद्रोह को ही अपराध घोषित किया गया है. उन्होंने यह भी जानकारी दी कि संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत पुलिस और लोक व्यवस्था राज्यों का काम है, वही कानूनों और अधिनियमों के तहत अपराध के लिए मामले दर्ज करने से लेकर जांच और अभियोजन तक की प्राथमिक जिम्मेदारी संबंधित राज्य सरकारों की होती है.

केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अपने जवाब के साथ आंकड़े भी पेश किए. इसके मुताबिक, आईपीसी की धारा-124 (ए) के तहत सबसे ज्यादा गिरफ्तारियां 2017 में की गई. साल 2017 को राजद्रोह का स्वर्णकाल कहा जा सकता है. 2017 में सबसे ज्यादा 125 लोगों को हरियाणा में गिरफ्तार किया गया. इसके बाद 68 गिरफ्तारियों के साथ बिहार दूसरे नंबर पर था. उत्तर प्रदेश में 2015 से 2019 के बीच पहली गिरफ्तारी 2016 में हुई जो 2019 में बढ़कर नौ हो गई. वहीं, 2019 में जम्मू-कश्मीर, नगालैंड और कर्नाटक में राजद्रोह के तहत गिरफ्तारियों में जबरदस्त उछाल आ गया. (देखें चार्ट-1)

संसद में केंद्रीय राज्यमंत्री ने राजद्रोह के मामले में दोष मुक्त होने वालों के भी आंकड़े दिए थे. इसके मुताबिक, 2015 में 11, 2016 में एक, 2017 में 7, 2018 में 21 और 2019 में 29 लोगों को राजद्रोह के मामले से मुक्त कर दिया गया. अगर राजद्रोह के मामले में सजा पाने वालों की बात करें तो 2015 में एक भी व्यक्ति को सजा नहीं मिली. वहीं, 2016 में एक, 2017 में चार, 2018 में दो और 2019 में दो लोगों को सजा मिली. इससे साफ है कि राजद्रोह के आरोप में जितने लोगों की गिरफ्तारियां होती हैं, उसके मुकाबले आरोपों को अदालत में साबित होना मुश्किल होता है.

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सांसद संजय सिंह को दिए गए जवाब से पता चलता है कि राजद्रोह के मामले में ज्यादातर युवाओं की गिरफ्तारी हुई है. साल 2015 में 18-30 वर्ष 29, 30-45 वर्ष के 32 लोगों को गिरफ्तार किया गया था, जबकि 2016 में 18-30 वर्ष के 11 और 30-45 वर्ष के 24 लोगों को गिरफ्तार किया गया. 2017 में राजद्रोह के मामले में 18-30 वर्ष के 137 लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिनमें तीन महिलाएं भी शामिल थीं. इस साल राजद्रोह के मामले में 30-45 वर्ष के 62 लोगों को गिरफ्तार किया गया. 2018 में 18-30 वर्ष के 32 और 30-45 वर्ष के 22 लोगों को राजद्रोह के मामले में गिरफ्तार किया गया. 2019 में 18-30 वर्ष की एक महिला समेत 55 व्यक्ति, जबकि 30-45 वर्ष के 33 लोगों को राजद्रोह के मामले में गिरफ्तार किया गया.

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इन तमाम आंकड़ों से एक बात साफ नजर आती है कि 2015 के बाद से देश में राजद्रोह के मामलों में गिरफ्तारियां बढ़ी हैं. आखिर इस दौरान ऐसा क्या हुआ कि 2015 के बाद लोग राजद्रोही होने लगे? कहीं ऐसा तो नहीं है कि सरकारों ने लोकतांत्रिक उदारता को छोड़ना शुरू कर दिया है और सामान्य आलोचना तक में लोगों को निशाना बनाया जाने लगा है? पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ दर्ज मामला भी लोकतांत्रिक समझ और उदारता के घटने का उदाहरण है. विनोद दुआ के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई गई थी कि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर वोट पाने के लिए ‘मौत और आतंकी हमले’ को इस्तेमाल करने का आरोप लगाया था.

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कानून-कचहरी

भारतीय संविधान कल्पना नहीं करता है कि अधिकार हनन पर अदालतें मूकदर्शक बनी रहें : सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट कोविड-19 प्रबंधन के मामले में स्वयं संज्ञान लेकर सुनवाई कर रहा है। इसी मामले में केंद्र ने कोविड प्रबंधन नीति में अदालत के दखल को गैर-जरूरी बताया है. इसी बात को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की है.

भारतीय संविधान, सुप्रीम कोर्ट,

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की कोविड प्रबंधन नीति में दखल न देने की  दलील को खारिज कर दिया है. बुधवार को अपलोड हुए 31 मई के आदेश में सर्वोच्च अदालत ने कहा, ‘जब कार्यपालिका की नीतियों से जनता के अधिकारों का हनन हो रहा हो, तब भारतीय संविधान अदालतों के मूक दर्शक बने रहने की कल्पना नहीं करता है.’

जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस एल एन राव और जस्टिस एस रवींद्र भट की स्पेशल बेंच ने कहा कि यह बहुत घिसी-पिटी सी बात है कि शक्तियों का बंटवारा संविधान के बुनियादी ढांचे का एक हिस्सा है और नीति-निर्माण कार्यपालिका का एकमात्र अधिकार क्षेत्र बना हुआ है. अदालत ने आगे कहा, ‘कार्यपालिका (यानी सरकार) की बनाई नीतियों की न्यायिक समीक्षा करना और संवैधानिक औचित्य को जांचना बेहद अनिवार्य कार्य है, जिसके लिए अदालतों को जिम्मेदारी सौंपी गई है.’

सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा कि पूरी दुनिया में, कार्यपालिका को अपने उपायों को लागू करने के लिए काफी जगह दी गई है, जो सामान्य समय में व्यक्तियों की आजादी के खिलाफ हो सकते हैं, लेकिन अभी महामारी रोकने के लिए जरूरी हैं.

1905 के एक मामले में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लेख करते हुए बेंच ने कहा, ‘ऐतिहासिक रूप से, न्यायपालिका यह भी मानती है कि जन स्वास्थ्य की ऐसी आपात स्थितियों में संवैधानिक जांच में बदलाव आ जाता है, जहां कार्यपालिका वैज्ञानिकों और अन्य विशेषज्ञों के साथ त्वरित परामर्श के साथ काम करती है.’

बेंच ने आगे कहा कि इसी तरह, पूरी दुनिया में अदालतों ने कार्यकारी नीतियों से जुड़ी संवैधानिक चुनौतियों पर भी प्रतिक्रिया दी है, जिन्होंने परोक्ष या अपरोक्ष रूप से नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रता का उल्लंघन किया है.

अदालत ने आगे कहा, ‘अदालतों ने अक्सर सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट के प्रबंधन में कार्यपालिका की विशेषज्ञता का बार-बार उल्लेख किया है, लेकिन एक महामारी से लड़ने के लिए कार्यपालिका को मिली छूट की आड़ में मनमानी और तर्कहीन नीतियों के खिलाफ चेतावनी भी दी है.’

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सुप्रीम कोर्ट में 9 मई को दाखिल हलफनामे में, केंद्र ने अपनी कोविड-19 टीकाकरण नीति को सही ठहराया था. इसके लिए तर्क दिया गया था कि इसकी प्रतिक्रिया और रणनीति पूरी तरह से चिकित्सा क्षेत्र के विशेषज्ञ और वैज्ञानिकों की सलाह से प्रेरित है, जो न्यायिक हस्तक्षेप के लिए बहुत कम जगह छोड़ती है और इस बात पर जोर देती है कि देश भर में सभी आयु वर्गों के नागरिकों को मुफ्त में टीकाकरण होगा.

केंद्र ने यह भी कहा था कि अभूतपूर्व और अजीबोगरीब परिस्थितियों के मद्देनजर, जिसके तहत टीकाकरण अभियान को एक कार्यकारी नीति के रूप में तैयार किया गया है, कार्यपालिका की विवेक पर भरोसा किया जाना चाहिए. केंद्र सरकार के मुताबिक, एक वैश्विक महामारी में, जहां राष्ट्र की प्रतिक्रिया और रणनीति पूरी तरह से चिकित्सा क्षेत्र के विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों की राय से संचालित होती है, ‘किसी भी अति उत्साही, भले ही बहुत सार्थक न्यायिक हस्तक्षेप के अप्रत्याशित और अनापेक्षित परिणाम हो सकते हैं.’

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट कोविड-19 प्रबंधन के मामले में स्वयं संज्ञान लेकर सुनवाई कर रहा है. इसी मामले में केंद्र ने 218 पेज का हलफनामा दाखिल किया है और अपनी कोविड-19 प्रबंधन की नीति को संविधान के अनुच्छेद-14 और अनुच्छेद-21 के अनुरूप बताया है. हालांकि, शीर्ष अदालत ने एक वैक्सीन के लिए तीन दाम तय करने की नीति पर सवाल उठाए हैं.

उल्लेखनीय है कि केंद्र सरकार खुद कोविशील्ड वैक्सीन 150 रुपये प्रति डोज के हिसाब से खरीद रही है, जबकि यह राज्यों को 300 रुपये और निजी क्षेत्र को 600 रुपये में मिल रही है. वहीं, स्पूतनिक वी वैक्सीन की कीमत 1195 रुपये प्रति डोज है. इस पर बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से वैक्सीन के घरेलू और विदेश में दाम की तुलनात्मक रिपोर्ट, दिसंबर 2021 तक वैक्सीन उपलब्धता का रोडमैप और शहरी-ग्रामीण क्षेत्रों में मौजूद डिजिटल डिवाइड से निपटने के बारे में जवाब मांगा है. इस मामले में अब अगली सुनवाई 30 जून को होगी.

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