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कानून-कचहरी

यूपी के अधीनस्थ न्यायालयों में जजों के सबसे ज्यादा पद खाली हैं, संसद में केंद्र ने बताया

अदालतें हैं, लंबित मामलों का पहाड़ है, लेकिन उनको निपटाने के लिए पर्याप्त जज ही नहीं है. यह हम नहीं, संसद में पेश सरकार के आंकड़े कह रहे हैं. पढ़िए ये खास रिपोर्ट…

अधीनस्थ न्यायालय, सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट, लंबित मामले, न्याय में देरी, जजों की कमी
Photo credit- Pixabay

न्याय का वक्त पर मिलना न्याय होने का अनिवार्य पक्ष है. इसके लिए जरूरी है कि न्यायिक व्यवस्था चाक-चौबंद हो. लेकिन भारत में हाईकोर्ट से लेकर अधीनस्थ न्यायालयों तक जिस अनुपात में जजों के पद खाली हैं, वह हैरानी पैदा करने वाला है. बजट सत्र में लोक सभा सांसद ज्योत्सना चरणदास महंथ (Jyotsna Charandas Mahant) ने अदालतों में जजों की कमी (Shortage Of Judges) का मुद्दा उठाया और इस विधि और न्याय मंत्रालय (Minister Of Law And Justice) से जानकारी मांगी. उन्होंने पूछा कि (1) क्या सरकार ने देश के न्यायालयों में जजों की कमी और इनके रिक्त पदों के बारे में कोई आकलन किया है, यदि हां, तो उसका राज्यवार ब्यौरा क्या है; (2) क्या बीते तीन वर्षों के दौरान उपरोक्त रिक्त पदों के लिए भर्ती प्रक्रिया शुरू हो गयी है, यदि हां तो उसका ब्यौरा क्या है; और (3) क्या छत्तीसगढ़ में ऐसी रिक्तियों के बारे में कोई आकलन किया गया है, यदि हां तो उसका ब्यौरा क्या है?

हाई कोर्ट में एक-तिहाई से अधिक पद खाली

सांसद ज्योत्सना चरणदास महंथ (Jyotsna Charandas Mahant) के सवालों का जवाब विधि और न्याय मंत्री रविशंकर प्रसाद (Ravi Shankar Prasad) ने दिया. 17 मार्च 2021 तक के आंकड़ों के आधार पर उन्होंने बताया कि सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद हाई कोर्ट में 160 जजों में से 64 पद खाली हैं. इसके बाद कलकत्ता (40 रिक्त पद), पंजाब-हरियाण (38 रिक्त पद), पटना (32 रिक्त पद) और बॉम्बे हाई कोर्ट (31 रिक्त पद) आते हैं. दिल्ली और गुजरात हाई कोर्ट में जजों के क्रमशः 29 और 22 पद खाली हैं. सभी हाई कोर्ट में 1080 स्वीकृत पद हैं. इनमें से 419 पद खाली हैं यानी देश में हाई कोर्ट मोटा-मोटी 60 फीसदी या दो-तिहाई जजों के साथ काम कर रहे हैं.

यूपी में सबसे ज्यादा जजों के पद खाली

जजों के खाली पड़े पदों के मामले में अधीनस्थ न्यायालयों (Vacancies Of Subordinate Judiciary) का हाल तो हाई कोर्ट से भी बुरा है. लोक सभा में दिए गए जवाब के मुताबिक, उत्तर प्रदेश के अधीनस्थ न्यायालयों में जजों के कुल 1053 पद खाली हैं, जो देश में सबसे ज्यादा है. उत्तर प्रदेश प्रदेश के अधीनस्थ न्यायालयों में कुल स्वीकृत पदों की संख्या 3,634 है, जिनमें 2,581 पदों पर नियुक्ति है. इतना ही नहीं, देश भर के अधीनस्थ न्यायालयों में कुल 4,928 पद खाली हैं. इनमें अकेले यूपी का हिस्सा 21 फीसदी से ज्यादा है.

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यूपी के बाद बिहार और मध्य प्रदेश

उत्तर प्रदेश के बाद बिहार के अधीनस्थ न्यायालयों में सबसे ज्यादा 503 पद खाली हैं. यहां कुल स्वीकृत पदों की संख्या 1936 है, जिनमें से 1433 पदों पर ही नियुक्ति है. वहीं, मध्य प्रदेश जजों की रिक्तियों के मामले में देश में तीसरे नंबर पर हैं. यहां जजों के स्वीकृत पदों की कुल संख्या 2,021 है, जिसके मुकाबले 1,610 पदों पर ही जजों की नियुक्तियां हैं और 411 पद खाली हैं.

गुजरात का हाल भी बाकी देश से अलग नहीं है, जिसे अक्सर विकास और व्यवस्था का मॉडल बताकर दूसरी जगहों पर लागू करने का उल्लेख होता है. यहां अधीनस्थ न्यायालयों में जजों के 1,521 स्वीकृत पदों के मुकाबले 1,152 पर ही नियुक्तियां हैं, जबकि 369 पद खाली हैं.

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इसके बाद कर्नाटक और हरियाणा के नंबर है, जहां के अधीनस्थ न्यायालयों में क्रमश: 286 और 279 पद खाली हैं. राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो 24 हजार 247 स्वीकृत पदों में से 19 हजार 319 पदों पर जजों की नियुक्तियां हैं, जबकि 4,928 पद यानी 20 फीसदी से ज्यादा पद खाली हैं.

तो क्यों न लगे तारीख पर तारीख

लोगों में न्यायिक और कानूनी जागरुकता बढ़ी है, वे विवादों को निपटाने के लिए अदालतों में आते हैं. लेकिन न्याय व्यवस्था की ढांचागत कमियों के चलते एक तरफ जनता की जरूरत वक्त पर पूरी नहीं हो पाती है. दूसरी तरफ, अधीनस्थ न्यायालयों से लेकर हाई कोर्ट या फिर सुप्रीम कोर्ट तक, लंबित मामलों का पहाड़ बढ़ता चला जा रहा है. केंद्रीय विधि और न्याय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने बजट सत्र के पहले हिस्से में सांसदों डॉ. टी. सुमथि (DR. T. SUMATHY) और तामिझाजी थंगापंडियन (THAMIZHACHI THANGAPANDIAN) के सवालों के जवाब में इसकी जानकारी दी है. उनके जवाब के मुताबिक, देश भर के हाई कोर्ट में लंबित मामलों की संख्या 29 जनवरी 2021 को 56 लाख 58 हजार (56,57,909) थी, जो एक साल पहले 28 जनवरी 2020 को 45 लाख 81 हजार (45,81,619) थी. यानी बीते एक साल के दौरान कोरोना संकट के चलते हाई कोर्ट में लंबित मामलों की संख्या 10 लाख से ज्यादा बढ़ गई.

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अब अगर इन लंबित मामलों में अधीनस्थ न्यायालयों के विचाराधीन मामलों को जोड़ लें तो तारीख पर तारीख वाला फिल्मी डायलॉग उतना फिल्मी नहीं रह जाता है. लोक सभा में दिए गए जवाब के मुताबिक, 29 जनवरी 2020 को देश के सभी अधीनस्थ न्यायालयों में तीन करोड़ 19 लाख (3,19,03,314) मामले लंबित थे, जो अगले साल यानी कोरोना संकट के बाद 28 जनवरी 2021 को बढ़कर तीन करोड़ 71 लाख (3,71,83,419) हो गए. इन आंकड़ों से एक और बात सामने आई है, चाहे हाई कोर्ट और अधीनस्थ मामलों में रिक्तियां हों या लंबित मामले, दोनों ही आधार पर उत्तर प्रदेश देश में अव्वल है.

जजों की नियुक्तियां कैसे होती हैं

सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों की नियुक्तियों का प्रस्ताव उनके मुख्य न्यायाधीशों की ओर से तैयार किया जाता है और केंद्र सरकार को भेजा जाता है. इसके बाद केंद्र सरकार और न्यायपालिका आपसी बातचीत के आधार पर जजों की नियुक्ति करती हैं. हालांकि, कॉलेजियम व्यवस्था को लेकर केंद्र सरकार और न्यायपालिका के बीच अक्सर मनमुटाव देखा गया है. वहीं, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 235 के तहत राज्यों के अधीनस्थ न्यायालयों में नियुक्ति की जिम्मेदारी वहां के हाई कोर्ट के पास होती है. लेकिन राज्य सरकारें संविधान के अनुच्छेद 233 और अनुच्छेद 234 के साथ पठित अनुच्छेद 309 के आधार पर हाई कोर्ट की सलाह से जजों (न्यायिक अधिकारियों) की नियुक्ति कर सकती हैं. यानी चाहे अधीनस्थ न्यायालय हो या हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट अगर सरकार इच्छा शक्ति दिखाएं, तो रिक्त पदों को भरा और लंबित मामलों का पहाड़ गिराया जा सकता है.

Question (Shortage Of Judges)

Jyotsna Charandas Mahant: Will the Minister of Law And Justice be pleased to state:

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(a)whether the Government has made any assessment regarding the shortage of judges and the vacant posts in the courts of the country and is so, the details thereof, State-wise;
(b)whether the process of recruitment has started against the said vacancies during the last three years and if so, the details thereof, State-wise; and
(c) whether any assessment has been made regarding the number of such vacant posts in Chhattisgarh and if so, the details thereof?

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ANSWER

Minister Of Law & Justice Ravi Shankar Prasad said, A Statement showing the sanctioned strength, working strength, vacancies and appointment of Judges made in Supreme Court and High Courts during the last three years i.e. 2018-2020 is at Annexure I.

As per the Constitutional framework, the appointments of Judges of the Supreme Court and High Courts are made under Articles 124, 217, and 224 of the Constitution of India respectively. Judges of the Supreme Court of India and High Courts are appointed as per the procedure laid down in the Memorandum of Procedure (MoP) prepared in 1998 pursuant to the Supreme Court judgment of October 6, 1993 (Second Judges case) read with their Advisory Opinion of October 28,1998 (Third Judges case).

Under Article 235 of the Constitution of India, the administrative control over the members of district and subordinate judiciary in the States vest with the concerned High Court. Further, in exercise of powers conferred under proviso to Article 309 read with Articles 233 and 234 of the Constitution, the respective State Government, in consultation with the High Court, frames the Rules and Regulations regarding the issues of appointment, promotion, reservations, etc. of Judicial Officers in the State Judicial Service.

Hence, in so far as recruitment of judicial officers in the States is concerned, respective High Courts do it in certain States, whereas the High Courts do it in consultation with the State Public Service Commissions in other States. Central Government has no role in the matter. Recruitment in the Subordinate judiciary is an ongoing and continuous process and each year vacancies are filled either fully or partially.

कानून-कचहरी

दिल्ली दंगा: सुप्रीम कोर्ट ने कहा, छात्रों की जमानत का फैसला दूसरे मामलों में नजीर नहीं बन सकता

दिल्ली दंगा मामले में छात्रों की जमानत को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘आतंकवाद रोधी कानून यूएपीए को इस तरह से सीमित करना प्रमुख मुद्दा है और इसका पूरे भारत पर असर हो सकता है…’

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Photo Credit- Mandeep Punia Twitter

सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को दिल्ली दंगा मामले में आरोपी तीन छात्रों- जेएनयू छात्र नताशा नरवाल और देवांगना कालिता और जामिया के छात्र आसिफ इकबाल तन्हा की जमानत को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई की. यह याचिका दिल्ली पुलिस ने लगाई है. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने तीनों छात्रों को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इन छात्रों को मिली जमानत में दखल देने से इनकार कर दिया है. हालांकि, अदालत ने यह कहा है कि गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) कानून (यूएपीए) के तहत जमानत के इस मामले को दूसरे किसी मामले में मिसाल के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है.

दिल्ली पुलिस की तरफ से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने यह दलील दी कि उच्च न्यायालय ने तीन छात्र कार्यकर्ताओं को जमानत देते हुए पूरे आतंकवादी रोधी कानून यूएपीए को पूरी तरह पलट दिया है. इस पर जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस वी रामसुब्रमण्यम की अवकाशकालीन बेंच ने कहा, ‘हमारी परेशानी यह है कि उच्च न्यायालय ने जमानत के फैसले में पूरे यूएपीए पर चर्चा करते हुए ही 100 पृष्ठ लिखे हैं और शीर्ष अदालत को इसकी व्याख्या करनी पड़ेगी.’

शीर्ष अदालत ने ने कहा, ‘कई सवाल खड़े हुए हैं, क्योंकि हाईकोर्ट में यूएपीए की वैधता को चुनौती नहीं दी गई थी, ये जमानत अर्जियां थी.’ अदालत ने आगे कहा, ‘आतंकवाद रोधी कानून यूएपीए को इस तरह से सीमित करना प्रमुख मुद्दा है और इसका पूरे भारत पर असर हो सकता है. हम नोटिस जारी करना और दूसरे पक्ष को सुनना चाहेंगे. जिस तरीके से कानून की व्याख्या की गई है उस पर संभवत: उच्चतम न्यायालय को गौर करने की आवश्यकता होगी. इसलिए हम नोटिस जारी कर रहे हैं.’ इस मामले पर 19 जुलाई को शुरू हो रहे हफ्ते पर सुनवाई की जाएगी.

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छात्रों की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा कि इसमें कोई शक नहीं है कि उच्चतम न्यायालय को यूएपीए के असर और व्याख्या पर गौर करना चाहिए, ताकि इस मुद्दे पर शीर्ष अदालत से फैसला आ सके.

दिल्ली हाईकोर्ट ने 15 जून को जेएनयू छात्र नताशा नरवाल और देवांगना कालिता और जामिया के छात्र आसिफ इकबाल तन्हा को जमानत दे दी थी. हाईकोर्ट ने तीन अलग-अलग फैसलों में छात्र कार्यकर्ताओं को जमानत देने से इनकार करने वाले निचली अदालत के आदेश को रद्द कर दिया था.

जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल और जस्टिस एजे भंभानी की बेंच ने कहा था, ‘हम यह कहने के लिए विवश हैं कि ऐसा लगता है, कि असहमतियों को दबाने की उलझन में, राज्य के मन में, संवैधानिक गारंटी वाले विरोध के अधिकार और आतंकवादी गतिविधि के बीच की रेखा कुछ धुंधली होती जा रही है. अगर यह मानसिकता जोर पकड़ती है, तो यह लोकतंत्र के लिए एक दुखद दिन होगा, जो खतरे में होगा.’ अदालत ने आगे कहा कि (आरोपियों के खिलाफ) आतंकवादी कृत्य करने से जुड़े कोई सबूत नहीं है.

कानून-कचहरी

छात्रों को जमानत देते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने यूएपीए के दुरुपयोग पर सरकार को फिर आईना दिखाया है

24 फरवरी 2020 को उत्तर-पूर्व दिल्ली में संशोधित नागरिकता कानून के समर्थकों और विरोधियों के बीच हिंसा भड़क गई थी, जिसने सांप्रदायिक टकराव का रूप ले लिया था. हिंसा में कम से कम 53 लोगों की मौत हो गई थी.

दिल्ली हाईकोर्ट,
Photo Credit- The Hindu

दिल्ली हाईकोर्ट ने उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगों से जुड़े एक मामले में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय की छात्राओं नताशा नरवाल, देवांगना कालिता और जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्र आसिफ इकबाल तन्हा को मंगलवार को जमानत दे दी. अदालत ने सभी लोगों को 50-50 हजार रुपये के निजी मुचलके और इतनी ही राशि के दो जमानतदारों के आधार पर रिहा करने का निर्देश दिया. इन लोगों को पिछले साल फरवरी में दंगों से जुड़े एक मामले में गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) कानून के तहत मई 2020 में गिरफ्तार किया गया था.

समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल और न्यायमूर्ति एजे भंभानी की पीठ ने कहा, ‘हम यह कहने के लिए विवश हैं कि ऐसा लगता है, कि असहमतियों को दबाने की उलझन में, राज्य के मन में, संवैधानिक गारंटी वाले विरोध के अधिकार और आतंकवादी गतिविधि के बीच की रेखा कुछ धुंधली होती जा रही है. अगर यह मानसिकता जोर पकड़ती है, तो यह लोकतंत्र के लिए एक दुखद दिन होगा, जो खतरे में होगा.’ अदालत ने आगे कहा कि (आरोपियों के खिलाफ) आतंकवादी कृत्य करने से जुड़े कोई सबूत नहीं है.

हालांकि, अदालत ने ‘पिंजड़ा तोड़’ की कार्यकर्ता नताशा नरवाल, देवांगना कालिता और आसिफ इकबाल तन्हा को किसी भी गैर-कानूनी गतिविधि में हिस्सा न लेने और कारागार के रिकॉर्ड में दर्ज पते पर रहने के लिए कहा है. इसके अलावा इन लोगों को अपने-अपने पासपोर्ट जमा करने, गवाहों को प्रभावित न करने और सबूतों के साथ कोई छेड़खानी न करने के निर्देश दिए हैं.

आसिफ इकबाल तन्हा ने निचली अदालत के 26 अक्टूबर, 2020 के उसे आदेश को दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दी थी. इसमें अदालत ने इस आधार पर उसकी जमानत याचिका खारिज कर दी थी कि आरोपी ने पूरी साजिश में कथित रूप से सक्रिय भूमिका निभाई थी और इस आरोप को स्वीकार करने के लिए पर्याप्त आधार हैं कि आरोप पहली नजर में सही लगते हैं.

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वहीं, नताशा नरवाल और देवांगना कालिता ने निचली अदालत के 28 अक्टूबर के फैसले को चुनौती दी थी. इसमें अदालत ने यह कहते हुए उनकी याचिका को खारिज कर दिया था कि उनके खिलाफ लगे आरोप पहली नजर में सही दिखाई देते हैं और आतंकवाद विरोधी कानून के प्रावधानों को इन मामले में सही तरीके से लागू किया गया है.

दिल्ली हाईकोर्ट ने इन याचिकाओं पर आए तीन अलग-अलग फैसले दिए हैं. इनमें हाई कोर्ट ने कहा है कि यद्यपि सख्त गैर-कानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) की धारा-15 में ‘आतंकवादी गतिविधि’ की परिभाषा बहुत छितरी हुई और कुछ हद तक अस्पष्ट है, फिर इसका आतंकवाद की अनिवार्य पहचान के अनुरूप होना जरूरी है और ‘आतंकवादी गतिविधि’ वाक्यांश को आपराधिक कृत्यों वाले मामले में आक्रामक तरीके से लागू करने की छूट नहीं दी जा सकती है, जो पूरी तरह से आईपीसी के तहत आते हैं.

दिल्ली हाई कोर्ट ने यह भी कहा कि भड़काऊ भाषणों, चक्का जाम करने, महिलाओं को विरोध करने के लिए उकसाने और विभिन्न चीजों को जमा करने और अन्य ऐसे आरोप इस बात के सबूत हैं कि वे विरोध प्रदर्शन करने में शामिल हुए थे, लेकिन इसमें ऐसा कोई विशेष आरोप नहीं है कि उन्होंने हिंसा भड़काई, आतंकवादी कृत्य करने के बारे में चर्चा की या उसे अंजाम देने की साजिश रची.

देवांगना कालिता के बारे में, अदालत ने कहा कि कुछ महिला अधिकार संगठनों और अन्य समूहों के सदस्य के रूप में, उन्होंने दिल्ली में सीएए व एनआरसी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन आयोजित करने में हिस्सा लिया, और कहा कि विरोध करने का अधिकार, जो हथियारों के बिना शांतिपूर्वक इकट्ठा होने का एक मौलिक अधिकार है,निश्चित रूप से गैर-कानूनी नहीं है और इसे यूएपीए के अर्थों में एक आतंकवादी कृत्य नहीं कहा जा सकता है, जब तक कि अपराधों की सामग्री आरोपों से स्पष्ट न हो रही हो।

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गौरतलब है कि 24 फरवरी 2020 को उत्तर-पूर्व दिल्ली में संशोधित नागरिकता कानून के समर्थकों और विरोधियों के बीच हिंसा भड़क गई थी, जिसने सांप्रदायिक टकराव का रूप ले लिया था. हिंसा में कम से कम 53 लोगों की मौत हो गई थी और करीब 200 से ज्यादा लोग घायल हो गए थे.

कानून-कचहरी

2015 के बाद ऐसा क्या हुआ कि देश में राजद्रोह के मामले बढ़ गए?

संसद में पेश आंकड़ों से एक बात साफ नजर आती है कि 2015 के बाद से देश में राजद्रोह के मामलों में गिरफ्तारियां बढ़ी हैं. आखिर इस दौरान ऐसा क्या हुआ कि 2015 के बाद लोग राजद्रोही होने लगे?

राजद्रोह, आईपीसी, धारा-124(ए)
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सुप्रीम कोर्ट ने वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ राजद्रोह की एफआईआर को खारिज कर दिया. इसके साथ याद दिलाया कि पत्रकारों को 1962 के केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले के तहत विशेष संरक्षण हासिल है. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह को असंवैधानिक नहीं माना गया था, लेकिन सरकार से सवाल पूछने या उसकी आलोचना करने को राजद्रोह मानने को बेबुनियाद करार दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने इसी संरक्षण का हवाला दिया है.

लेकिन संविधान ने तो पत्रकारिता को सिर्फ पत्रकारों तक सीमित नहीं किया है, बल्कि इसे नागरिकों की वाक् और अभिव्यक्ति की आजादी में शामिल बताया है. अगर इस विवाद को छोड़ दें तब भी सवाल आता है कि अगर राजद्रोह की इतनी व्यापक परिभाषा मौजूद है तब इसका इतना दुरुपयोग क्यों हो रहा है?

संसद के बजट सत्र में राज्य सभा सांसद छाया वर्मा, संजय सिंह और सतीश चंद्र दुबे ने केंद्र सरकार से भारतीय दंड संहिता की धारा-124 (ए) के तहत दर्ज होने वाले राजद्रोह के मामलों पर जवाब मांगा था. सांसद सतीश चंद दुबे ने पूछा था कि राजद्रोह और राष्ट्रद्रोह में क्या अंतर है (Difference Between Sedition And Treason), क्या सरकार इस पर कोई स्पष्ट नजरिया रखती है, क्योंकि कोई भड़काऊ भाषण देता है तो उस पर राजद्रोह लग जाता है, लेकिन सशस्त्र बगावत करने वाले नक्सलियों पर इस धारा का इस्तेमाल नहीं किया जाता है.

वहीं, सांसद छाया वर्मा ने पूछा कि बीते पांच साल में आईपीसी की धारा-124 (ए) के अधीन गिरफ्तारियों का ब्यौरा क्या है, कितने प्रतिशत लोगों को दोषमुक्त और दंडित किया गया, क्या यह सच है कि इस धारा के तहत गिरफ्तार होने वाले 90 फीसदी लोगों को अदालत दोषमुक्त घोषित कर देती है, क्या दोषमुक्त और दंडित किए जाने वाले व्यक्तियों की संख्या को देखते हुए इस धारा में बदलाव करने का विचार है? इसके अलावा सांसद संजय सिंह ने पांच वर्षों में राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार और मुक्त किए गए युवाओं का ब्यौरा मांगा था.

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संसद में इन तमाम सवालों का जबाव केंद्रीय गृह राज्यमंत्री जी किशन रेड्डी ने दिया. उन्होंने बताया कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत धारा-124 (ए) के अंतर्गत केवल राजद्रोह को ही अपराध घोषित किया गया है. उन्होंने यह भी जानकारी दी कि संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत पुलिस और लोक व्यवस्था राज्यों का काम है, वही कानूनों और अधिनियमों के तहत अपराध के लिए मामले दर्ज करने से लेकर जांच और अभियोजन तक की प्राथमिक जिम्मेदारी संबंधित राज्य सरकारों की होती है.

केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अपने जवाब के साथ आंकड़े भी पेश किए. इसके मुताबिक, आईपीसी की धारा-124 (ए) के तहत सबसे ज्यादा गिरफ्तारियां 2017 में की गई. साल 2017 को राजद्रोह का स्वर्णकाल कहा जा सकता है. 2017 में सबसे ज्यादा 125 लोगों को हरियाणा में गिरफ्तार किया गया. इसके बाद 68 गिरफ्तारियों के साथ बिहार दूसरे नंबर पर था. उत्तर प्रदेश में 2015 से 2019 के बीच पहली गिरफ्तारी 2016 में हुई जो 2019 में बढ़कर नौ हो गई. वहीं, 2019 में जम्मू-कश्मीर, नगालैंड और कर्नाटक में राजद्रोह के तहत गिरफ्तारियों में जबरदस्त उछाल आ गया. (देखें चार्ट-1)

संसद में केंद्रीय राज्यमंत्री ने राजद्रोह के मामले में दोष मुक्त होने वालों के भी आंकड़े दिए थे. इसके मुताबिक, 2015 में 11, 2016 में एक, 2017 में 7, 2018 में 21 और 2019 में 29 लोगों को राजद्रोह के मामले से मुक्त कर दिया गया. अगर राजद्रोह के मामले में सजा पाने वालों की बात करें तो 2015 में एक भी व्यक्ति को सजा नहीं मिली. वहीं, 2016 में एक, 2017 में चार, 2018 में दो और 2019 में दो लोगों को सजा मिली. इससे साफ है कि राजद्रोह के आरोप में जितने लोगों की गिरफ्तारियां होती हैं, उसके मुकाबले आरोपों को अदालत में साबित होना मुश्किल होता है.

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सांसद संजय सिंह को दिए गए जवाब से पता चलता है कि राजद्रोह के मामले में ज्यादातर युवाओं की गिरफ्तारी हुई है. साल 2015 में 18-30 वर्ष 29, 30-45 वर्ष के 32 लोगों को गिरफ्तार किया गया था, जबकि 2016 में 18-30 वर्ष के 11 और 30-45 वर्ष के 24 लोगों को गिरफ्तार किया गया. 2017 में राजद्रोह के मामले में 18-30 वर्ष के 137 लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिनमें तीन महिलाएं भी शामिल थीं. इस साल राजद्रोह के मामले में 30-45 वर्ष के 62 लोगों को गिरफ्तार किया गया. 2018 में 18-30 वर्ष के 32 और 30-45 वर्ष के 22 लोगों को राजद्रोह के मामले में गिरफ्तार किया गया. 2019 में 18-30 वर्ष की एक महिला समेत 55 व्यक्ति, जबकि 30-45 वर्ष के 33 लोगों को राजद्रोह के मामले में गिरफ्तार किया गया.

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इन तमाम आंकड़ों से एक बात साफ नजर आती है कि 2015 के बाद से देश में राजद्रोह के मामलों में गिरफ्तारियां बढ़ी हैं. आखिर इस दौरान ऐसा क्या हुआ कि 2015 के बाद लोग राजद्रोही होने लगे? कहीं ऐसा तो नहीं है कि सरकारों ने लोकतांत्रिक उदारता को छोड़ना शुरू कर दिया है और सामान्य आलोचना तक में लोगों को निशाना बनाया जाने लगा है? पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ दर्ज मामला भी लोकतांत्रिक समझ और उदारता के घटने का उदाहरण है. विनोद दुआ के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई गई थी कि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर वोट पाने के लिए ‘मौत और आतंकी हमले’ को इस्तेमाल करने का आरोप लगाया था.

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भारतीय संविधान कल्पना नहीं करता है कि अधिकार हनन पर अदालतें मूकदर्शक बनी रहें : सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट कोविड-19 प्रबंधन के मामले में स्वयं संज्ञान लेकर सुनवाई कर रहा है। इसी मामले में केंद्र ने कोविड प्रबंधन नीति में अदालत के दखल को गैर-जरूरी बताया है. इसी बात को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की है.

भारतीय संविधान, सुप्रीम कोर्ट,

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की कोविड प्रबंधन नीति में दखल न देने की  दलील को खारिज कर दिया है. बुधवार को अपलोड हुए 31 मई के आदेश में सर्वोच्च अदालत ने कहा, ‘जब कार्यपालिका की नीतियों से जनता के अधिकारों का हनन हो रहा हो, तब भारतीय संविधान अदालतों के मूक दर्शक बने रहने की कल्पना नहीं करता है.’

जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस एल एन राव और जस्टिस एस रवींद्र भट की स्पेशल बेंच ने कहा कि यह बहुत घिसी-पिटी सी बात है कि शक्तियों का बंटवारा संविधान के बुनियादी ढांचे का एक हिस्सा है और नीति-निर्माण कार्यपालिका का एकमात्र अधिकार क्षेत्र बना हुआ है. अदालत ने आगे कहा, ‘कार्यपालिका (यानी सरकार) की बनाई नीतियों की न्यायिक समीक्षा करना और संवैधानिक औचित्य को जांचना बेहद अनिवार्य कार्य है, जिसके लिए अदालतों को जिम्मेदारी सौंपी गई है.’

सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा कि पूरी दुनिया में, कार्यपालिका को अपने उपायों को लागू करने के लिए काफी जगह दी गई है, जो सामान्य समय में व्यक्तियों की आजादी के खिलाफ हो सकते हैं, लेकिन अभी महामारी रोकने के लिए जरूरी हैं.

1905 के एक मामले में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लेख करते हुए बेंच ने कहा, ‘ऐतिहासिक रूप से, न्यायपालिका यह भी मानती है कि जन स्वास्थ्य की ऐसी आपात स्थितियों में संवैधानिक जांच में बदलाव आ जाता है, जहां कार्यपालिका वैज्ञानिकों और अन्य विशेषज्ञों के साथ त्वरित परामर्श के साथ काम करती है.’

बेंच ने आगे कहा कि इसी तरह, पूरी दुनिया में अदालतों ने कार्यकारी नीतियों से जुड़ी संवैधानिक चुनौतियों पर भी प्रतिक्रिया दी है, जिन्होंने परोक्ष या अपरोक्ष रूप से नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रता का उल्लंघन किया है.

अदालत ने आगे कहा, ‘अदालतों ने अक्सर सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट के प्रबंधन में कार्यपालिका की विशेषज्ञता का बार-बार उल्लेख किया है, लेकिन एक महामारी से लड़ने के लिए कार्यपालिका को मिली छूट की आड़ में मनमानी और तर्कहीन नीतियों के खिलाफ चेतावनी भी दी है.’

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सुप्रीम कोर्ट में 9 मई को दाखिल हलफनामे में, केंद्र ने अपनी कोविड-19 टीकाकरण नीति को सही ठहराया था. इसके लिए तर्क दिया गया था कि इसकी प्रतिक्रिया और रणनीति पूरी तरह से चिकित्सा क्षेत्र के विशेषज्ञ और वैज्ञानिकों की सलाह से प्रेरित है, जो न्यायिक हस्तक्षेप के लिए बहुत कम जगह छोड़ती है और इस बात पर जोर देती है कि देश भर में सभी आयु वर्गों के नागरिकों को मुफ्त में टीकाकरण होगा.

केंद्र ने यह भी कहा था कि अभूतपूर्व और अजीबोगरीब परिस्थितियों के मद्देनजर, जिसके तहत टीकाकरण अभियान को एक कार्यकारी नीति के रूप में तैयार किया गया है, कार्यपालिका की विवेक पर भरोसा किया जाना चाहिए. केंद्र सरकार के मुताबिक, एक वैश्विक महामारी में, जहां राष्ट्र की प्रतिक्रिया और रणनीति पूरी तरह से चिकित्सा क्षेत्र के विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों की राय से संचालित होती है, ‘किसी भी अति उत्साही, भले ही बहुत सार्थक न्यायिक हस्तक्षेप के अप्रत्याशित और अनापेक्षित परिणाम हो सकते हैं.’

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट कोविड-19 प्रबंधन के मामले में स्वयं संज्ञान लेकर सुनवाई कर रहा है. इसी मामले में केंद्र ने 218 पेज का हलफनामा दाखिल किया है और अपनी कोविड-19 प्रबंधन की नीति को संविधान के अनुच्छेद-14 और अनुच्छेद-21 के अनुरूप बताया है. हालांकि, शीर्ष अदालत ने एक वैक्सीन के लिए तीन दाम तय करने की नीति पर सवाल उठाए हैं.

उल्लेखनीय है कि केंद्र सरकार खुद कोविशील्ड वैक्सीन 150 रुपये प्रति डोज के हिसाब से खरीद रही है, जबकि यह राज्यों को 300 रुपये और निजी क्षेत्र को 600 रुपये में मिल रही है. वहीं, स्पूतनिक वी वैक्सीन की कीमत 1195 रुपये प्रति डोज है. इस पर बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से वैक्सीन के घरेलू और विदेश में दाम की तुलनात्मक रिपोर्ट, दिसंबर 2021 तक वैक्सीन उपलब्धता का रोडमैप और शहरी-ग्रामीण क्षेत्रों में मौजूद डिजिटल डिवाइड से निपटने के बारे में जवाब मांगा है. इस मामले में अब अगली सुनवाई 30 जून को होगी.

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