अमेरिका भी कभी भारत और दुनिया के दूसरे मुल्कों की तरह ब्रिटेन का ही एक उपनिवेश था. मगर जहां ब्रिटेन और उसके दूसरे उपनिवेशों के बीच धर्म और सांस्कृतिक खाइयां मौजदू थीं, वहीं अमेरिका के मामले में ऐसा नहीं था. बावजूद इसके अमेरिकियों ने एक दिन ब्रिटेन के आधिपत्य को चुनौती दे दी. यहां भी ब्रिटेन की समृद्धि के लिए अमेरिका का आर्थिक शोषण ही प्रमुख वजह बना.
ब्रिटिश हुकूमत से अमेरिकी बगावत की शुरुआत अंधाधुंध कर और सैन्य खर्च का बोझ डालने के विरोध से हुई. दरअसल, ब्रिटिश संसद ने 1764 से 1775 के बीच ताबड़तोड़ कानून बनाए और अमेरिकियों को करों के बोझ तले दबा दिया. इन कानूनों में 1764 के शुगर एक्ट और 1765 के स्टाम्प एक्ट ने अमेरिकियों की जिंदगी पर बहुत दबाव डाला. इसके चलते चीनी, शराब, कॉफी से लेकर कानूनी दस्तावेजों तक करों का बोझ असहनीय स्तर तक बढ़ गया. इस पर अमेरिकावासियों की तीखी प्रतिक्रिया आई. इससे पनपे असंतोष ने प्रतिनिधित्व की पुरानी मांग को ‘प्रतिनिधित्व नहीं तो कर नहीं’ के नारे में बदल दिया. हालांकि, यह नारा अमेरिकियों की खोज नहीं है, बल्कि इसे सबसे पहले ब्रिटेन में इस्तेमाल किया गया था. इसी आधार पर कर लगाने के अधिकार को संसद को सौंपने की मांग ने जोर पकड़ा था.
खैर, अमेरिका में ब्रिटेन की लूट के खिलाफ पनप रहा असंतोष स्टाम्प एक्ट लागू होते ही फूट पड़ा. अमेरिका में आजादी का आंदोलन जोड़ पकड़ने लगा. 4 जुलाई 1776 को कांग्रेस ने स्वतंत्रता की अपील करने वाला एक प्रस्ताव पारित कर दिया. अपनी किताब ‘अमेरिका का इतिहास’ में डॉ किरण दात्तार लिखती हैं कि ‘इस रचना में प्रमुख हाथ थामस जेफरसन का रहा. इस दस्तावेज का मूल सिद्धांत जॉन लॉक (John Locke) की कृतियों से प्रभावित था.’ दरअसल, जॉन लॉक ने ‘सामाजिक संविदा सिद्धांत’ (Social Contract Theory) पेश किया और इसके जरिए जनता के ‘क्रांति के अधिकार’ (Right to revolution) को तर्क दिया.
जॉन लॉक ने ‘सामाजिक संविदा सिद्धांत’ (Social Contract Theory) पेश किया और इसके जरिए जनता के ‘क्रांति के अधिकार’ (Right to revolution) को तर्क दिया.
जॉन लॉक का मानना था कि राज्य या सत्ता के अधिकार वास्तव में जनता या शासितों की सहमति से निकले हैं. उनके मुताबिक अगर सत्ता या सरकार, जनता के हितों के खिलाफ काम करने लगे तो जनता को उसके खिलाफ विद्रोह करने और उसे उखाड़ फेंकने का पूरा हक है. जॉन लॉक के इसी सिद्धांत पर भरोसा करने की वजह से कांग्रेस ने अपने स्वतंत्रता के प्रस्ताव में अमेरिकावासियों को लेकर ब्रिटिश सरकार की असफलताओं का उल्लेख किया और इस आधार पर सरकार के खिलाफ बगावत को सही ठहराया.
दरअसल, 18वीं सदी में दार्शनिक जॉन लॉक ने क्रांति के अधिकार (Right to revolution) को अपनी सोशल कॉन्ट्रेक्ट थ्योरी का आंतरिक हिस्सा बताया है. टू ट्रीटीज ऑफ गवर्नमेंट (Two Treatises of Government) में इसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा है कि कैसे इंसान के सामाजिक आधार और संबंधों का विकास हुआ है. जॉन लॉक ने प्राकृतिक कानूनों के तहत हर व्यक्ति को जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति के अधिकार से संपन्न माना है. कई मामले में जॉन लॉक ने ‘क्रांति के अधिकार’ को सत्ता की जनता के प्रति जवाबदेही के तौर पर पेश किया है.
जॉन लॉक के इस ‘क्रांति के अधिकार’ को आधार बनाकर सिर्फ अमेरिका ही नहीं आजाद हुए हैं, बल्कि इसके आधार पर दूसरे देशों की जनता ने भी अपने शासक और शासन को बदला है. 1688 में इसी सिद्धांत को आधार बनाकर ब्रिटिश संसद ने जेम्म द्वितीय को हटाकर बिलियम तृतीय को शासक बनाया। हालांकि, जॉन लॉक की किताब इसके बाद आई थी. इसमें उन्होंने दावा किया था कि उनकी किताब का मकसद विलियम तृतीय को शासक बनाए जाने को सही ठहराना है. जनता के प्रति जवाबदेह सरकारों की मांग के बीच ‘क्रांति का अधिकार’ कितना अहम है, इसका अंदाजा ऐसे लगा सकते हैं कि यह सिद्धांत 1793 में बने फ्रांस के संविधान की प्रस्तावना में शामिल था.
हालांकि, कई विचारकों ने ‘क्रांति के अधिकार’ को बहुत अतिवादी विचार माना. लेकिन इस सिद्धांत का मतलब तख्तापलट या अराजकता कतई नहीं है, बल्कि यह इस मूल भावना पर आधारित है कि असल अधिकार जनता के पास ही हैं, जिसे कोई सत्ता किसी भी तरह से प्रभावित नहीं कर सकती है. एक गणतांत्रिक और जनता के प्रति जबावदेह सरकार के लिए इतनी कठोर शर्त जरूरी कही जा सकती है.
जिस भी देश की जनता अपने इस अधिकार को नहीं समझती है या इसके लिए सचेत नहीं हैं, वहां उसे अपनी ही चुनी सरकारों की तानाशाही और दमन को झेलना पड़ता है. इस मामले में विकासशील देशों की सरकारों का उदाहरण लिया जा सकता है. जहां सत्ता प्रायोजित दंगे, लूट और जनता के बीच भेदभाव राजनीतिक ताकत हासिल करने के टूल बन गए हैं. चाहे बहुसंख्यकों के हाथों अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न हो या वंचितों का अधिकार हनन या फिर संपत्ति का बढ़ता केंद्रीकरण, इन सबके पीछे जनता का अपने अधिकारों के लिए एकजुट न हो पाने की कमी ही है.