कोर्ट में विचाराधीन मामलों पर संसद में बहस हो सकती है या नहीं, संसदीय समितियां इसकी जांच कर सकती हैं या नहीं या फिर राज्यों की विधायिकाओं में इन पर चर्चा हो सकती है या नहीं, यह सवाल बहुत बहुत पुराना है. दरअसल, रूल ऑफ सब-जुडिस (rule of sub-judice) यानी अदालत में विचाराधीन होने का नियम एक कानूनी शब्दावली है. इसका सिविल प्रोसीजर कोड (Civil Procedure Code) की धारा-10 (section-10) में जिक्र मिलता है. इसका मतलब है कि अगर किसी अदालत में पहले से किसी मामले की सुनवाई चल रही है तो उससे सीधे तौर या आंशिक रूप से जुड़े विषय पर उसी अदालत या किसी अन्य अदालत में मामला नहीं चल सकता है.
देश की संसद (Indian Parliament) ने भी रूल ऑफ सब-जुडिस को अपने कामकाज में स्वीकार किया है. यानी संसद में ऐसे किसी विषय को कोई प्रस्ताव (motion), संकल्प (resolution), याचिका (petition) या सवाल (questions) नहीं किया जा सकता है जो देश में किसी भी अदालत के सामने विचाराधीन हो. हालांकि, इसे संसद में किसी भी मुद्दे को उठाने और उस पर सरकार से जवाब मांगने के सांसदों के अधिकार पर रोक लगाने वाला माना जाता है.
अंग्रेजी अखबार हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित लेख में लोक सभा के पूर्व महासचिव पीडीटी अचारी ने लिखा है, ‘हमारे देश में विधायिकाओं (Legislatures) को लोक महत्व के किसी भी मुद्दे पर चर्चा करने का विशेषाधिकार हासिल है. विधायिकाओं को अभिव्यक्ति की यह आजादी संविधान देता है. लेकिन विधायिकाओं ने यह ध्यान में रखते हुए अपने ऊपर रूल-ऑफ सब-जुडिस को लागू किया है कि सदन में अदालतों में विचाराधीन मामले पर चर्चा करने से उसकी सुनवाई पर असर न पड़े. हालांकि, यह पाबंदी खुद में लगातार बहसों की वजह रही है. इसका कारण है कि किसी मामले के विचाराधीन होने से उस विषय पर विधायिका में चर्चा नहीं हो पाती है.
पीडीटी अचारी आगे लिखते हैं, ‘लोक सभा के पहले अध्यक्ष (first speaker) जी वी मावलंकर (GV Mavalankar) ने इस मामले में सही नजरिया अपनाने की बात कही. उन्होंने कहा कि पीठ (chair) यह सुनिश्चित करेगी कि सदन में कोई भी बहस न्यायिक अदालत को लेकर पूर्वाग्रही नहीं होनी चाहिए. इसके अलावा पीठ इस बात का भी ध्यान रखेगी कि सदन को लोक महत्व के मुद्दों पर तत्काल चर्चा करने से न रोका जाए”.
समिति ने यह भी माना था कि अगर जरूरत हो तो रूल ऑफ सब-जुडिस को छोड़ा जा सकता है.
अचारी के लेख के मुताबिक, 1968 में महाराष्ट्र विधानपरिषद के सभापति वीएस पेज की अध्यक्षता में बनी समिति ने अभिव्यक्ति की आजादी को विधायिका का प्राथमिक अधिकार बताया था. समिति ने यह भी माना था कि अगर जरूरत हो तो रूल ऑफ सब-जुडिस को छोड़ा जा सकता है.
हालांकि, ऐसा नहीं है कि संसद ने कभी भी रूल ऑफ सब-जुडिस की खुद पर लगाई गई पाबंदी से छूट नहीं ली है. ऐसे बहुत से घोटाले हैं, जिनके अदालत में विचाराधीन होने के बावजूद संसद में उन पर चर्चा हुई है. ऐसे घोटालों की जांच के लिए संसदीय समितियां भी बनी हैं. कार्यवाही नियमावली का नियम-388 इसी काम के लिए है. वह सदन में किसी भी मुद्दे पर चर्चा में बाधा पैदा करने वाले नियमों को निलंबित करता है. पीडीटी अचारी का साफ कहना है कि उचित संदर्भ में रूल ऑफ सब-जुडिस को निलंबित किया जा सकता है, क्योंकि यह न तो पूर्ण है और न ही अपरिवर्तनीय.
दरअसल, संसद (Parliament) हो या संसदीय समितियां (parliamentary committees), वे किसी सब-जुडिस यानी विचाराधीन विषय पर अपनी जांच अलग क्षेत्र में करती हैं. अदालत किसी मामले को केवल कानूनी पक्ष पर सुनवाई करती है. लेकिन समितियां केवल कानून पक्ष को नहीं देखते हैं. इसके अलावा कोई भी अदालत संसद की बहस या संसदीय समिति की जांच के आधार पर अपने फैसले नहीं सुनाती है. यहां तक कि अदालतों की एक बेंच अपनी दूसरी बेंच के फैसलों से प्रभावित नहीं होती है.
पीडीटी अचारी इस बात को साबित करने के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (Scheduled Castes and Scheduled Tribes) के उपवर्गीकरण (subclassification) को लेकर सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले का उदाहरण देते हैं. पांच जजों की बेंच ने इस उपवर्गीकरण (subclassification) को सही ठहराया है, जबकि इसी मामले को पहले की अदालत ने संविधान के खिलाफ बताया था.
लोक सभा अध्यक्ष का किसी संसदीय समिति को सब-जुडिस मामले की जांच न करने का निर्देश उस पर बाध्यकारी है. लेकिन इस पूरी बहस में सबसे अहम बात यह है कि सदन की कार्यवाही से जुड़ी नियमावली में एक भी प्रावधान ऐसा नहीं है जो किसी समिति को किसी मुद्दे की जांच करने से रोकता हो, वह भी महज इस आधार पर मामला अदालत में विचाराधीन है. पीडीटी अचारी रूल ऑफ सब-जुडिस को सदन की अभिव्यक्ति की आजादी पर अनावश्यक पाबंदी मानते हैं. संसदीय समिति पर संविधान (Constitution) या सदन की कार्यवाही नियमावली ऐसी कोई रोक नहीं लगाती है.
(लोक सभा के पूर्व महासचिव पीडीटी अचारी के हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित लेख पर आधारित)