दिल्ली की सीमा पर हजारों किसान केंद्र के कृषि कानूनों के खिलाफ लगभग एक महीने से प्रदर्शन कर रहे हैं. इन की मांग है कि सरकार इन कानूनों को तत्काल वापस ले. इस दौरान किसानों के साथ सरकार की बातचीत बेनतीजा रही है. विपक्ष भी लगातार किसानों की आवाज सुनने की मांग कर रहा है. इसके जवाब में सरकार और सत्ताधारी दल विपक्ष पर किसानों को उकसाने के आरोप लगा रहे हैं. इसमें मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक सभी शामिल हैं.
विपक्ष पर इवेंट मैनेजमेंट का आरोप
शुक्रवार को किसान सम्मान निधि वितरण कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘आज जिन राजनीतिक दलों के लोग अपने आप को इस राजनीतिक प्रवाह में जब देश की जनता ने उन्हेंम नकार दिया है तो कुछ न कुछ ऐसे इवेंट कर रहे हैं, इवेंट मैनेजमेंट हो रहा है ताकि कोई सेल्फीा ले ले, कोई फोटो छप जाए, कहीं टी.वी. पर दिखाई दें और उनकी राजनीति चलती जाए….पंजाब के किसानों को गुमराह करने के लिए आपके पास समय है, केरल के अंदर यह व्यवस्था नहीं है, अगर ये व्यवस्था अच्छी है तो केरल में क्यों नहीं है? क्यों आप दोगुली नीति लेकर के चल रहे हो? ये किस तरह की राजनीति कर रहे हैं जिसमें कोई तर्क नहीं है, कोई तथ्य नहीं है। सिर्फ झूठे आरोप लगाओ, सिर्फ अफवाहें फैलाओ, हमारे किसानों को डरा दो और भोले-भाले किसान कभी-कभीी आपकी बातों में गुमराह हो जाते हैं.’
विपक्ष पर किसानों को गुमराह करने आरोप
प्रधानमंत्री ने आगे कहा, ‘ये लोग लोकतंत्र के किसी पैमाने को, किसी पैरामीटर को मानने को तैयार नहीं हैं। इन्हें सिर्फ अपना लाभ, अपना स्वार्थ नजर आ रहा है और मैं जितनी बाते बता रहा हूँ, किसानों के लिए नहीं बोल रहा हूँ, किसानों के नाम पर अपने झंडे लेकर के जो खेल खेल रहे हैं अब उनको ये सच सुनना पड़ेगा और हर बात को किसानों को गाली दी, किसानों को अपमानित किया ऐसे कर-कर के बच नहीं सकते हो आप लोग। ये लोग अखबारों और मीडिया में जगह बनाकर राजनीतिक मैदान में खुद के जिंदा रहने की जड़ी-बूटी खोज रहे हैं। लेकिन देश का किसान उसको पहचान गया है अब देश को किसान उनको ये जड़ी-बूटी कभी देने वाला नहीं है। कोई भी राजनीति, लोकतंत्र में राजनीति करने का उनका हक है, हम उसका विरोध नहीं कर रहे। लेकिन निर्दोष किसानों की जिंदगी के साथ न खेलें, उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ न करें, उन्हें गुमराह न करें, भ्रमित न करें।’
विपक्ष कमजोर है या ताकतवर?
प्रधानमंत्री के इस पूरे भाषण का लबोलुआब है कि विपक्ष किसानों को आंदोलन के लिए उकसा रहा है. सवाल है कि किसान आखिर उस विपक्ष पर कैसे भरोसा करने लगा, जिसे भरोसा न कर पाने की वजह से ही चुनावों में खारिज कर चुका है. एक बात यह भी है कि अगर विपक्ष आज इतना ताकतवर हो गया है कि वह किसानों का आंदोलन खड़ा कर ले जाए तब उसे कमजोर या जनता द्वारा खारिज बताना कितना सही है? इसी बात को 24 दिसंबर को विपक्षी दल कांग्रेस की नेता प्रियंका गांधी ने भी उठाया, जब उन्हें और दूसरे नेताओं को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को ज्ञापन देने जाने से पहले दिल्ली पुलिस ने हिरासत में ले लिया था. इसके बाद उन्होंने कहा था, ‘कभी वे कहते हैं कि हम इतने कमजोर हैं कि विपक्ष की मान्यता पाने के लायक नहीं हैं. वे कहते हैं कि हम इतने ताकतवर हो गए हैं कि हमने लाखों किसानों को (दिल्ली की) सीमा पर एक महीने से धरना करने के लिए मना लिया है.’ प्रियंका गांधी ने कहा था कि सरकार सिर्फ विपक्ष को हर चीज के लिए जिम्मेदार ठहराकर अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकती है, किसानों की आवाज को सुनना सरकार की जिम्मेदारी है, क्योंकि सरकार की जनता के प्रति जवाबदेही है. विपक्ष को दबाने का आरोप कांग्रेस नेता राहुल गांधी भी लगा चुके हैं. गुरुवार को राष्ट्रपति से मिलने के बाद उन्होंने कहा था कि आप (सरकार) हमें, हमारे सांसदों और नेताओं को बाहर नहीं जाने देते हैं, फिर कहते हैं सब ठीक है. बीच में लखनऊ में दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को पुलिस ने एक स्कूल को देखने जाने से रोक दिया था, जबकि इसके पीछे कोई कानूनी आधार मौजूद नहीं था. ऐसे बहुत से मामले हैं, जिसमें सत्ता का इस्तेमाल कर विपक्ष के सामान्य अधिकारों को बाधित किया जा रहा है.
विपक्ष को भी जनता ही चुनती है
किसान आंदोलन के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराने के जो बयान आ रहे हैं, उसने संसदीय लोकतंत्र में पक्ष के दमन की पुरानी बहस को एक बार फिर सामने ला दिया है. दरअसल, संसदीय लोकतंत्र में कार्यपालिका और विधायिका का स्पष्ट बंटवारा नहीं होता है. लेकिन बहुमत के आधार पर सत्ता पक्ष और विपक्ष पूरी सक्रियता से काम करता है. यहां विपक्ष का मतलब सरकार का विरोधी दल नहीं, बल्कि उस पर नियंत्रण रखने वाला जनता का चुना हुआ उपाय है. जनता का चुना हुआ कहने का मतलब है कि चुनाव के बाद एक दल या गठबंधन पर्याप्त संख्या पाकर सरकार बनाता है, जबकि दूसरे दल या गठबंधन विपक्ष बनते हैं. यानी विपक्ष के पीछे भी जनादेश है, बस सरकार बनाने भर का बहुमत नहीं होता है. इसके बावजूद सत्ता पक्ष द्वारा अपनी नाकामी, कमजोरी या बहुमत के दम पर आने वाली सीनाजोरी छिपाने या अपने खिलाफ जनता के फैसले असंतोष से बचने के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराया जाने लगता है.
विधायिका में विपक्ष को समकक्ष का दर्जा
संविधान के तहत शक्तियों के बंटवारे में भले ही विपक्ष को स्पष्ट हिस्सा नहीं दिया गया है. लेकिन विधायिका में कानून निर्माता के तौर पर विपक्षी दल के सांसद और सत्ता दल के सांसदों के बीच कोई फर्क नहीं किया गया है. इसके बावजूद सत्ता पक्ष की ओर न केवल विपक्ष को कमजोर साबित करने, बल्कि बहुमत के दम पर उसकी अवहेलना करने या उसे अनसुना करने की कोशिश की जाती है. यह शिकायत नई नहीं है. संविधान निर्माताओं के सामने यह सवाल शक्तियों के बंटवारे के समय सामने आया था.
संविधान सभा में भी उठा था सवाल
संविधान सभा की 10 दिसंबर 1948 की बैठक में प्रो. के टी शाह ने संविधान में कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के स्पष्ट बंटवारे और तीनों को एक-दूसरे से स्वतंत्र बताने वाला प्रावधान जोड़ने का प्रस्ताव रखा था. उनका कहना था कि इसके जरिए ही नागरिक आजादी और कानून के शासन की व्यवस्था को सुरक्षित रखा जा सकेगा. प्रो. के टी शाह का यह भी कहना था कि अगर कभी न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संपर्क रहा तो संविधान की व्याख्या, नागरिक अधिकारों की रक्षा और न्याय प्रशासन को अवांछित तरीके से प्रभावित किए जाने का डर रहेगा.
संसदीय राजनीति में विपक्ष का दमन क्यों
संविधान सभा में काजी सैयद करीमुद्दीन ने प्रोफेसर के टी शाह के प्रस्ताव का खुला समर्थन किया. उन्होंने संसदीय लोकतंत्र की उस खामी को सामने रखा जो आज तो और भी विकराल हो चुकी है. काजी सैयद करीमुद्दीन ने कहा कि यह दिन के उजाले की तरह साफ है कि संसदीय व्यवस्था में राजनीतिक विरोधियों को तबाह कर दिया जाता है, उन्हें नजरअंदाज किया जाता है. उन्होंने कहा, ‘अगर आप देश में शांति चाहते हैं, और आप यह भी चाहते हैं कि सत्ताधारी और विपक्षी दल देश में पनपें तो यह बहुत जरूरी है कि गैर-संसदीय सिस्टम को अपनाया जाए.’ उन्होंने आगे कहा कि संसदीय प्रणाली में मेलजोल है ही नहीं, बल्कि एक ऐसी व्यवस्था है जहां राजनीतिक विरोधियों को तबाह किया जाता है, मेलजोल वाली व्यवस्था वह होती है, जहां सभी राजनीतिक दलों को साथ-साथ काम करने की छूट होती है, जहां विपक्षियों को भी तवज्जो दी जाती है. सैयद करीमुद्दीन ने कहा कि शासन की संसदीय प्रणाली में अनुशासन और सहनशीलता नहीं है, इसलिए मेलजोल वाले ढांचे की उम्मीद नहीं है.
तीनों अंगों में टकराव हुआ तो…
दरअसल, इससे पहले संविधान सभा के सदस्य के. हनुमंथैया ने प्रो. के टी शाह के प्रस्ताव का विरोध किया था. उनका कहना था कि अगर किसी देश के तीनों अंगों में टकराव हुआ तो शांति के लिए खतरा पैदा हो जाएगा. उन्होंने शासन के तीनों अंगों के बीच मेलजोल वाले संबंध को सही ठहराया. के. हनुमंथैया का यह भी कहना था कि न्यायपालिका निष्पक्ष रहे, इसके लिए उसे सरकार (कार्यपालिका) या संसद (विधायिका) से ज्यादा शक्ति देने की जरूरत नहीं है, यह सोचना बेबुनियाद है कि सुप्रीम कोर्ट के कुछ जज 400 सदस्यों वाली संसद से बेहतर साबित होंगे.
जनता कितनी सतर्क है?
हनुमंथैया के विपरीत शिब्बन लाल सक्सेना ने भी प्रो. के. टी शाह का सैद्धांतिक समर्थन किया था. प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अंबेडकर के एक भाषण का हवाला देकर उन्होंने कहा था कि अमेरिकी शासन प्रणाली ज्यादा सुरक्षा देती है, जबकि ब्रिटिश शासन प्रणाली (संसदीय प्रणाली) उत्तरदायित्व, फिलहाल हमने उत्तरदायित्व को चुना है. हालांकि, शिब्बन लाल सक्सेना ने यह भी कहा कि इंग्लैंड के लोगों ने उस चर्चिल को सत्ता से हटाने में देरी नहीं की, जिसने इंग्लैंड की आजादी की रक्षा की थी, क्या हम कभी अपने यहां ऐसा माहौल बना पाएंगे कि लोग उस आदमी को सत्ता से उखाड़ फेंकें जो उनके लिए अच्छा नहीं होगा. उन्होंने कहा कि जब तक हम ऐसा नहीं कर पाएंगे, संसदीय लोकतंत्र काम नहीं कर सकता है. हालांकि, उन्होंने प्रो. के टी शाह के प्रस्ताव का इस आधार पर विरोध किया कि संविधान को बनाने का काम बहुत आगे निकल चुका है, इसलिए इसमें अब बदलाव करने का मतलब है कि संविधान के पूरे ढांचे को बदलना पड़ेगा. लेकिन उन्होंने इस बात की जरूरत बतायी थी कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता को हर हाल में विधायिका और कार्यपालिका से अलग रखने की जरूरत है.
अमेरिकी व्यवस्था को न अपनाने में कोई नुकसान नहीं
प्रो. के टी शाह के प्रस्ताव पर संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ बी आर अंबेडकर ने भी जवाब दिया था. उन्होंने कहा था कि यह सच है कि अमेरिका के संविधान में कार्यपालिका और विधायिका के बीच शक्तियों का स्पष्ट बंटवारा मौजूद है, लेकिन इस सख्त बंटवारे और इससे आने वाले टकराव को लेकर बहुत से अमेरिकियों और राजनीति शास्त्र के विद्वानों में असंतोष भी है. डॉ. बी आर अंबेडकर ने अंत में कहा कि भारत ने अमेरिका जैसा शक्तियों के बंटवारे को नहीं अपनाकर अपना कोई नुकसान नहीं किया है. इसका मकसद टकराव मुक्त व्यवस्था की जगह, मेलजोल वाली व्यवस्था को लाना और जनकल्याण के व्यापक लक्ष्य को सुनिश्चित करना था. हालांकि, इस बहस में सत्ता के हाथों विपक्ष के दमन का सवाल छूटा ही रह गया. शायद ऐसा इसलिए भी हुआ कि विपक्ष अपने अस्तित्व को बचाने के लिए सक्रिय रहे और सत्ता परिवर्तन के विकल्प के जरिए शक्ति संतुलन कायम रख सके.