कानून बनाना विधायिका का प्राथमिक काम है, इसलिए संसद में सांसदों की प्राथमिक भूमिका लॉ मेकर (कानून निर्माता) की है. यानी संसद में चर्चा के लिए लाए जाने वाले तमाम मुद्दों, विषयों और विधेयकों पर उन्हें खुद को दलीय राजनीति के बंधन से आजाद करके कानून निर्माता (लॉ मेकर) की तरह सोचने की जिम्मेदारी है. लेकिन राजनीतिक दलों के भीतर सिकुड़ते लोकतंत्र और व्यक्तिवादी राजनीति के हावी होने के साथ सांसदों से ऐसी उम्मीदें लगातार धूमिल हुई हैं. इसी वजह से सांसद एक पार्टी कार्यकर्ता की भूमिका से ऊपर उठकर कानून निर्माता की असल भूमिका में आ ही नहीं पाते हैं.
चूंकि लोकतंत्र की संसदीय व्यवस्था में अध्यक्षीय व्यवस्था की तरह कार्यपालिका और विधायिका का सीधा अलगाव नहीं होता. यानी संसदीय व्यवस्था में कार्यपालिका (सरकार) सीधे तौर पर विधायिका (संसद) का अंग होती है. भारत में भी संसदीय व्यवस्था का यही स्वरूप लागू है. यह संसदीय व्यवस्था की खूबी भी है और खामी भी.
सनद रहे : शासन व्यवस्था में शक्ति संतुलन के लिए कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका का अलगाव का सिद्धांत ‘शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धान्त’ (principle of separation of powers) कहा जाता है. शक्तियों का पृथक्करण (Separation of Powers) शब्दावली को 18वीं सदी के फ्रेंच दार्शनिक मॉन्टेस्क्यू ने सामने रखा था. इसका अर्थ है कि शासन व्यवस्था के बीच शक्तियों का ऐसा बंटवारा जो किसी को दूसरे से ज्यादा ताकतवर न बनाता हो.
संसद से विधेयकों को पारित कराने के लिए जब भी संख्या बल की बात आती है, सत्ताधारी या विपक्षी दल व्हिप (whip) जारी कर देते हैं और सासंद कानून निर्माता होकर भी एक पार्टी कार्यकर्ता के रूप में काम करने के लिए मजबूर हो जाता है. व्हिप, राजनीतिक दल अक्सर किसी मुद्दे पर अपनी एकजुटता दिखाने या एकमत होकर काम करने के लिए जारी करते हैं. लेकिन समय के साथ सांसदों पर पार्टी का यह अनुशासन अब इतना ज्यादा हावी हो चुका है कि संसदीय जिम्मेदारी निभाते हुए उनकी भूमिका सिर्फ पार्टी लाइन पर संसद में किसी मुद्दे के समर्थन और विरोध करने तक सिमटती जा रही है.
अब सवाल उठता है कि अगर सांसदों को एक लॉ मेकर के रूप में अपने विवेकाधिकार के इस्तेमाल की इजाजत नहीं है तो फिर वह कैसे इस बात की सही से पड़ताल कर पाएगा कि प्रस्तावित कानून जनता के लिए अच्छा है या बुरा? सशक्त संविधान और परिपक्व राजनीतिक माहौल वाले भारत जैसे देश में भी कानून बनाने में इस कमी को साफ-साफ देखा जा सकता है.
मौजूदा एनडीए सरकार के पिछले कार्यकाल में कई विधेयकों को महज इसलिए वित्त विधेयक की शक्ल में पेश कर दिया गया, क्योंकि सत्तापक्ष के पास उन्हें पारित कराने के लिए राज्य सभा में जरूरी संख्या बल नहीं था. लेकिन इस पर सत्ता पक्ष के सांसदों (लॉ मेकर्स) की तरफ से कोई ऐतराज सामने नहीं आया. क्यों? यह सवाल इसलिए पूछना जरूरी है कि अगर कभी सत्ता और संख्या परिवर्तन हो जाए और मौजूदा सत्ता पक्ष को विपक्ष में बैठना पड़े, तब की सूरत में ऐसी किसी बात पर उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी?
इस कमी या चुनौती से जुड़ा हालिया मामला राज्य सभा से कृषि विधेयकों को पारित करने का तौर-तरीके भी है. विपक्ष ने रविवार को सदन का समय बढ़ाने या न बढ़ाने के प्रस्ताव पर वोट विभाजन की मांग रखी. लेकिन उसे ध्वनिमत में खारिज कर दिया गया, जबकि ध्वनिमत की स्वीकार्यता के लिए सर्वसहमति अनिवार्य मानी जाती है. इस पर विपक्ष की नाराजगी के बीच कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने दोनों कृषि विधेयकों पर चर्चा का जवाब देना शुरू किया. इसके तुरंत बाद विधेयकों से पारित करने से पहले के संकल्पों, प्रस्ताओं और संशोधनों पर चर्चा शुरू करा दी गई. फिर विपक्ष ने इस पर मत विभाजन की मांग उठाई. लेकिन सर्वसहमति न होते हुए भी इसे भी ध्वनिमत में खारिज कर दिया गया. हंगामा तब इतिहास बन गया, जब विधेयकों को ध्वनिमत में पारित घोषित कर दिया गया.
विपक्ष ने राज्य सभा की कार्यवाही नियमवली के नियमों के उल्लंघन का हवाला दिया तो सत्ता पक्ष ने दलील दी कि विपक्षी सदस्य सभापति के आसन के सामने (वेल) आकर हंगामा करने लगे, इसलिए वोट विभाजन की उनकी मांग को नहीं माना गया.
सवाल उठता है कि जब सदस्यों के हंगामे की वजह से वोट विभाजन की मांग को नहीं माना गया तो फिर विधेयकों को पारित करने की बात को कैसे मान लिया गया, क्योंकि हंगामा तो ध्वनिमत के दौरान भी चल ही रहा था. अब सवाल उठता है कि इस तरह से नियमावली के उल्लंघन पर सत्ता पक्ष के एक भी सांसद ने नाराजगी या सवाल क्यों नहीं उठाया?
क्या लॉ मेकर की भूमिका में यह जरूरी नहीं है कि वह कम से कम नियमावली के पालन या बुनियादी तर्कों के पक्ष में तो खड़ा हो? बल्कि यहां तो उलटा हुआ. सत्ता पक्ष या उनके समर्थक सांसद पार्टी लाइन पर एक बात प्रमुखता से दोहराते दिखे कि विपक्ष ने सदन की मर्यादा और गरिमा को चोट पहुंचाई, सभापति के आसन के सामने मेज पर लगे माइक को तोड़ दिया. क्या जिन कानूनों के विरोध में बड़ी संख्या में किसान सड़कों पर उतरे हैं, उसे महज ध्वनिमत से पारित कर देना संसद की जिम्मेदारी को सीमित करना नहीं है?
22 सितंबर को राज्य सभा से आठ सांसदों का निलंबन खत्म करने, सरकारी और निजी खरीद में फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी देने वाला कानून बनाने और एमएसपी को स्वामिनाथन आयोग के सी-2 फॉर्मूले के आधार पर तय करने की मांगों को लेकर विपक्ष ने सदन की कार्यवाही का बहिष्कार कर दिया. इसके समर्थन में लोक सभा में भी विपक्ष ने ऐसा ही किया.
लेकिन दोनों सदनों में न केवल कार्यवाही जारी रही, बल्कि बगैर विपक्ष के तमाम विवादित विधेयकों को धड़ाधड़ पारित भी कर दिया गया. लेकिन सत्ता पक्ष के किसी एक सांसद के भीतर लॉ मेकर का अहसास नहीं जागा. किसी एक सांसद ने यह बुनियादी सवाल नहीं उठाया कि विपक्ष की गैर-मौजूदगी में विधेयक पर चर्चा कैसे होगी, क्योंकि इसके लिए दो पक्षों का होना जरूरी होता है?
अब सवाल उठता है कि क्या सत्ता पक्ष के सांसद प्रस्तावित कानून की कमियों को विपक्ष की तरह सामने ला पाए? इस सवाल का सीधा जा जवाब ‘न’ है. राज्य सभा में 22 सितंबर को औसतन आधे पर एक विधेयक की दर से कुल सात विधेयकों को पारित किया गया. इन विधेयकों पर चर्चा या बहस के नाम पर वही कहा गया, जितना सरकार अपने विज्ञापनों में बता रही थी. इनमें जनता से जुड़ी चिंता, आशंका या बुरे प्रभाव की बातें तो एक सिरे से गायब थीं.
राज्य सभा में विपक्ष के वॉकआउट के बाद पहला विधेयक लोक-निजी भागीदारी के आधार पर बनने वाले त्रिपल आई टी से जुड़ा संशोधन विधेयक था. इसका सत्ता पक्ष के सांसदों ने खुले मन से प्रशंसा की. लेकिन किसी ने भी यह नहीं पूछा कि ऐसे संस्थानों में गरीबों, कमजोरों और किसानों के बच्चों की पहुंच कैसे हो पाएगी, इनकी फीस कितनी होगी, यहां पर कमजोर वर्ग के छात्रों के दाखिले के लिए क्या कोई विशेष इंतजाम किया गया है? अगर विपक्ष सदन में होता तो क्या यह विधेयक महज प्रशंसा के पुल पर सवार होकर राज्य सभा की कसौटी को पार कर जाता?
इस दिन राज्य सभा में पेश दूसरा विधेयक आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक-2020 था. इस पर सांसदों ने कहा कि बाजार में खरीदार बढ़ेंगे तो किसानों को उनकी फसलों की सही कीमत मिल सकेगी, कृषि क्षेत्र में निवेश भी बढ़ेगा. लेकिन सत्ता पक्ष में से किसी ने यह आशंका नहीं जताई कि आवश्यक वस्तु कानून किन परिस्थितियों (कालाबाजारी रोकने के लिए) में बना था, इस संसोधन के बाद क्या सरकार ऐसे किसी हालात से कैसे निपटेगी?
जब कोरोना संकट के निपटने के लिए लॉकडाउन घोषित हुआ और कई जगहों पर खाने-पीने के सामान से लेकर हैंड सैनिटाइजर या मास्क की कालाबाजारी होने की समस्या सामने आ चुकी है तो फिर इस पर बहस के दौरान किसी ने सरकार के इस दावे पर सवाल क्यों नहीं उठाया कि अब पहले के मुकाबले कमोडिटी का उत्पादन बहुत ज्यादा है, इसलिए ऐसे कानून की जरूरत नहीं है जो बाजार में अपनी पकड़ रखे?
अगर कल को बड़े पैमाने पर खाद्य पदार्थों को जमा करके मुनाफाखोरी की जाने लगी तो सरकार के हाथ में इसे रोकने के लिए क्या उपाय होंगे? क्या सरकार खाद्य पदार्थों के दाम दो गुना होने तक इंतजार करेगी? ऐसे सारे सवाल राज्य सभा में जरूर उठे होते, अगर विपक्ष वहां मौजूद होता. ऐसे में यह सवाल उठता है कि कानून निर्माता (लॉ मेकर) होने की प्राथमिक जिम्मेदारी के बावजूद सत्ता पक्ष के किसी सांसद ने क्यों नहीं पूछा कि आलू और प्याज के अभी जो दाम बढ़े हैं, कहीं उसके पीछे आवश्यक वस्तु कानून से स्टॉक लिमिट खत्म करने की छूट तो नहीं है?
एक बार फिर वही सवाल सामने आता है कि अगर सत्ता पक्ष के सांसद संसद में एक कानून निर्माता की अपनी भूमिका को प्राथमिकता देते हुए सोच रहे थे तो उन्होंने विपक्ष की गैर-मौजूदगी या विपक्षविहीन सदन में विधेयकों को धड़ाधड़ पारित करने पर कोई आपत्ति क्यों नहीं की? क्यों नहीं कहा कि किसी भी जगह बहस करने के लिए कम से कम दो पक्ष होने जरूरी होते हैं, चूंकि अभी विपक्ष सदन में नहीं है तो इन तमाम विधेयकों को पारित न करने की संसदीय परंपरा को स्थापित किया जाए. लेकिन यहां हुआ इसके उलटा, जो कानून विपक्ष की मौजूदगी में तीखी बहस की वजह बन सकते थे, उसके वॉकआउट करते ही सरकार ने इसे मौके की तरह भुना लिया. तकनीकी तौर पर इसमें कुछ भी भले गलत न हुआ हो, लेकिन जब भी संसदीय इतिहास और परंपराओं का जिक्र होगा, इसे बहुत सम्मानित शब्दों में शायद ही याद किया जाएगा.