केंद्रीय चुनाव आयोग ने 294 सीटों वाली पश्चिम बंगाल विधानसभा के लिए आठ चरणों में चुनाव कराने का फैसला किया है. वहीं, 232 सीटों वाली तमिलनाडु विधानसभा का चुनाव एक चरण में कराया जाएगा. ऐसा करने के पीछे केंद्रीय चुनाव आयोग ने कानून-व्यवस्था की स्थिति और शांतिपूर्ण चुनाव कराने जैसे तर्क दिए हैं. लेकिन राजनीतिक दलों, खास तौर पर तृणमूल कांग्रेस ने इसके पीछे बीजेपी के दबाव को वजह बताया है.
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा, “दक्षिण 24 परगना (जिले) में तीन चरणों में चुनाव होगा. क्यों? क्योंकि हम उस जिले में मजबूत स्थिति में हैं? आधे-आधे जिले का हर दिन चुनाव क्यों? क्या मोदी और शाह की सलाह पर ऐसा किया गया है? ताकि वे असम और तमिलनाडु में चुनाव खत्म करके यहां आएं और चुनाव प्रचार करें? यह खेला है.”
वास्तव में, पश्चिम बंगाल में आठ चरणों में चुनाव कराने के फैसले से न तो संवैधानिकता खतरे में आई है, और न ही लोकतंत्र का कोई सीधा उल्लंघन ही हुआ है. लेकिन इसके कई अनकहे पहलू हैं, जो एक बेहद उलझी और लंबी बहस को खड़ी कर रहे हैं. इस बहस का एक सबसे कमजोर पक्ष यह है कि चुनाव आयोग के इस फैसले में लिखे गए शब्दों के आधार पर कुछ भी गलत नहीं खोजा जा सकता है. कैसे, यह समझने में महाभारत का एक कथानक मददगार हो सकता है.
अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो वा
कौरव और पाण्डवों का युद्ध चल रहा है. कौरवों की ओर से लड़ रहे द्रोणाचार्य और उसके बेटे अश्वस्थामा पाण्डवों पर भारी पड़ रहे हैं. इस बीच एक अफवाह फैलती है कि अश्वस्थामा मारा गया है. इससे द्रोणाचार्य चिंतित हो उठते हैं. वे युद्धभूमि में सामने खड़े धर्मराज युद्धिष्ठिर से अश्वस्थामा के मरने की बात की सत्यता के बारे में पूछते हैं. इस पर युधिष्ठिर जवाब देते हैं – “अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो वा” मतलब अश्वत्थामा मारा गया है, नर था या हाथी, यह पता नहीं है. युद्धिष्ठिर अपना वाक्य पूरा करते कि इससे पहले श्रीकृष्ण ने अपना शंख बजा दिया. इसके शोर से द्रोणाचार्य यह बात नहीं सुन पाए कि ‘नर था या हाथी, यह पता नहीं है.’ इसलिए चिरंजीविता का वरदान पाए पुत्र के मारे जाने के शोक में उन्होंने हथियार डाल दिया. इस तरह वे अर्जुन के हाथों मारे गए. इस कथानक को सुनाने का मकसद एक ही है कि असत्य से ज्यादा खतरनाक संदिग्ध सत्य होता है.
पहली बार नहीं उठे हैं सवाल
केंद्रीय चुनाव आयोग की चुनावों की तारीखें घोषित करने की मौजूदा नीति पर बीते कई साल से सवाल उठ रहे हैं. सबसे ज्यादा विवाद साल 2017 में सामने आया था, जब चुनाव आयोग ने हिमाचल प्रदेश के लिए चुनाव की तारीखों का ऐलान कर दिया था, लेकिन गुजरात को छोड़ दिया था. सामान्य तौर पर छह महीने के भीतर होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए एक साथ चुनाव की तारीखें घोषित करने की परम्परा बनी हुई थी. लेकिन चुनाव आयोग ने गुजरात में दो हफ्ते बाद तारीखों का ऐलान किया.
इस दौरान प्रधानमंत्री ने गुजरात में कई रोड शो किए, कई बड़ी घोषणाएं भी की. इससे विपक्ष की उस आलोचना को बल मिला कि चुनाव आयोग ने प्रधानमंत्री के गुजरात दौरों को चुनाव आचार संहिता से बचाने के लिए तारीखों का ऐलान करने में देरी की. कारण कि चुनाव की तारीखों का ऐलान होते ही आचार संहिता प्रभावी हो जाती और जनमत को प्रभावित करने वाली घोषणाओं पर रोक लग जाती है.
चरणों में चुनाव से आचार संहिता का माखौल
चरणों में चुनाव कराने पर निष्पक्ष चुनाव पर असर पड़ने के भी आरोप लगते रहे हैं. सामान्य तौर पर मतदान के दो दिन पहले चुनाव प्रचार अभियान बंद हो जाते हैं, सिर्फ प्रत्याशी को व्यक्तिगत स्तर पर मतदाताओं से मिलने की छूट होती है. लेकिन जब चरणों में मतदान होता है तो इस शर्त की धज्जियां उड़ जाती हैं.
2020 में बिहार विधानसभा के लिए तीन चरणों में हुआ चुनाव इसका उदाहरण है. 28 अक्टूबर 2020 को जब पहले चरण के लिए मतदान हो रहा था, तभी दूसरे चरण के लिए चुनाव प्रचार चल रहा था. कहने के लिए इसमें सभी दलों के लिए बराबर के अवसर थे. लेकिन इस दिन प्रधानमंत्री की चुनावी रैलियों का मीडिया के बड़े हिस्से ने निर्बाध प्रसारण किया, जिसमें सभी दलों के लिए समान अवसर की बात दूर तक नहीं बची थी. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने बयान में यही सवाल उठाया है.
एक देश-एक चुनाव हो जाए तो कितने चरण होंगे
केंद्रीय चुनाव आयोग जैसे चुनाव के लिए चरणों को बढ़ा रहा है, उससे ‘एक देश- एक चुनाव’ की कल्पना सवालों के घेरे में आ रही है. प्रधानमंत्री और सत्ताधारी दल बीजेपी लगातार ‘एक देश- एक चुनाव’ यानी लोक सभा के साथ-साथ विधानसभाओं के चुनाव कराने की वकालत करते रहे हैं. विपक्ष इस पर राजी नहीं है, क्योंकि इसे चुनावों के जरिए सरकारों पर नियंत्रण के उपाय को कमजोर करने वाला माना जा रहा है.
अगर थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए कि देश में ‘एक देश-एक चुनाव’ लागू हो गया है, तब केंद्रीय चुनाव आयोग पूरे देश में कितने चरणों में चुनाव करा पाएगा? अगर पश्चिम बंगाल की 294 सीटों के लिए आठ चरणों में चुनाव के आधार पर देखें तो अकेले उत्तर प्रदेश में विधानसभा का 12 चरणों में चुनाव होगा. लोक सभा के सभी सीटों के लिए 14 चरणों में चुनाव से कम पर क्या बात बनेगी?
अगर चरणों को कानून-व्यवस्था के आधार पर तय करने के तर्क को मान लिया जाए तब यह पूछना पड़ेगा कि पश्चिम बंगाल की कानून-व्वयस्था तमिलनाडु से खराब कैसेहै? अगर हालत इतनी ही ज्यादा खराब है कि एक चरण में निष्पक्ष चुनाव संभव नहीं है तो केंद्र सरकार राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर राष्ट्रपति शासन लगाने से पीछे क्यों हट रही है?
पांच राज्यों में किस दिन कहां पर चुनाव
पश्चिम बंगाल (294 सीट) में पहला चरण 27 मार्च, दूसरा चरण 1 अप्रैल, तीसरा चरण 6 अप्रैल, चौथा चरण 10 अप्रैल, पांचवां चरण 17 अप्रैल, छठा चरण 22 अप्रैल, सातवां चरण 26 अप्रैल और आठवें चरण का मतदान 29 अप्रैल को होगा. वहीं, असम (126 सीट) में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान का पहला चरण 27 मार्च, दूसरा 1 अप्रैल और तीसरा चरण 6 अप्रैल को होगा. वहीं, तमिलनाडु (232), केरल (140) और पुडुचेरी (30) में 6 अप्रैल को मतदान होंगे. इन सभी राज्यों में मतगणना एक ही तारीख यानी 2 मई को होगी.