पंचायती राज व्यवस्था के रूप में स्थानीय स्वशासन की कल्पना शक्तियों के विकेंद्रीकरण और महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज से प्रेरित है. यहां शक्तियों के विकेंद्रीकरण का मतलब सत्ता किसी एक स्तर पर या किसी एक व्यक्ति के हाथ में न रहे ताकि शासन-प्रशासन का कोई भी अंग अपने असीमित अधिकारों के चलते जनहित को कभी खतरे में न डाल सके. यह सत्ता को जनता के नजदीक पहुंचाने का जरिया भी है. स्वतंत्र भारत के संविधान में पंचायतों को राज्य के नीति निदेशक तत्वों में शामिल अनुच्छेद-40 में जगह मिली थी. इसमें कहा गया था कि सरकार, ग्राम पंचायतों के गठन के लिए कदम उठाएगी और स्वायत्त शासन के रूप में काम करने के लिए उन्हें जरूरी शक्तियां और प्राधिकार देगी.
लक्ष्य से भटक गई पंचायती व्यवस्था
हालांकि, संविधान में पंचायतों की बनावट और कामकाज के बंटवारे के बारे में कुछ नहीं कहा गया था. इसका नतीजा था कि महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज के सपने को साकार करने के वादे के साथ जिस पंचायती राज व्यवस्था का गठन हुआ, वह तमाम तरह की कमियों का शिकार हो गई. इनके समय पर चुनाव होने से लेकर वित्तीय आवंटन और अधिकार क्षेत्रों तक की समस्याएं सामने आने लगीं. पंचायती व्यवस्था में सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व न मिलने की समस्या भी विकराल हो गई. इनसे निपटने के लिए केंद्र सरकार ने समय-समय पर कई समितियों का गठन किया. ऐसी ही एक समिति साल 1986 में एल. एम. सिंघवी की अध्यक्षता में बनाई गई. इस समिति ने पंचायती राज प्रणाली को संवैधानिक मान्यता और संरक्षण देने के साथ-साथ गांव को पंचायत की इकाई बनाने और ज्यादा वित्तीय अधिकार देने जैसी सिफारिशें की.
संविधान में एतिहासिक संशोधन
सिंघवी समिति की सिफारिशों को मानकर तत्कालीन केंद्र सरकार ने संसद में 64वां संविधान संशोधन पेश किया. लेकिन यह संशोधन पारित न हो पाया. हालांकि, यहां से पंचायती राज व्यवस्था में ऐतिहासिक बदलाव की नींव जरूर पड़ गई. इसके बाद प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह के कार्यकाल में भी पंचायती राज को संवैधानिक दर्जा दिलाने की कोशिश हुई. लेकिन सरकार गिर जाने की वजह से किसी नतीजे तक नहीं पहुंच पाई. इसके बाद दिसंबर 1992 में वह ऐतिहासिक क्षण आ गया, जब संसद के दोनों सदनों ने 73वें और 74वें संविधान संशोधन को पारित कर दिया. इसमें 73वां संविधान संशोधन पंचायत, जबकि 74वां संशोधन शहरी निकायों के गठन से जुड़ा है.
पंचायतों को मिला तीसरी सरकार का दर्जा
संविधान के ये दोनों संशोधनों इतने बड़े हैं कि इन्हें नया संविधान तक कहा जाने लगा. इनसे संविधान के नीति निदेशक तत्वों में शामिल अनुच्छेद-40 को वास्तविक आकार मिला. इसके जरिए संविधान में पंचायती राज नाम से नौवां खंड और 11वीं अनसूची को जोड़ा गया. इसी के साथ पंचायती राज व्यवस्था को केंद्र और राज्य सरकारों की तरह संवैधानिक बराबरी का दर्जा मिल गया. इसी वजह से पंचायती राज को तीसरी सरकार या सरकार का तृतीय स्तर भी कहा जाने लगा.
कैसे पंचायतों में दिखने लगे सबके चेहरे
पंचायती राज व्यवस्था के ढांचे को संविधान में स्पष्ट करने का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि हर पांच साल पर इनके चुनाव होने लगे. इसके लिए राज्य सरकारों ने अपने यहां राज्य चुनाव आयोग बनाए. राज्यों के स्तर पर वित्त आयोगों का गठन होने लगा, ताकि पंचायतों को वित्तीय संसाधन पहुंचाए जा सकें. इससे प्रतिनिधित्व की समस्या को दूर करने में मदद मिली, जिसे सबसे बड़ा फायदा कहा जा सकता है. पंचायती राज व्यवस्था में आबादी के आधार पर अनुसूचित जाति (एससी), अनसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण लागू किया गया. इसके साथ एक-तिहाई सीटों को महिलाओं के लिए आरक्षित किया गया.
यूपी में पंचायत का हाल
अगर उत्तर प्रदेश की बात करें तो यहां 73वें संविधान संशोधन के आधार पर त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था का गठन किया गया है. अगस्त, 1949 में 35 हजार पंचायतें थीं, जिसके मुकाबले इनकी संख्या आज 59 हजार 163 पहुंच चुकी है. वहीं, क्षेत्र पंचायतों की संख्या 821 और जिला पंचायतों की संख्या 75 है. औसतन एक हजार की आबादी पर एक पंचायत का गठन किया गया है. इसमें एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग के साथ-साथ महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटें पर आरक्षण लागू किया जा रहा है. साल 2015 में हुए पंचायत चुनाव में 59 हजार 163 पंचायतों में 336 सीटों पर एसटी, 12 हजार 246 सीटों पर एससी और 28 हजार 556 सीटों पर ओबीसी वर्ग को प्रतिनिधित्व मिला. इसमें से एक-तिहाई यानी लगभग 20 हजार सीटों का प्रतिनिधित्व महिलाओं के हाथ में है.
पंचायत का महत्व बढ़ा और नई समस्याएं भी
आज महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना यानी मनरेगा को लागू करने से लेकर स्कूल और उनमें मिड डे मील के संचालन तक की सारी जिम्मेदारी ग्राम पंचायतें संभाल रही हैं. इसमें स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालय निर्माण, पेयजल की व्यवस्था और पौधारोपण जैसे तमाम काम शामिल है. पंचायती राज व्यवस्था ने निचले स्तर पर चुनावी राजनीति को सक्रिय बनाया है. यह आम जनता के लिए राजनीतिक प्रशिक्षण का भी काम कर रहा है. हालांकि, चुनावी रंजिश इजाफा और मतदाताओं को लुभाने में पैसों का इस्तेमाल इस व्यवस्था की नई समस्या बनकर उभरा है.
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