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लेख-विशेष

क्यों जनता की समस्याएं दूर करने के लिए सांसदों के हाथ खाली हैं?

केंद्र सरकार के एक फैसले ने सांसदों के सामने स्थानीय स्तर पर विकास कार्यों में दूसरे जनप्रतिनिधियों के मुकाबले पीछे छूटने और चुनावों में इसका नुकसान होने का खतरा खड़ा कर दिया है.

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संसद के बजट सत्र के पहले हिस्से की कार्यवाही पूरी हो चुकी है. इसमें एक बात सबसे ज्यादा अहम रही कि सांसदों ने स्थानीय क्षेत्र विकास योजना (एमपीलैड्स) के पैसे को दो साल के लिए रोकने का मुद्दा प्रमुखता से उठाया. आम बोलचाल की भाषा में इसे सांसद निधि कहा जाता है. लोक सभा और राज्य सभा के दर्जनों सांसदों ने न केवल इस पर सरकार से लिखित जवाब मांगा, बल्कि विभिन्न चर्चाओं में इसका उल्लेख भी किया.

खाली हाथ कैसे होगी जनता की मदद

राज्य सभा में बजट पर चर्चा के दौरान केरल से सांसद एम.वी श्रेयंस कुमार ने सांसद निधि (एमपीलैड्स) दो साल तक रोकने पर चिंता जताई. उन्होंने कहा, ‘मैं वित्त मंत्री से एमपीलैड्स (MPLADS) को दोबारा शुरू करने का अनुरोध करता हूं. केरल, जहां से मैं आता हूं, महाराष्ट्र और तमिलनाडु के विधायकों के पास उनके स्थानीय क्षेत्र विकास निधि है. केरल में यह पांच करोड़ रुपये मिलते हैं. सांसद बिना पैसों के स्थानीय समुदाय और स्थानीय संस्थाओं की कोई मदद नहीं कर सकते हैं.’

सांसद निधि को दोबारा शुरू करने की मांग

सांसद एमवी श्रेयंस कुमार की तरह दूसरे सांसदों को भी जनता के सामने परेशानी का सामना करना पड़ रहा है. यही वजह है कि लोक सभा में सांसदों ने इस बारे में सरकार से जमकर सवाल पूछा है.

बजट सत्र के दौरान लोक सभा सांसद मन्ने श्रीनिवास रेड्डी ने पूछा कि क्या सरकार का एमपीलैड्स योजना को दोबारा शुरू करने का विचार है, अगर हां तो उसका ब्यौरा क्या है, अगर नहीं  है तो उसकी वजह क्या है? उन्होंने यह भी पूछा कि योजना को दोबारा शुरू करने के लिए आज की तारीख (10 फरवरी 2021) तक कुल कितनी मांगें सरकार को मिली हैं और इस बारे में सरकार ने क्या कार्रवाई की है? लगभग ऐसे ही सवाल लोक सभा सांसद माला राय ने भी पूछे.

केंद्रीय सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) राव इंद्रजीत सिंह ने इन सवालों का जवाब दिया. उन्होंने साफ-साफ कहा कि वित्त वर्ष 2020-21 और 2021-22 में एमपीलैड्स (सांसद निधि) को दोबारा शुरू करने की कोई योजना नहीं है. केंद्रीय मंत्री ने बताया कि सांसद निधि को कोरोना महामारी से निपटने के लिए वित्त मंत्रालय को दिया गया है और जितने भी सांसदों ने इस बारे में सवाल किया है, उन्हें भी यही जवाब दिया गया है.

क्या दो साल से पहले शुरू हो सकती है सांसद निधि

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बजट सत्र के दौरान राज्य सभा में सांसद बी लिंग्याह यादव, डॉ. सस्मित पात्रा और ए विजय कुमार ने पूछा कि क्या एमपीलैड्स को दो साल के पहले भी शुरू किया जा सकता है? इसके जवाब में भी सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन राज्य मंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने कहा कि ऐसा नहीं है. (यानी एमपीलैड्स को दो साल पूरा होने के बाद ही दोबारा शुरू किया जाएगा.)

सांसद निधि रोकने से पहले सांसदों से पूछा गया या नहीं?

क्या सरकार ने सांसद निधि को रोकने से पहले इसके बारे में सांसदों से कोई चर्चा की थी? यह सवाल बीते साल संसद के मानसून सत्र में लोक सभा सांसद तालारी रंगैय्या ने उठाया था. उन्होंने यह भी पूछा था कि सांसद निधि को दो साल तक रोकने के क्या कारण है, क्या सरकार को इस बारे में सांसदों की चिंता की जानकारी है, अगर हां तो उसे दूर करने के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं?

इस पर केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने बताया था कि सांसद निधि को बंद करने से पहले सांसदों से कोई चर्चा नहीं की गई थी. उन्होंने यह भी कहा था कि यह कदम कोरोना संकट से निपटने के लिए जरूरी संसाधनों जुटाने के लिए उठाया गया है. सांसदों की चिंता दूर करने के सवाल पर उनका कहना था कि सभी सांसदों को पहले से बची हुई सांसद निधि का इस्तेमाल करने के लिए प्राथमिकताओं को नए सिरे से तय करने के लिए कहा गया है. इसके लिए आठ अप्रैल 2020 को सर्कुलर जारी किया गया था.

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पहले से जमा सांसद निधि से चलाएं काम

केंद्रीय मंत्री ने यही जवाब बजट सत्र में लोक सभा सांसद जनार्दन सिंह सीग्रीवाल के सवालों के जवाब में दिया. उन्होंने बताया कि सांसदों से विकास प्राथमिकताओं को नए सिरे से तय करते हुए नोडल जिलों के पास पहले मौजूद सांसद निधि का उपयोग करने का अनुरोध किया गया है. इसके लिए नोडल जिलों के प्राधिकारियों को केवल वही कार्यों को कराने का निर्देश दिया गया है, जिन्हें पहले से उपलब्ध सांसद निधि में पूरा किया जा सके. केंद्रीय मंत्री ने यह भी बताया कि कई सांसदों ने सरकार से 31 मार्च 2020 तक की सांसद निधि की लंबित किस्तों का भुगतान करने का अनुरोध किया है.

सांसद निधि की लंबित किस्तों पर भी रोक

हालांकि, सरकार ने सांसद निधि की लंबित किस्तों का भी भुगतान रोक दिया है. बजट सत्र में लोक सभा सांसद समुधानंद सरस्वती ने विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों के लिए 16वीं लोक सभा (अभी 17वीं लोक सभा) के लिए लंबित सांसद निधि की किस्तों के भुगतान का सवाल उठाया. इस पर केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने जवाब दिया कि जरूरी दस्तावेजों और पात्रता मानकों को पूरा न करने वजह से कुछ निर्वाचन क्षेत्रों को 16वीं लोक सभा के लिए सांसद निधि की किस्तें नहीं दी गई हैं. उन्होंने यह भी बताया कि अब 31 मार्च 2020 तक लंबित सांसद निधि की पुरानी किस्तों की कोई भी धनराशि नहीं जारी की जाएगी.

एक ही सवाल पर अलग-अलग जवाब

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बजट सत्र में लोक सभा सांसद सप्तगिरी शंकर उलाका ने एक सवाल पूछा कि क्या सरकार पूर्व सांसदों की इस्तेमाल न हो सकी सांसद निधि  को वर्तमान सांसदों में आवंटित करने पर विचार कर रही है? इसके जवाब में केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने कहा कि ऐसा कुछ नहीं है. हालांकि, अन्य संसद सदस्यों के इसी सवाल पर उन्होंने बिल्कुल उलट जवाब दिया है.

लोक सभा में सांसद सुधाकर तुकाराम श्रंगरे, सुनील कुमार सिंह, बालक नाथ और प्रतिमा भौमिक ने नोडल जिलों में सांसद निधि के तहत जमा राशि, जिला स्तर पर उपलब्ध राशि और केंद्र सरकार के आंकड़ों में अंतर, पूर्व सांसदों की बची हुई सांसद निधि नए सांसदों को सौंपने की योजना और इस काम में देरी जैसे सवाल पूछे थे.

इसके जवाब में केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने बताया कि नवंबर-दिसंबर 2020 में मंत्रालय को 481 निर्वाचन क्षेत्रों और राज्य सभा 169 नोडल जिलों से मिली जानकारी के मुताबिक पूर्व और पदस्थ सांसदों के लिए नोडल जिलों में कुल 1619.42 करोड़ रुपये की सांसद निधि उपलब्ध है. उन्होंने यह भी माना कि नोडल जिलों और सरकार के आंकड़ों में अंतर है.

साथ में उन्होंने यह भी बताया कि पुराने सांसदों की इस्तेमाल न हो सकी सांसद निधि को नए सांसदों को खातों में ट्रांसफर करने की योजना है. इसके लिए सरकार ने नोडल जिला प्राधिकारियों से कहा है कि जिन सांसदों के पद छोड़ने की तारीख के बाद 12 महीने की समय सीमा में सांसद निधि के खाते बंद नहीं हुए हैं, उन्हें बंद किया जाए और उसमें जमा राशि नए सदस्यों के खातों में ट्रांसफर कर दी जाए, ताकि उसका उपयोग हो सके.

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तीन साल में कितनी मिली सांसद निधि 

लोक सभा सांसद निहाल चंद्र चौहान ने बीते साल मानसून सत्र में तीन साल में आवंटित और खर्च की गई सांसद निधि का ब्यौरा मांगा था. इस पर सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने बताया था कि 2017-18 में 3,504 करोड़, 2018-19 में 3,950 करोड़ और 2019-20 में 3,640 करोड़ रुपये की सांसद निधि आवंटित की गई. वहीं, खर्च हुआ पैसा 2017-18 में 4,080 करोड़, 2018-19 में 5,012 करोड़ और 2019-20 में 2,491 करोड़ रुपये रहा.

प्रत्येक वर्ष आवंटन से ज्यादा सांसद निधि खर्च होने की वजह पिछले वर्षों में आवंटित सांसद निधि को खर्च करने की छूट है, क्योंकि यह राशि वित्तवर्ष पूरी होने के साथ खत्म नहीं होती है. केंद्रीय मंत्री ने सभी जिलों में सांसद निधि की एक समान राशि खर्च न होने की भी जानकारी दी थी.

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सांसद निधि रोकने से कहां पड़ा असर

संसद के मानसून सत्र के दौरान लोक सभा सांसद अदूर प्रकाश, हिबी ईडन और डी के सुरेश ने एमपीलैड्स (सांसद निधि) बंद होने से पड़ने वाले असर का सवाल उठाया था. उन्होंने सरकार से पूछा था –

(1) क्या सरकार को इस बात की जानकारी है कि एमपीलैड्स (सांसद निधि) रुकने से देश के ग्रामीण क्षेत्रों की विकासात्मक गतिविधियों पर गंभीर असर पड़ा है?

(2) क्या सरकार को दो साल के लिए एमपीलैड फंड को रोकने के बारे में सांसदों से रिप्रजेंटेशन मिला है, अगर हां तो उसका ब्यौरा क्या है?

(3) ग्रामीण आबादी के साथ न्याय सुनिश्चित करने के लिए सरकार के क्या कदम उठाए हैं?

(4) क्या सरकार की विकेंद्रीकृत विकास सुनिश्चित करने के लिए एमपीलैड फंड स्कीम को दोबारा बहाल करने की कोई योजना है?

(5) अगर हां तो उसका ब्यौरा क्या है?

सांसदों को नहीं मिला स्पष्ट जवाब

सांसदों के इन सवालों का केंद्रीय राज्य मंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने कोई सीधा जवाब नहीं दिया. बस इतना कहा कि एमपीलैड्स को बंद नहीं किया गया है, बल्कि सिर्फ दो साल (वित्त वर्ष 2020-21 और वित्त वर्ष 2021-22) के लिए रोका गया है. उन्होंने इस सवाल का भी जवाब नहीं दिया कि एमपीलैड्स खत्म होने से ग्रामीण क्षेत्रों के विकास और विकेंद्रीकृत विकास पर पड़ने वाले असर के बारे में क्या सरकार को जानकारी है या नहीं.

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हालांकि, मानसून सत्र में सांसद चंद्र शेखर साहू और डॉ. प्रीतम गोपीनाथ मुंडे को दिए गए जवाब में उन्होंने इस बात को स्वीकार किया था.  उन्होंने कहा था, ‘सरकार को माननीय सदस्यों से निवेदन प्राप्त हो रहे हैं कि सरकार के निर्णय के बाद विकास कार्यों के प्रभावित होने की संभावना है.’ साथ में केंद्रीय मंत्री ने यह भी बताया था कि सांसद निधि रोके जाने से रोजगार पर पड़ने वाले असर का आकलन करने के लिए सरकार ने कोई अध्ययन नहीं कराया गया है.

मानसून सत्र में ही लोक सभा सांसद तालारी रंगैय्या ने भी एमपीलैड्स को रोकने से विकासात्मक परियोजनाओं पर पड़ने वाले असर और इसके लिए वैकल्पिक उपायों की जानकारी मांगी थी. लेकिन इसके जवाब में भी केंद्रीय मंत्री ने कोई स्पष्ट जवाब नहीं दिया था.

सांसद निधि का मकसद क्या है

सवाल उठता है कि आखिर एमपीलैड्स या सांसद निधि को किस मकसद से लाया गया था? सरकार ने इस बारे में सांसद कुंवर पुष्पेंद्र सिंह चंदेल और माला राज्य लक्ष्मी शाह को दिए गए जवाब में बताया है. इसके मुताबिक, सांसद निधि का मकसद संसद सदस्यों को विकासात्मक प्रकृति के कार्यों के बारे में सिफारिश करने में सक्षम बनाना है, ताकि वे अपने निर्वाचन या पात्र क्षेत्रों में स्थानीय जरूरतों के अनुसार पेयजल, प्राथमिक शिक्षा, जन स्वास्थ्य, स्वच्छता और सड़क जैसे टिकाऊ विकास कार्यों को करा सकें.

सांसद निधि को भौगोलिक या क्षेत्रीय आधार पर नहीं, बल्कि निर्वाचन क्षेत्रों के आधार पर जारी किया जाता है. इसमें सांसद की भूमिका सिर्फ विकास कार्यों के बारे में सिफारिश करने तक सीमित होती है.

सांसदों के मुकाबले दूसरे प्रतिनिधि ज्यादा मजबूत

आम तौर पर साल भर में संसद सत्र कुछ महीने  चलता है. इसके बाद बचा समय सांसद अपने निर्वाचन क्षेत्रों में जनता के बीच गुजारते हैं. इस दौरान उनका सामना स्थानीय स्तर पर लोगों की समस्याओं और जरूरतों से होता है. सालाना पांच करोड़ रुपये सांसद निधि उपलब्ध होने पर वे स्थानीय जरूरत के हिसाब से विकास कार्यों के लिए सिफारिश कर पाते हैं. लेकिन इस पर रोक ने उनसे यह सुविधा छीन ली है.

इसके मुकाबले विधायकों, यहां तक कि पंचायत प्रतिनिधियों तक के पास जनता की जरूरतें पूरी करने के लिए जरूरी फंड उपलब्ध है. इसका खतरा यह भी है कि सांसदों की असमर्थता को देखते हुए दो साल में जनता अपनी जरूरतों के लिए उनके पास आना ही बंद कर दे. अगर ऐसा हुआ तो सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के सांसदों को राजनीतिक नुकसान होने से इनकार नहीं किया जा सकता है.

महामारी ने बढ़ाया सत्ता का केंद्रीकरण

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सत्ता के विकेंद्रीकरण को लोकतंत्र और इसकी सफलता माना जाता है. इसके बगैर लोकतंत्र और राजशाही का बुनियादी फर्क मिटने लगता है. हालांकि, महामारी का शासन व्यवस्था पर इसका ठीक उलटा असर होता है. इससे सत्ता का केंद्रीकरण बढ़ता है. इसे इस बार भी देश और दुनिया ने महसूस किया है. इस मामले में भारत के हालात भी शेष दुनिया से अलग नहीं हैं.

केंद्र सरकार लगातार एकतरफा फैसले कर रही है. इसमें राज्यों से बात किए बगैर लॉकडाउन घोषित करने से लेकर सांसदों से पूछे बगैर सांसद निधि को रोकना और किसानों से बात किए बगैर तीन कृषि अध्यादेशों(अब कानून हैं)  जैसे कदम शामिल हैं. इन्हें बढ़ते केंद्रीकरण का सबूत माना जा रहा है. इसका सबसे बुरा असर उस ढांचे पर पड़ने की आशंका है, जिसे विकेंद्रीकरण या जनभागीदारी वाले लोकतंत्र को साकार करने के लिए बनाया गया है. एमपीलैड्स या सांसद निधि भी इसी व्यवस्था का हिस्सा है.

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सादर,

संपादक

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लेख-विशेष

सुप्रीम कोर्ट को क्यों कहना पड़ा कि बिहार में कानून का नहीं, बल्कि पुलिस का राज चल रहा है?

सुनवाई के दौरान न्यायाधीश एमआर शाह ने कहा, ‘देखिए, आपके डीआईजी कह रहे हैं कि समय पर एफआईआर (प्राथमिकी) दर्ज नहीं की गई. सड़क दुर्घटना में घायल व्यक्ति का बयान दर्ज नहीं किया गया. गाड़ी और ड्राइवर को गैर-कानूनी तरीके से हिरासत में रखा गया था.’

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Photo credit- CM Bihar Twitter

सुप्रीम कोर्ट ने बीते शुक्रवार को बिहार की कानून और व्यवस्था पर सख्त टिप्पणी की. बिहार सरकार की एक विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) पर सुनवाई के दौरान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायाधीश एमआर शाह की बेंच ने कहा, ‘ऐसा लग रहा है कि बिहार में कानून का नहीं, बल्कि पुलिस का राज चल रहा है.’

शीर्ष अदालत ने राज्य सरकार की इस दलील को भी खारिज कर दिया कि आरोपित को रिहा कर दिया गया था, लेकिन वह अपनी इच्छा से पुलिस स्टेशन में रूका हुआ था. पीठ ने कहा, ‘पुलिस स्टेशन में आरोपित अपनी आजादी का लुत्फ उठा रहा था? आप अपनी इस बात पर भरोसा करने की अदालत से उम्मीद करते हैं?’

बिहार सरकार ने यह याचिका अवैध हिरासत को लेकर पटना हाई कोर्ट के 22 दिसंबर, 2020 को आए एक फैसले के खिलाफ लगाई थी. इसमें हाईकोर्ट ने मिल्क टैंकर ड्राइवर जितेंद्र कुमार को 35 दिनों तक की अवैध पुलिस हिरासत के लिए मुआवजे के तौर पर पांच लाख रुपया देने का आदेश दिया था. बिहार सरकार इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गई थी.

अपनी याचिका में बिहार सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि उसने एक जिम्मेदार सरकार के रूप में काम किया है और दोषी पुलिसकर्मी (एसएचओ) को निलंबित कर दिया है. इसके अलावा दोषी पुलिसकर्मी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जा रही है. हालांकि, राज्य सरकार की इन दलीलों से सुप्रीम कोर्ट संतुष्ट नहीं हुआ और उसने टैंकर ड्राइवर जितेंद्र कुमार को पांच लाख रुपया मुआवजा देने के पटना हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा.

इतना ही नहीं, इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में कानून के राज को लेकर सख्त टिप्पणी भी की. इस सुनवाई के दौरान न्यायाधीश एमआर शाह ने बिहार पुलिस के डीआईजी की बातों (हाई कोर्ट के फैसले में दर्ज) का उल्लेख किया. उन्होंने कहा, ‘देखिए, आपके डीआईजी कह रहे हैं कि समय पर एफआईआर (प्राथमिकी) दर्ज नहीं की गई. सड़क दुर्घटना में घायल व्यक्ति का बयान दर्ज नहीं किया गया. वाहन की जांच नहीं की गई थी और गाड़ी व ड्राइवर को गैर-कानूनी तरीके से हिरासत में रखा गया था.’

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इससे पहले पटना हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश संजय करोल और न्यायाधीश एस कुमार की पीठ ने अपने फैसले में कहा था, ‘पुलिस (सारण जिला स्थित परसा थाना) ने साफ तौर पर स्थापित कानूनी प्रक्रिया का उल्लंघन किया है. बिना प्राथमिकी दर्ज किए या गिरफ्तारी संबंधी तय कानूनी प्रक्रिया का पालन किए बगैर ही वाहन और चालक को 35 दिनों (29 अप्रैल से तीन जून, 2020) तक हिरासत में रखा गया.’

पटना हाई कोर्ट ने पुलिस की इस हरकत को संविधान के अनुच्छेद-21 और 22 के तहत मिले मौलिक अधिकारों का उल्लंघन बताया. हाई कोर्ट में यह याचिका वाहन मालिक ने दायर की थी. इसमें बिहार पुलिस पर आरोपित को गैर-कानूनी रूप से हिरासत में रखने का आरोप लगाया गया था.

इसके अलावा, सीआरपीसी (दंड प्रक्रिया संहिता) की धारा 56-ए के तहत आरोपित ड्राइवर की गिरफ्तारी की सूचना न तो उसके परिजनों या करीबी व्यक्ति को दी गई थी और न ही आरोपित को उसकी गिरफ्तारी का आधार बताया गया. ऐसा करना सीआरपीसी की धारा 50 के तहत अनिवार्य है.

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इस तरह की हिरासत का यह अकेला मामला नहीं है

जून, 2021 के आखिरी हफ्ते में बेगूसराय के बलिया में भी पुलिस पर गंभीर आरोप लगे थे. दैनिक भास्कर की रिपोर्ट के मुताबिक 24 जून, 2021 को बेगूसराय में झारखंड स्थित धनबाद की रहने वाली 22 वर्षीय नजमुन निशा का निकाह बलिया निवासी 25 वर्षीय मोहम्मद सोनू अहमद से हुआ था. एक दिन बाद पुलिस आई और दुल्हन को नाबालिग बताकर थाने ले गई और उसके गैर-कानूनी तरीके से तीन दिनों तक हिरासत में रखा. इसके बाद पीड़ित पक्ष ने जब इसका विरोध किया तो पुलिस ने निचली अदालत में लड़की को पेश किया. कोर्ट ने सारे दस्तावेजों की जांच करने के बाद लड़की को पुलिस हिरासत से रिहा करने का आदेश दे दिया.

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मोहम्मद सोनू अहमद ने बताया कि 25 जून  को उसकी गैर-मौजूदगी में पुलिस घर से नजमुन को थाने ले गई थी. इस कार्रवाई का पुलिस ने कोई कारण भी नहीं बताया. सोनू ने एक एएसआई पर नजमुन को रिहा करने के बदले एक लाख रूपये मांगने का भी आरोप लगाया था. वहीं, पीड़ित पक्ष के वकील ने बताया कि लड़क के भाई ने 26 जून को ही इस बारे में आवेदन दिया था. लेकिन पुलिस ने इस आवेदन की तारीख 28 जून बताकर प्राथमिकी दर्ज की और 29 जून को लड़की की बरामदगी दिखाई.

क्या बिहार पुलिस संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन कर पुलिस राज स्थापित कर रही है?

सीआरपीसी के साथ भारतीय संविधान में भी किसी व्यक्ति को अवैध हिरासत में रखने के खिलाफ समुचित प्रावधान किए किए गए हैं. जैसा कि ड्राइवर को अवैध हिरासत में रखने की कार्रवाई को पटना हाई कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 और 22 के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करार दिया है.

संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत, भारत के नागरिक के साथ-साथ विदेशी व्यक्ति को भी प्राण और दैहिक (शारीरिक) स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है. इस अनुच्छेद के तहत बिना विधि के प्राधिकार के किसी भी व्यक्ति को हिरासत में नहीं रखा जा सकता है. हालांकि, आपातकाल (1975-77) के दौरान अनुच्छेद-21 को निलंबित कर दिया गया. इसके बाद आई जनता पार्टी की सरकार ने संविधान के 44वें संशोधन से यह प्रावधान किया कि अनुच्छेद-21 को आपातकाल के दौरान भी निलंबित नहीं किया जा सकता है. यानी इस संविधान संशोधन से व्यक्तिगत स्वतंत्रता को और ज्यादा संवैधानिक मजबूती हासिल हो गई. लेकिन बिहार के पुलिस राज में यह संवैधानिक प्रावधान लाचार दिख रहा है.

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वहीं, संविधान के अनुच्छेद-22 में कहा गया है कि आरोपित को उसकी गिरफ्तारी की वजह जल्द से जल्द बताई जाएगा. साथ ही गिरफ्तारी के स्थान से मजिस्ट्रेट के न्यायालय तक यात्रा में लगने वाले समय को छोड़कर गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को गिरफ्तारी के समय से अगले 24 घंटे में मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाएगा.

संविधान के अनुच्छेद-32 के तहत, सुप्रीम कोर्ट और अनुच्छेद-226 के तहत हाई कोर्ट में रिट- बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कार्पस) की याचिका दायर करने का अधिकार दिया गया है. इसके तहत अदालत पुलिस को आदेश देती है कि वह संबंधित को 24 घंटे के भीतर अदालत के सामने पेश करे और गिरफ्तारी के लिए वैध कारण बताए.

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लेख-विशेष

बशीर अहमद की रिहाई और संसद में सरकार के जवाब बताते हैं कि क्यों यूएपीए को दमन का हथियार कहना गलत नहीं है?

संसद में सरकार के जवाब के मुताबिक, 2015 में 1128 लोग गिरफ्तार हुए, जबकि दोषी पाए गए व्यक्तियों की संख्या दो प्रतिशत यानी 23 रही. 2016 में 999 लोग गिरफ्तार हुए और दोषी पाए गए व्यक्तियों की संख्या 2.4 प्रतिशत यानी 24 रही. #uapa

यूएपीए, केंद्र सरकार, संसद, संसदनामा, जेल
Photo credit- Pixabay

गुजरात हाई कोर्ट ने 11 साल बाद श्रीनगर निवासी बशीर अहमद को गैर-कानूनी गतिविधि निवारण अधिनियम (यूपीपीए) (Unlawful Activities Prevention Act (UAPA) के तहत दर्ज मामले में बरी कर दिया. इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, हाई कोर्ट ने कहा कि 13 मार्च, 2010 को गिरफ्तार किए गए बशीर अहमद के खिलाफ आतंकियों से संपर्क होने सबूत नहीं है. बशीर अहमद को गुजरात एटीएस ने गिरफ्तार किया था.

कुछ दिन पहले, दिल्ली हाई कोर्ट ने दिल्ली दंगा मामले में यूएपीए के तहत जेल में बंद जेएनयू और जामिया के छात्रों – नताशा नरवाल, देवांगना कालिता और आसिफ़ इक़बाल तन्हा को जमानत देते हुए इस कानून के इस्तेमाल को लेकर सख्त टिप्पणी की थी. दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा था कि जनता को शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शन करने का संवैधानिक अधिकार है और ऐसे मामले में यूएपीए के तहत कार्रवाई उचित नहीं है.

यूएपीए को आतंकवाद रोकने के लिए सख्त कानून के रूप में लाया गया था, लेकिन आज इसका इस्तेमाल जिस तरह से हो रहा है, वह नागरिक अधिकारों को संकट में डालने वाला है. संसद में सवालों के जवाब में सरकार की ओर से बताए गए आंकड़े इस कानून के बेजा इस्तेमाल की तरफ इशारा कर रहे हैं।

संसद के बजट सत्र में लोक सभा में कांग्रेस सांसद एंटो एंटोनी (Anto Antony) ने 9 मार्च, 2021 को केंद्रीय गृह मंत्रालय से सवाल (UNSTARRED QUESTION NO. 2486) पूछा था कि क्या सरकार के पास यूएपीए के तहत दर्ज मामलों और गिरफ्तार किए गए लोगों की संख्या से जुड़ा कोई आंकड़ा है, अगर है तो बीते पांच साल में दर्ज मामलों का ब्यौरा क्या है? उन्होंने यह भी पूछा था कि क्या सरकार के पास यूपीपीए के तहत दर्ज मामलों को तेजी से निपटाने के लिए सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश में फास्ट ट्रैक कोर्ट (fast track courts) बनाने की कोई योजना है?अगर हां तो कब तक यह काम होने की उम्मीद है.

सांसद एंटो एंटोनी (Anto Antony) के इन सवालों का जवाब गृह राज्यमंत्री जी किशन रेड्डी (Minister Of State in the Ministry of Home Affairs G. Kishan Reddy) ने दिया. उन्होंने बताया कि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (National Crime Records Bureau) (NCRB) ने क्राइम इन इंडिया (Crime in India) रिपोर्ट में आखिरी बार 2019 में इससे जुड़े आंकड़े प्रकाशित किए थे.

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केंद्रीय गृह राज्यमंत्री के जवाब के मुताबिक, यूएपीए के प्रावधानों के तहत 2015 में 897 मामले दर्ज किए गए, जबकि 1128 लोगों को गिरफ्तार किया गया.

इसी तरह 2016 में 922 मामले दर्ज हुए और 901 लोगों को गिरफ्तार किया गया. हालांकि, 2017 के बाद से यूएपीए के तहत दर्ज होने वाले मामलों और गिरफ्तारियों में तेजी आ गई.

यूएपीए के तहत 2017 में 901 मामले दर्ज हुए, जबकि गिरफ्तार होने वालों की संख्या 1,554 तक पहुंच गई. 2018 में 1,182 मामले दर्ज हुए और 1,421 लोग गिरफ्तार किए गए. साल 2019 में तो सारे रिकॉर्ड टूट गए. इस साल यूएपीए के तहत सबसे ज्यादा 1,226 मामले दर्ज हुए और 1,948 लोगों को गिरफ्तार किया गया. (देखें-टेबल-1)

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राज्यवार आंकड़ों को देखें तो उत्तर प्रदेश में 2017 के बाद (सरकार बदलने के बाद) यूएपीए के तहत दर्ज होेने वाले मामलों में उछाल आ गया. यूपी में 2015 और 2016 में दर्ज मामलों की संख्या क्रमश: 6 और 10 और गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों की संख्या क्रमश: 23 और 15 रही.

वहीं, 2017 में 109 मामले दर्ज हुए और 382 लोगों को गिरफ्तार किया गया. 2018 में 107 मामले दर्ज हुए और 479 लोगों को गिरफ्तारी हुई. इसी तरह 2019 में दर्ज मामलों की संख्या 81 और गिरफ्तार किए गए लोगों की संख्या 498 रही. (देखें- टेबल-2)

मणिपुर, जम्मू-कश्मीर और झारखंड ऐसे राज्य हैं, जहां यूएपीए के तहत दर्ज मामले और गिरफ्तार किए गए लोगों की संख्या 2015 से 2019 तक लगातार ज्यादा रही है. राज्यों में मणिपुर और केंद्र शासित प्रदेशों में दिल्ली में सबसे ज्यादा मामले दर्ज किए गए. (देखें- टेबल-2)

केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने अपने जवाब में यह भी बताया था कि यूएपीए (UAPA) के तहत दर्ज मामलों की राज्य की पुलिस और एनआईए (National Investigation Agency) (NIA)) जांच करती है. आतंकवाद से जुड़े मामलों के त्वरित निपटारे (speedy trial) के लिए एनआईए की अब तक 48 विशेष अदालतें गठित हो चुकी हैं.

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राज्य सभा में भी सांसद (RAJYA SABHA) अब्दुल वहाब ने लगभग यही सवाल 10 मार्च, 2021 को पूछा था. इसके अलावा सरकार से उन्होंने यह भी पूछा कि क्या यह सच है कि यूएपीए का अल्पसंख्यकों और वंचित वर्गों के खिलाफ ज्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है? इसके जवाब में एनसीआरबी के आंकड़ों को सामने रखते हुए जी किशन रेड्डी ने कहा कि यह बात सही नहीं है.

राज्य सभा (RAJYA SABHA) में 10 मार्च, 2021 को सांसद राजमणि पटेल (RAJMANI PATEL), नीरज डांगी (NEERAJ DANGI), अमी याजनिक (AMEE YAJNIK), फूलो देवी नेताम (PHULO DEVI NETAM) और सांसद कुमार केतकर (KUMAR KETKAR) ने यूएपीए के तहत पत्रकारों की गिरफ्तारी (ARREST OF JOURNALISTS) का सवाल (UNSTARRED QUESTION NO. 1800) उठाया था.

इसके जवाब में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने कहा था कि पुलिस और लोक-व्यवस्था राज्य सूची का विषय है और एनसीआरबी पत्रकारों की गिरफ्तारी के बारे में कोई आंकड़े नहीं जुटाती है. हालांकि, इस सिलसिले में यूएपीए के तहत यूपी के हाथरस से बीते साल केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन की गिरफ्तारी को देखा जा सकता है, जिन्हें अब तक जमानत नहीं मिल पाई है.

इससे पहले, 10 फरवरी, 2021 को, राज्य सभा (RAJYA SABHA) सांसद सैयद नासिर हुसैन (SYED NASIR HUSSAIN) के सवालों (UNSTARRED QUESTION NO. 1013) के जवाब में केंद्र सरकार ने बताया कि देश में यूएपीए की धाराओं के तहत 2016 से लेकर 2019 तक 5,922 लोगों को गिरफ्तार किया गया और इनमें से दोषी पाए गए व्यक्तियों की संख्या 132 रही. अब इन आंकड़ों का प्रतिशत निकालें तो गिरफ्तार व्यक्तियों के मुकाबले दोषी पाए गए मामलों की दर सिर्फ 2.23 प्रतिशत रही. क्या यह यूएपीए का दुरुपयोग नहीं है?

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केंद्र सरकार ने राज्य सभा में सांसद तिरुचि शिवा (TIRUCHI SIVA) के सवाल (UNSTARRED QUESTION NO. 3236) के जवाब में वर्षवार यूएपीए के तहत दर्ज मामले और दोषी पाए गए लोगों की जानकारी दी थी. अन्य जानकारियों के साथ उन्होंने पूछा था कि क्या सरकार निर्दोष लोगों की गिरफ्तारी रोकने के लिए कोई उपाय किया है? इसके जवाब में भी गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने एनसीआरबी के आंकड़े बताए.

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संसद में पेश आंकड़ों के मुताबिक, 2015 में 1128 लोग गिरफ्तार हुए और दोषी पाए गए व्यक्तियों की संख्या दो प्रतिशत यानी 23 रही. वहीं, 2016 में 999 लोग गिरफ्तार हुए, जबकि दोषी पाए गए व्यक्तियों की संख्या 2.4 प्रतिशत यानी 24 रही. इसी तरह 2017, 2018 और 2019 में गिरफ्तारी के मामले बेतहाशा बढ़े, लेकिन दोष सिद्ध व्यक्तियों की संख्या क्रमश: 39 (2.5 फीसदी), 35 (2.46 फीसदी) और 34 (1.74 फीसदी) रही. (देखें: टेबल-3)

यूएपीए का दुरुपयोग रोकने के सवाल पर गृह राज्यमंत्री जी. किशन रेड्डी ने दावा किया कि यूएपीए के तहत निर्दोष व्यक्तियों को गिरफ्तार होने से बचाने के लिए पर्याप्त संवैधानिक (Constitutional), संस्थानिक (institutional) और वैधानिक सुरक्षा उपाय (statutory safeguards) मौजूद हैं. इनमें खुद यूएपीए के अपने प्रावधान शामिल हैं. लेकिन इस सवाल का जवाब कौन देगा कि गिरफ्तार होने वाली व्यक्तियों और दोषी पाए गए लोगों की संख्या में इतना अंतर क्यों है? क्यों सामान्य मामलों में इस कानून का इस्तेमाल हो रहा है? क्यों मौजूदा पार्टी के सत्ता में आने के साथ इस कानून का इस्तेमाल अप्रत्याशित रूप से बढ़ गया है?

एक सवाल यह भी, मंत्री के बयान के मुताबिक देश में अगर यूएपीए के तहत दर्ज मामलों के त्वरित निपटारे की व्यवस्था कायम है तो बशीर अहमद बाबा को यूएपीए के तहत आरोपों से बरी होने में अपने जीवन के 11 साल क्यों गंवाने पड़े? क्या इसे देश में संविधान, नागरिक आजादी, लोकतंत्र और न्याय के असल मायने में प्रभावी होने का संकेत कहा जा सकता है?

लेख-विशेष

जो मतदाता देख नहीं सकते, उन्हें कैसे अपने वोट को वेरिफाई करने की सुविधा दी जा सकती है?

भारत में ईवीएम से मतदान करने वाले मतदाताओं को अपना वोट वेरिफाई करने की सुविधा वीवीपीएटी से मिलती है, लेकिन जो मतदाता देख नहीं सकते हैं, उन्हें यह पता नहीं चल पाता है कि उनका वोट सही जगह पर पड़ा है या नहीं. लेकिन आईटीटीएससी डिवाइस इस समस्या का समाधान कर सकती है.

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Photo credit- Pixabay

दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 की धारा-11 के अनुसार, भारत निर्वाचन आयोग और राज्य निर्वाचन आयोग यह सुनिश्चित करेंगे कि सभी मतदान केंद्र दिव्यांग व्यक्तियों के लिए सुलभ हों और चुनावी प्रक्रिया से संबंधित सभी सामग्री तक उनकी आसानी से पहुंच हो और वो उनके समझने लायक हो. यह अधिनियम “दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों के बारे में संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन” को प्रभावी बनाने और उससे जुड़े या सहायक मामलों के लिए बनाया गया था. दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों के बारे में कन्वेंशन संयुक्त राष्ट्र संघ की एक अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संधि है, जिसका उद्देश्य समाज में दिव्यांग व्यक्तियों की पूर्ण और प्रभावी भागीदारी और समावेश को सुनिश्चित करना है.

वैश्विक पहल में शामिल है भारत

4 जुलाई 2018 को हुए नेशनल कंसल्टेशन ऑन एक्सेसिबल इलेक्शन में अपनाए गए ‘स्ट्रेटेजिक फ्रेमवर्क फॉर एक्सेसिबल इलेक्शन’ के अनुसार, भारत निर्वाचन आयोग जवाबदेही, सम्मान और गरिमा के मूल सिद्धांतों के आधार पर दिव्यांग व्यक्तियों का चुनाव के प्रति विश्वास बढ़ाने के लिए और बेहतर सेवाओं के जरिए उनकी चुनावी भागीदारी बढ़ाने के लिए वचनबद्ध है. चुनाव आयोग विभिन्न श्रेणियों के दिव्यांग व्यक्तियों को वोट डालने की सुविधा प्रदान करने वाले सुलभ तकनीकी उपकरणों के उपयोग को मान्यता देता है.

भारतीय संविधान भी देता है सुरक्षा

साथ ही, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 के तहत राज्य किसी भी नागरिक (दिव्यांग सहित) के खिलाफ धर्म, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता. फिर भी, दिव्यांग व्यक्ति अन्य नागरिकों के समान वोट देने के अपने अधिकार के लिए लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं.

2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में लगभग 2.68 करोड़ दिव्यांग व्यक्ति हैं, जिनमें से लगभग 50 लाख व्यक्ति दृष्टिहीन हैं. दृष्टिहीन मतदाता किसी साथी की सहायता से चुनाव में मतदान कर सकते हैं. इस प्रकार की सहायता से किया गया मतदान गुप्त और स्वतंत्र नहीं माना जा सकता, लेकिन इससे ऐसे मतदाताओं को चुनावी प्रक्रिया में भाग लेने का अवसर मिलता है. हालांकि, ईवीएम के माध्यम से मतदान की वर्तमान प्रणाली में यह जानने का कोई तरीका नहीं है कि क्या सहायता करने वाले व्यक्ति ने दृष्टिहीन मतदाता द्वारा चुने गए उम्मीदवार के लिए ही अपना वोट डाला है.

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ब्रेल साइनेज सभी के लिए कारगर नहीं

दृष्टिहीन मतदाताओं की सुविधा के लिए ईवीएम की बैलेट यूनिट पर ब्रेल साइनेज लगा होता है. ऐसे मतदाताओं के मार्गदर्शन के लिए बैलेट यूनिट के दाईं ओर उम्मीदवारों के वोट बटन के साथ ब्रेल साइनेज में 1 से 16 तक अंक उकेरे होते हैं. हालांकि, दृष्टिहीन मतदाता बटन दबा सकता है, लेकिन वह यह पता नहीं लगा सकता कि वास्तव में उसने किसे वोट दिया है. मतदाता यह सुनिश्चित नहीं कर पाता है कि उसका वोट दर्ज हुआ है या नहीं, अगर दर्ज हुआ है, तो उस की इच्छा के उम्मीदवार के पक्ष में दर्ज हुआ है या नहीं. इसके अलावा, हर दृष्टिहीन व्यक्ति ब्रेल लिपि को नहीं समझता है.

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वीवीपीएटी जैसा सत्यापन जरूरी

वोटर वेरिफिएबल पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपैट), यह इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) से जुड़ी एक स्वतंत्र प्रणाली है जो मतदाताओं को यह सत्यापित करने में मदद करती है कि उनके वोट उनकी इच्छा के अनुसार डाले गए हैं या नहीं. लेकिन ऐसी कोई भी सुविधा उपलब्ध नहीं है जिससे दृष्टिहीन मतदाता अपने वोटों का सत्यापन कर सकें. एक ऐसी प्रणाली प्रदान करने की आवश्यकता है, जिससे दृष्टिहीन मतदाता अपने डाले गए वोटों का तत्काल ऑडियो सत्यापन कर सके.

आईटीटीएससी है कारगर उपाय

इसके लिए इमेज टेक्स्ट टू स्पीच कनवर्जन (Image text to speech conversion) को इस्तेमाल किया जा सकता है। इस डिवाइस में चार मुख्य घटक होते हैं: कैमरा, प्रोग्रामेबल सिस्टम (ऑप्टिकल कैरेक्टर रिकग्निशन सॉफ्टवेयर और टेक्स्ट-टू-स्पीच इंजन), हेडफ़ोन और बैटरी. ऑप्टिकल कैरेक्टर रिकग्निशन सॉफ्टवेयर वीवीपैट में पेपर स्लिप पर छपे उम्मीदवार के सिंबल की इमेज को पहचान नहीं सकता है और इस कारण से उसे टेक्स्ट में परिवर्तित नहीं कर सकता है. इसलिए सीरियल नंबर, उम्मीदवार का नाम और सिंबल की इमेज के साथ साथ सिंबल का नाम भी वीवीपैट मशीन में लोड करना जरूरी है.

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आईटीटीएससी कहां लगेगा

आईटीटीएससी डिवाइस को वीवीपैट मशीन के अंदर इस तरह से लगाया जाएगा कि वीवीपैट की ट्रांसपैरेंट विंडो से देखने में मतदाताओं को कोई दिक्कत ना हो और वीवीपैट में सात सेकंड के लिए दिखाई जाने वाली प्रिन्टेड पेपर स्लिप इसके कैमरा लेंस के दायरे में आ जाए. इसमें हेडफ़ोन के एक सेट की आवश्यकता होती है जिसमें वॉल्यूम कंट्रोल की सुविधा हो.

आईटीटीएससी कैसे काम करना है

बूथ में प्रवेश करने के बाद मतदाता हेडफोन लगा लेता है. जब वोट डाला जाता है तब वीवीपैट में एक पेपर स्लिप छप जाती है, जिसमें सीरियल नंबर, उम्मीदवार का नाम, सिंबल की इमेज और सिंबल का नाम होता है और इस पेपर स्लिप को पारदर्शी विंडो से सात सेकंड तक देखा जा सकता है. आईटीटीएस डिवाइस अपने कैमरे के माध्यम से पेपर स्लिप की इमेज कैप्चर करता है. इमेज से टेक्स्ट को निकालने का काम ऑप्टिकल कैरेक्टर रिकग्निशन सॉफ्टवेयर करता है।

इस टेक्स्ट को स्पीच में बदलने की प्रक्रिया टेक्स्ट-टू-स्पीच इंजन करता है। इसके बाद इस इसके ऑडियो आउटपुट को हेडफ़ोन के माध्यम से सुना जा सकता है. इसमें सीरियल नंबर, उम्मीदवार का नाम और सिंबल का नाम होता है. हेडफ़ोन से सुनने वाला मतदाता तुरंत सत्यापित कर सकता है कि उसका वोट उसके इच्छा के अनुसार डाला गया है या नहीं. इसके बाद, इस प्रक्रिया के दौरान आईटीटीएस डिवाइस में बनाई गई अस्थायी फाइलें ऑटोमेटिक तरीके से हट जाती हैं, जिससे नई फाइलों के लिए जगह बन जाती है.

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आईटीटीएससी से छेड़छाड़ संभव नहीं है

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इस प्रणाली में किसी तरह हेर-फेर की कोई संभावना नहीं है. ईवीएम के निर्माता (भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड और इलेक्ट्रॉनिक्स कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड) वर्तमान तकनीकों का उपयोग करके सस्ते और कार्यक्षम इमेज टेक्स्ट टू स्पीच कन्वर्जन (आईटीटीएससी) डिवाइस बनाने में सक्षम हैं.

निर्वाचन प्रणाली में पूर्ण पारदर्शिता लाने और दृष्टिहीन मतदाताओं का ईवीएम में विश्वास जगाने के लिए उन्हें अपने वोटों को सत्यापित करने की सुविधा देना जरूरी है। इसलिए दृष्टिहीन मतदाताओं को सशक्त बनाने के लिए भारत निर्वाचन आयोग को इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों के साथ ‘इमेज टेक्स्ट टू स्पीच कन्वर्जन’ सिस्टम को शामिल करने पर विचार करना चाहिए।

डॉ. अक्षय बाजड, शासन-प्रशासन और राजनीतिक विज्ञान पर अकादमिक लेखक हैं. आपसे ईमेल akshaybajad111@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

लेख-विशेष

कैसे कोरोना संकट ने गरीब परिवारों के बच्चों के लिए शिक्षा को और मुश्किल बना दिया है?

कोरोना का शिक्षा पर असर का अंदाजा इससे लगा सकते हैं कि लगभग 37 फीसदी किशोर लड़कियों को इस बात का पक्का भरोसा नहीं है कि वे दोबारा स्कूल लौट सकेंगी. ग्रामीण और आर्थिक तौर पर कमजोर परिवारों की लड़कियां पहले से ही ड्रापआउट की जद में हैं.

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वर्तमान समय में समूचा विश्व वैश्विक महामारी से जुझ रहा है. शिक्षा व्यवस्था भी इससे अलग नहीं है. यूनेस्को के अनुसार, 190 देशों में अब तक लगभग 1.6 बिलियन छात्रों को शिक्षा प्रभावित हुई है. यह दुनिया के स्कूली बच्चों का 90 फीसदी है. अगर भारत की बात करें तो ऑनलाइन शिक्षा भी उन मुट्ठी भर बच्चों तक पहुंच पा रही है, जिनके पास स्मार्ट फोन के साथ इंटरनेट का ब्रॉडबैंड नेटवर्क मौजूद है. भारत के ज्यादातर गांवों में तो बॉडबैंड है ही नहीं, बिजली की आपूर्ति भी समय से नहीं होती है. ऐसे में बच्चे ऑनलाइन शिक्षा कैसे प्राप्त कर पाएंगे?

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, निम्न और निम्न-मध्य आय वाले देशों में लगभग 99% विद्यार्थी फिलहाल शिक्षा नहीं पा रहे हैं. इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया, 2019 की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में 67 प्रतिशत पुरुष और 33 फीसदी महिलाएं ही इंटरनेट का उपयोग करती हैं. ग्रामीण भारत में यह अनुपात और भी असंतुलित है. यहां पुरुषों की तुलना में महज 28 प्रतिशत महिलाएं ही इंटरनेट का उपयोग करती हैं. इससे यह स्पष्ट है कि छोटी लड़कियों के लिए स्मार्ट फोन और इंटरनेट उपलब्ध हो पाना कहीं अधिक मुश्किल है

राइट टू एजुकेशन फोरम (RTE Forum) ने सेंटर फॉर बजट एंड पॉलिसी स्टडीज (CBPS) और चैंपियंस फॉर गर्ल्स एजुकेशन (Champions for Girls’ Education) के साथ मिलकर देश के 5 राज्यों में एक अध्ययन किया, जिसके नतीजे चौंकाने वाले हैं. जून में 3,176 परिवारों पर हुए सर्वे में उत्तर प्रदेश के 11, बिहार के आठ, असम के पांच, तेलंगाना के चार और दिल्ली का एक जिला शामिल किया गया है. इसमें आर्थिक रूप से कमजोर तबके के परिवारों में से लगभग 70% ने माना कि उनके पास खाने के लिए पर्याप्त व्यवस्था नहीं है, ऐसे में पढ़ाई और उसमें भी लड़कियों की पढ़ाई सबसे ज्यादा खतरे में है.

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अध्ययन में पाया गया है कि लगभग 37 फीसदी किशोर लड़कियों को इस बात का पक्का भरोसा नहीं है कि वे दोबारा स्कूल लौट सकेंगी. ग्रामीण और आर्थिक तौर पर कमजोर परिवारों की लड़कियां पहले से ही ड्रापआउट की जद में हैं. लड़कों के मुकाबले दोगुनी लड़कियां कुल 4 साल से भी कम समय तक स्कूल जा पाती हैं. साल 2014 में अफ्रीकन देशों में इबोला महामारी के कहर का अंजाम भी कुछ ऐसा ही था. वहां भी लड़कों के मुकाबले लड़कियों का स्कूल ज्दादा छूटा था, जल्दी शादियां होना और कम उम्र में मां बनने जैसे दुष्परिमाण वहां भी दिखाई दिए थे.

सिर्फ प्राथमिक या माध्यमिक शिक्षा ही नहीं, बल्कि उच्च शिक्षा में भी लड़कियों के लिए मुश्किलें बढ़ी हैं. यूजीसी के अनुसार, भारत में 950 विश्वविद्यालय हैं जिनमें निजी विश्वविद्यालयों की संख्या 361 है. हालिया सर्वेक्षण के मुताबिक, शैक्षणिक वर्ष 2019-20 में लगभग 7.7 लाख स्नातक विद्यार्थियों ने निजी विश्वविद्यालयों में दाखिला लिया, जिनमें लड़कियों की संख्या लड़कों की अपेक्षा कम रही.

कोरोना वायरस ने शिक्षाविदों को नए सिरे से सोचने और मौजूदा शैक्षिक नीतियों को फिर से तैयार करने के लिए मजबूर कर दिया है. लेकिन विकसित देशों के मुक़ाबले भारत के हालात बिलकुल जुदा हैं. भारत में कई स्कूलों और विश्वविद्यालयों ने ऑनलाइन शिक्षा को अपनाया है. लेकिन शिक्षाविदों और छात्रों का अनुभव मिला-जुला रहा है। यहां तक कि ऑनलाइन क्लासेज को ‘एक अस्थाई इंतज़ाम से ज़्यादा कुछ नहीं’ तक करार दिया जा चुका है।

दुनिया भर में सरकारें होम स्कूलिंग को प्रोत्साहित करने की कोशिश कर रही है. लेकिन होम स्कूलिंग या ऑनलाइन क्लास कराने वालों का मानना है कि जिन बच्चों के माता-पिता पर्याप्त शिक्षित हैं, यह उनके लिए अच्छा है. हालांकि, भारत जैसे विकासशील देशों के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती है, क्योंकि स्कूल बंद होने के दौरान कई बच्चों का शैक्षणिक विकास रुक जाता है. विशेष रूप से वंचित पृष्ठभूमि से जो बच्चे आते हैं उनका विकास एक दम रुक जाता है. यूके के एक अध्ययन के मुताबिक, अमीर परिवारों के बच्चे गरीब परिवारों के बच्चों की तुलना में घर पर सीखने में लगभग 30% अधिक समय व्यतीत करते हैं.

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होम स्कूलिंग के बारे में प्रोफेसर वैन लैंकर कहते हैं कि यह ऐसी स्थिति है, जिनमें गरीबी और भीड़-भाड़ वाले घरों में रहने वाले बच्चों के लिए बहुत ज्यादा संभवना नहीं है. जानकारों का  कहना है कि जब एक बार स्कूल खुलेंगे, तब भी स्कूल बंद रहने के दौरान आई असमानताएं खत्म नहीं हो पाएंगी. जाहिर है कि सरकारों, शिक्षाविदों और शिक्षण संस्थानों को कोरोना संकट की वजह से पैदा हुए हालात से निपटने के लिए नए सिरे सोचना होगा, ताकि कम से कम नुकसान के साथ बच्चों की पढ़ाई को दोबारा पटरी पर लाया जा सके.

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इस लेख को अनुराग अज्ञेय ने लिखा है, जो दिल्ली विश्वविद्यालय के दिल्ली स्कूल ऑफ जर्नलिज्म में स्नातक के अंतिम वर्ष के छात्र हैं.