एक नागरिक या व्यक्ति के रूप में बोलने, कहीं भी आने-जाने, बसने और मन-मुताबिक काम करने की छूट ही असलियत में स्वतंत्र होने या न होने का अहसास कराती है. अंग्रेजी पराधीनता से आजाद हुए भारत के संविधान में इसे विशेष आदर दिया गया है. इतना ही नहीं, हमारे संविधान निर्माताओं ने स्वतंत्रता आंदोलन में अहम भूमिका निभाने वाली हर बात को मूल अधिकारों में शामिल किया था. संविधान सभा ने प्रेस की आजादी पर विस्तार से चर्चा की. इसके बावजूद इसे संविधान में अलग से जगह नहीं मिल सकी.
लोकतंत्र में वाक्-अभिव्यक्ति क्यों जरूरी है?
लोकतंत्र का सारा दारोमदार वाक् और अभिव्यक्ति की आजादी के साथ प्रेस की आजादी पर टिका है. इनके बगैर लोकतंत्र की कल्पना तो बगैर चांदनी के नीले आसमान में चमकते चांद देखने की ख्वाहिश करना है. लोकतंत्र में प्रेस की आजादी का मतलब जनता के बीच सामूहिकता पैदा करने वाला संवाद और जनता व सरकार को जोड़ने वाला सूचनाओं का पुल है. यह संविधान में दर्ज जनता के अधिकारों, संस्थाओं की शक्तियों के बंटवारे और कर्तव्यों का पालन सुनिश्चित करने वाले संविधानवाद के प्रचार-प्रसार का आधार है.
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संविधान में प्रेस की आजादी शामिल नहीं?
अब सवाल उठता है कि लोकतंत्र में प्राण फूंकने वाली वाक और अभिव्यक्ति की आजादी संविधान के अनुच्छेद-19 में शामिल की गई तो उसे प्रभावी बनाने वाली प्रेस की आजादी को क्यों छोड़ दिया गया? जब अमेरिका के संविधान से मूल अधिकार लिए गए तो वहां की प्रेस की आजादी को संरक्षण क्यों नहीं दिया गया? वह क्या वजह रही जिसके चलते प्रेस की आजादी के महत्व को पहचानते हुए भी इसे संविधान में स्पष्ट रूप से किसी अनुच्छेद में क्यों नहीं शामिल किया गया? ऐसे तमाम सवालों का जवाब संविधान सभा की एक दिसंबर 1948 को शुरू होकर दो दिन तक चली बहस में छिपा है.
संविधान के मसौदे में क्या शामिल था?
भारतीय संविधान का मसौदा डॉ. भीमराव अंबेडकर की अध्यक्षता में बनाया गया था. उनकी अगुवाई वाली प्रारूप समिति ने 4 नवंबर 1948 को संविधान का मसौदा बहस के लिए संविधान सभा के सामने पेश किया. इस मसौदे में वाक और अभिव्यक्ति की आजादी और इसकी सीमाओं को अनुच्छेद-13 में रखा गया था, जिसे बाद में अनुच्छेद-19 में शामिल किया. इसके अनुच्छेद-13 (1) में कहा गया कि देश के सभी नागरिकों को (ए) वाक और अभिव्यक्ति की आजादी, (बी) कहीं भी बिना हथियार सभा करने, (सी) संगठन या संघ बनाने, (डी) भारतीय क्षेत्र में कहीं भी आने-जाने, (ई) देश में कहीं भी रहने और बसने, (एफ) जमीन खरीदने, रखने और बेचने और (जी) कोई व्यवसाय, व्यापार करने का अधिकार हासिल होगा. इसके साथ अन्य पांच क्लॉज भी शामिल थे जो इन अधिकारों की शर्तें और सीमाएं तय करते थे. इन सीमाओं के साथ भारत के संविधान निर्माताओं ने साफ कर दिया कि वे किसी भी अधिकार को पूर्ण नहीं मानते हैं.
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दामोदर स्वरूप सेठ ने क्या रखी थी मांग?
एक दिसंबर 1948 को संविधान सभा में जब अनुच्छेद-13 पर बहस शुरू हुई तो संयुक्त प्रांत के सदस्य दामोदर स्वरूप सेठ ने इसमें पहला संशोधन पेश किया. उन्होंने संविधान के मसौदे को उलझाऊ बताया और इसको सरल करके दो खंडों में लाने का संशोधन संविधान सभा के सामने रखा. उनके इस संशोधन में अनुच्छेद-13 में ‘सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता के अधीन नागरिकों को (ए) वाक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, (बी) प्रेस की स्वतंत्रता, (सी) संगठन व संघ बनाने की स्वतंत्रता (डी) कहीं भी बिना हथियार सभा करने की स्वतंत्रता (ई) पत्र, टेलिग्राफ और टेलिफोनिक संचार के निजता की स्वतंत्रता की गारंटी’ को शामिल किया गया. इसके अलावा अनुच्छेद 13 (ए) में इसकी सीमाएं तय करने वाली बातों को रखा गया.
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अपने इन संशोधनों का समर्थन करते हुए दामोदर स्वरूप सेठ ने कहा, ‘इसमें (संविधान के मसौदे में) एक अतिमहत्वपूर्ण बात छोड़ दी गई है, और वह है प्रेस की आजादी. सर, मैं सोचता हूं कि यह दलील दी जाएगी कि यह स्वतंत्रता पहले क्लॉज (ए) वॉक और अभिव्यक्ति की आजादी में शामिल है. लेकिन मेरा कहना है कि मौजूदा समय प्रेस का युग है और आज प्रेस लगातार और अधिक मजबूत हो रहा है. इसलिए यह जरूरी लगता है कि संविधान में प्रेस की आजादी का अलग से और साफ-साफ लिखा जाए.’ दामोदर स्वरूप सेठ ने नागरिकों के मूल अधिकारों और स्वतंत्रताओं को रोक लगाने या इसे सीमित करने के उपायों का विरोध किया. उन्होंने अमेरिका का उदाहरण दिया. अमेरिका में आपातकाल के दौरान हैबियस कार्पस रिट को छोड़कर बाकी किसी भी नागरिक स्वतंत्रता या मूल अधिकारों को सीमित नहीं किया जा सकता है. दामोदर स्वरूप सेठ ने स्वतंत्र भारत में राजद्रोह कानून, गोपनीयता कानून और अन्य दबावकारी कानूनों को प्रभावी रखने का भी विरोध किया.
प्रो. के. टी. शाह क्या चाहते थे
प्रो. के. टी. शाह ने (संविधान के मसौदे के) अनुच्छेद-13 के क्लॉज (1) के सब-क्लॉज (ए) में वाक् और अभिव्यक्ति की आजादी के साथ-साथ ‘प्रेस और पब्लिकेशन’ शब्द को जोड़ने का संशोधन संविधान सभा में रखा था. उन्होंने कहा कि संविधान का मसौदा बनाने वालों ने जाने क्या सोच कर ‘वाक’ और ‘अभिव्यक्ति’ को एक साथ रखा है, जबकि दोनों लगभग समानांतर चलन में आने वाले शब्द हैं. प्रोफेसर के. टी. शाह ने यह भी कहा कि दुनिया में जहां भी उदारवादी संविधान हैं, उसमें प्रेस की आजादी को स्थान मिला है, यहां तक कि जहां लिखित संविधान नहीं है, वहां भी अदालती आदेशों और परंपराओं से प्रेस की आजादी को मान्यता दी गई है. उन्होंने कहा, ‘यूनाइटेड नेशन का चार्टर प्रेस की आजादी को प्रमुख स्थान देता है. फिर भी हमारे संविधान का मसौदा बनाने वालों ने इसे क्यों बाहर कर दिया, यह मेरी समझ से परे है. मुझे उम्मीद है कि उनके पास इसका कोई ठोस कारण जरूर होगा कि प्रेस की आजादी को संविधान में जगह क्यों नहीं मिल सकी.’
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प्रेस की आजादी को मूल अधिकार बनाने की मांग
संविधान सभा के अन्य सदस्य महबूब अली बेग साहिब बहादुर ने संविधान में प्रेस की आजादी को अलग से शामिल करने और मूल अधिकारों को पूरी सुरक्षा देने की मांग रखी. उन्होंने कहा, ‘मूल अधिकार, मूल अधिकार हैं, स्थायी हैं, पवित्र हैं और (इन पर) कार्यपालिका व विधायिका का अधिकार क्षेत्र खत्म करते हुए राज्य की दबावकारी शक्तियों के खिलाफ सुरक्षा की गारंटी मिलनी चाहिए. अगर कार्यपालिका और विधायिका के अधिकार क्षेत्र को सीमित नहीं किया जाता है तो सभी बुनियादी अधिकार महज साधारण अधिकार बनकर रह जाएंगे.’ उन्होंने आगे कहा कि यह अधिकार न्यायपालिका को मिलना चाहिए कि किसी नागरिक ने सीमाओं का उल्लंघन करके राज्य की सुरक्षा को खतरे में डाला है या नहीं.
विधायिका और कार्यपालिका के अधीन रखने का विरोध
महबूब अली बेग साहिब बहादुर ने अमेरिका के संविधान में किए गए 14वें संशोधन का हवाला दिया. उन्होंने कहा कि अमेरिका में 14वां संविधान संशोधन कांग्रेस (वहां की संसद) को ऐसा कोई कानून बनाने से रोकता है जो अभिव्यक्ति की आजादी, संघ बनाने की स्वतंत्रता और प्रेस की आजादी के खिलाफ जाता हो. उन्होंने आगे कहा कि यह 1791 का वक्त था, तब अमेरिका ने तय किया कि किसी नागरिक के अपनी सीमाओं के उल्लंघन करने और राज्य की सुरक्षा को खतरे में डालने के बारे में कोई फैसला न्यायपालिका करेगी, न कि कार्यपालिका और विधायिका.
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महबूब अली बेग साहिब बहादुर ने ब्रिटेन का भी उदाहरण दिया, जहां लिखित संविधान नहीं है. लेकिन लॉ ऑफ लैंड (The law of the land) विचार और अभिव्यक्ति की आजादी देता है, जिन्हें विधि की प्रक्रिया का पालन किए बगैर सीमित नहीं किया जा सकता है. उन्होंने कहा कि केवल जर्मनी के संविधान में मूल अधिकारों को विधायिका के अधीन रखा गया, जिसका नतीजा था कि हिटलर कानून बनाकर जर्मनवासियों को बगैर सुनवाई के यातना गृहों में डाल पाया.
‘सब कुछ विधायिका की दया पर छोड़ दिया गया’
सरदार हुकुम सिंह ने भी संविधान में प्रेस की आजादी को शामिल करने की मांग उठाई थी. उन्होंने कहा था कि अनुच्छेद 13(1) (संविधान के प्रारूप) में बताए गए अधिकारों को किसी भी व्यक्ति द्वारा अलग नहीं किये जा सकते, यहां तक कि स्वेच्छा से भी कोई इन्हें नहीं छोड़ सकता है. उन्होंने आगे कहा, ‘सभा करने की आजादी, प्रेस की आजादी और अन्य आजादी को बहुमूल्य बनाया गया, लेकिन सब कुछ विधायिका की दया पर छोड़ दिया गया, जिसने इसकी सारी खूबसूरती और आकर्षण को छीन लिया.’
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‘एक हाथ से देने, दूसरे हाथ से लेने जैसा मामला’
वहीं, काजी सैयद करीमुद्दीन ने संविधान में प्रेस की आजादी को अलग से शामिल करने को बहुत जरूरी संशोधन बताया. उन्होंने कहा कि डॉ. अंबेडकर को इसे स्वीकार करना चाहिए. काजी सैयद करीमुद्दीन ने डॉ. अंबेडकर की किताब ‘राज्य और अल्पसंख्यक’(States and Minorities) का हवाला दिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता को छोड़कर प्रेस की आजादी और संगठन बनाने की स्वतंत्रता को सीमित करने वाला कोई भी कानून नहीं बनाया जाएगा.’ उन्होंने यहां तक कहा कि अगर अनुच्छेद-13 को उसके मौजूदा स्वरूप में ही पारित कर दिया गया तो जो भी वाक् और अभिव्यक्ति की आजादी या प्रेस की आजादी दे रहे हैं, वह नहीं बचेगी, यह तो एक हाथ से देना और दूसरे हाथ से लेना जैसा होगा.
‘प्रेस की आजादी अभिव्यक्ति की आजादी में शामिल’
प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना ने भी वाक् और अभिव्यक्ति की आजादी के साथ प्रेस की आजादी को अलग से शामिल करने की मांग उठाई. उन्होंने कहा, ‘उम्मीद है कि डॉ. अंबेडकर इस सब-क्लॉज में प्रेस की आजादी को लाने के लिए कोई बदलाव जरूर करेंगे.’ हालांकि, संविधान सभा के सदस्य एम. अनंतशयनम अयंगार ने अनुच्छेद-13 में संशोधन करके प्रेस की आजादी को शामिल करने की मांग को बेबुनियाद बताया. उन्होंने कहा, ‘विचारों की स्वतंत्रता तो मूल अधिकार है. कोई भी किसी को विचार करने से नहीं रोक सकता. यह केवल अभिव्यक्ति की आजादी है, जिसे दिया जाना है. अब प्रेस की आजादी इसी अभिव्यक्ति की आजादी का हिस्सा है.’
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प्रेस किसी का कोई विशेषाधिकार नहीं है
संविधान सभा में इन तमाम सवालों का प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. बी. आर. अंबेडकर ने जवाब दिया. उन्होंने प्रेस की आजादी को लेकर एम. अनंतशयनम अयंगार के विचारों से पूरी तरह सहमति जताई. डॉ. अंबेडकर ने कहा, ‘प्रेस किसी व्यक्ति या नागरिक को बताने का एक तरीका है. प्रेस कोई ऐसा विशेषाधिकार नहीं है, जिसे किसी नागरिक को उसकी व्यक्ति क्षमता में नहीं दिया जा सकता है या वह इसका इस्तेमाल नहीं कर सकता है.’ उन्होंने आगे कहा, ‘किसी अखबार का संपादक हो या प्रबंधक, सभी देश के नागरिक हैं और इसलिए वे जब किसी अखबार में लिखने का फैसला करते हैं, तो वे अपनी अभिव्यक्ति की आजादी का ही इस्तेमाल कर रहे होते हैं. और मेरे हिसाब से प्रेस की आजादी का अलग से उल्लेख करने की जरूरत नहीं है.’
प्रेस तो जन-जन का अधिकार है
संविधान सभा के सदस्यों की मांग के उलट डॉ. अंबेडकर को लगता था कि प्रेस की आजादी का अलग से उल्लेख इसे विशेषाधिकार बना देगा, जबकि यह जन-जन को हासिल अधिकार है. यानी कोई भी नागरिक जब चाहे अपनी अभिव्यक्ति की आजादी के तहत अखबार, पत्र-पत्रिका और संचार-जनसंचार के दूसरे साधनों का इस्तेमाल कर सकता है.
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पत्रकारिता जनता के साथ कब खड़ी होगी?
आज के दौर में जिस तरह से पत्रकारिता पर सरकारी नियंत्रण बढ़ रहा है, जैसे सरकार की कमियों को उजागर करने वाले पत्रकारों के खिलाफ एफआईआर या राजद्रोह जैसे मामले दर्ज हो रहे हैं, वह देश में प्रेस के बढ़ते संकट को बता रहा है. इसी वजह से 2020 की रिपोर्टर्स विद्आउट बॉर्डर के प्रेस आजादी सूचकांक में भारत 142वें स्थान पर आया है.
अंत में यह सवाल बचा रह जाता है कि अगर प्रेस की आजादी को संविधान में अलग से शामिल कर लिया जाता तो क्या भारत में पत्रकारिता ज्यादा मजबूती और निडरता से जनता के सवालों के साथ खड़ी हो पाती?