कानूनों को बनाने में अगर जनता या उसकी राय शामिल न की जाए तो क्या नुकसान हो सकता है, इसका सटीक उदाहरण दिल्ली में चल रहा किसानों का आंदोलन है. रबी सीजन की खेती का काम जोरों पर है, लेकिन किसान संसद से पारित तीन कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन करने के लिए मजबूर हैं. हजारों किसान इन कानूनों को वापस लेने की मांग के साथ दिल्ली की सीमाओं पर जमा हैं. इन कृषि कानूनों को बनाने की प्रक्रिया में संसदीय लोकतंत्र या भागीदारीपूर्ण लोकतंत्र की मूल भावना का ख्याल रखने में चूक इस आंदोलन के लिए एक बड़ी वजह है.
पहली और सबसे बड़ी चूक
केंद्र सरकार ने कृषि कानूनों को बनाने के लिए अध्यादेश के प्रावधान का इस्तेमाल किया. संविधान में इसे एक तरह के आपातकालीन (अपरिहार्य हालात से निपटने के लिए कानून का विकल्प अनुच्छेद-123) प्रावधानों के तौर लाया गया है, ताकि संसद सत्र न होने के दौरान कानून के अभाव में सरकार का कोई काम न रुके.
अब कृषि कानूनों को देखें तो इसमें ऐसी कोई वजह नहीं मिलेगी. यानी कृषि क्षेत्र में कथित सुधारों के लिए अध्यादेश लाने की तत्काल कोई ठोस वजह मौजूद नहीं थी. इस काम को संसद के जरिए आराम से किया जा सकता था.
हालांकि, अध्यादेश लाने का सरकार को एक फायदा यह हुआ कि जब उसने इन अध्यादेशों की जगह लेने वालले विधेयकों को संसद में पेश किया तो उन पर विभागों की स्थायी संसदीय समितियों को भेजने का नियम लागू नहीं हुआ. (वजह आगे पढ़ें.)
असहमति को लगातार खारिज किया गया
कृषि अध्यादेश आने के बाद से ही किसानों ने इसका विरोध शुरू कर दिया. लेकिन सरकार ने उनकी बातों पर गौर नहीं किया. जब संसद में इन अध्यादेशों की जगह लेने वाले विधेयकों को पेश किया गया तो भी किसानों की मांगों को शामिल नहीं किया गया. यहां तक कि सदन में चर्चा के दौरान विपक्ष ने जो भी सुझाव दिए, सरकार या सत्ता पक्ष ने उन्हें भी विधेयकों में शामिल करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.
राज्य सभा में संख्या बल न होने के बावजूद कृषि विधेयकों को ध्वनि मत से पारित करा लिया गया. इसे विपक्ष ने प्रक्रिया का उल्लंघन बताते हुए जमकर हंगामा किया. सरकार ने आनन-फानन में विधेयकों का गजट नोटिफिकेशन भी कर दिया यानी विधेयक अब पूर्ण कानून बनकर लागू हो गए. यह सब तब हुआ जब देश के अलग-अलग हिस्सों में किसान अध्यादेशों को वापस लेने की मांग के साथ आंदोलन कर रहे थे.
आज हजारों किसान तीनों कृषि कानूनों (मंडी के बाहर खरीद-बिक्री टैक्स फ्री छूट, कॉन्ट्रेक्ट फॉर्मिंग को मंजूरी और आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत भंडारण सीमा को हटाना) को वापस लेने की मांग के साथ दिल्ली की सीमा (क्योंकि जंतर-मंतर नहीं जाने दिया जा रहा) पर बेमियादी धरने का मन बनाए बैठे हुए हैं.
सरकार को देर से अक्ल आई
अब केंद्र सरकार एक उच्चस्तरीय समिति बनाकर किसानों की मांगों पर विचार करने की बात कर रही है. सवाल उठता है कि सरकार ने किसानों से बातचीत करके यह पहल कानून बनाने से पहले क्यों नहीं की? अगर भारत में कानून निर्माण प्रक्रिया को देखें तो इसमें एक या दो मौके को छोड़कर इसमें जनता की सीधी भागीदारी नहीं आती है. हालांकि, सरकारों के पास व्यापक बदलाव वाले कानूनों पर जनता की राय लेने का पूरा मौका होता है.
भारत में कोई कानून कैसे बनता है
भारत में सामान्य तौर पर कानून बनाने की प्रक्रिया उसके मसौदे को कैबिनेट की मंजूरी के साथ शुरू होती है. हालांकि, संसद के सदस्य भी विधेयक पेश कर सकते हैं. इसे निजी सदस्य विधेयक कहा जाता है. विधेयकों को संसद के किसी भी सदन में पेश किए जा सकता है. लेकिन सदन में पेश करने से दो दिन पहले सभी संसद सदस्यों को इसकी कॉपी देना जरूरी होता है.
हालांकि, यह नियम विनियोग विधेयक, वित्त विधेयक और गोपनीय प्रावधान वाले विधेयकों पर लागू नहीं होता है. हालांकि, लोक सभा अध्यक्ष को विधेयकों को बिना सभी सदस्यों को बांटे सदन में पेश करने की छूट देने का अधिकार हासिल है. किसी भी सदन में पेश होने वाले विधेयकों को तीन रीडिंग से गुजरना पड़ता है.
अध्यादेश ने बांधे संसदीय समिति के हाथ
सदन में पेश होने के बाद विधेयक की पहली रीडिंग के तहत इस पर वोटिंग होती है. फिर लोक सभा में अध्यक्ष या राज्य सभा में सभापति इससे संबंधित विभाग की संसद की स्थायी समिति को भेज सकते हैं. समिति के पास इसे वापस लौटाने के लिए तीन महीने का समय होता है.
लेकिन अध्यादेश की जगह लेने वाले विधेयकों, किसी कानून के हिस्से को हटाने वाले विधेयकों, विनियोग विधेयकों, वित्त विधेयकों और तकनीकी स्वभाव के विधेयकों को संसद में विभागों की स्थायी समितियों को नहीं भेजा जाता है. यही वजह है कि कृषि कानूनों को ऐसी किसी कमेटी को नहीं भेजा जा सका.
सेलेक्ट या ज्वाइंट कमेटी जनता की राय लेती है
किसी विधेयक पर स्थायी समिति की रिपोर्ट सलाहकारी होती है. अगर सदन किसी सुझाव को मान लेता है तो सरकार उसके आधार पर विचाराधीन विधेयक में संशोधन करती है. विधेयकों की पहली रीडिंग में इसे सदन में पेश करना, इस पर सदस्यों की आपत्तियां दर्ज करना और संसदीय समितियों को भेजा जाना और उसकी सलाह को मानना या न मानना शामिल है.
इसके बाद विधेयक की सेकेंड रीडिंग यानी दूसरा पाठ शुरू होता है. इसके दो चरण होते हैं. पहले चरण में विधेयक के सिद्धांतों और प्रावधानों पर चर्चा होती है. अगर आपत्तियां ज्यादा होती हैं तो इसी चरण में विधेयक को सेलेक्ट कमेटी या ज्वाइंट कमेटी को भेज दिया जाता है. सिर्फ धन विधेयक को दोनों सदनों की ज्वाइंट कमेटी के पास नहीं भेजा जा सकता है.
सेलेक्ट कमेटी या ज्वाइंट कमेटी सदन की तरह ही किसी विधेयक की प्रावधान दर प्रावधान समीक्षा करती है. इसी सेलेक्ट कमेटी या ज्वाइंट कमेटी विधेयक पर प्रेस में सूचना जारी करती है और संबंधित विधेयक पर जनता व विशेषज्ञ समूहों की राय भी आमंत्रित करती है. इस समिति के पास जनता की राय जानने के लिए विधेयक को वितरित करने का भी अधिकार होता है.
इस तरह की रायशुमारी राज्य सरकारों के माध्यम से की जाती है और फिर उसे सदन में पेश किया जाता है. कृषि कानूनों के मामले में किसानों व अन्य हिस्सेदारों की राय शामिल करने के लिए यह बेहतर मौका था. लेकिन सरकार ने विधेयकों को सेलेक्ट या ज्वाइंट कमेटी में भेजने की विपक्ष की मांग को स्वीकार नहीं किया.
जनता के पास संसद में याचिका लगाने का विकल्प
विधेयक की सेकंड रीडिंग के दूसरे चरण से पहले विधेयक से जुड़ी जनता की याचिकाओं पर विचार जाता है. इसे ‘राइट टू पिटीशन पार्लियामेंट’ कहा जाता है. आम जनता इसके जरिए संसद को अपनी राय बता सकती है. इसे कोई भी आम नागरिक हिंदी या अंग्रेजी में तय प्रारूप में लगा सकता है.
लोक सभा के मामले में बस उस पर एक सांसद के काउंटरसाइन की जरूरत होती है. लोक सभा कार्यवाही नियमावली के मुताबिक, “यह नियम इस सिद्धांत पर आधारित है कि आम तौर पर जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि होने की क्षमता में संसद सदस्य ऐसी पीटिशन लगाते हैं, और इसमें कही गई बात की जिम्मेदारी लेते हैं. और इस पर उठने वाले सवालों का जवाब देते हैं.”
आम नागरिक ऐसी याचिका संसद के किसी सदन में विचाराधीन विधेयक या विषयों या केंद्र सरकार के किसी कामकाज को लेकर लगा सकते हैं. इसे जिस सदन से मामला जुड़ा होता है, उसे भेज दिया जाता है. अदालत में विचाराधीन विषयों पर ऐसी कोई याचिका नहीं लगाई जा सकती है. याचिका दाखिल होने के बाद किसी भी सदन में किसी भी सांसद द्वारा इसे पेश किया जाता है.
इसके बाद इस पर याचिका समिति विचार करती है, संबंधित मंत्रालय से जवाब मांगती है और इस पर अपनी रिपोर्ट संबंधित सदन में पेश करती है. इस व्यवस्था को कानून निर्याण की प्रक्रिया को जनतांत्रिक बनाने के लिए रखा गया है. कृषि कानूनों के मामले में इस विकल्प का भी इस्तेमाल नहीं हुआ.
दूसरे सदन में भी होता है सुधार का मौका
विधेयक की सेकंड रीडिंग के दूसरे चरण में उसके लोक सभा में पेश प्रारूप या सेलेक्ट या ज्वाइंट कमेटी को ओर से पेश किए गए मसौदे के प्रावधानों पर उपबंध दर उपबंध चर्चा होती है. इसमें आए सुधारों को सदन द्वारा स्वीकार या अस्वीकार किए जाने के दूसरी रीडिंग पूरी हो जाती है.
इसके बाद तीसरी रिडिंग की बारी आती है. तीसरी रीडिंग में दूसरी रीडिंग के दौरान किए गए बदलावों को विधेयक में शामिल करने का सत्यापन होता है. इसके बाद इस पर वोटिंग होती है और इसे पारित कर दिया जाता है. लोक सभा या राज्य सभा में जहां से भी विधेयक पहली बार पारित होता है, दूसरे सदन में भेज दिया जाता है. जहां एक बार फिर विधेयक की तीन रीडिंग होती है और जरूरत पड़ने पर सेलेक्ट कमेटी को भी भेजा जाता है.
इसके बाद सदन अपने संशोधनों के साथ विधेयक को वापस पहले पारित करने वाले सदन को भेजता है. अगर उसे पहले पारित कर चुका सदन दूसरे सदन के बदलावों को मान लेता है तो विधेयक पारित होकर राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए चला जाता है. अब यहां पर विधेयक या उसके संशोधनों को लेकर अगर सदनों के बीच कोई गतिरोध हो जाता है तो फिर सरकार के पास उसे विधेयक को वापस लेने या फिर पारित कराने के लिए संसद का संयुक्त सत्र बुलाने का ही विकल्प बचता है.
का वर्षा जब कृषि सुखाने
फिलहाल कृषि कानूनों को बनाने की प्रकिया को देखकर कहा जा सकता है कि सरकार ने आपत्तियों के बावजूद इसे जनभागीदारीपूर्ण बनाने के लिए कोई पहल नहीं की. सबसे पहले कानून बनाने के लिए अध्यादेश का सहारा लिया गया, जिसने कानून निर्माण की भरोसेमंद प्रक्रिया को जोखिम में डाला दिया.
फिर संसद में आपत्तियों के बावजूद विधेयकों को सेलेक्ट या ज्वाइंट कमेटी को नहीं भेजा गया. इससे किसानों के असंतोष दूर नहीं हो पाया. अब सरकार द्वारा आंदोलनरत किसानों के सामने बातचीत की पेशकश करना बताता है कि वह अपरोक्ष रूप से कानून निर्माण में हुई चूक को मान रही है.
हालांकि, किसानों के रुख से साफ है कि फिलहाल वे अपनी मांगों को लेकर सरकार के सामने झुकने के लिए तैयार नहीं है. इस बीच दूसरे राज्यों के किसान भी इसमें शामिल होने या इसके समर्थन का ऐलान करते जा रहे हैं.
कानून बनाते समय जनता की सुनने में पाकिस्तान आगे
कानून निर्माण में जनता की सीधी भागीदारी की अगर तुलना करें तो भारत, पाकिस्तान से पीछे है, जिसने अपने अस्तित्व में आने के बाद का ज्यादातर समय सैन्य तानाशाही में गुजारा है. दुनिया भर की संसद की तुलना करने वाले संगठन इंटरनेशनल पार्लियामेंट्री यूनियन यानी आईपीयू के मुताबिक, पाकिस्तान में कानून बनाने से पहले उसके मसौदे को संसद की वेबसाइट पर डाला जाता है और उस पर जनता को टिप्पणी करने का मौका दिया जाता है. व
हीं, भारत में विधेयकों को संसद की वेबसाइट पर डाला तो जाता है, लेकिन सामान्य तौर पर जनता को उस पर टिप्पणी करने का मौका नहीं दिया जाता है. इस मामले में पाकिस्तान ही नहीं, भूटान और ईरान भी भारत से आगे हैं.
ग्राफ और चार्ट- साभार आईपीयू