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लेख-विशेष

कैसे कोरोना संकट ने गरीब परिवारों के बच्चों के लिए शिक्षा को और मुश्किल बना दिया है?

कोरोना का शिक्षा पर असर का अंदाजा इससे लगा सकते हैं कि लगभग 37 फीसदी किशोर लड़कियों को इस बात का पक्का भरोसा नहीं है कि वे दोबारा स्कूल लौट सकेंगी. ग्रामीण और आर्थिक तौर पर कमजोर परिवारों की लड़कियां पहले से ही ड्रापआउट की जद में हैं.

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वर्तमान समय में समूचा विश्व वैश्विक महामारी से जुझ रहा है. शिक्षा व्यवस्था भी इससे अलग नहीं है. यूनेस्को के अनुसार, 190 देशों में अब तक लगभग 1.6 बिलियन छात्रों को शिक्षा प्रभावित हुई है. यह दुनिया के स्कूली बच्चों का 90 फीसदी है. अगर भारत की बात करें तो ऑनलाइन शिक्षा भी उन मुट्ठी भर बच्चों तक पहुंच पा रही है, जिनके पास स्मार्ट फोन के साथ इंटरनेट का ब्रॉडबैंड नेटवर्क मौजूद है. भारत के ज्यादातर गांवों में तो बॉडबैंड है ही नहीं, बिजली की आपूर्ति भी समय से नहीं होती है. ऐसे में बच्चे ऑनलाइन शिक्षा कैसे प्राप्त कर पाएंगे?

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, निम्न और निम्न-मध्य आय वाले देशों में लगभग 99% विद्यार्थी फिलहाल शिक्षा नहीं पा रहे हैं. इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया, 2019 की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में 67 प्रतिशत पुरुष और 33 फीसदी महिलाएं ही इंटरनेट का उपयोग करती हैं. ग्रामीण भारत में यह अनुपात और भी असंतुलित है. यहां पुरुषों की तुलना में महज 28 प्रतिशत महिलाएं ही इंटरनेट का उपयोग करती हैं. इससे यह स्पष्ट है कि छोटी लड़कियों के लिए स्मार्ट फोन और इंटरनेट उपलब्ध हो पाना कहीं अधिक मुश्किल है

राइट टू एजुकेशन फोरम (RTE Forum) ने सेंटर फॉर बजट एंड पॉलिसी स्टडीज (CBPS) और चैंपियंस फॉर गर्ल्स एजुकेशन (Champions for Girls’ Education) के साथ मिलकर देश के 5 राज्यों में एक अध्ययन किया, जिसके नतीजे चौंकाने वाले हैं. जून में 3,176 परिवारों पर हुए सर्वे में उत्तर प्रदेश के 11, बिहार के आठ, असम के पांच, तेलंगाना के चार और दिल्ली का एक जिला शामिल किया गया है. इसमें आर्थिक रूप से कमजोर तबके के परिवारों में से लगभग 70% ने माना कि उनके पास खाने के लिए पर्याप्त व्यवस्था नहीं है, ऐसे में पढ़ाई और उसमें भी लड़कियों की पढ़ाई सबसे ज्यादा खतरे में है.

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अध्ययन में पाया गया है कि लगभग 37 फीसदी किशोर लड़कियों को इस बात का पक्का भरोसा नहीं है कि वे दोबारा स्कूल लौट सकेंगी. ग्रामीण और आर्थिक तौर पर कमजोर परिवारों की लड़कियां पहले से ही ड्रापआउट की जद में हैं. लड़कों के मुकाबले दोगुनी लड़कियां कुल 4 साल से भी कम समय तक स्कूल जा पाती हैं. साल 2014 में अफ्रीकन देशों में इबोला महामारी के कहर का अंजाम भी कुछ ऐसा ही था. वहां भी लड़कों के मुकाबले लड़कियों का स्कूल ज्दादा छूटा था, जल्दी शादियां होना और कम उम्र में मां बनने जैसे दुष्परिमाण वहां भी दिखाई दिए थे.

सिर्फ प्राथमिक या माध्यमिक शिक्षा ही नहीं, बल्कि उच्च शिक्षा में भी लड़कियों के लिए मुश्किलें बढ़ी हैं. यूजीसी के अनुसार, भारत में 950 विश्वविद्यालय हैं जिनमें निजी विश्वविद्यालयों की संख्या 361 है. हालिया सर्वेक्षण के मुताबिक, शैक्षणिक वर्ष 2019-20 में लगभग 7.7 लाख स्नातक विद्यार्थियों ने निजी विश्वविद्यालयों में दाखिला लिया, जिनमें लड़कियों की संख्या लड़कों की अपेक्षा कम रही.

कोरोना वायरस ने शिक्षाविदों को नए सिरे से सोचने और मौजूदा शैक्षिक नीतियों को फिर से तैयार करने के लिए मजबूर कर दिया है. लेकिन विकसित देशों के मुक़ाबले भारत के हालात बिलकुल जुदा हैं. भारत में कई स्कूलों और विश्वविद्यालयों ने ऑनलाइन शिक्षा को अपनाया है. लेकिन शिक्षाविदों और छात्रों का अनुभव मिला-जुला रहा है। यहां तक कि ऑनलाइन क्लासेज को ‘एक अस्थाई इंतज़ाम से ज़्यादा कुछ नहीं’ तक करार दिया जा चुका है।

दुनिया भर में सरकारें होम स्कूलिंग को प्रोत्साहित करने की कोशिश कर रही है. लेकिन होम स्कूलिंग या ऑनलाइन क्लास कराने वालों का मानना है कि जिन बच्चों के माता-पिता पर्याप्त शिक्षित हैं, यह उनके लिए अच्छा है. हालांकि, भारत जैसे विकासशील देशों के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती है, क्योंकि स्कूल बंद होने के दौरान कई बच्चों का शैक्षणिक विकास रुक जाता है. विशेष रूप से वंचित पृष्ठभूमि से जो बच्चे आते हैं उनका विकास एक दम रुक जाता है. यूके के एक अध्ययन के मुताबिक, अमीर परिवारों के बच्चे गरीब परिवारों के बच्चों की तुलना में घर पर सीखने में लगभग 30% अधिक समय व्यतीत करते हैं.

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होम स्कूलिंग के बारे में प्रोफेसर वैन लैंकर कहते हैं कि यह ऐसी स्थिति है, जिनमें गरीबी और भीड़-भाड़ वाले घरों में रहने वाले बच्चों के लिए बहुत ज्यादा संभवना नहीं है. जानकारों का  कहना है कि जब एक बार स्कूल खुलेंगे, तब भी स्कूल बंद रहने के दौरान आई असमानताएं खत्म नहीं हो पाएंगी. जाहिर है कि सरकारों, शिक्षाविदों और शिक्षण संस्थानों को कोरोना संकट की वजह से पैदा हुए हालात से निपटने के लिए नए सिरे सोचना होगा, ताकि कम से कम नुकसान के साथ बच्चों की पढ़ाई को दोबारा पटरी पर लाया जा सके.

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इस लेख को अनुराग अज्ञेय ने लिखा है, जो दिल्ली विश्वविद्यालय के दिल्ली स्कूल ऑफ जर्नलिज्म में स्नातक के अंतिम वर्ष के छात्र हैं.

लेख-विशेष

सुप्रीम कोर्ट को क्यों कहना पड़ा कि बिहार में कानून का नहीं, बल्कि पुलिस का राज चल रहा है?

सुनवाई के दौरान न्यायाधीश एमआर शाह ने कहा, ‘देखिए, आपके डीआईजी कह रहे हैं कि समय पर एफआईआर (प्राथमिकी) दर्ज नहीं की गई. सड़क दुर्घटना में घायल व्यक्ति का बयान दर्ज नहीं किया गया. गाड़ी और ड्राइवर को गैर-कानूनी तरीके से हिरासत में रखा गया था.’

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Photo credit- CM Bihar Twitter

सुप्रीम कोर्ट ने बीते शुक्रवार को बिहार की कानून और व्यवस्था पर सख्त टिप्पणी की. बिहार सरकार की एक विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) पर सुनवाई के दौरान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायाधीश एमआर शाह की बेंच ने कहा, ‘ऐसा लग रहा है कि बिहार में कानून का नहीं, बल्कि पुलिस का राज चल रहा है.’

शीर्ष अदालत ने राज्य सरकार की इस दलील को भी खारिज कर दिया कि आरोपित को रिहा कर दिया गया था, लेकिन वह अपनी इच्छा से पुलिस स्टेशन में रूका हुआ था. पीठ ने कहा, ‘पुलिस स्टेशन में आरोपित अपनी आजादी का लुत्फ उठा रहा था? आप अपनी इस बात पर भरोसा करने की अदालत से उम्मीद करते हैं?’

बिहार सरकार ने यह याचिका अवैध हिरासत को लेकर पटना हाई कोर्ट के 22 दिसंबर, 2020 को आए एक फैसले के खिलाफ लगाई थी. इसमें हाईकोर्ट ने मिल्क टैंकर ड्राइवर जितेंद्र कुमार को 35 दिनों तक की अवैध पुलिस हिरासत के लिए मुआवजे के तौर पर पांच लाख रुपया देने का आदेश दिया था. बिहार सरकार इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गई थी.

अपनी याचिका में बिहार सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि उसने एक जिम्मेदार सरकार के रूप में काम किया है और दोषी पुलिसकर्मी (एसएचओ) को निलंबित कर दिया है. इसके अलावा दोषी पुलिसकर्मी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जा रही है. हालांकि, राज्य सरकार की इन दलीलों से सुप्रीम कोर्ट संतुष्ट नहीं हुआ और उसने टैंकर ड्राइवर जितेंद्र कुमार को पांच लाख रुपया मुआवजा देने के पटना हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा.

इतना ही नहीं, इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में कानून के राज को लेकर सख्त टिप्पणी भी की. इस सुनवाई के दौरान न्यायाधीश एमआर शाह ने बिहार पुलिस के डीआईजी की बातों (हाई कोर्ट के फैसले में दर्ज) का उल्लेख किया. उन्होंने कहा, ‘देखिए, आपके डीआईजी कह रहे हैं कि समय पर एफआईआर (प्राथमिकी) दर्ज नहीं की गई. सड़क दुर्घटना में घायल व्यक्ति का बयान दर्ज नहीं किया गया. वाहन की जांच नहीं की गई थी और गाड़ी व ड्राइवर को गैर-कानूनी तरीके से हिरासत में रखा गया था.’

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इससे पहले पटना हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश संजय करोल और न्यायाधीश एस कुमार की पीठ ने अपने फैसले में कहा था, ‘पुलिस (सारण जिला स्थित परसा थाना) ने साफ तौर पर स्थापित कानूनी प्रक्रिया का उल्लंघन किया है. बिना प्राथमिकी दर्ज किए या गिरफ्तारी संबंधी तय कानूनी प्रक्रिया का पालन किए बगैर ही वाहन और चालक को 35 दिनों (29 अप्रैल से तीन जून, 2020) तक हिरासत में रखा गया.’

पटना हाई कोर्ट ने पुलिस की इस हरकत को संविधान के अनुच्छेद-21 और 22 के तहत मिले मौलिक अधिकारों का उल्लंघन बताया. हाई कोर्ट में यह याचिका वाहन मालिक ने दायर की थी. इसमें बिहार पुलिस पर आरोपित को गैर-कानूनी रूप से हिरासत में रखने का आरोप लगाया गया था.

इसके अलावा, सीआरपीसी (दंड प्रक्रिया संहिता) की धारा 56-ए के तहत आरोपित ड्राइवर की गिरफ्तारी की सूचना न तो उसके परिजनों या करीबी व्यक्ति को दी गई थी और न ही आरोपित को उसकी गिरफ्तारी का आधार बताया गया. ऐसा करना सीआरपीसी की धारा 50 के तहत अनिवार्य है.

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इस तरह की हिरासत का यह अकेला मामला नहीं है

जून, 2021 के आखिरी हफ्ते में बेगूसराय के बलिया में भी पुलिस पर गंभीर आरोप लगे थे. दैनिक भास्कर की रिपोर्ट के मुताबिक 24 जून, 2021 को बेगूसराय में झारखंड स्थित धनबाद की रहने वाली 22 वर्षीय नजमुन निशा का निकाह बलिया निवासी 25 वर्षीय मोहम्मद सोनू अहमद से हुआ था. एक दिन बाद पुलिस आई और दुल्हन को नाबालिग बताकर थाने ले गई और उसके गैर-कानूनी तरीके से तीन दिनों तक हिरासत में रखा. इसके बाद पीड़ित पक्ष ने जब इसका विरोध किया तो पुलिस ने निचली अदालत में लड़की को पेश किया. कोर्ट ने सारे दस्तावेजों की जांच करने के बाद लड़की को पुलिस हिरासत से रिहा करने का आदेश दे दिया.

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मोहम्मद सोनू अहमद ने बताया कि 25 जून  को उसकी गैर-मौजूदगी में पुलिस घर से नजमुन को थाने ले गई थी. इस कार्रवाई का पुलिस ने कोई कारण भी नहीं बताया. सोनू ने एक एएसआई पर नजमुन को रिहा करने के बदले एक लाख रूपये मांगने का भी आरोप लगाया था. वहीं, पीड़ित पक्ष के वकील ने बताया कि लड़क के भाई ने 26 जून को ही इस बारे में आवेदन दिया था. लेकिन पुलिस ने इस आवेदन की तारीख 28 जून बताकर प्राथमिकी दर्ज की और 29 जून को लड़की की बरामदगी दिखाई.

क्या बिहार पुलिस संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन कर पुलिस राज स्थापित कर रही है?

सीआरपीसी के साथ भारतीय संविधान में भी किसी व्यक्ति को अवैध हिरासत में रखने के खिलाफ समुचित प्रावधान किए किए गए हैं. जैसा कि ड्राइवर को अवैध हिरासत में रखने की कार्रवाई को पटना हाई कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 और 22 के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करार दिया है.

संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत, भारत के नागरिक के साथ-साथ विदेशी व्यक्ति को भी प्राण और दैहिक (शारीरिक) स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है. इस अनुच्छेद के तहत बिना विधि के प्राधिकार के किसी भी व्यक्ति को हिरासत में नहीं रखा जा सकता है. हालांकि, आपातकाल (1975-77) के दौरान अनुच्छेद-21 को निलंबित कर दिया गया. इसके बाद आई जनता पार्टी की सरकार ने संविधान के 44वें संशोधन से यह प्रावधान किया कि अनुच्छेद-21 को आपातकाल के दौरान भी निलंबित नहीं किया जा सकता है. यानी इस संविधान संशोधन से व्यक्तिगत स्वतंत्रता को और ज्यादा संवैधानिक मजबूती हासिल हो गई. लेकिन बिहार के पुलिस राज में यह संवैधानिक प्रावधान लाचार दिख रहा है.

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वहीं, संविधान के अनुच्छेद-22 में कहा गया है कि आरोपित को उसकी गिरफ्तारी की वजह जल्द से जल्द बताई जाएगा. साथ ही गिरफ्तारी के स्थान से मजिस्ट्रेट के न्यायालय तक यात्रा में लगने वाले समय को छोड़कर गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को गिरफ्तारी के समय से अगले 24 घंटे में मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाएगा.

संविधान के अनुच्छेद-32 के तहत, सुप्रीम कोर्ट और अनुच्छेद-226 के तहत हाई कोर्ट में रिट- बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कार्पस) की याचिका दायर करने का अधिकार दिया गया है. इसके तहत अदालत पुलिस को आदेश देती है कि वह संबंधित को 24 घंटे के भीतर अदालत के सामने पेश करे और गिरफ्तारी के लिए वैध कारण बताए.

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लेख-विशेष

बशीर अहमद की रिहाई और संसद में सरकार के जवाब बताते हैं कि क्यों यूएपीए को दमन का हथियार कहना गलत नहीं है?

संसद में सरकार के जवाब के मुताबिक, 2015 में 1128 लोग गिरफ्तार हुए, जबकि दोषी पाए गए व्यक्तियों की संख्या दो प्रतिशत यानी 23 रही. 2016 में 999 लोग गिरफ्तार हुए और दोषी पाए गए व्यक्तियों की संख्या 2.4 प्रतिशत यानी 24 रही. #uapa

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गुजरात हाई कोर्ट ने 11 साल बाद श्रीनगर निवासी बशीर अहमद को गैर-कानूनी गतिविधि निवारण अधिनियम (यूपीपीए) (Unlawful Activities Prevention Act (UAPA) के तहत दर्ज मामले में बरी कर दिया. इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, हाई कोर्ट ने कहा कि 13 मार्च, 2010 को गिरफ्तार किए गए बशीर अहमद के खिलाफ आतंकियों से संपर्क होने सबूत नहीं है. बशीर अहमद को गुजरात एटीएस ने गिरफ्तार किया था.

कुछ दिन पहले, दिल्ली हाई कोर्ट ने दिल्ली दंगा मामले में यूएपीए के तहत जेल में बंद जेएनयू और जामिया के छात्रों – नताशा नरवाल, देवांगना कालिता और आसिफ़ इक़बाल तन्हा को जमानत देते हुए इस कानून के इस्तेमाल को लेकर सख्त टिप्पणी की थी. दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा था कि जनता को शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शन करने का संवैधानिक अधिकार है और ऐसे मामले में यूएपीए के तहत कार्रवाई उचित नहीं है.

यूएपीए को आतंकवाद रोकने के लिए सख्त कानून के रूप में लाया गया था, लेकिन आज इसका इस्तेमाल जिस तरह से हो रहा है, वह नागरिक अधिकारों को संकट में डालने वाला है. संसद में सवालों के जवाब में सरकार की ओर से बताए गए आंकड़े इस कानून के बेजा इस्तेमाल की तरफ इशारा कर रहे हैं।

संसद के बजट सत्र में लोक सभा में कांग्रेस सांसद एंटो एंटोनी (Anto Antony) ने 9 मार्च, 2021 को केंद्रीय गृह मंत्रालय से सवाल (UNSTARRED QUESTION NO. 2486) पूछा था कि क्या सरकार के पास यूएपीए के तहत दर्ज मामलों और गिरफ्तार किए गए लोगों की संख्या से जुड़ा कोई आंकड़ा है, अगर है तो बीते पांच साल में दर्ज मामलों का ब्यौरा क्या है? उन्होंने यह भी पूछा था कि क्या सरकार के पास यूपीपीए के तहत दर्ज मामलों को तेजी से निपटाने के लिए सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश में फास्ट ट्रैक कोर्ट (fast track courts) बनाने की कोई योजना है?अगर हां तो कब तक यह काम होने की उम्मीद है.

सांसद एंटो एंटोनी (Anto Antony) के इन सवालों का जवाब गृह राज्यमंत्री जी किशन रेड्डी (Minister Of State in the Ministry of Home Affairs G. Kishan Reddy) ने दिया. उन्होंने बताया कि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (National Crime Records Bureau) (NCRB) ने क्राइम इन इंडिया (Crime in India) रिपोर्ट में आखिरी बार 2019 में इससे जुड़े आंकड़े प्रकाशित किए थे.

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केंद्रीय गृह राज्यमंत्री के जवाब के मुताबिक, यूएपीए के प्रावधानों के तहत 2015 में 897 मामले दर्ज किए गए, जबकि 1128 लोगों को गिरफ्तार किया गया.

इसी तरह 2016 में 922 मामले दर्ज हुए और 901 लोगों को गिरफ्तार किया गया. हालांकि, 2017 के बाद से यूएपीए के तहत दर्ज होने वाले मामलों और गिरफ्तारियों में तेजी आ गई.

यूएपीए के तहत 2017 में 901 मामले दर्ज हुए, जबकि गिरफ्तार होने वालों की संख्या 1,554 तक पहुंच गई. 2018 में 1,182 मामले दर्ज हुए और 1,421 लोग गिरफ्तार किए गए. साल 2019 में तो सारे रिकॉर्ड टूट गए. इस साल यूएपीए के तहत सबसे ज्यादा 1,226 मामले दर्ज हुए और 1,948 लोगों को गिरफ्तार किया गया. (देखें-टेबल-1)

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राज्यवार आंकड़ों को देखें तो उत्तर प्रदेश में 2017 के बाद (सरकार बदलने के बाद) यूएपीए के तहत दर्ज होेने वाले मामलों में उछाल आ गया. यूपी में 2015 और 2016 में दर्ज मामलों की संख्या क्रमश: 6 और 10 और गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों की संख्या क्रमश: 23 और 15 रही.

वहीं, 2017 में 109 मामले दर्ज हुए और 382 लोगों को गिरफ्तार किया गया. 2018 में 107 मामले दर्ज हुए और 479 लोगों को गिरफ्तारी हुई. इसी तरह 2019 में दर्ज मामलों की संख्या 81 और गिरफ्तार किए गए लोगों की संख्या 498 रही. (देखें- टेबल-2)

मणिपुर, जम्मू-कश्मीर और झारखंड ऐसे राज्य हैं, जहां यूएपीए के तहत दर्ज मामले और गिरफ्तार किए गए लोगों की संख्या 2015 से 2019 तक लगातार ज्यादा रही है. राज्यों में मणिपुर और केंद्र शासित प्रदेशों में दिल्ली में सबसे ज्यादा मामले दर्ज किए गए. (देखें- टेबल-2)

केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने अपने जवाब में यह भी बताया था कि यूएपीए (UAPA) के तहत दर्ज मामलों की राज्य की पुलिस और एनआईए (National Investigation Agency) (NIA)) जांच करती है. आतंकवाद से जुड़े मामलों के त्वरित निपटारे (speedy trial) के लिए एनआईए की अब तक 48 विशेष अदालतें गठित हो चुकी हैं.

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राज्य सभा में भी सांसद (RAJYA SABHA) अब्दुल वहाब ने लगभग यही सवाल 10 मार्च, 2021 को पूछा था. इसके अलावा सरकार से उन्होंने यह भी पूछा कि क्या यह सच है कि यूएपीए का अल्पसंख्यकों और वंचित वर्गों के खिलाफ ज्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है? इसके जवाब में एनसीआरबी के आंकड़ों को सामने रखते हुए जी किशन रेड्डी ने कहा कि यह बात सही नहीं है.

राज्य सभा (RAJYA SABHA) में 10 मार्च, 2021 को सांसद राजमणि पटेल (RAJMANI PATEL), नीरज डांगी (NEERAJ DANGI), अमी याजनिक (AMEE YAJNIK), फूलो देवी नेताम (PHULO DEVI NETAM) और सांसद कुमार केतकर (KUMAR KETKAR) ने यूएपीए के तहत पत्रकारों की गिरफ्तारी (ARREST OF JOURNALISTS) का सवाल (UNSTARRED QUESTION NO. 1800) उठाया था.

इसके जवाब में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने कहा था कि पुलिस और लोक-व्यवस्था राज्य सूची का विषय है और एनसीआरबी पत्रकारों की गिरफ्तारी के बारे में कोई आंकड़े नहीं जुटाती है. हालांकि, इस सिलसिले में यूएपीए के तहत यूपी के हाथरस से बीते साल केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन की गिरफ्तारी को देखा जा सकता है, जिन्हें अब तक जमानत नहीं मिल पाई है.

इससे पहले, 10 फरवरी, 2021 को, राज्य सभा (RAJYA SABHA) सांसद सैयद नासिर हुसैन (SYED NASIR HUSSAIN) के सवालों (UNSTARRED QUESTION NO. 1013) के जवाब में केंद्र सरकार ने बताया कि देश में यूएपीए की धाराओं के तहत 2016 से लेकर 2019 तक 5,922 लोगों को गिरफ्तार किया गया और इनमें से दोषी पाए गए व्यक्तियों की संख्या 132 रही. अब इन आंकड़ों का प्रतिशत निकालें तो गिरफ्तार व्यक्तियों के मुकाबले दोषी पाए गए मामलों की दर सिर्फ 2.23 प्रतिशत रही. क्या यह यूएपीए का दुरुपयोग नहीं है?

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केंद्र सरकार ने राज्य सभा में सांसद तिरुचि शिवा (TIRUCHI SIVA) के सवाल (UNSTARRED QUESTION NO. 3236) के जवाब में वर्षवार यूएपीए के तहत दर्ज मामले और दोषी पाए गए लोगों की जानकारी दी थी. अन्य जानकारियों के साथ उन्होंने पूछा था कि क्या सरकार निर्दोष लोगों की गिरफ्तारी रोकने के लिए कोई उपाय किया है? इसके जवाब में भी गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने एनसीआरबी के आंकड़े बताए.

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संसद में पेश आंकड़ों के मुताबिक, 2015 में 1128 लोग गिरफ्तार हुए और दोषी पाए गए व्यक्तियों की संख्या दो प्रतिशत यानी 23 रही. वहीं, 2016 में 999 लोग गिरफ्तार हुए, जबकि दोषी पाए गए व्यक्तियों की संख्या 2.4 प्रतिशत यानी 24 रही. इसी तरह 2017, 2018 और 2019 में गिरफ्तारी के मामले बेतहाशा बढ़े, लेकिन दोष सिद्ध व्यक्तियों की संख्या क्रमश: 39 (2.5 फीसदी), 35 (2.46 फीसदी) और 34 (1.74 फीसदी) रही. (देखें: टेबल-3)

यूएपीए का दुरुपयोग रोकने के सवाल पर गृह राज्यमंत्री जी. किशन रेड्डी ने दावा किया कि यूएपीए के तहत निर्दोष व्यक्तियों को गिरफ्तार होने से बचाने के लिए पर्याप्त संवैधानिक (Constitutional), संस्थानिक (institutional) और वैधानिक सुरक्षा उपाय (statutory safeguards) मौजूद हैं. इनमें खुद यूएपीए के अपने प्रावधान शामिल हैं. लेकिन इस सवाल का जवाब कौन देगा कि गिरफ्तार होने वाली व्यक्तियों और दोषी पाए गए लोगों की संख्या में इतना अंतर क्यों है? क्यों सामान्य मामलों में इस कानून का इस्तेमाल हो रहा है? क्यों मौजूदा पार्टी के सत्ता में आने के साथ इस कानून का इस्तेमाल अप्रत्याशित रूप से बढ़ गया है?

एक सवाल यह भी, मंत्री के बयान के मुताबिक देश में अगर यूएपीए के तहत दर्ज मामलों के त्वरित निपटारे की व्यवस्था कायम है तो बशीर अहमद बाबा को यूएपीए के तहत आरोपों से बरी होने में अपने जीवन के 11 साल क्यों गंवाने पड़े? क्या इसे देश में संविधान, नागरिक आजादी, लोकतंत्र और न्याय के असल मायने में प्रभावी होने का संकेत कहा जा सकता है?

लेख-विशेष

जो मतदाता देख नहीं सकते, उन्हें कैसे अपने वोट को वेरिफाई करने की सुविधा दी जा सकती है?

भारत में ईवीएम से मतदान करने वाले मतदाताओं को अपना वोट वेरिफाई करने की सुविधा वीवीपीएटी से मिलती है, लेकिन जो मतदाता देख नहीं सकते हैं, उन्हें यह पता नहीं चल पाता है कि उनका वोट सही जगह पर पड़ा है या नहीं. लेकिन आईटीटीएससी डिवाइस इस समस्या का समाधान कर सकती है.

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दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 की धारा-11 के अनुसार, भारत निर्वाचन आयोग और राज्य निर्वाचन आयोग यह सुनिश्चित करेंगे कि सभी मतदान केंद्र दिव्यांग व्यक्तियों के लिए सुलभ हों और चुनावी प्रक्रिया से संबंधित सभी सामग्री तक उनकी आसानी से पहुंच हो और वो उनके समझने लायक हो. यह अधिनियम “दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों के बारे में संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन” को प्रभावी बनाने और उससे जुड़े या सहायक मामलों के लिए बनाया गया था. दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों के बारे में कन्वेंशन संयुक्त राष्ट्र संघ की एक अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संधि है, जिसका उद्देश्य समाज में दिव्यांग व्यक्तियों की पूर्ण और प्रभावी भागीदारी और समावेश को सुनिश्चित करना है.

वैश्विक पहल में शामिल है भारत

4 जुलाई 2018 को हुए नेशनल कंसल्टेशन ऑन एक्सेसिबल इलेक्शन में अपनाए गए ‘स्ट्रेटेजिक फ्रेमवर्क फॉर एक्सेसिबल इलेक्शन’ के अनुसार, भारत निर्वाचन आयोग जवाबदेही, सम्मान और गरिमा के मूल सिद्धांतों के आधार पर दिव्यांग व्यक्तियों का चुनाव के प्रति विश्वास बढ़ाने के लिए और बेहतर सेवाओं के जरिए उनकी चुनावी भागीदारी बढ़ाने के लिए वचनबद्ध है. चुनाव आयोग विभिन्न श्रेणियों के दिव्यांग व्यक्तियों को वोट डालने की सुविधा प्रदान करने वाले सुलभ तकनीकी उपकरणों के उपयोग को मान्यता देता है.

भारतीय संविधान भी देता है सुरक्षा

साथ ही, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 के तहत राज्य किसी भी नागरिक (दिव्यांग सहित) के खिलाफ धर्म, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता. फिर भी, दिव्यांग व्यक्ति अन्य नागरिकों के समान वोट देने के अपने अधिकार के लिए लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं.

2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में लगभग 2.68 करोड़ दिव्यांग व्यक्ति हैं, जिनमें से लगभग 50 लाख व्यक्ति दृष्टिहीन हैं. दृष्टिहीन मतदाता किसी साथी की सहायता से चुनाव में मतदान कर सकते हैं. इस प्रकार की सहायता से किया गया मतदान गुप्त और स्वतंत्र नहीं माना जा सकता, लेकिन इससे ऐसे मतदाताओं को चुनावी प्रक्रिया में भाग लेने का अवसर मिलता है. हालांकि, ईवीएम के माध्यम से मतदान की वर्तमान प्रणाली में यह जानने का कोई तरीका नहीं है कि क्या सहायता करने वाले व्यक्ति ने दृष्टिहीन मतदाता द्वारा चुने गए उम्मीदवार के लिए ही अपना वोट डाला है.

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ब्रेल साइनेज सभी के लिए कारगर नहीं

दृष्टिहीन मतदाताओं की सुविधा के लिए ईवीएम की बैलेट यूनिट पर ब्रेल साइनेज लगा होता है. ऐसे मतदाताओं के मार्गदर्शन के लिए बैलेट यूनिट के दाईं ओर उम्मीदवारों के वोट बटन के साथ ब्रेल साइनेज में 1 से 16 तक अंक उकेरे होते हैं. हालांकि, दृष्टिहीन मतदाता बटन दबा सकता है, लेकिन वह यह पता नहीं लगा सकता कि वास्तव में उसने किसे वोट दिया है. मतदाता यह सुनिश्चित नहीं कर पाता है कि उसका वोट दर्ज हुआ है या नहीं, अगर दर्ज हुआ है, तो उस की इच्छा के उम्मीदवार के पक्ष में दर्ज हुआ है या नहीं. इसके अलावा, हर दृष्टिहीन व्यक्ति ब्रेल लिपि को नहीं समझता है.

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वीवीपीएटी जैसा सत्यापन जरूरी

वोटर वेरिफिएबल पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपैट), यह इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) से जुड़ी एक स्वतंत्र प्रणाली है जो मतदाताओं को यह सत्यापित करने में मदद करती है कि उनके वोट उनकी इच्छा के अनुसार डाले गए हैं या नहीं. लेकिन ऐसी कोई भी सुविधा उपलब्ध नहीं है जिससे दृष्टिहीन मतदाता अपने वोटों का सत्यापन कर सकें. एक ऐसी प्रणाली प्रदान करने की आवश्यकता है, जिससे दृष्टिहीन मतदाता अपने डाले गए वोटों का तत्काल ऑडियो सत्यापन कर सके.

आईटीटीएससी है कारगर उपाय

इसके लिए इमेज टेक्स्ट टू स्पीच कनवर्जन (Image text to speech conversion) को इस्तेमाल किया जा सकता है। इस डिवाइस में चार मुख्य घटक होते हैं: कैमरा, प्रोग्रामेबल सिस्टम (ऑप्टिकल कैरेक्टर रिकग्निशन सॉफ्टवेयर और टेक्स्ट-टू-स्पीच इंजन), हेडफ़ोन और बैटरी. ऑप्टिकल कैरेक्टर रिकग्निशन सॉफ्टवेयर वीवीपैट में पेपर स्लिप पर छपे उम्मीदवार के सिंबल की इमेज को पहचान नहीं सकता है और इस कारण से उसे टेक्स्ट में परिवर्तित नहीं कर सकता है. इसलिए सीरियल नंबर, उम्मीदवार का नाम और सिंबल की इमेज के साथ साथ सिंबल का नाम भी वीवीपैट मशीन में लोड करना जरूरी है.

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आईटीटीएससी कहां लगेगा

आईटीटीएससी डिवाइस को वीवीपैट मशीन के अंदर इस तरह से लगाया जाएगा कि वीवीपैट की ट्रांसपैरेंट विंडो से देखने में मतदाताओं को कोई दिक्कत ना हो और वीवीपैट में सात सेकंड के लिए दिखाई जाने वाली प्रिन्टेड पेपर स्लिप इसके कैमरा लेंस के दायरे में आ जाए. इसमें हेडफ़ोन के एक सेट की आवश्यकता होती है जिसमें वॉल्यूम कंट्रोल की सुविधा हो.

आईटीटीएससी कैसे काम करना है

बूथ में प्रवेश करने के बाद मतदाता हेडफोन लगा लेता है. जब वोट डाला जाता है तब वीवीपैट में एक पेपर स्लिप छप जाती है, जिसमें सीरियल नंबर, उम्मीदवार का नाम, सिंबल की इमेज और सिंबल का नाम होता है और इस पेपर स्लिप को पारदर्शी विंडो से सात सेकंड तक देखा जा सकता है. आईटीटीएस डिवाइस अपने कैमरे के माध्यम से पेपर स्लिप की इमेज कैप्चर करता है. इमेज से टेक्स्ट को निकालने का काम ऑप्टिकल कैरेक्टर रिकग्निशन सॉफ्टवेयर करता है।

इस टेक्स्ट को स्पीच में बदलने की प्रक्रिया टेक्स्ट-टू-स्पीच इंजन करता है। इसके बाद इस इसके ऑडियो आउटपुट को हेडफ़ोन के माध्यम से सुना जा सकता है. इसमें सीरियल नंबर, उम्मीदवार का नाम और सिंबल का नाम होता है. हेडफ़ोन से सुनने वाला मतदाता तुरंत सत्यापित कर सकता है कि उसका वोट उसके इच्छा के अनुसार डाला गया है या नहीं. इसके बाद, इस प्रक्रिया के दौरान आईटीटीएस डिवाइस में बनाई गई अस्थायी फाइलें ऑटोमेटिक तरीके से हट जाती हैं, जिससे नई फाइलों के लिए जगह बन जाती है.

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आईटीटीएससी से छेड़छाड़ संभव नहीं है

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इस प्रणाली में किसी तरह हेर-फेर की कोई संभावना नहीं है. ईवीएम के निर्माता (भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड और इलेक्ट्रॉनिक्स कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड) वर्तमान तकनीकों का उपयोग करके सस्ते और कार्यक्षम इमेज टेक्स्ट टू स्पीच कन्वर्जन (आईटीटीएससी) डिवाइस बनाने में सक्षम हैं.

निर्वाचन प्रणाली में पूर्ण पारदर्शिता लाने और दृष्टिहीन मतदाताओं का ईवीएम में विश्वास जगाने के लिए उन्हें अपने वोटों को सत्यापित करने की सुविधा देना जरूरी है। इसलिए दृष्टिहीन मतदाताओं को सशक्त बनाने के लिए भारत निर्वाचन आयोग को इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों के साथ ‘इमेज टेक्स्ट टू स्पीच कन्वर्जन’ सिस्टम को शामिल करने पर विचार करना चाहिए।

डॉ. अक्षय बाजड, शासन-प्रशासन और राजनीतिक विज्ञान पर अकादमिक लेखक हैं. आपसे ईमेल akshaybajad111@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

लेख-विशेष

अगर केंद्र सरकार संसदीय समिति के इन सुझावों को मान लेती तो अंतिम संस्कार के लिए लाइन न लगती ?

संसदीय समितियों की रिपोर्ट में आई तमाम बातें इस बात की गवाही हैं कि भारत सरकार को दूसरी लहर की गंभीरता का अंदाजा था. फिर भी उसने कोई तैयारी क्यों नहीं की, यह बात समझ से परे है.

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सुभाष नगर श्मशान, नई दिल्ली, हिंदुस्तान टाइम्स में 27 अप्रैल, 2021 को प्रकाशित। Photo Credit- HT

संसद में दो सत्रों के दौरान कोरोना संकट को लेकर स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री के स्व प्रेरित बयान के साथ बहुत सी बातें हुई हैं. लेकिन इस पर सबसे गहन पड़ताल संसद की समितियों ने की है. इसमें सबसे अहम रिपोर्ट प्रो. रामगोपाल यादव की अध्यक्षता वाली स्वास्थ्य औऱ परिवार कल्याण मामलों की संसदीय स्थायी समिति ने दी. इस समिति ने कोविड-19 महामारी का प्रकोप और इसका प्रबंधन विषय पर अपनी 123वीं रिपोर्ट में सभी पक्षों की गहन पड़ताल करने के साथ जो आशंकाएं जतायी थीं, वे सभी कोरोना की दूसरी लहर के दौरान सच साबित हुईं. इस रिपोर्ट को 21 नवंबर 2020 को राज्य सभा में पेश किया गया था, जिसे 24 नवंबर 2020 को लोक सभा अध्यक्ष को भेजा गया था.

नए कोरोना वायरस सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम कोरोना वायरस-2 या सार्स कोवी-2 के कारण 20 जनवरी 2021 तक पूरी दुनिया में 20,65,695 तक मौतें हुई थीं, जबकि भारत में 1,52,718 लोगों की मौत हुई. लेकिन भारत में इसका चरम 18 मई 2021 को दिखाई दिया। इस दिन में सबसे अधिक 4,529 मौतें दर्ज की गईं, जो दुनिया में किसी एक देश में एक दिन में होने सर्वाधिक मौतें हैं। इसके पहले 12 जनवरी 2021 को अमेरिका में सबसे अधिक 4,468 मौतें हुई थीं.

मिनी संसद हैं संसदीय समितियां

मंत्रालय संबंधी स्थायी समितियों को मिनी संसद कहा जाता है. ये बेहद ताकतवर हैं. इनका आरंभ 1993 में हुआ था. ये समितियां जनता और संसद के बीच अहम कड़ी भी हैं, क्योंकि जनता से ये सुझाव भी मांगती हैं और पेशेवरों की सलाह भी लेती हैं और खुद अहम विषयों का चयन करती हैं.

इनके विषय में यह भी व्यवस्था है कि संबंधित मंत्री को अपने मंत्रालय से संबंधित समितियों की रिपोर्टों में आई सिफारिशों के कार्यान्वयन के बाबत छह महीने में एक बार सदन में बयान देना होता है.

संसद नहीं चलती है तब भी संसदीय समितियां काम करती हैं. कोरोना संकट को केंद्र में रख कर दो समितियों ने अब तक अहम रिपोर्ट दी है, जिसमें दूसरी रिपोर्ट गृह कार्य संबंधी स्थायी समिति की रिपोर्ट है.

लेकिन विभाग संबंधी स्थायी समितियों में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण संबंधी संसदीय स्थायी समिति बेहद खास है. प्रो. रामगोपाल यादव के नेतृत्व में स्थायी समिति की यह दूरदर्शिता कही जाएगी कि उसने कोरोना संकट की आहट के साथ ही 13-14 फरवरी 2020 को इस विषय की व्यापक पड़ताल करने का फैसला किया था.

समिति ने सभी साझेदारों के साथ की बैठक

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समिति ने 5 मार्च 2020 को इस विषय पर पहली बैठक में आयुष मंत्रालय, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के शीर्ष अधिकारियों, एम्स के निदेशक और स्वास्थ्य अनुसंधान और अन्य सभी संबंधित पक्षों और हितधारकों के साथ विस्तार से चर्चा की थी.

बाद में कोरोना संकट के बीच भी समिति ने अपनी बैठक जारी रखी औऱ 4 अगस्त को सचिव स्वास्थ्य और परिवार कल्याण और सचिव स्वास्थ्य अनुसंधान के विचारों को जाना.

7 सितंबर 2020 को निदेशक एम्स और पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन आफ इंडिया, निदेशक पापुलेशन फाउंडेशन जैसे संगठनों के प्रतिनिधियों का विचार जाना.

16 अक्तूबर 2020 को समिति ने दोबारा स्वास्थ्य सचिव और सीईओ आयुष्मान भारत के विचारों को जाना. समिति ने फिक्की, सीआईआई, पतंजलि, डाबर और कई संगठनों की राय भी ली.

तमाम अहम दस्तावेजों का अध्ययन करने के साथ समिति ने आठ खंडों में जो रिपोर्ट 21 नवंबर 2020 को सौंपी, वह बहुत से सवाल खड़े करती है.

भारत में कोविड-19 महामारी की गंभीरता और उससे निपटने के उपायों को देख कर पूरी दुनिया हिल गई. ऑक्सीजन सिलेंडरों की उपलब्धता हो जीवनरक्षक दवाओं और अस्पतालों में बेड की उपलब्धता, हर जगह भारी भीड़ और लाइन लगी रही.

श्मशानों के बाहर ऐसी लाइन पहली कभी नहीं दिखी. यह केवल इस नाते हुआ, क्योंकि आरंभिक चेतावनियों को सरकार ने नजरंदाज किया. वैज्ञानिकों और डॉक्टरों की बातें तो अलग हैं, सरकार ने संसदीय समिति तक को दरकिनार कर दिया.

समिति ने दिए थे अहम सुझाव

स्वास्थ्य संबंधी स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में लॉकडाउन और अनलॉकिंग, कंटिजेंसी प्लान, चिकित्सा अनुसंधान और विकास, आयुष्मान भारत के तहत कोविड प्रबंधन, आयुष प्रणाली से कोविड प्रबंधन, कोविड के बाद के कॉम्प्लिकेशन प्रबंधन, महामारी की चुनौतियों और स्वास्थ्य क्षेत्र के वित्तीय प्रबंधन पर काफी गहन अध्ययन करके सरकार को कई अहम सुझाव दिए थे.

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समिति ने यूरोपीय देशों में कोविड की दूसरी लहर के खतरनाक असर को देख कर सरकार को तैयारी करने के साथ आगाह किया था कि सर्दियों के दिनों में कई त्यौहार हैं, जिसमें भीड़भाड़ होगी. इससे कोरोना का संक्रमण और फैलने की आशंका होगी.

इस नाते टेस्टिंग सुविधाओं के व्यापक विस्तार के साथ समिति ने सिफारिश की थी कि हर राज्य में कम से कम एक मेडिकल कालेज और हास्पिटल को ‘सेंटर आफ एक्सीलेंस’ बना कर रणनीति तैयार की जाए.

समिति ने यह भी कहा था कि स्वास्थ्य मंत्रालय इस पर ठोस दिशानिर्देश तैयार करे, जागरूकता के विस्तार और प्रचार-प्रसार के साथ पंचायतों और समुदायों की भागीदारी को भी सुनिश्चित किया जाए. समिति ने नियंत्रणकारी उपायों के साथ मेडिकल उपकरणों के निर्माण की क्षमता बढ़ाने का सुझाव भी दिया था.

कमजोर बुनियादी ढांचे वाले राज्यों और जिलों को प्राथमिकता देने का सुझाव देते हुए समिति ने कहा था कि टेस्टिंग और चिकित्सा के लिए जरूरी वित्तीय सहायता उपलब्ध करानी चाहिए.

जमीन पर नदारद मिले दावे

4 अगस्त, 2020 को स्वास्थ्य और परिवार कल्याण सचिव ने समिति के सामने कहा था कि भारत में कोरोना संकट 80 फीसदी मामलों में मामूली असर वाला रहा है, 15 फीसदी संक्रमितों को अस्पताल ले जाने की जरूरत पड़ी, जबकि पांच फीसदी मरीज ऐसे थे, जिन्हें क्रिटिकल केयर और वेंटिलेटर की जरूरत पड़ी.

सचिव ने यह भी कहा, लॉकडाउन के दौरान सरकार को 34 गुना अधिक आइसोलेशन बेड तैयार करने और 20 गुना अधिक आईसीयू सुविधा बनाने में मदद मिली. इससे टेस्ट लैब बढ़ी और दैनिक जांच क्षमता 6.61 लाख हो गयी. ऐसी बहुत सी बातें पहले चरण की सफलता की कहानी कहती हैं.

लेकिन जब संसदीय समिति अपनी रिपोर्ट को अंतिम रूप दे रही थी तो भारत, अमेरिका के बाद कोविड पॉजिटिव मामलों में दुनिया का दूसरा बड़ा देश बन गया था. फिर भी तमाम प्रयासों के बावजूद भारत में प्रति 10 लाख की आबादी पर केवल 44,524 टेस्ट हो रहे थे, जबकि अमेरिका में 2,87,354 टेस्ट. तीसरे सबसे प्रभावित ब्रॉजील में प्रति दस लाख पर 68,666 टेस्ट हो रहे थे.

समिति ने स्वास्थ्य मंत्रालय को कोविड-19 टेस्टों की संख्या को बढ़ाने के लिए जरूरी ढांचा बनाने और दूसरी लहर के लिए अन्य बहुत सी तैयारियों को करने के लिए कहा था.

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मेडिकल ऑक्सीजन पर भी दिया था सुझाव

स्थायी समिति ने 16 अक्तूबर, 2020 को हुई अपनी बैठक में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण सचिव के साथ ऑक्सीजन के मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की थी. उस समय देश में रोज उत्पादित होने वाली 6,900 टन ऑक्सीजन में से सबसे अधिक मेडिकल उपयोग 24-25 सितंबर को 3,000 टन रहा.

कोरोना संकट की शुरुआत में मेडिकल क्षेत्र में रोजाना ऑक्सीजन की खपत एक हजार टन थी, जबकि शेष छह हजार टन ऑक्सीजन उद्योगों को दी जा रही थी.

स्थायी समिति ने नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइजिंग अथारिटी को ऑक्सीजन सिलिंडरों की दरों को नियंत्रण में रखने, अस्पतालों और मेडिकल उपयोग के लिए उचित मात्रा में ऑक्सीजन सिलिंडरों की उपलब्धता जैसे मुद्दों पर खास तौर पर गौर करने के लिए कहा था.

इसके साथ सरकार को सुझाव दिया था कि अस्पतालों में मांग के मुताबिक ऑक्सीजन की उपलब्धता सुनिश्चित कराने का प्रबंधन पहले से किया जाना चाहिए. अगर सरकार ने संसदीय समिति की सिफारिशों को स्वीकारा होता तो कोरोना वायरस की दूसरी लहर के दौरान दिखी बदहाली पैदा ही नहीं होती.

वैक्सीनेशन की रणनीति बनाने की सिफारिश

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संसदीय समिति ने वैक्सीन के मुद्दे पर भी व्यापक मंथन किया और कहा कि स्मॉर्ट वैक्सीजनेशन की रणनीति बनायी जाये. लेकिन पूरी आबादी को वैक्सीन लगाना होगा. इसके लिए जरूरी है कि देश भर में कोल्ड चेन अपग्रेड की जाये, ताकि वैक्सीन लगाते समय कोई अवरोध न हो, उस दौरान भारत के साथ वैश्विक वैज्ञानिक समुदाय इस मुद्दे पर काम कर रहा था.

उस स्थिति में समिति ने मंत्रालय को वैक्सीन की उपलब्धता के लिए विचार करने के साथ यह भी कहा था कि सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और और अन्य वैक्सीन निर्माताओं को इसके साथ जोड़ा जाये, ताकि वैक्सीन की किल्लत न हो. यह भी सुनिश्चित हो कि वे आम जनता को उचित दर पर सुलभ हों और गरीबों के लिए इनका विशेष प्रबंध किया जाये. इसकी ब्लैक मार्केटिंग या कमी न हो.

अस्पतालों में अफरा-तफरी 

स्थायी समिति ने आकलन किया कि पहली लहर की आपदा में काफी संख्या में मौतें हुईं. सरकारी अस्पतालों में उचित संख्या में न तो बिस्तर उपलब्ध थे, न ही बाकी सुविधाएं. इस नाते कोविड और गैर-कोविड दोनों मरीजों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा. सरकार को इस दिशा में और ध्यान देने की जरूरत है.

समिति ने अस्पतालों में कोविड-19 समर्पित बिस्तरों का जायजा भी लिया तो जानकारी मिली कि अक्तूबर 2020 में कोविड के लिए समर्पित सुविधा 15,239 जगहों पर थी.

इसमें डेडिकेटेड कोविड अस्पताल 220, डेडिकेटेड कोविड हेल्थ सेंटर 4153 और डेडिकेटेड कोविड सेंटर 8,880 थे. बिना ऑक्सीजन सपोर्ट वाले आइसोलेशन बेड 12.73 लाख थे, जबकि ऑक्सीजन सपोट वाले बेड 26,401, आईसीयू बेड 76,709 और वेंटिलेटर सपोर्ट वाले बेड 39,476 थे. समिति ने पाया कि कोविड संक्रमण और मरीजों की संख्या को देखते हुए सरकार ने अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या बहुत कम रखी है.

महामारी की भीषणता के दौरान अस्पतालों की बदहाली और मीडिया रिपोटों को भी संज्ञान में लेते हुए समिति ने नेशनल हेल्थ प्रोफाइल डाटा-2019 के हवाले से कहा कि देश में कुल सरकारी अस्पतालों में उपलब्ध बिस्तरों की सख्या 7,13,986 हैं, जो प्रति हजार की आबादी पर 0.55 बिस्तर बनता है. इसमें 12 राज्यों की स्थिति राष्ट्रीय औसत से भी कम है.

महामारी के दौरान बिस्तरों और वेंटिलेटरों की कमी रही और मामलों के बढने के साथ अस्पतालों में जगह मिलना मुश्किल हो गया. एम्स पटना में ऑक्सीजन सिलिंडर के साथ अस्पताल पहुंचे मरीजों की तस्वीरें बहुत चिंताजनक थीं.

समिति ने दिल्ली के विख्यात डॉ. राममनोहर अस्पताल का जायजा लेते समय पाया कि यहां उपलब्ध 1572 बेड में से कोविड मरीजों के लिए केवल 242 बेड उपलब्ध थे, जबकि सफरदरजंग के 2873 बेड में से केवल 289 बेड. राष्ट्रीय राजधानी में कोविड मरीजों की संख्या में वृद्धि के दौरान यह क्यों किया गया, यह समझ से परे है.

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इन तथ्यों से नाराज समिति ने दिल्ली की स्थिति पर मंत्रालय से पूरा ब्यौरा देने के लिए कहा. इसी के साथ स्थायी समिति ने आपदा से निपटने के लिए जरूरी उपकरणों, तकनीकी स्टाफ के साथ अन्य तैयारियों को पहले से ही उपाय कर लेने का सुझाव दिया. साथ ही गंभीर दौर में आने वाली चुनौतियों का भी आकलन करने की सलाह दी और कहा कि यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि जो अस्पताल पैनल में हैं, उनमें किसी को भी बिना इलाज के नहीं लौटाया जाएगा.

अधिक संसाधनों की दरकार

स्वास्थ्य संबंधी स्थायी समिति ने भारत के स्वास्थ्य व्यय की कमी पर भी गौर किया. समिति ने कहा अगले दो सालों के भीतर स्वास्थ्य पर जीडीपी का 2.5 फीसदी जन स्वास्थ्य पर खर्च करने के जन स्वास्थ्य नीति के लक्ष्य को पाने के लिए लगातार प्रयास हों, क्योंकि इसके लिए निर्धारित 2025 की समय सीमा अभी बहुत दूर है और उस समयावधि तक जनस्वास्थ्य को जोखिम में नहीं डाला जा सकता है. हमारा ग्रामीण स्वास्थ्य ढांचा काफी कमजोर है और इसके लिए अधिक धन आवंटन की दरकार है.

समिति ने यह भी कहा कि कोविड-19 के आलोक में देश के स्वास्थ्य नीति और इस पूरे क्षेत्र की नए सिरे से समीक्षा की जानी चाहिए. स्थायी समिति ने जनस्वास्थ्य के अनुसंधान पर सीमित धन आवंटन को चिंताजनक माना. अनुसंधान पर अमेरिका जीडीपी का 2.84 और चीन 2.19 फीसदी व्यय करता है, लेकिन भारत में यह चिंताजनक स्थिति है. इस पर दो सालों के दौरान कम से कम 1.72 फीसदी धन आवंटन होना चाहिए, जो कि विश्व औसत के बराबर है.

स्वास्थ्य मंत्रालय ने पांच सालों 2021-22 से 2025-26 तक इस क्षेत्र के लिए लगभग छह लाख 16 हजार करोड़ रुपए की मांग की है. इसमें मेडिकल कालेजों की स्थापना, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, पोस्ट कोविड स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार आदि से संबंधित व्यय शामिल हैं.

समिति का मत है कि इस क्षेत्र में और अधिक निवेश की दरकार है लिहाजा इस पर सरकार को उच्च प्राथमिकता देनी चाहिए. राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2017 में जो लक्ष्य रखे गए हैं, वे सराहनीय हैं. लेकिन वित्तीय तंगी कभी बेहतर नतीजे नहीं दे सकती. साथ ही इस क्षेत्र में केंद्र और राज्यों के साथ भी बेहतर तालमेल होना चाहिए.

कोविड-19 में आयुष की उपयोगिता

स्थायी समिति ने भारतीय चिकित्सा प्रणाली के महत्व को स्वीकारते हुए इस बात पर संतोष जताया कि कोविड-19 महामारी के दौरान आयुष उत्पादों का व्यापक उपयोग हो रहा है.

समिति का विचार था कि इसके पैकेज जल्दी तैयार कर उनको स्कीम में शामिल किया जाये. आयुर्वेद, योग, नेचुरोपैथी, यूनानी, सिद्धा व सोवा रिंग्पा और होम्योपैथी के उपयोग करते हुए आयुष को प्रोत्साहन दिया जाये, क्योंकि आज पूरी दुनिया अच्छी सेहत के लिए मजबूत इम्यून सिस्टम पर जोर दे रही है.

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आपदा में आधुनिक औषधियों के साथ आयुष का क्या योगदान रहा इस पर भी व्यापक पड़ताल होनी चाहिए. आयुष मंत्रालय को कोविड केयर सेंटरों की स्थापना विभिन्न राज्यों और संघ क्षेत्रों में करनी चाहिए और इसके आंकड़ों का रखरखाव किया जाना चाहिए, ताकि इस प्रणाली की प्रभावशीलता पर ठोस अध्ययन हो सके.

सरकार को दोनों चिकित्सा प्रणालियों की कोविड-19 के मरीजों पर पड़ताल करनी चाहिए और बहुआयामी केंद्रों की स्थापना करनी चाहिए जिससे कोविड के बाद के प्रबंधन प्रणाली में इसको महत्व देते हुए अनुसंधान हो सके. लोगों की इम्युनिटी बढ़ाने में आयुष का असर देखते हुए समिति ने आयुष औषधियों, दैनिक योगासन प्राणायाम आदि पर ध्यान देना चाहिए.

कोविड-19 की दूसरी लहर ने सरकारी और निजी सभी अस्पतालों और वैकल्पिक इंतजामों को भी विफल बना दिया. दवाओं, इंजेक्शन और ऑक्सीजन की किल्लत के साथ जमाखोरों औऱ कालाबाजारियों ने इस संकट को और बढ़ा दिया. भारत सरकार को मौजूदा तस्वीर का अंदाज था, लेकिन आपराधिक लापरवाही हुई.

सरकार अगर सिफारिशों को मान लेती तो…

स्थायी समिति की सिफारिशें दरकिनार कर मोदी सरकार जनता को बचाने की तैयारी करने के बजाए चुनावों की तैयारी में जुटी रही. ऑक्सीजन, रेमडेसिविर इंजेक्शन और दूसरी जरूरी दवाओं की खरीद आम लोगों ने भारी दामों पर की. अब ब्लैक फंगस के लिए अलग से इंजेक्शन की जरुरत है, जिसे लेकर वही अफरातफरी है.

कोरोना से मृत्यु दर में अभी स्थिरता नहीं आई है और यह 1.4 से 1.10 फीसदी के आस-पास बनी हुई है. पिछले साल भी इतने लोग नहीं मरे थे जितनी मौतें इस बार हो रही हैं. कई राज्यों में औसत मृत्यु दर राष्ट्रीय औसत से बहुत अधिक है.

संसदीय समितियों की रिपोर्ट में आई तमाम बातें इस बात की गवाही हैं कि भारत सरकार को दूसरी लहर की गंभीरता का अंदाजा था. फिर भी उसने कोई तैयारी क्यों नहीं की, यह बात समझ से परे है. क्या करोड़ों लोगों के जीवन से बड़ा था बंगाल का चुनाव, जिसके लिए पूरी भारत सरकार जुटी रही? अगर समिति की सिफारिशों को मानकर सरकार ने कुछ खास तैयारियां कर लेती तो इतने बड़े पैमाने पर हुई मौतों को टाला जा सकता था.

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