संसद में दो सत्रों के दौरान कोरोना संकट को लेकर स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री के स्व प्रेरित बयान के साथ बहुत सी बातें हुई हैं. लेकिन इस पर सबसे गहन पड़ताल संसद की समितियों ने की है. इसमें सबसे अहम रिपोर्ट प्रो. रामगोपाल यादव की अध्यक्षता वाली स्वास्थ्य औऱ परिवार कल्याण मामलों की संसदीय स्थायी समिति ने दी. इस समिति ने कोविड-19 महामारी का प्रकोप और इसका प्रबंधन विषय पर अपनी 123वीं रिपोर्ट में सभी पक्षों की गहन पड़ताल करने के साथ जो आशंकाएं जतायी थीं, वे सभी कोरोना की दूसरी लहर के दौरान सच साबित हुईं. इस रिपोर्ट को 21 नवंबर 2020 को राज्य सभा में पेश किया गया था, जिसे 24 नवंबर 2020 को लोक सभा अध्यक्ष को भेजा गया था.
नए कोरोना वायरस सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम कोरोना वायरस-2 या सार्स कोवी-2 के कारण 20 जनवरी 2021 तक पूरी दुनिया में 20,65,695 तक मौतें हुई थीं, जबकि भारत में 1,52,718 लोगों की मौत हुई. लेकिन भारत में इसका चरम 18 मई 2021 को दिखाई दिया। इस दिन में सबसे अधिक 4,529 मौतें दर्ज की गईं, जो दुनिया में किसी एक देश में एक दिन में होने सर्वाधिक मौतें हैं। इसके पहले 12 जनवरी 2021 को अमेरिका में सबसे अधिक 4,468 मौतें हुई थीं.
मिनी संसद हैं संसदीय समितियां
मंत्रालय संबंधी स्थायी समितियों को मिनी संसद कहा जाता है. ये बेहद ताकतवर हैं. इनका आरंभ 1993 में हुआ था. ये समितियां जनता और संसद के बीच अहम कड़ी भी हैं, क्योंकि जनता से ये सुझाव भी मांगती हैं और पेशेवरों की सलाह भी लेती हैं और खुद अहम विषयों का चयन करती हैं.
इनके विषय में यह भी व्यवस्था है कि संबंधित मंत्री को अपने मंत्रालय से संबंधित समितियों की रिपोर्टों में आई सिफारिशों के कार्यान्वयन के बाबत छह महीने में एक बार सदन में बयान देना होता है.
संसद नहीं चलती है तब भी संसदीय समितियां काम करती हैं. कोरोना संकट को केंद्र में रख कर दो समितियों ने अब तक अहम रिपोर्ट दी है, जिसमें दूसरी रिपोर्ट गृह कार्य संबंधी स्थायी समिति की रिपोर्ट है.
लेकिन विभाग संबंधी स्थायी समितियों में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण संबंधी संसदीय स्थायी समिति बेहद खास है. प्रो. रामगोपाल यादव के नेतृत्व में स्थायी समिति की यह दूरदर्शिता कही जाएगी कि उसने कोरोना संकट की आहट के साथ ही 13-14 फरवरी 2020 को इस विषय की व्यापक पड़ताल करने का फैसला किया था.
समिति ने सभी साझेदारों के साथ की बैठक
समिति ने 5 मार्च 2020 को इस विषय पर पहली बैठक में आयुष मंत्रालय, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के शीर्ष अधिकारियों, एम्स के निदेशक और स्वास्थ्य अनुसंधान और अन्य सभी संबंधित पक्षों और हितधारकों के साथ विस्तार से चर्चा की थी.
बाद में कोरोना संकट के बीच भी समिति ने अपनी बैठक जारी रखी औऱ 4 अगस्त को सचिव स्वास्थ्य और परिवार कल्याण और सचिव स्वास्थ्य अनुसंधान के विचारों को जाना.
7 सितंबर 2020 को निदेशक एम्स और पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन आफ इंडिया, निदेशक पापुलेशन फाउंडेशन जैसे संगठनों के प्रतिनिधियों का विचार जाना.
16 अक्तूबर 2020 को समिति ने दोबारा स्वास्थ्य सचिव और सीईओ आयुष्मान भारत के विचारों को जाना. समिति ने फिक्की, सीआईआई, पतंजलि, डाबर और कई संगठनों की राय भी ली.
तमाम अहम दस्तावेजों का अध्ययन करने के साथ समिति ने आठ खंडों में जो रिपोर्ट 21 नवंबर 2020 को सौंपी, वह बहुत से सवाल खड़े करती है.
भारत में कोविड-19 महामारी की गंभीरता और उससे निपटने के उपायों को देख कर पूरी दुनिया हिल गई. ऑक्सीजन सिलेंडरों की उपलब्धता हो जीवनरक्षक दवाओं और अस्पतालों में बेड की उपलब्धता, हर जगह भारी भीड़ और लाइन लगी रही.
श्मशानों के बाहर ऐसी लाइन पहली कभी नहीं दिखी. यह केवल इस नाते हुआ, क्योंकि आरंभिक चेतावनियों को सरकार ने नजरंदाज किया. वैज्ञानिकों और डॉक्टरों की बातें तो अलग हैं, सरकार ने संसदीय समिति तक को दरकिनार कर दिया.
समिति ने दिए थे अहम सुझाव
स्वास्थ्य संबंधी स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में लॉकडाउन और अनलॉकिंग, कंटिजेंसी प्लान, चिकित्सा अनुसंधान और विकास, आयुष्मान भारत के तहत कोविड प्रबंधन, आयुष प्रणाली से कोविड प्रबंधन, कोविड के बाद के कॉम्प्लिकेशन प्रबंधन, महामारी की चुनौतियों और स्वास्थ्य क्षेत्र के वित्तीय प्रबंधन पर काफी गहन अध्ययन करके सरकार को कई अहम सुझाव दिए थे.
समिति ने यूरोपीय देशों में कोविड की दूसरी लहर के खतरनाक असर को देख कर सरकार को तैयारी करने के साथ आगाह किया था कि सर्दियों के दिनों में कई त्यौहार हैं, जिसमें भीड़भाड़ होगी. इससे कोरोना का संक्रमण और फैलने की आशंका होगी.
इस नाते टेस्टिंग सुविधाओं के व्यापक विस्तार के साथ समिति ने सिफारिश की थी कि हर राज्य में कम से कम एक मेडिकल कालेज और हास्पिटल को ‘सेंटर आफ एक्सीलेंस’ बना कर रणनीति तैयार की जाए.
समिति ने यह भी कहा था कि स्वास्थ्य मंत्रालय इस पर ठोस दिशानिर्देश तैयार करे, जागरूकता के विस्तार और प्रचार-प्रसार के साथ पंचायतों और समुदायों की भागीदारी को भी सुनिश्चित किया जाए. समिति ने नियंत्रणकारी उपायों के साथ मेडिकल उपकरणों के निर्माण की क्षमता बढ़ाने का सुझाव भी दिया था.
कमजोर बुनियादी ढांचे वाले राज्यों और जिलों को प्राथमिकता देने का सुझाव देते हुए समिति ने कहा था कि टेस्टिंग और चिकित्सा के लिए जरूरी वित्तीय सहायता उपलब्ध करानी चाहिए.
जमीन पर नदारद मिले दावे
4 अगस्त, 2020 को स्वास्थ्य और परिवार कल्याण सचिव ने समिति के सामने कहा था कि भारत में कोरोना संकट 80 फीसदी मामलों में मामूली असर वाला रहा है, 15 फीसदी संक्रमितों को अस्पताल ले जाने की जरूरत पड़ी, जबकि पांच फीसदी मरीज ऐसे थे, जिन्हें क्रिटिकल केयर और वेंटिलेटर की जरूरत पड़ी.
सचिव ने यह भी कहा, लॉकडाउन के दौरान सरकार को 34 गुना अधिक आइसोलेशन बेड तैयार करने और 20 गुना अधिक आईसीयू सुविधा बनाने में मदद मिली. इससे टेस्ट लैब बढ़ी और दैनिक जांच क्षमता 6.61 लाख हो गयी. ऐसी बहुत सी बातें पहले चरण की सफलता की कहानी कहती हैं.
लेकिन जब संसदीय समिति अपनी रिपोर्ट को अंतिम रूप दे रही थी तो भारत, अमेरिका के बाद कोविड पॉजिटिव मामलों में दुनिया का दूसरा बड़ा देश बन गया था. फिर भी तमाम प्रयासों के बावजूद भारत में प्रति 10 लाख की आबादी पर केवल 44,524 टेस्ट हो रहे थे, जबकि अमेरिका में 2,87,354 टेस्ट. तीसरे सबसे प्रभावित ब्रॉजील में प्रति दस लाख पर 68,666 टेस्ट हो रहे थे.
समिति ने स्वास्थ्य मंत्रालय को कोविड-19 टेस्टों की संख्या को बढ़ाने के लिए जरूरी ढांचा बनाने और दूसरी लहर के लिए अन्य बहुत सी तैयारियों को करने के लिए कहा था.
मेडिकल ऑक्सीजन पर भी दिया था सुझाव
स्थायी समिति ने 16 अक्तूबर, 2020 को हुई अपनी बैठक में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण सचिव के साथ ऑक्सीजन के मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की थी. उस समय देश में रोज उत्पादित होने वाली 6,900 टन ऑक्सीजन में से सबसे अधिक मेडिकल उपयोग 24-25 सितंबर को 3,000 टन रहा.
कोरोना संकट की शुरुआत में मेडिकल क्षेत्र में रोजाना ऑक्सीजन की खपत एक हजार टन थी, जबकि शेष छह हजार टन ऑक्सीजन उद्योगों को दी जा रही थी.
स्थायी समिति ने नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइजिंग अथारिटी को ऑक्सीजन सिलिंडरों की दरों को नियंत्रण में रखने, अस्पतालों और मेडिकल उपयोग के लिए उचित मात्रा में ऑक्सीजन सिलिंडरों की उपलब्धता जैसे मुद्दों पर खास तौर पर गौर करने के लिए कहा था.
इसके साथ सरकार को सुझाव दिया था कि अस्पतालों में मांग के मुताबिक ऑक्सीजन की उपलब्धता सुनिश्चित कराने का प्रबंधन पहले से किया जाना चाहिए. अगर सरकार ने संसदीय समिति की सिफारिशों को स्वीकारा होता तो कोरोना वायरस की दूसरी लहर के दौरान दिखी बदहाली पैदा ही नहीं होती.
अंततः #SOSIYC टीम द्वारा मोक्षदायिनी गंगा में विसर्जित की गयी 500 हिंदुस्तानियों की अस्थियां🙏
ईश्वर इन सभी की आत्मा की शांति प्रदान करें। pic.twitter.com/FfN4AFmwo9
— Srinivas B V (@srinivasiyc) June 12, 2021
वैक्सीनेशन की रणनीति बनाने की सिफारिश
संसदीय समिति ने वैक्सीन के मुद्दे पर भी व्यापक मंथन किया और कहा कि स्मॉर्ट वैक्सीजनेशन की रणनीति बनायी जाये. लेकिन पूरी आबादी को वैक्सीन लगाना होगा. इसके लिए जरूरी है कि देश भर में कोल्ड चेन अपग्रेड की जाये, ताकि वैक्सीन लगाते समय कोई अवरोध न हो, उस दौरान भारत के साथ वैश्विक वैज्ञानिक समुदाय इस मुद्दे पर काम कर रहा था.
उस स्थिति में समिति ने मंत्रालय को वैक्सीन की उपलब्धता के लिए विचार करने के साथ यह भी कहा था कि सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और और अन्य वैक्सीन निर्माताओं को इसके साथ जोड़ा जाये, ताकि वैक्सीन की किल्लत न हो. यह भी सुनिश्चित हो कि वे आम जनता को उचित दर पर सुलभ हों और गरीबों के लिए इनका विशेष प्रबंध किया जाये. इसकी ब्लैक मार्केटिंग या कमी न हो.
अस्पतालों में अफरा-तफरी
स्थायी समिति ने आकलन किया कि पहली लहर की आपदा में काफी संख्या में मौतें हुईं. सरकारी अस्पतालों में उचित संख्या में न तो बिस्तर उपलब्ध थे, न ही बाकी सुविधाएं. इस नाते कोविड और गैर-कोविड दोनों मरीजों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा. सरकार को इस दिशा में और ध्यान देने की जरूरत है.
समिति ने अस्पतालों में कोविड-19 समर्पित बिस्तरों का जायजा भी लिया तो जानकारी मिली कि अक्तूबर 2020 में कोविड के लिए समर्पित सुविधा 15,239 जगहों पर थी.
इसमें डेडिकेटेड कोविड अस्पताल 220, डेडिकेटेड कोविड हेल्थ सेंटर 4153 और डेडिकेटेड कोविड सेंटर 8,880 थे. बिना ऑक्सीजन सपोर्ट वाले आइसोलेशन बेड 12.73 लाख थे, जबकि ऑक्सीजन सपोट वाले बेड 26,401, आईसीयू बेड 76,709 और वेंटिलेटर सपोर्ट वाले बेड 39,476 थे. समिति ने पाया कि कोविड संक्रमण और मरीजों की संख्या को देखते हुए सरकार ने अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या बहुत कम रखी है.
महामारी की भीषणता के दौरान अस्पतालों की बदहाली और मीडिया रिपोटों को भी संज्ञान में लेते हुए समिति ने नेशनल हेल्थ प्रोफाइल डाटा-2019 के हवाले से कहा कि देश में कुल सरकारी अस्पतालों में उपलब्ध बिस्तरों की सख्या 7,13,986 हैं, जो प्रति हजार की आबादी पर 0.55 बिस्तर बनता है. इसमें 12 राज्यों की स्थिति राष्ट्रीय औसत से भी कम है.
महामारी के दौरान बिस्तरों और वेंटिलेटरों की कमी रही और मामलों के बढने के साथ अस्पतालों में जगह मिलना मुश्किल हो गया. एम्स पटना में ऑक्सीजन सिलिंडर के साथ अस्पताल पहुंचे मरीजों की तस्वीरें बहुत चिंताजनक थीं.
समिति ने दिल्ली के विख्यात डॉ. राममनोहर अस्पताल का जायजा लेते समय पाया कि यहां उपलब्ध 1572 बेड में से कोविड मरीजों के लिए केवल 242 बेड उपलब्ध थे, जबकि सफरदरजंग के 2873 बेड में से केवल 289 बेड. राष्ट्रीय राजधानी में कोविड मरीजों की संख्या में वृद्धि के दौरान यह क्यों किया गया, यह समझ से परे है.
इन तथ्यों से नाराज समिति ने दिल्ली की स्थिति पर मंत्रालय से पूरा ब्यौरा देने के लिए कहा. इसी के साथ स्थायी समिति ने आपदा से निपटने के लिए जरूरी उपकरणों, तकनीकी स्टाफ के साथ अन्य तैयारियों को पहले से ही उपाय कर लेने का सुझाव दिया. साथ ही गंभीर दौर में आने वाली चुनौतियों का भी आकलन करने की सलाह दी और कहा कि यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि जो अस्पताल पैनल में हैं, उनमें किसी को भी बिना इलाज के नहीं लौटाया जाएगा.
अधिक संसाधनों की दरकार
स्वास्थ्य संबंधी स्थायी समिति ने भारत के स्वास्थ्य व्यय की कमी पर भी गौर किया. समिति ने कहा अगले दो सालों के भीतर स्वास्थ्य पर जीडीपी का 2.5 फीसदी जन स्वास्थ्य पर खर्च करने के जन स्वास्थ्य नीति के लक्ष्य को पाने के लिए लगातार प्रयास हों, क्योंकि इसके लिए निर्धारित 2025 की समय सीमा अभी बहुत दूर है और उस समयावधि तक जनस्वास्थ्य को जोखिम में नहीं डाला जा सकता है. हमारा ग्रामीण स्वास्थ्य ढांचा काफी कमजोर है और इसके लिए अधिक धन आवंटन की दरकार है.
समिति ने यह भी कहा कि कोविड-19 के आलोक में देश के स्वास्थ्य नीति और इस पूरे क्षेत्र की नए सिरे से समीक्षा की जानी चाहिए. स्थायी समिति ने जनस्वास्थ्य के अनुसंधान पर सीमित धन आवंटन को चिंताजनक माना. अनुसंधान पर अमेरिका जीडीपी का 2.84 और चीन 2.19 फीसदी व्यय करता है, लेकिन भारत में यह चिंताजनक स्थिति है. इस पर दो सालों के दौरान कम से कम 1.72 फीसदी धन आवंटन होना चाहिए, जो कि विश्व औसत के बराबर है.
स्वास्थ्य मंत्रालय ने पांच सालों 2021-22 से 2025-26 तक इस क्षेत्र के लिए लगभग छह लाख 16 हजार करोड़ रुपए की मांग की है. इसमें मेडिकल कालेजों की स्थापना, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, पोस्ट कोविड स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार आदि से संबंधित व्यय शामिल हैं.
समिति का मत है कि इस क्षेत्र में और अधिक निवेश की दरकार है लिहाजा इस पर सरकार को उच्च प्राथमिकता देनी चाहिए. राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2017 में जो लक्ष्य रखे गए हैं, वे सराहनीय हैं. लेकिन वित्तीय तंगी कभी बेहतर नतीजे नहीं दे सकती. साथ ही इस क्षेत्र में केंद्र और राज्यों के साथ भी बेहतर तालमेल होना चाहिए.
कोविड-19 में आयुष की उपयोगिता
स्थायी समिति ने भारतीय चिकित्सा प्रणाली के महत्व को स्वीकारते हुए इस बात पर संतोष जताया कि कोविड-19 महामारी के दौरान आयुष उत्पादों का व्यापक उपयोग हो रहा है.
समिति का विचार था कि इसके पैकेज जल्दी तैयार कर उनको स्कीम में शामिल किया जाये. आयुर्वेद, योग, नेचुरोपैथी, यूनानी, सिद्धा व सोवा रिंग्पा और होम्योपैथी के उपयोग करते हुए आयुष को प्रोत्साहन दिया जाये, क्योंकि आज पूरी दुनिया अच्छी सेहत के लिए मजबूत इम्यून सिस्टम पर जोर दे रही है.
आपदा में आधुनिक औषधियों के साथ आयुष का क्या योगदान रहा इस पर भी व्यापक पड़ताल होनी चाहिए. आयुष मंत्रालय को कोविड केयर सेंटरों की स्थापना विभिन्न राज्यों और संघ क्षेत्रों में करनी चाहिए और इसके आंकड़ों का रखरखाव किया जाना चाहिए, ताकि इस प्रणाली की प्रभावशीलता पर ठोस अध्ययन हो सके.
सरकार को दोनों चिकित्सा प्रणालियों की कोविड-19 के मरीजों पर पड़ताल करनी चाहिए और बहुआयामी केंद्रों की स्थापना करनी चाहिए जिससे कोविड के बाद के प्रबंधन प्रणाली में इसको महत्व देते हुए अनुसंधान हो सके. लोगों की इम्युनिटी बढ़ाने में आयुष का असर देखते हुए समिति ने आयुष औषधियों, दैनिक योगासन प्राणायाम आदि पर ध्यान देना चाहिए.
कोविड-19 की दूसरी लहर ने सरकारी और निजी सभी अस्पतालों और वैकल्पिक इंतजामों को भी विफल बना दिया. दवाओं, इंजेक्शन और ऑक्सीजन की किल्लत के साथ जमाखोरों औऱ कालाबाजारियों ने इस संकट को और बढ़ा दिया. भारत सरकार को मौजूदा तस्वीर का अंदाज था, लेकिन आपराधिक लापरवाही हुई.
वेटिंग में लगी हैं, सबमें बॉडी है. pic.twitter.com/6jE0CY6wXa
— Ranvijay Singh (@ranvijaylive) April 9, 2021
सरकार अगर सिफारिशों को मान लेती तो…
स्थायी समिति की सिफारिशें दरकिनार कर मोदी सरकार जनता को बचाने की तैयारी करने के बजाए चुनावों की तैयारी में जुटी रही. ऑक्सीजन, रेमडेसिविर इंजेक्शन और दूसरी जरूरी दवाओं की खरीद आम लोगों ने भारी दामों पर की. अब ब्लैक फंगस के लिए अलग से इंजेक्शन की जरुरत है, जिसे लेकर वही अफरातफरी है.
कोरोना से मृत्यु दर में अभी स्थिरता नहीं आई है और यह 1.4 से 1.10 फीसदी के आस-पास बनी हुई है. पिछले साल भी इतने लोग नहीं मरे थे जितनी मौतें इस बार हो रही हैं. कई राज्यों में औसत मृत्यु दर राष्ट्रीय औसत से बहुत अधिक है.
संसदीय समितियों की रिपोर्ट में आई तमाम बातें इस बात की गवाही हैं कि भारत सरकार को दूसरी लहर की गंभीरता का अंदाजा था. फिर भी उसने कोई तैयारी क्यों नहीं की, यह बात समझ से परे है. क्या करोड़ों लोगों के जीवन से बड़ा था बंगाल का चुनाव, जिसके लिए पूरी भारत सरकार जुटी रही? अगर समिति की सिफारिशों को मानकर सरकार ने कुछ खास तैयारियां कर लेती तो इतने बड़े पैमाने पर हुई मौतों को टाला जा सकता था.