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राज्य सभा

ओबीसी आयोग को अलग-अलग वर्गों में बांटने के सवाल पर सरकार ने संसद में क्या कहा?

राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की क्षमता और बंटवारे का सवाल सांसद राम शकल ने उठाया था, जिसका जवाब सामाजिक न्याय और अधिकारिता राज्य मंत्री कृष्णपाल गुर्जर ने दिया.

अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की सामाजिक सुरक्षा और शैक्षणिक प्रगति के साथ उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया गया है. लेकिन इसके बंटवारे को लेकर सवाल उठ रहे हैं. बजट सत्र में सांसद राम सकल ने राज्य सभा में यह मुद्दा उठाया. सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय से उन्होंने पूछा –

(1) क्या सरकार ने अनुसूचित जाति आयोग की तरह अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग बनाया है?

(2) यदि हां तो उसका ब्यौरा क्या है?

(3) चालू वित्तीय वर्ष के दौरान दोनों आयोगों के लिए आवंटित राशि का ब्यौरा क्या है?

(4) अगर अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग की क्षमता में कोई कमी है तो इसके क्या कारण हैं?

(5) क्या सरकार ओबीसी आयोग की आर्थिक क्षमता को ध्यान में रखते हुए ओबीसी आयोग को अलग-अलग श्रेणियों में बांटने का विचार रखती है?

(6) यदि, हां तो ब्यौरा क्या है?

सरकार ने क्या जवाब दिया

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सांसद राम शकल के सवालों का जवाब सामाजिक न्याय और अधिकारिता राज्य मंत्री कृष्णपाल गुर्जर ने दिया. उन्होंने बताया कि संविधान के अनुच्छेद 338बी के प्रावधानों के तहत राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) का गठन किया गया है, जो अपना काम कर रहा है.
राज्य मंत्री कृष्णपाल गुर्जर ने यह भी बताया कि मौजूदा वित्त वर्ष 2020-21 में अनुसूचित जाति आयोग को 25 करोड़ रुपये और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को 10 करोड़ रुपये का संशोधित बजट दिया गया है.

आयोग के बंटवारे पर क्या कहा

केंद्रीय राज्य मंत्री कृष्णपाल गुर्जर ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की क्षमता में किसी प्रकार की कोई कमी होने से इनकार किया. इसके अलावा उन्होंने इस सवाल को भी सिरे से खारिज कर दिया कि सरकार अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग की आर्थिक क्षमता के मद्देनजर उसे अलग-अलग वर्गों में बांटने के बारे में सोच रही है.

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कब बना राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग

केंद्र सरकार ने 1993 में नेशनल कमीशन फॉर बैकवर्ड क्लासेज एक्ट-1993 के जरिए राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग बनाया किया. आयोग की वेबसाइट पर मौजूद सूचना के मुताबिक, 2016 तक इसका सात बार गठन हुआ. हालांकि, केंद्र सरकार ने 15 अगस्त 2018 को नेशनल कमीशन फॉर बैकवर्ड क्लासेज एक्ट-1993 को हटा दिया.

2018 में आयोग को संवैधानिक दर्जा

2018 में 102वें संविधान संशोधन के जरिए मौजूदा आठवें राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (National Commission for Backward Classes) को संवैधानिक दर्जे के साथ बनाया गया है. इसके लिए संविधान में अनुच्छेद 338बी को जोड़ा गया है.

राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग में अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और तीन सदस्य होते हैं, जिनकी श्रेणी और वेतन भारत सरकार के सचिव के बराबर होता है.

अभी राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष डॉ. भगवान लाल सहनी हैं, जबकि सदस्यों में आचारी तल्लोजु, डॉ सुधा यादव और कौशलेंद्र सिंह पटेल शामिल हैं. इसके उपाध्यक्ष डॉ. लोकेश कुमार प्रजापति, जबकि सचिव अजय कुमार हैं.

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राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की जिम्मेदारियां

भारतीय संविधान के अनुच्छेद-338बी के मुताबिक, राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को सामाजिक और शैक्षणिक आधार पर पिछड़े वर्गों के कल्याण से जुड़े सभी मामलों की जांच और निगरानी करना है. अधिकारों के हनन की शिकायतें आने पर उनकी जांच करना भी आयोग का काम है.

आयोग को सिविल न्यायालय जैसे अधिकार हासिल हैं, यानी यह देश में किसी को भी बुला सकता है, जांच कर सकता है, दस्तावेजों को पेश करने के लिए कह सकता है, किसी न्यायालय या कार्यालय से दस्तावेजों की मांग कर सकता है.

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राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के कार्यों में ओबीसी वर्गों की स्थिति के बारे में राष्ट्रपति को रिपोर्ट सौंपना और केंद्र व राज्यों के स्तर पर उनकी स्थिति में आए बदलाव का आकलन करना है.

इसमें यह भी कहा गया है कि जब भी केंद्र और राज्य सरकारें पिछड़े वर्ग को प्रभावित करने वाला कोई बड़ा फैसला करेंगी, आयोग की सलाह जरूर लेंगी.

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सादर,

संपादक

राज्य सभा

वॉट्सएप नहीं, संसद से जानिए कि सात साल में केंद्र सरकार ने कुल कितने एम्स बनाएं हैं?

सोशल मीडिया, खास तौर पर वॉट्सएप पर मौजूदा केंद्र सरकार के कार्यकाल में एक दर्जन या ज्यादा एम्स चालू होने के दावे हो रहे हैं, लेकिन खुद केंद्र सरकार इन आंकड़ों को नहीं मानती है. पढ़िए ये रिपोर्ट…

Photo credit-wikimedia.org

कोरोना की दूसरी लहर ने कोरोना वायरस संक्रमण से निपटने की सारे सरकारी इंतजामों की कलई खोल दी है. केंद्र सरकार का दावा 18 लाख से ज्यादा कोविड बेड बनाने का था, लेकिन असलियत में लोग कहीं पर ऑक्सीजन के बगैर तड़पकर तो कहीं अस्पताल खोजते हुए दुनिया को अलविदा कह गए. इस बदइंतजामी पर देश में कम, विदेश की मीडिया में ज्यादा हल्ला मचा. सवाल उठे तो सरकार की छवि बनाने के लिए वॉट्सएप पर मैसेज तैरने लगे. ऐसे ही मैसेज में मौजूदा केंद्र सरकार के समय 14 से लेकर 22 एम्स बनवाने के दावे किए जा रहे हैं. लेकिन प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना (पीएमएसएसवाई) के तहत मंजूरी पाने वाले एम्स की असलियत कुछ और है, जो संसद में सरकार के आंकड़े बयां कर रहे हैं.

संसद के बजट सत्र में सांसद भगवत कराड़ ने सरकार से देश में निर्माणाधीन अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) की संख्या, काम शुरू करने की तारीख, मौजूदा स्थिति और इनका काम पूरा करने की प्रस्तावित समयावधि के बारे में जानकारी मांगी थी. इन सवालों का केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने दिया। उन्होंने बताया, ‘प्रधानंमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना (PMSSY) के तहत 22 नए एम्स को मंजूरी दी गई है, जिनमें छह भोपाल, भुवनेश्वर, जोधपुर, पटना, रायपुर और ऋषिकेश में पहले से ही चालू हो चुके हैं।’

केंद्रीय राज्यमंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने बाकी 16 एम्स को चालू करने की मौजूदा स्थिति के बारे में जानकारी दी थी. इसमें गौर करने वाली बात है कि साल 2015 में मंजूरी पाने वाले एम्स छह साल बीतने के बावजूद पूरी तरह से चालू नहीं हो पाए. वहीं, 2016 और 2017 में मंजूरी पाने वाले एम्स में अधिकतम 80 फीसदी काम ही पूरा हो पाया है.  इसके बाद मंजूरी पाने वाले एम्स के चालू हो जाने की उम्मीद ही बेमतलब है. (देखें चित्र- 1, 2, 3)

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अब सवाल आता है कि जो जो एम्स चालू हैं उनमें इलाज के लिए कौन-कौन सी सुविधाएं मौजूद हैं? 23 मार्च 2021 को राज्य सभा में सांसद के. के. रागेश ने सरकार से पूछा था कि क्या देश भर में सभी एम्स काम कर रहे हैं, प्रत्येक एम्स में चालू सुविधाओं और सेवाओं का ब्यौरा क्या है और अगर नहीं, एम्स के चालू न हो पाने का क्या कारण है? इस पर केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने बताया कि पीएमएसएसवाई योजना के तहत चालू हो चुके छह एम्स में इमरजेंसी, ट्रॉमा, ब्लड बैंक, आईसीयू, डायग्नोस्टिक और पैथोलॉजी की सुविधाएं काम कर रही हैं. (देखें चित्र- 4, 5) इन एम्स में कोविड-19 का इलाज करने के लिए अलग से एक समर्पित ब्लॉक बनाया गया है.

अपने जवाब में केंद्रीय मंत्री ने बताया कि रायबरेली, गोरखपुर, मंगलागिरी, नागपुर, बठिंडा, बीबीनगर और कल्याणी स्थित अन्य सात एम्स में एमबीबीएस कक्षाएं और ओपीडी सेवाएं चालू कर दी गई हैं, जबकि देवघर, बिलासपुर, गुवाहाटी, राजकोट और जम्मू स्थित अन्य पांच एम्स में एमबीबीएस क्लास चालू हो गई है. इसके अलावा बाकी के चार एम्स निर्माण और सहायक गतिविधियों में अलग-अलग स्तर पर काम चल रहा है.

शिक्षकों की कमी से जूझ रहे हैं एम्स

एम्स चालू हो गए, सुविधाओं का भी दावा किया जा रहा है. लेकिन उनमें पढ़ाने वाले कितने हैं? राज्य सभा में 16 मार्च, 2021 को सांसद राकेश सिन्हा ने दिल्ली स्थित एम्स और अन्य एम्स में शिक्षकों के खाली पदों, इन्हें भरने के लिए उठाए जा रहे कदमों के बारे में जानकारी मांगी थी. इसका जवाब देते हुए केंद्रीय राज्यमंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने बताया कि दिल्ली स्थित एम्स समेत 16 एम्स में फैकेल्टी (शिक्षकों) के कुल 2307 पद खाली हैं. उन्होंने बताया कि एक भर्ती प्रक्रिया पूरी होने के बाद दूसरी भर्ती प्रक्रिया को शुरू कर दिया जाता है.

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वहीं, सांसद के. के. रागेश को दिए जवाब में केंद्र सरकार ने रिक्त पदों को भरने में आने वाली समस्या के बारे में बताया था। केंद्रीय राज्यमंत्री ने कहा था कि एक तो नए एम्स में कई विशेषज्ञ सेवाएं अभी चालू नहीं हो पाई हैं, दूसरा योग्यता के मानक ऊंचे रखने की वजह से कई बार सारी सीटें नहीं भरी जा सकती हैं. कुल मिलाकर वॉट्सएप पर घूमते दावों से इतर जमीनी हकीकत है कि एक तो सारे एम्स चालू नहीं हुए हैं और  दूसरा कि जो चालू हुए हैं, उनमें पढ़ाने और लोगों का इलाज करने के लिए शिक्षक नहीं हैं.

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राज्य सभा

क्यों यह सोचना गलत है कि कोरोना की दूसरी लहर अचानक आई या केंद्र सरकार को पता नहीं था

संसद के बजट सत्र यानी मार्च में ही कोरोना की दूसरी लहर से निपटने को लेकर सरकार से सवाल पूछे गए थे. इसके जवाब में केंद्र सरकार ने जो कुछ भी कहा था, वह जमीन पर कहीं दिखाई ही नहीं दिया. पढ़िए ये रिपोर्ट…

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12 मार्च, 2021 को अहमदाबाद में 'आजादी के अमृत महोत्सव कार्यक्रम' में पीएम नरेंद्र मोदी, Photo credit- PIB

आज केंद्र सरकार भले ही कोरोना के बढ़ते आंकड़ों में पॉजिटिविटी की तलाश कर रही हो. लेकिन सच यही है कि शहर हो या गांव, हर तरफ मौत की बरसात जारी है, श्मशान दहक रहे हैं, नदियों में शव तैर रहे हैं, परिवार बिखर रहे हैं, बच्चे अनाथ और बुजुर्ग बेसहारा हो रहे हैं. आज की तारीख में शायद ही कोई परिवार बचा हो, जिसने अपने किसी प्रियजन को न खोया हो. आखिर ये हालात कैसे बन गए? क्या कोरोना महामारी की दूसरी लहर वाकई बिना सूचना दिए आ गई? या केंद्र सरकार ने सब कुछ जानते हुए इस खतरे की अनदेखी की?

इस सवालों का जवाब पाने के लिए आपको संसद के बजट सत्र के दूसरे हिस्से यानी मार्च में लौटना होगा. यह वही समय था, जब पश्चिम बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी में विधानसभा चुनाव के लिए सरगर्मियां बढ़ गई थीं. सत्ताधारी भाजपा और विपक्षी दलों के नेता इन राज्यों में अपनी रैलियां और चुनावी सभाएं करने लगे थे. इतना ही नहीं, उत्तराखंड में कुंभ की तैयारियां भी जोर पकड़ चुकी थीं.

इन सब के बीच 16 मार्च को राज्य सभा में दो सांसदों विकास कुमार और डेरेक ओ ब्रायन (Derek O’Brien) ने कोरोना की दूसरी लहर आने का सवाल उठाया. केंद्र सरकार से उन्होंने पूछा कि भारत में दूसरी बार कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं, इससे निपटने के लिए सरकार ने क्या-क्या उपाय किए हैं?
सांसदों के इन सवालों (संख्या-2356) का केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने दिया. उन्होंने बताया, ‘भारत सरकार सितंबर, 2020 के बाद से लगातार गिरावट के बाद कोरोना के मामलों में दोबारा बढ़ोतरी की पूरी सक्रियता से निगरानी कर रही है। (Government of India is actively monitoring the resurgence of COVID-19 cases after sustained decline that was witnessed since mid-September 2020.) इस जवाब से साफ है कि कोरोना की दूसरी लहर अचानक नहीं आई है और इसकी सरकार को बाकायदा जानकारी थी.

केंद्रीय मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने आगे कहा कि मामलों में उछाल आने और इससे जुड़ी जरूरतें पूरी करने के लिए संबंधित राज्य सरकारों के साथ मिलकर संस्थागत प्रयास किए गए हैं. इसमें औपचारिक संचार, वीडियो कॉन्फ्रेंस और केंद्रीय दलों की तैनाती जैसे कदम शामिल हैं. (Any surge in cases reported and the need for institutionalizing necessary public health measures is taken up with the concerned States through formal communication, video conferences and deployment of Central team.)

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जमीन पर क्या काम हुआ

केंद्र की सक्रिय निगरानी और राज्यों को दी गई सलाह का जमीन कितना असर पड़ा? इस जवाब के ठीक एक महीने बाद यानी अप्रैल में देश भर में लाशें क्यों गिरने लगीं? क्यों मेडिकल ऑक्सीजन के अभाव में लोग तड़प-तड़प कर मरने लगे? केंद्र सरकार को ऑक्सीजन की इस जरूरत का अंदाजा क्यों नहीं हुआ? जबकि बीते साल ही स्पष्ट हो गया था कि कोरोना मरीजों के इलाज में मेडिकल ऑक्सीजन सबसे जरूरी है. इन सवालों को भी छोड़ दिया जाए तो भी यह सवाल आता है कि केंद्र सरकार ने बीते साल कोरोना महामारी से निपटने के लिए जो भी कदम उठाए थे, उन्हें जमीन पर उतारने में गंभीरता क्यों नहीं दिखाई?

वेबसाइट स्क्रॉल के मुताबिक, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की स्वायत्त संस्था सेंट्रल मेडिकल सर्विस सोसाइटी ने बीते साल अक्टूबर में देश के 150 जिला अस्पतालों में प्रेशर स्विंग एडजॉर्ब्शन ऑक्सीजन प्लांट्स (Pressure Swing Adsorption oxygen plants) प्लांट लगाने के लिए टेंडर आमंत्रित किया. यह प्लांट वातावरण में मौजूद ऑक्सीजन को एकत्रित करके उसे पाइप के जरिए अस्पतालों में पहुंचाता है. इससे बाहर से लिक्विड मेडिकल ऑक्सीजन खरीदने की जरूरत खत्म हो जाती है.

कोरोना के इलाज में ऑक्सीजन की अहमियत होने के बावजूद बजट आवंटन में देरी हुई और टेंडर की प्रक्रिया लटकी गई. फिर सरकार ने 162 ऑक्सीजन प्लांट्स (12 बाद में जोड़े गए) के लिए 201.58 करोड़ रुपये जारी किए. लेकिन अप्रैल 2021 तक यानी लगभग छह महीने बाद सिर्फ 11 ऑक्सीजन प्लांट ही लगे और उनमें से सिर्फ पांच ही चालू हो पाए.

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बाद में केंद्र सरकार ने भी माना कि 162 ऑक्सीजन प्लांट्स में से सिर्फ 33 प्लांट्स ही लग पाए हैं. इनके चालू होने की बात तो खुद केंद्र सरकार ने भी नहीं कही. अगर यह जमीनी हकीकत है तो संसद में सरकार ने जिस सक्रिय निगरानी का दावा किया था, वह क्या कागजों में हो रही थी?

राज्यों को सलाह को खुद केंद्र ने कितना माना

ऑक्सीजन प्लांट और दवाओं के अकाल का भोगा हुआ सच जनता के सामने है. अब बात करते हैं कोरोना से बचाव के उपायों के बारे में. संसद में अपने इसी जवाब में केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री ने कहा था कि सभी राज्य सरकारों को (1) सभी हितधारकों के साथ तालमेल करके मिशन मोड पर नियंत्रणकारी उपायों को सख्ती से लागू करने, (2) निगरानी, संपर्कों का पता लगाने और जांच को बढ़ाने, (3) कोविड से बचाव मददगार व्यवहार को बढ़ावा देने के लिए आईईसी अभियान को सघन बनाने, (4) मामलों में वृद्धि के लिए अस्पतालों की पर्याप्त बुनियादी सुविधाएं सुनिश्चित करने, (5) मामलों को समय पर रेफर करके और उचित इलाज के जरिए मौतों को न्यूनतम करने (6) कोविड टीकाकरण अभियान को तेज करने की सलाह दी गई है.

लेकिन जब केंद्र सरकार संसद में यह जानकारी दे रही थी, उसके पहले से उसके प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और दूसरे मंत्री चुनाव वाले राज्यों में इसका उल्लंघन कर रहे थे. मार्च से अप्रैल तक की चुनाव प्रचार रैलियों और उनमें जुटते हजारों लोगों की तस्वीरें बताती हैं कि कैसे राज्यों को दी गई सलाह की खुद सरकार में बैठे लोगों ने परवाह नहीं की, विपक्ष और दूसरे दल तो दूर की बात हैं. इससे जुड़े कुछ ट्वीट अंत में दिए गए हैं. स्पष्ट करना जरूरी है कि कोविड प्रोटोकॉल के उल्लंघन में विपक्षी दल पीछे या कम भागीदार नहीं थे. यह अलग बात है कि अप्रैल के आखिरी हफ्ते में कांग्रेस ने कोरोना के बढ़ते मामलों के आधार पर अपनी रैली रद्द करके सत्ताधारी बीजेपी को भी ऐसा कदम उठाने के लिए मजबूर कर दिया.

हालांकि, चुनाव प्रचार में जिम्मेदार शीर्ष नेताओं के गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार ने आम जनता के बीच कोरोना का खतरा टलने का संदेश दे दिया. नेताओं की देखा-देखी जनता भी लापरवाह हो गई. सरकारें और राजनीतिक दल चुनावों से फुरसत पाकर इस बारे में कुछ सोचते, इससे पहले ही कोरोना वायरस ने पूरी ताकत से हमला बोल दिया. इसमें लचर स्वास्थ्य सेवाओं और इसे सुधारने में सरकारों की गैर-जिम्मेदारी ने आग में घी डालने का काम किया.

नोट- स्वास्थ्य संविधान की व्यवस्था में राज्य का विषय है, लेकिन इसमें हमेशा से केंद्र की दखल रही है. इतना ही नहीं, बेहद सीमित संसाधनों वाले राज्यों पर कोरोना जैसी महामारी से निपटने की जिम्मेदारी डालना, अपनी जिम्मेदारी से भागने जैसा कदम है.

 

 

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राज्य सभा

इस देश में एक हजार आदमी पर सिर्फ डेढ़ पुलिस है

केंद्र सरकार ने पुलिस सुधारों के लिए समय-समय कई समितियां बनाई, उनकी सिफारिशें भी आईं, लेकिन पुलिस व्यवस्था पर इनका कोई असर नहीं दिखाई दे रहा है तो क्यों?

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साभार गूगल सर्च

बीते साल लॉकडाउन लगने के बाद से आपने सोशल मीडिया पर ऐसे बहुत से वीडियो देखे होंगे, जिसमें पुलिस असहाय को बड़ी बेरहमी से पीट रही है. इस सिलसिल की हालिया तस्वीर मध्य प्रदेश के इंदौर से आई है, जहां मास्क न पहनने की वजह से पुलिसकर्मियों ने एक व्यक्ति सड़क पर गिराकर पीटा.

आखिर भारत में पुलिस अपनी जनता के साथ ऐसा व्यवहार क्यों करती है? क्यों वह अपराध रोकने और कानून-व्यवस्था को बनाने की जगह खुद अपराधी बन जाती है. इसलिए भारत में पुलिस सुधार एक बड़ा मुद्दा है. इस पुलिस सुधार की आवश्यकता जितनी गुणात्मक (Qualitative) है, उतनी ही संख्यात्मक (Quantitative) है.

राज्य सभा में सांसद राकेश सिन्हा ने पुलिस सुधारों का सवाल उठाया. उन्होंने पूछा कि चार सिपाही प्रति अधिकारी संबंधी पद्मनाभैया समिति की सिफारिशों को लागू करने वाले राज्यों का ब्यौरा क्या है, राज्य सुरक्षा आयोग की स्थापना करने हेतु रिबेरो समिति की सिफारिशों को कितने राज्यों ने लागू किया है?

सांसद राकेश सिन्हा ने यह भी पूछा कि कितने राज्यों ने इसे लागू नहीं किया है और इसका अनुपालन ने करने के कारण क्या हैं, प्रति एक लाख लोगों पर पुलिस कर्मचारियों की संख्या क्या है और क्या यह राष्ट्रीय पुलिस आयोग द्वारा निर्धारित मानदंडों पर खरा उतरता है?

केंद्रीय गृह राज्यमंत्री जी किशन रेड्डी सांसद राकेश सिन्हा के सवालों का जवाब दिया उन्होंने बताया कि पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधार करने के लिए केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय पुलिस आयोग (1977), रिबेरो समिति (1998) पद्मनाभैया समिति (2000) और अपराध न्याय पर मलिमथ समिति (2002) गठित की है.

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उन्होंने बताया कि केंद्र सरकार ने पुलिस सुधारों पर गठित पिछले आयोगों और समितियों की सिफारिशों की समीक्षा करने के लिए श्री आर एस मूसाहारी की अध्यक्षता में दिसंबर 2004 में एक समीक्षा समिति भी बनाई थी. इस समिति ने मार्च 2005 में अपनी रिपोर्ट सौंपी.

इस समिति ने अर्दली व्यवस्था को बदलने और राज्य सुरक्षा आयोग की स्थापना समेत कुल 49 सिफारिशें की थी. समीक्षा समिति की सिफारिशों को लागू करने के लिए राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को भेजा गया है. उन्होंने अर्दली सिस्टम को हटाने और राज्य सुरक्षा आयोग को लागू करने वाले राज्यों का ब्यौरा भी दिया. (देखें टेबल 1)

केंद्रीय गृह राज्यमंत्री जी किशन रेड्डी ने बताया कि पुलिस सुधार एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया है और पुलिस भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत राज्य सूची का विषय है. उन्होंने कहा कि पुलिस सुधारों को लागू करना राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश का काम है, जिसके लिए केंद्र सरकार सिर्फ परामर्श जारी करती है.

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केंद्रीय गृह राज्यमंत्री जी किशन रेड्डी ने कहा कि पुलिस अनुसंधान और विकास ब्यूरो की ओर से एकत्रित आंकड़ों के मुताबिक प्रति एक लाख व्यक्तियों पर पुलिसकर्मियों की संख्या 01 जनवरी, 2020 को स्वीकृत संख्या के आधार पर 195.39 है, जबकि वास्तविक संख्या के आधार पर 155.78 है. उन्होंने बताया कि पुलिस वालों की संगठनात्मक संरचना, कार्यप्रणाली और उसे सौंपे जाने वाले कार्यों के आधार पर भिन्न-भिन्न होती है. गृह राज्यमंत्री ने बताया कि कई देशों में केंद्रीय पुलिस बल नहीं है.

सवाल है कि जब  एक हजार लोगों पर सिर्फ डेढ़ पुलिस ही है तो देश में कानून-व्यवस्था कैसे सुधरेगी और काम के दबाव से जूझ रही पुलिस को कैसे संवेदनशील बनाना संभव हो पाएगा.

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POLICE REFORMS

MP Rakesh Sinha, Will The Minister Of Home Affairs Be Pleased To State:
(a) the details of States who have implemented Padmanabhaiyah Committee’s recommendation of four constabulary personnel per officer; and (b) the number of States which have implemented Ribeiro Committee’s recommendation to establish State Security Commission;

(c) the number of States which have not implemented and what are the reasons for noncompliance; and (d) what is the proportion of police personnel per 1,00,000 people and whether it qualifies the norms set up by the National Police Commission?

ANSWER

Minister Of State In The Ministry Of Home Affairs G. Kishan Reddy said, (a) & (c) In order to improve the functioning of the police, the Union Government has set up various Commissions/Committees i.e. National Police Commission (1977), Ribeiro Committee (1998), Padmanabhaiah Committee (2000), Malimath Committee on Criminal Justice (2002).

Further, the Government constituted a Review Committee headed by R.S. Mooshahary to review the recommendations of the previous Commissions and Committees on Police Reforms in December 2004.

The Committee submitted its report in March 2005. The Committee shortlisted 49 recommendations including two recommendations i.e. orderly system and establishment of State Security Commission.

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The recommendations of the Review Committee have been sent to State Governments and Union Territory Administrations for taking appropriate action.

Police reforms are an ongoing process. “Police” is a State subject falling in List-II (State List) of the Seventh Schedule of the Constitution of India.

It is primarily the responsibility of the State Governments/UT Administrations to implement police reforms. The Centre also issues advisories to the States to bring in the requisite reforms in the Police administration to meet the expectations of the people.

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(d) As per data on Police Organisations compiled by Bureau of Police Research & Development (BPR&D), the ratio of police personnel per 1,00,000 people is 195.39 as per sanctioned strength as on 01.01.2020 and 155.78 as per actual strength.

The organisational structure of the Police Forces varies from country to country as do the functions & tasks assigned to them.

Many countries do not have Central Armed Police Forces. In addition, the number of policemen required is dependent on several variables like volume of crime, societal structures, use of technology and local problems.

There are no universal standards or United Nations recommendations to assess the optimal level of police force in a country.

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राज्य सभा

केंद्र सरकार के लिए दलितों पर अत्याचार महज आंकड़ा क्यों है?

एनसीआरबी के मुताबिक, एससी और एसटी महिलाओं के साथ बलात्कार के मामले बढ़ रहे हैं. क्या यह सामाजिक न्याय और अधिकार के संघर्ष के बेपटरी होने का संकेत है?

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Photo credit- Pixabay

आज संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर की जयंती है. लगभग सभी सरकारें और पार्टियां इस मौके पर बाबा साहब को याद कर रही हैं. लेकिन समाज की हकीकत देखें तो वंचित वर्ग को न्याय दिलाने की पूरी कल्पना ही अधूरी है या कहें तो ध्वस्त पड़ी है. इसका सबसे बड़ा सबूत दलितों के खिलाफ होने वाले जघन्य अपराध की बढ़ती संख्या है.

संसद के बजट सत्र में राज्य सभा में सांसद एम बी श्रेयम्स कुमार ने यह मुद्दा उठाया. उन्होंने गृह मंत्रालय से पूछा कि क्या देश में वंचित वर्ग की अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) की महिलाओं के प्रति बलात्कार जैसे अपराध बढ़ रहे हैं? उन्होंने इसके साथ दो साल का ब्यौरा मांगा. इसके अलावा उन्होंने पूछा कि क्या सरकार ने क्रूरता के ऐसे मामलों में कोई अध्ययन या जांच कराई है, जिनमें अपराधी अक्सर कानून की पंजे से बच निकलते हैं. सांसद एम बी श्रेयम्स ने पूछा कि अगर सरकार ने कोई जांच नहीं कराई है तो इसकी क्या वजह है?

केंद्रीय गृह राज्यमंत्री जी किशन रेड्डी ने संसद में इन सवालों का जवाब दिया. उन्होंने बताया कि संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत कानून-व्यवस्था और पुलिस राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं. केंद्रीय गृह राज्यमंत्री के मुताबिक, कानून-व्यवस्था बनाए रखना, नागरिकों के जान-माल की सुरक्षा करना, अनुसूचित जाति और जनजाति लड़कियों और महिलाओं के प्रति अपराधों की जांच और अभियोजन की जिम्मेदारी संबंधित राज्य सरकारों की होती है.

गृह राज्यमंत्री जी किशन रेड्डी ने कहा कि राज्य सरकारें मौजूदा कानूनों के तहत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों से निपटने में सक्षम है. हालांकि, उन्होंने कहा कि ऐसे अपराधों में आरोपियों के छूटने का कोई भी अध्ययन राज्यों के ही अधिकार क्षेत्र में आता है.

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नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी के आंकड़ों का हवाला देते हुए केंद्रीय गृह राज्यमंत्री ने कहा कि यह संस्थान राज्यों से मिली सूचनाओं के आधार पर ‘क्राइम इन इंडिया’ नाम से रिपोर्ट बनाता है और उसे प्रकाशित करता है. अब तक 2019 तक की रिपोर्ट उपलब्ध है. इस आधार पर उन्होंने साल 2018 और 2019 के दौरान अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के साथ बलात्कार के आंकड़े पेश किए.

इसके मुताबिक, 2018 में अनुसूचित जाति की 18 वर्ष की महिलाओं के साथ बलात्कार के सबसे ज्यादा 438 मामले उत्तर प्रदेश में सामने आए. हालांकि, 2019 में राजस्थान सबसे आगे रहा. यहां 2018 में 346 मामले दर्ज हुए, जो 2019 में बढ़कर 491 हो गए. 2019 में उत्तर प्रदेश में 466 मामले सामने आए. यानी अनुसूचित जाति की महिलाओं के साथ बलात्कार में उत्तर प्रदेश दूसरे स्थान पर रहा.

अनुसूचित जाति में 18 साल से कम आयु के नाबालिगों के साथ यौन अपराध के मामलों में मध्य प्रदेश सबसे आगे रहा. यहां साल 2018 में 169, तो 2019 में 214 मामले दर्ज किए गए. दूसरे स्थान पर महाराष्ट्र रहा. अनुसूचित जनजाति की महिलाओं से बलात्कार के मामले में भी मध्य प्रदेश ही आगे रहा. मध्य प्रदेश में 2018 में अनुसूचित जाति की 199 महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ, जो 2019 में बढ़कर 219 हो गया. वहीं, 18 साल से कम आयु के यानी नाबालिगों के साथ यौन अपराध के 2018 में 170 और 2019 में 139 मामले सामने आए.

राष्ट्रीय स्तर पर आंकड़ों को देखें तो 2018 और 2019 के बीच अनुसूचित जाति की महिलाओं के साथ बलात्कार के मामले 2,066 से बढ़कर 2,363 हो गए. वहीं, अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के साथ बलात्कार के मामले 609 से बढ़कर 714 हो गए. अनुसूचित जाति के 18 साल से कम आयु के बच्चों के साथ यौन अपराध के मामले सबसे ज्यादा बढ़े. 2018 में इनकी संख्या 869 थी, जो 2019 में बढ़कर 1,116 हो गई.

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इन तमाम आंकड़ों के बीच सवाल है कि अगर भारतीय समाज ने संविधान को अपनाया है तो वंचित वर्ग के खिलाफ इतना अपराध क्यों हैं? सरकारें क्यों अपराधियों को सजा दिलाकर कानून को प्रभावी बनाने की जगह एक-दूसरे के सिर पर जिम्मेदारी डालती नजर आती हैं? क्यों दलितों और वंचितों को अपने खिलाफ अपराध को दर्ज कराने तक के लिए संघर्ष करना पड़ता है? आखिर भारतीय कब अपने अतीत से छुटकारा पाकर संविधान में दर्ज आधुनिकता को पूरी तरह स्वीकार करेगा?

RAJYA SABHA QUESTION NO-227

M.V. SHREYAMS KUMAR asked, Will the Minister of HOME AFFAIRS be pleased to state:

(a)whether crimes of rape against girls of the underprivileged classes of the society and Scheduled Caste and Scheduled Tribe women are increasing recently in the country; (b) if so, the details thereof, State-wise, for the last two years; (c) whether Government has done any study/enquiry on this growing menace of cruelty where the culprits often escape the arms of the law; and (d) if so, the details thereof and if not, the reasons therefor?

ANSWER

MINISTER OF STATE IN THE MINISTRY OF HOME AFFAIRS G. KISHAN REDDY replied, (a) to (d): ‘Police’ and ‘Public Order’ are State subjects under the Seventh Schedule to the Constitution of India.

The responsibilities to maintain law and order, protection of life and property of the citizens, and investigation and prosecution of crime including crime against girls and women who are members of Scheduled Castes and Scheduled Tribes rests with the respective State Governments.

The State Governments are competent to deal with such offences under the extant provisions of laws and any study on any such specific aspect is in their jurisdiction.

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National Crime Records Bureau (NCRB) compiles and publishes information on crimes reported to it by States and Union Territories in its publication “Crime in India”. Published reports are available till the year 2019.

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