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सनद रहे

सांसदों को ‘आधे घंटे की चर्चा’ की मांग करने का हक है, लेकिन कब?

लोक सभा और राज्य सभा दोनों ही सदनों में सामान्य तौर पर आधे घंटे की चर्चा हफ्ते में तीन दिन होती है.

संसद के दोनों सदनों में सदस्यों को सरकार से सवाल पूछने के लिए कई मौके दिए गए हैं. इसमें तारांकित, अतारांकित प्रश्नों के अलावा शॉर्ट नोटिस और आधे घंटे की चर्चा जैसे प्रमुख विकल्प शामिल हैं. आधे घंटे की चर्चा (Half an Hour Discussion) के माध्यम से सांसद उन विषयों पर सरकार से स्पष्टीकरण मांगते हैं, जिन पर वे तारांकित या अतारांकित प्रश्नों पर सरकार की ओर से दिए गए जवाब से संतुष्ट नहीं होते हैं.

लोक सभा और राज्य सभा दोनों ही सदनों में सामान्य तौर पर Half an Hour Discussion हफ्ते में तीन दिन होता है. इन तीन दिनों में सोमवार, बुधवार और शुक्रवार शामिल हैं. इसके लिए लोक सभा और राज्य सभा में शाम 5.30 बजे से 6.00 बजे तक का समय तय है. आधे घंटे की चर्चा पर बजट सत्र के दौरान बजट संबंधी विधायी कामों को निपटाने तक रोक रहती है.

इस चर्चा के लिए मांग करने वाले सदस्यों को अपने सदन के महासचिव को लिखित में सूचना देनी होती है. लोक सभा (Lok Sabha) में चर्चा की मांग करने वाले सदस्य को एक संक्षिप्त वक्तव्य देता होता है. चर्चा वाले दिन दोपहर 11.00 बजे से पहले सूचना देने वाले अन्य सांसदों में से अधिकतम चार सदस्यों को एक-एक सवाल पूछने की छूट दी जाती है. इसके बाद संबंधित विषय के मंत्री उन सभी सवालों का जवाब देते हैं.

राज्य सभा (Rajya Sabha) में भी आधे घंटे की चर्चा के लिए सदस्य को तीन दिन पहले महासचिव को लिखित सूचना देनी पड़ती है. इसके लिए कम से कम दो सदस्यों के हस्ताक्षर जरूरी होते हैं. अगर सूचना देने वाला व्यक्ति चर्चा के दिन अनुपस्थित हो जाए तो इसका समर्थन करने वाले सदस्यों में से किसी एक को सभापति की इजाजत से चर्चा करने की छूट दी जाती है.

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राज्य सभा

कृषि कानूनों पर भ्रम दूर करने के लिए केंद्र सरकार ने विज्ञापनों में लाखों रुपये फूंके

कैसे कृषि कानूनों पर भ्रम दूर करने की जरूरत आना इस बात का सबूत है कि सरकार ने कानूनों को बनाने में हड़बड़ी और मनमानापन दिखाया है? यह सवाल राज्य सभा में सरकार के जवाब से उपजा है.

कृषि कानूनों पर भ्रम किसानों का प्रदर्शन किसान एकता मोर्चा फेसबुक
Photo credit- kisan Ekta Morcha

हम सभी जानते हैं कि कानून बनाना संसद का और उसे लागू करना सरकार का काम है. कोई भी कानून बनाने के दौरान इतनी चर्चा होती है कि उसमें किसी तरह का भ्रम बचे रहने या पैदा होने की कोई गुंजाइश नहीं बचती है. हालांकि, सरकार की मानें तो कृषि कानूनों के मामले में यह शर्त लागू नहीं होती है. खुद केंद्र सरकार ने संसद को बताया है कि उसे ‘कृषि कानूनों पर भ्रम’ को दूर करने के लिए विज्ञापनों पर लाखों रुपये फूंकने पड़े हैं.

राज्य सभा में उठा विज्ञापन का सवाल

राज्य सभा में सांसद सैयद नासिर हुसैन और राजमणि पटेल ने आतारांकित प्रश्न के तहत संसद में कृषि कानूनों के विज्ञापन पर खर्च का सवाल उठाया. सरकार से उन्होंने जानकारी मांगी कि (1) देश में सितंबर 2020 से जनवरी 2021 के बीच सरकार के ‘कृषि कानूनों के संबंध में भ्रांति दूर करने’ से संबंधित प्रचार अभियान पर कुल कितने रुपये खर्च किए गए हैं? (2) सितंबर 2020 से जनवरी 2021 के बीच सरकार के ‘कृषि कानूनों के संबंध में भ्रांति दूर करने’ से संबंधित प्रचार अभियान पर ‘विदेश में’ कुल कितने रुपये खर्च किए गए हैं? (3) उन सभी सरकारी विभाग, एजेंसी और भारतीय दूतावासों का ब्यौरा क्या है, जिन्हें ‘कृषि कानूनों के संबंध में भ्रांति दूर करने’ से संबंधित प्रचार अभियान को शेयर करने और प्रचारित करने के लिए कहा गया था?

कृषि कानूनों पर भ्रम दूर करने में लाखों खर्च

राज्य सभा में सांसदों के इन सवालों का जवाब केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने दिया. उन्होंने बताया कि (1) सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अनुसार ब्यूरो ऑफ आउटरीच एंड कम्यूनीकेशन (बीओसी) ने कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय की तरफ से सितंबर 2020 और जनवरी, 2021 के बीच देश में कृषि कानूनों के प्रचार अभियान के लिए विज्ञापन जारी करने के लिए लगभग सात करोड़ 26 लाख (7,25,57,246) रुपये जारी करने का वादा किया है.

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वहीं, किसानों और अन्य हितधारकों को जागरूक बनाने, कृषि कानूनों पर गलतफहमी को दूर करने और वास्तविकता बताने के लिए हिंदी, अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषाओं के समाचार पत्रों में प्रिंट विज्ञापन जारी किए गए. कृषि सहकारिता और किसान कल्याण विभाग ने भी किसानों और अन्य हितधारकों के बीच इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सोशल मीडिया और वेबिनार के जरिए कृषि कानूनों का व्यापक प्रचार-प्रसार किया. इसके साथ कृषि कानूनों पर तीन प्रमोशनल और दो एजुकेशनल फिल्में बनाने के लिए लगभग 68 लाख (67,99,750) रुपये भी खर्च किए. इसके अलावा प्रिंट विज्ञापनों के लिए रचनात्मक कार्यों को बढ़ावा देने के विविध खर्च के तौर पर लगभग डेढ़ लाख (1,50,568) रुपए खर्च किए गए.

विदेश में भी प्रचार, लेकिन खर्च शून्य

केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने बताया कि विदेश मंत्रालय से प्राप्त सूचना के मुताबिक, किसी कानूनों के बारे में विदेशों में गलतफहमी दूर करने के प्रचार अभियान पर खर्च शून्य रहा है. हालांकि, मिशन या केंद्र ने नियमित कूटनीतिक कामकाज के एक हिस्से के रूप में कृषि कानूनों के बारे में नवीनतम प्रगति, सरकार के नजरिए और कृषि कानूनों से जुड़े बार-बार पूछे जाने वाले प्रश्न यानी एफएक्यू (FAQ) और अन्य उपयोगी सूचनाएं प्रवासियों तक पहुंचाने के लिए अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल किया है. भारत सरकार के संबंधित विभागों ने भी सोशल मीडिया पर कृषि कानूनों के बारे में जागरूकता पैदा करने का काम किया है.

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कृषि कानूनों पर भ्रम की स्थिति कैसे बनी

अपने जवाब में केंद्र सरकार का साफ कहना है कि उसने कृषि कानूनों पर भ्रम को दूर करने के लिए प्रचार अभियान चलाया. अब सवाल आता है कि संसद से पारित होने के बावजूद किसी कानून में भ्रांति या भ्रम की जगह कहां और क्यों बची रह गई? ऐसा क्या हुआ कि एक कानून जो पहले अध्यादेश के रूप में आया और फिर सरकार के दावे के मुताबिक संसद में बाकायदा चर्चा करके पारित किया गया, फिर उसके बारे में लोगों में गलतफहमी कैसे फैल गई?

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इन सवालों का जवाब है कि सरकार ने कानूनों को बनाने में हड़बड़ी दिखाई. इसका सबूत सामान्य प्रक्रिया की जगह कानूनों को अध्यादेश के रूप में लाया गया. वह भी ऐसे वक्त में जब पूरे देश में कोरोना महामारी से लड़ने के लिए लॉकडाउन लागू था. सरकार ने अध्यादेश लाने से पहले लोगों को ना तो कानून के बारे में बताया और ना ही उनसे कोई चर्चा ही की. यह भी हकीकत है कि यह काम कानून बनाने के दौरान किसी जगह पर नहीं किया गया, जबकि किसान सड़कों पर उतरकर इसके खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे. यहां तक कि संसद में विपक्ष के विरोध के बावजूद इन कानूनों को राज्य सभा में विवादित तरीके (नियमों के खिलाफ ध्वनिमत का इस्तेमाल करके) से पारित कराया गया.

सरकार प्रचार से किसका भ्रम दूर हुआ

केंद्र सरकार ने कृषि कानूनों का भ्रम दूर करने के लिए करोड़ों रुपये फूंक डाले. लेकिन इससे किसका भ्रम दूर हुआ? किसान तो अभी भी इन कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली की सीमाओं पर मोर्चा खोले हुए हैं. बीते साल 26 नवंबर से जारी आंदोलन अब किसान पंचायत के रूप में देश के अलग-अलग हिस्सों में फैल रहा है. किसान इन कानूनों को अपने वजूद के खिलाफ बता रहे हैं. ऐसे में जब कृषि कानून से जुड़ा सबसे बड़ा तबका यानी किसान ही उनसे इत्तेफाक नहीं रखता तो फिर सरकार किसे इन कानूनों का महत्व या फायदे समझाना चाहती है?

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लेख-विशेष

कैसे ब्रिटेन की एक थ्योरी उससे अमेरिका की आजादी का तर्क बन गई?

जनता के प्रति जवाबदेह सरकारों की मांग के बीच ‘क्रांति का अधिकार’ कितना अहम है, इसका अंदाजा ऐसे लगा सकते हैं कि इस सिद्धांत को 1793 में बने फ्रांस के संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया गया था.

ब्रिटेन के सिद्धांतकार जॉन लॉक ने ‘सामाजिक संविदा सिद्धांत’
Photo credit-ethics.org.au

अमेरिका भी कभी भारत और दुनिया के दूसरे मुल्कों की तरह ब्रिटेन का ही एक उपनिवेश था. मगर जहां ब्रिटेन और उसके दूसरे उपनिवेशों के बीच धर्म और सांस्कृतिक खाइयां मौजदू थीं, वहीं अमेरिका के मामले में ऐसा नहीं था. बावजूद इसके अमेरिकियों ने एक दिन ब्रिटेन के आधिपत्य को चुनौती दे दी. यहां भी ब्रिटेन की समृद्धि के लिए अमेरिका का आर्थिक शोषण ही प्रमुख वजह बना.

ब्रिटिश हुकूमत से अमेरिकी बगावत की शुरुआत अंधाधुंध कर और सैन्य खर्च का बोझ डालने के विरोध से हुई. दरअसल, ब्रिटिश संसद ने 1764 से 1775 के बीच ताबड़तोड़ कानून बनाए और अमेरिकियों को करों के बोझ तले दबा दिया. इन कानूनों में 1764 के शुगर एक्ट और 1765 के स्टाम्प एक्ट ने अमेरिकियों की जिंदगी पर बहुत दबाव डाला. इसके चलते चीनी, शराब, कॉफी से लेकर कानूनी दस्तावेजों तक करों का बोझ असहनीय स्तर तक बढ़ गया. इस पर अमेरिकावासियों की तीखी प्रतिक्रिया आई. इससे पनपे असंतोष ने प्रतिनिधित्व की पुरानी मांग को ‘प्रतिनिधित्व नहीं तो कर नहीं’ के नारे में बदल दिया. हालांकि, यह नारा अमेरिकियों की खोज नहीं है, बल्कि इसे सबसे पहले ब्रिटेन में इस्तेमाल किया गया था. इसी आधार पर कर लगाने के अधिकार को संसद को सौंपने की मांग ने जोर पकड़ा था.

खैर, अमेरिका में ब्रिटेन की लूट के खिलाफ पनप रहा असंतोष स्टाम्प एक्ट लागू होते ही फूट पड़ा. अमेरिका में आजादी का आंदोलन जोड़ पकड़ने लगा. 4 जुलाई 1776 को कांग्रेस ने स्वतंत्रता की अपील करने वाला एक प्रस्ताव पारित कर दिया. अपनी किताब ‘अमेरिका का इतिहास’ में डॉ किरण दात्तार लिखती हैं कि ‘इस रचना में प्रमुख हाथ थामस जेफरसन का रहा. इस दस्तावेज का मूल सिद्धांत जॉन लॉक (John Locke) की कृतियों से प्रभावित था.’ दरअसल, जॉन लॉक ने ‘सामाजिक संविदा सिद्धांत’ (Social Contract Theory) पेश किया और इसके जरिए जनता के ‘क्रांति के अधिकार’ (Right to revolution) को तर्क दिया.

जॉन लॉक ने ‘सामाजिक संविदा सिद्धांत’ (Social Contract Theory) पेश किया और इसके जरिए जनता के ‘क्रांति के अधिकार’ (Right to revolution) को तर्क दिया.

जॉन लॉक का मानना था कि राज्य या सत्ता के अधिकार वास्तव में जनता या शासितों की सहमति से निकले हैं. उनके मुताबिक अगर सत्ता या सरकार, जनता के हितों के खिलाफ काम करने लगे तो जनता को उसके खिलाफ विद्रोह करने और उसे उखाड़ फेंकने का पूरा हक है. जॉन लॉक के इसी सिद्धांत पर भरोसा करने की वजह से कांग्रेस ने अपने स्वतंत्रता के प्रस्ताव में अमेरिकावासियों को लेकर ब्रिटिश सरकार की असफलताओं का उल्लेख किया और इस आधार पर सरकार के खिलाफ बगावत को सही ठहराया.

दरअसल, 18वीं सदी में दार्शनिक जॉन लॉक ने क्रांति के अधिकार (Right to revolution) को अपनी सोशल कॉन्ट्रेक्ट थ्योरी का आंतरिक हिस्सा बताया है. टू ट्रीटीज ऑफ गवर्नमेंट (Two Treatises of Government) में इसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा है कि कैसे इंसान के सामाजिक आधार और संबंधों का विकास हुआ है. जॉन लॉक ने प्राकृतिक कानूनों के तहत हर व्यक्ति को जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति के अधिकार से संपन्न माना है. कई मामले में जॉन लॉक ने ‘क्रांति के अधिकार’ को सत्ता की जनता के प्रति जवाबदेही के तौर पर पेश किया है.

जॉन लॉक के इस ‘क्रांति के अधिकार’ को आधार बनाकर सिर्फ अमेरिका ही नहीं आजाद हुए हैं, बल्कि इसके आधार पर दूसरे देशों की जनता ने भी अपने शासक और शासन को बदला है. 1688 में इसी सिद्धांत को आधार बनाकर ब्रिटिश संसद ने जेम्म द्वितीय को हटाकर बिलियम तृतीय को शासक बनाया। हालांकि, जॉन लॉक की किताब इसके बाद आई थी. इसमें उन्होंने दावा किया था कि उनकी किताब का मकसद विलियम तृतीय को शासक बनाए जाने को सही ठहराना है. जनता के प्रति जवाबदेह सरकारों की मांग के बीच ‘क्रांति का अधिकार’ कितना अहम है, इसका अंदाजा ऐसे लगा सकते हैं कि यह सिद्धांत 1793 में बने फ्रांस के संविधान की प्रस्तावना में शामिल था.

हालांकि, कई विचारकों ने ‘क्रांति के अधिकार’ को बहुत अतिवादी विचार माना. लेकिन इस सिद्धांत का मतलब तख्तापलट या अराजकता कतई नहीं है, बल्कि यह इस मूल भावना पर आधारित है कि असल अधिकार जनता के पास ही हैं, जिसे कोई सत्ता किसी भी तरह से प्रभावित नहीं कर सकती है. एक गणतांत्रिक और जनता के प्रति जबावदेह सरकार के लिए इतनी कठोर शर्त जरूरी कही जा सकती है.

जिस भी देश की जनता अपने इस अधिकार को नहीं समझती है या इसके लिए सचेत नहीं हैं, वहां उसे अपनी ही चुनी सरकारों की तानाशाही और दमन को झेलना पड़ता है. इस मामले में विकासशील देशों की सरकारों का उदाहरण लिया जा सकता है. जहां सत्ता प्रायोजित दंगे, लूट और जनता के बीच भेदभाव राजनीतिक ताकत हासिल करने के टूल बन गए हैं. चाहे बहुसंख्यकों के हाथों अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न हो या वंचितों का अधिकार हनन या फिर संपत्ति का बढ़ता केंद्रीकरण, इन सबके पीछे जनता का अपने अधिकारों के लिए एकजुट न हो पाने की कमी ही है.

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सनद रहे

सांसदों को ये चार तरह के सवाल पूछने का हक है?

संसद में पूछे जाने वाले तारांकित, अतारांकित और अल्प सूचना प्रश्‍न सरकार की जवाबदेही तय करने का काम करते हैं.

सांसदों को सवाल पूछने का अधिकार

संसद के दोनों सदनों यानी लोक सभा और राज्य सभा के सदस्यों को चार तरह के सवाल पूछने का अधिकार मिला हुआ है. इसके जरिए सांसद अपने निवार्चत क्षेत्र और समाज से जुड़े मुद्दों पर सरकार से जवाब मांगते हैं.

तारांकित प्रश्‍न (starred Questions) : इसके जरिए सांसद अपने सदन में संबंधित विषय पर सरकार से मौखिक सवाल पूछने का अधिकार है. ऐसे सवालों की पहचान के लिए इन पर तारांक बनाया जाता है. इसी वजह से इसे तारांकित प्रश्न कहते हैं. ऐसे प्रश्‍न का उत्तर मौखिक होता है, इसलिए संसद इस पर अनुपूरक प्रश्‍न (supplementary question) पूछ सकते हैं. इसके लिए सांसदों को कम से कम 15 दिन पहले नोटिस देना होता है.

अतारांकित प्रश्‍न (Unstarred Questions) : इसके जरिए सांसद सदन में सरकार से लिखित जवाब की मांग करने वाले सवाल पूछने का अधिकार है. इसमें सांसदों को अनुपूरक प्रश्न (supplementary questions) पूछने का मौका नहीं होता है. इसके लिए भी सांसदों को 15 दिन पहले नोटिस देना होता है.

अल्प सूचना प्रश्‍न (Short Notice Questions): इसके जरिए सांसदों को सरकार से जनता से जुड़े अतिमहत्वपूर्ण विषय पर सवाल पूछने का अधिकार मिला है. यह तारांकित प्रश्‍न की तरह होता है, लेकिन इसके लिए पहले से नोटिस देना जरूरी नहीं होता है. सरकार की तरफ से इसका मौखिक जवाब दिया जाता है. इसमें सांसद अनुपूरक प्रश्‍न पूछ सकते हैं.

गैर सरकारी सदस्‍य से प्रश्‍न (Questions to Private Members): इसके जरिए उन गैर-सरकारी सदस्यों से सवाल पूछे जाते हैं, जिनका कोई विधेयक, प्रस्ताव या ऐसा ही कोई अन्य मामला सदन की कार्यवाही में शामिल होता है. इसमें भी लगभग-लगभग वही प्रक्रिया अपनाई जाती है, जो किसी मंत्री से सवाल पूछने के लिए अपनायी जाती है.

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लेख-विशेष

क्या संसद कोर्ट में विचाराधीन मुद्दों पर चर्चा कर सकती है?

विधायिकाओं ने यह ध्यान में रखते हुए अपने ऊपर रूल-ऑफ सब-जुडिस को लागू किया है कि सदन में अदालतों में विचाराधीन मामले पर चर्चा करने से उसकी सुनवाई पर असर न पड़े.

रूल ऑफ सब-जुडिस

कोर्ट में विचाराधीन मामलों पर संसद में बहस हो सकती है या नहीं, संसदीय समितियां इसकी जांच कर सकती हैं या नहीं या फिर राज्यों की विधायिकाओं में इन पर चर्चा हो सकती है या नहीं, यह सवाल बहुत बहुत पुराना है. दरअसल, रूल ऑफ सब-जुडिस (rule of sub-judice) यानी अदालत में विचाराधीन होने का नियम एक कानूनी शब्दावली है. इसका सिविल प्रोसीजर कोड (Civil Procedure Code) की धारा-10 (section-10) में जिक्र मिलता है. इसका मतलब है कि अगर किसी अदालत में पहले से किसी मामले की सुनवाई चल रही है तो उससे सीधे तौर या आंशिक रूप से जुड़े विषय पर उसी अदालत या किसी अन्य अदालत में मामला नहीं चल सकता है.

देश की संसद (Indian Parliament) ने भी रूल ऑफ सब-जुडिस को अपने कामकाज में स्वीकार किया है. यानी संसद में ऐसे किसी विषय को कोई प्रस्ताव (motion), संकल्प (resolution), याचिका (petition) या सवाल (questions) नहीं किया जा सकता है जो देश में किसी भी अदालत के सामने विचाराधीन हो. हालांकि, इसे संसद में किसी भी मुद्दे को उठाने और उस पर सरकार से जवाब मांगने के सांसदों के अधिकार पर रोक लगाने वाला माना जाता है.

अंग्रेजी अखबार हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित लेख में लोक सभा के पूर्व महासचिव पीडीटी अचारी ने लिखा है, ‘हमारे देश में विधायिकाओं (Legislatures) को लोक महत्व के किसी भी मुद्दे पर चर्चा करने का विशेषाधिकार हासिल है. विधायिकाओं को अभिव्यक्ति की यह आजादी संविधान देता है. लेकिन विधायिकाओं ने यह ध्यान में रखते हुए अपने ऊपर रूल-ऑफ सब-जुडिस को लागू किया है कि सदन में अदालतों में विचाराधीन मामले पर चर्चा करने से उसकी सुनवाई पर असर न पड़े. हालांकि, यह पाबंदी खुद में लगातार बहसों की वजह रही है. इसका कारण है कि किसी मामले के विचाराधीन होने से उस विषय पर विधायिका में चर्चा नहीं हो पाती है.

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पीडीटी अचारी आगे लिखते हैं, ‘लोक सभा के पहले अध्यक्ष (first speaker) जी वी मावलंकर (GV Mavalankar) ने इस मामले में सही नजरिया अपनाने की बात कही. उन्होंने कहा कि पीठ (chair) यह सुनिश्चित करेगी कि सदन में कोई भी बहस न्यायिक अदालत को लेकर पूर्वाग्रही नहीं होनी चाहिए. इसके अलावा पीठ इस बात का भी ध्यान रखेगी कि सदन को लोक महत्व के मुद्दों पर तत्काल चर्चा करने से न रोका जाए”.

समिति ने यह भी माना था कि अगर जरूरत हो तो रूल ऑफ सब-जुडिस को छोड़ा जा सकता है.

अचारी के लेख के मुताबिक, 1968 में महाराष्ट्र विधानपरिषद के सभापति वीएस पेज की अध्यक्षता में बनी समिति ने अभिव्यक्ति की आजादी को विधायिका का प्राथमिक अधिकार बताया था. समिति ने यह भी माना था कि अगर जरूरत हो तो रूल ऑफ सब-जुडिस को छोड़ा जा सकता है.

हालांकि, ऐसा नहीं है कि संसद ने कभी भी रूल ऑफ सब-जुडिस की खुद पर लगाई गई पाबंदी से छूट नहीं ली है. ऐसे बहुत से घोटाले हैं, जिनके अदालत में विचाराधीन होने के बावजूद संसद में उन पर चर्चा हुई है. ऐसे घोटालों की जांच के लिए संसदीय समितियां भी बनी हैं. कार्यवाही नियमावली का नियम-388 इसी काम के लिए है. वह सदन में किसी भी मुद्दे पर चर्चा में बाधा पैदा करने वाले नियमों को निलंबित करता है. पीडीटी अचारी का साफ कहना है कि उचित संदर्भ में रूल ऑफ सब-जुडिस को निलंबित किया जा सकता है, क्योंकि यह न तो पूर्ण है और न ही अपरिवर्तनीय.

दरअसल, संसद (Parliament) हो या संसदीय समितियां (parliamentary committees), वे किसी सब-जुडिस यानी विचाराधीन विषय पर अपनी जांच अलग क्षेत्र में करती हैं. अदालत किसी मामले को केवल कानूनी पक्ष पर सुनवाई करती है. लेकिन समितियां केवल कानून पक्ष को नहीं देखते हैं. इसके अलावा कोई भी अदालत संसद की बहस या संसदीय समिति की जांच के आधार पर अपने फैसले नहीं सुनाती है. यहां तक कि अदालतों की एक बेंच अपनी दूसरी बेंच के फैसलों से प्रभावित नहीं होती है.

पीडीटी अचारी इस बात को साबित करने के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (Scheduled Castes and Scheduled Tribes) के उपवर्गीकरण (subclassification) को लेकर सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले का उदाहरण देते हैं. पांच जजों की बेंच ने इस उपवर्गीकरण (subclassification) को सही ठहराया है, जबकि इसी मामले को पहले की अदालत ने संविधान के खिलाफ बताया था.

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लोक सभा अध्यक्ष का किसी संसदीय समिति को सब-जुडिस मामले की जांच न करने का निर्देश उस पर बाध्यकारी है. लेकिन इस पूरी बहस में सबसे अहम बात यह है कि सदन की कार्यवाही से जुड़ी नियमावली में एक भी प्रावधान ऐसा नहीं है जो किसी समिति को किसी मुद्दे की जांच करने से रोकता हो, वह भी महज इस आधार पर मामला अदालत में विचाराधीन है. पीडीटी अचारी रूल ऑफ सब-जुडिस को सदन की अभिव्यक्ति की आजादी पर अनावश्यक पाबंदी मानते हैं. संसदीय समिति पर संविधान (Constitution) या सदन की कार्यवाही नियमावली ऐसी कोई रोक नहीं लगाती है.

(लोक सभा के पूर्व महासचिव पीडीटी अचारी के हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित लेख पर आधारित)