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संविधान सभा

डॉ. अंबेडकर क्यों चाहते थे कि संविधान में अध्यादेश से कानून बनाने का प्रावधान हर हाल में रहे?

कृषि कानूनों को बनाने में संविधान के अध्यादेश के प्रावधान का इस्तेमाल किया. आखिर इस प्रावधान को संविधान में क्यों रखा गया था और संविधान सभा में डॉ. अंबेडकर ने इसका कैसे बचाव किया था?

अध्यादेश के जरिए कानून बनाने पर संविधान सभा में क्या चर्चा हुई थी
Photo credit- Google

भारतीय संविधान में आपातकालीन स्थिति से निपटने के लिए कई उपाय शामिल किए गए हैं. ऐसा ही एक प्रावधान अनुच्छेद-123 है. इसमें राष्ट्रपति को विधायी यानी संसद के बराबर कानून बनाने की शक्ति दी गई है. इस प्रावधान का मकसद सरकार को कभी कानून के अभाव में किसी आपात स्थिति से निपटने में कमजोर पड़ने से बचाना है. हालांकि, इस अध्यादेश को जारी करने शर्त है कि संसद के दोनों सदन सत्र में न हों. मौजूदा केंद्र सरकार जून में इसी प्रावधान के तहत मंडी व्यवस्था में बदलाव, कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग को मंजूरी और आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन से जुड़े अध्यादेश लाई थी, जिसकी जगह लेने वाले विधेयक संसद से पारित हो चुके हैं. लेकिन, इन कानूनों को बनाने की प्रक्रिया और टाइमिंग पर लगातार सवाल उठ रहे हैं.

अध्यादेश की अधिकतम अवधि

किसी भी अध्यादेश को संसद का सत्र शुरू होने के छह हफ्ते के भीतर उसकी मंजूरी लिया जाना जरूरी है. हालांकि, संविधान में किसी अध्यादेश के लिए कोई अधिकतम समय सीमा तय नहीं की गई है. लेकिन माना जाता है कि संविधान के अनुच्छेद-85 के तहत सामान्य स्थिति में संसद के दो सत्रों के बीच अधिकतम छह महीने का अंतर हो सकता है. यानी सामान्य स्थिति में किसी अध्यादेश की अधिकतम मियाद छह (सत्रों के बीच का अधिकतम समय) महीने और छह सप्ताह (सत्र बुलाने के बाद मंजूरी लेने का समय) से ज्यादा नहीं हो सकती है. असामान्य स्थिति में इसकी अवधि संसद का सत्र न होने तक अध्यादेश प्रभावी रह सकता है.

संविधान सभा में विस्तार से चर्चा

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संविधान सभा में राष्ट्रपति को विधायी शक्तियां देने पर 23 मई 1949 को चर्चा हुई थी. संविधान के मसौदे में यह शक्तियां अनुच्छेद-102 में थीं, जो अंतिम रूप से तैयार संविधान में अनुच्छेद-123 के रूप में शामिल हुई. संविधान सभा में इस पर बहस के दौरान अध्यादेश की अधिकतम समय सीमा और दुरुपयोग की आशंका के सवाल उठे थे. प्रो. के.टी. शाह ने इसे राष्ट्रपति की ‘विधायी शक्तियां’ कहने की जगह ‘असाधारण शक्तियां’ कहने का सुझाव दिया था. वहीं, एच. वी. कामथ ने कहा था कि अगर दोनों में एक भी सदन का सत्र चल रहा हो तो राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति न मिले. सरदार हुकुम सिंह ने मांग की थी कि जीवन जीने के अधिकार को इन अध्यादेशों से सुरक्षा दी जानी चाहिए. राष्ट्रपति की विधायी शक्तियों पर सबसे तीखा हमला संविधान सभा के सदस्य हृदयनाथ कुंजरू ने बोला था. उन्होंने इसकी तुलना गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट-1935 के तहत गवर्नर-जनरल को मिली शक्तियों से कर डाली थी, जिसका अंग्रेजी हुकूमत के समय अक्सर दुरुपयोग होता था.

डॉ. अंबेडकर ने कैसे बचाव किया

हालांकि, भारतीय संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉ. भीम राव अंबेडकर ने राष्ट्रपति को विधायी शक्ति दिए जाने को जरूरी बताया. उन्होंने कहा कि इसकी गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट-1935 से तुलना करना ठीक नहीं है, क्योंकि उसमें गवर्नर जनरल को बहुत मनमानी और विवेकाधीन शक्तियां मिली हुई थीं, लेकिन भारत के राष्ट्रपति को जो विधायी शक्तियां मिली हैं, उनका मंत्रिमंडल की सलाह से इस्तेमाल होगा और वह भी तब, जब संसद सत्र न चल रहा हो.

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सिर्फ आपात स्थिति के लिए हैं अध्यादेश

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डॉ. अंबेडकर ने स्पष्ट रूप से कहा था कि यह प्रावधान आपात स्थिति से निपटने के लिए कानून की जरूरत को पूरा करने के लिए रखा गया है, बहुत सीमित करने पर यह मददगार नहीं हो पाएगा. गौरतलब है कि डॉ. अंबेडकर ने अध्यादेश की इस शक्ति को इस्तेमाल करने की सूरत बताते साफ तौर पर ‘इमरजेंसी’ यानी आपातकाल शब्द का इस्तेमाल किया था. हृदय नाथ कुंजरू के संशोधनों के जवाब में डॉ. अंबेडकर ने कहा, ‘अगर मैं उदाहरण दूं तो यह कानून ब्रिटिश इमरजैंसी पावर एक्ट-1920 के अनुरूप है. इसके तहत राजा को घोषणा करने और उसके बाद सरकार को भी नियम बनाने का अधिकार मिल जाता है. यह तभी हो सकता है जब संसद का सत्र नहीं चल रहा हो.’

डॉ. अंबेडकर ने आगे कहा कि भारत में ऐसी किसी आपातस्थिति को खारिज नहीं किया जा सकता है, जब सरकार के सामने हालात नियंत्रित करने के लिए तत्काल कदम उठाना जरूरी होगा और मौजूदा कानून उसकी मदद नहीं कर रहे होंगे. डॉ. अंबेडकर ने कहा, ‘ऐसी स्थिति के लिए मुझे लगता है राष्ट्रपति को विधायी शक्तियां देना ही सबसे अच्छा समाधान है, ताकि कार्यपालिका आपात स्थिति से निपट सके. यह कानून बनाने की सामान्य प्रक्रिया से नहीं संभव नहीं हो पाएगा क्योंकि उस वक्त विधायिका (संसद) का सत्र नहीं चल रहा होगा.’

दुरुपयोग की आशंका

डॉ. अंबेडकर ने राष्ट्रपति की विधायी शक्तियों के दुरुपयोग की आशंका को खारिज किया था. उन्होंने कहा था कि राष्ट्रपति इस मामले में भी बगैर अपने मंत्रिमंडल की मदद और सलाह के कोई फैसला नहीं करेगा. इसके अलावा वह ऐसे किसी विषय से जुड़ा अध्यादेश नहीं जारी करेगा, जिसमें विधायिका (संसद) सक्षम नहीं है. कुल मिलाकर संविधान में अध्यादेशों की व्यवस्था आपातस्थिति में कानून की जरूरत पूरी करने के लिए ही है. ऐसे में केंद्र सरकार ने कृषि मामलों में जिस तरह से अध्यादेश का सहारा लेकर कानून बनाए, वह अध्यादेशों के बारे में संविधान निर्माता डॉ. भीम राव अंबेडकर के विचारों से बिल्कुल ही मेल नहीं खाता है.

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डॉ. अंबेडकर ने संविधान में प्रेस की आजादी को अलग से लिखने की मांग क्यों खारिज कर दी थी?

संविधान सभा

क्यों डाॅ. अंबेडकर ने संविधान में प्रेस का अलग से उल्लेख करना जरूरी नहीं समझा?

संविधान सभा में वाक् और अभिव्यक्ति की आजादी पर दो दिन तक बहस हुई. इस दौरान कई सदस्यों ने प्रेस की आजादी को अलग से लिखने की मांग उठाई, लेकिन डॉ. बी. आर. अंबेडकर ने इसे नहीं माना. लेकिन क्यों, पढ़िए ये लेख…

प्रेस की आजादी
Photo credit - Dr. Ambedkar foundation

एक नागरिक या व्यक्ति के रूप में बोलने, कहीं भी आने-जाने, बसने और मन-मुताबिक काम करने की छूट ही असलियत में स्वतंत्र होने या न होने का अहसास कराती है. अंग्रेजी पराधीनता से आजाद हुए भारत के संविधान में इसे विशेष आदर दिया गया है. इतना ही नहीं, हमारे संविधान निर्माताओं ने स्वतंत्रता आंदोलन में अहम भूमिका निभाने वाली हर बात को मूल अधिकारों में शामिल किया था. संविधान सभा ने प्रेस की आजादी पर विस्तार से चर्चा की. इसके बावजूद इसे संविधान में अलग से जगह नहीं मिल सकी.

लोकतंत्र में वाक्-अभिव्यक्ति क्यों जरूरी है?

लोकतंत्र का सारा दारोमदार वाक् और अभिव्यक्ति की आजादी के साथ प्रेस की आजादी पर टिका है. इनके बगैर लोकतंत्र की कल्पना तो बगैर चांदनी के नीले आसमान में चमकते चांद देखने की ख्वाहिश करना है. लोकतंत्र में प्रेस की आजादी का मतलब जनता के बीच सामूहिकता पैदा करने वाला संवाद और जनता व सरकार को जोड़ने वाला सूचनाओं का पुल है. यह संविधान में दर्ज जनता के अधिकारों, संस्थाओं की शक्तियों के बंटवारे और कर्तव्यों का पालन सुनिश्चित करने वाले संविधानवाद के प्रचार-प्रसार का आधार है.

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संविधान में प्रेस की आजादी शामिल नहीं?

अब सवाल उठता है कि लोकतंत्र में प्राण फूंकने वाली वाक और अभिव्यक्ति की आजादी संविधान के अनुच्छेद-19 में शामिल की गई तो उसे प्रभावी बनाने वाली प्रेस की आजादी को क्यों छोड़ दिया गया? जब अमेरिका के संविधान से मूल अधिकार लिए गए तो वहां की प्रेस की आजादी को संरक्षण क्यों नहीं दिया गया? वह क्या वजह रही जिसके चलते प्रेस की आजादी के महत्व को पहचानते हुए भी इसे संविधान में  स्पष्ट रूप से किसी अनुच्छेद में क्यों नहीं शामिल किया गया? ऐसे तमाम सवालों का जवाब संविधान सभा की एक दिसंबर 1948 को शुरू होकर दो दिन तक चली बहस में छिपा है.

संविधान के मसौदे में क्या शामिल था?

भारतीय संविधान का मसौदा डॉ. भीमराव अंबेडकर की अध्यक्षता में बनाया गया था. उनकी अगुवाई वाली प्रारूप समिति ने 4 नवंबर 1948 को संविधान का मसौदा बहस के लिए संविधान सभा के सामने पेश किया. इस मसौदे में वाक और अभिव्यक्ति की आजादी और इसकी सीमाओं को अनुच्छेद-13 में रखा गया था, जिसे बाद में अनुच्छेद-19 में शामिल किया. इसके अनुच्छेद-13 (1) में कहा गया कि देश के सभी नागरिकों को (ए) वाक और अभिव्यक्ति की आजादी, (बी) कहीं भी बिना हथियार सभा करने, (सी) संगठन या संघ बनाने, (डी) भारतीय क्षेत्र में कहीं भी आने-जाने, (ई) देश में कहीं भी रहने और बसने, (एफ) जमीन खरीदने, रखने और बेचने और (जी) कोई व्यवसाय, व्यापार करने का अधिकार हासिल होगा. इसके साथ अन्य पांच क्लॉज भी शामिल थे जो इन अधिकारों की शर्तें और सीमाएं तय करते थे. इन सीमाओं के साथ भारत के संविधान निर्माताओं ने साफ कर दिया कि वे किसी भी अधिकार को पूर्ण नहीं मानते हैं.

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दामोदर स्वरूप सेठ ने क्या रखी थी मांग?

एक दिसंबर 1948 को संविधान सभा में जब अनुच्छेद-13 पर बहस शुरू हुई तो संयुक्त प्रांत के सदस्य दामोदर स्वरूप सेठ ने इसमें पहला संशोधन पेश किया. उन्होंने संविधान के मसौदे को उलझाऊ बताया और इसको सरल करके दो खंडों में लाने का संशोधन संविधान सभा के सामने रखा. उनके इस संशोधन में अनुच्छेद-13 में ‘सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता के अधीन नागरिकों को (ए) वाक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, (बी) प्रेस की स्वतंत्रता, (सी) संगठन व संघ बनाने की स्वतंत्रता (डी) कहीं भी बिना हथियार सभा करने की स्वतंत्रता (ई) पत्र, टेलिग्राफ और टेलिफोनिक संचार के निजता की स्वतंत्रता की गारंटी’ को शामिल किया गया. इसके अलावा अनुच्छेद 13 (ए) में इसकी सीमाएं तय करने वाली बातों को रखा गया.

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अपने इन संशोधनों का समर्थन करते हुए दामोदर स्वरूप सेठ ने कहा, ‘इसमें (संविधान के मसौदे में) एक अतिमहत्वपूर्ण बात छोड़ दी गई है, और वह है प्रेस की आजादी. सर, मैं सोचता हूं कि यह दलील दी जाएगी कि यह स्वतंत्रता पहले क्लॉज (ए) वॉक और अभिव्यक्ति की आजादी में शामिल है. लेकिन मेरा कहना है कि मौजूदा समय प्रेस का युग है और आज प्रेस लगातार और अधिक मजबूत हो रहा है. इसलिए यह जरूरी लगता है कि संविधान में प्रेस की आजादी का अलग से और साफ-साफ लिखा जाए.’ दामोदर स्वरूप सेठ ने नागरिकों के मूल अधिकारों और स्वतंत्रताओं को रोक लगाने या इसे सीमित करने के उपायों का विरोध किया. उन्होंने अमेरिका का उदाहरण दिया. अमेरिका में आपातकाल के दौरान हैबियस कार्पस रिट को छोड़कर बाकी किसी भी नागरिक स्वतंत्रता या मूल अधिकारों को सीमित नहीं किया जा सकता है. दामोदर स्वरूप सेठ ने स्वतंत्र भारत में राजद्रोह कानून, गोपनीयता कानून और अन्य दबावकारी कानूनों को प्रभावी रखने का भी विरोध किया.

प्रो. के. टी. शाह क्या चाहते थे

प्रो. के. टी. शाह ने (संविधान के मसौदे के) अनुच्छेद-13 के क्लॉज (1) के सब-क्लॉज (ए) में वाक् और अभिव्यक्ति की आजादी के साथ-साथ ‘प्रेस और पब्लिकेशन’ शब्द को जोड़ने का संशोधन संविधान सभा में रखा था. उन्होंने कहा कि संविधान का मसौदा बनाने वालों ने जाने क्या सोच कर ‘वाक’ और ‘अभिव्यक्ति’ को एक साथ रखा है, जबकि दोनों लगभग समानांतर चलन में आने वाले शब्द हैं. प्रोफेसर के. टी. शाह ने यह भी कहा कि दुनिया में जहां भी उदारवादी संविधान हैं, उसमें प्रेस की आजादी को स्थान मिला है, यहां तक कि जहां लिखित संविधान नहीं है, वहां भी अदालती आदेशों और परंपराओं से प्रेस की आजादी को मान्यता दी गई है. उन्होंने कहा, ‘यूनाइटेड नेशन का चार्टर प्रेस की आजादी को प्रमुख स्थान देता है. फिर भी हमारे संविधान का मसौदा बनाने वालों ने इसे क्यों बाहर कर दिया, यह मेरी समझ से परे है. मुझे उम्मीद है कि उनके पास इसका कोई ठोस कारण जरूर होगा कि प्रेस की आजादी को संविधान में जगह क्यों नहीं मिल सकी.’

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प्रेस की आजादी को मूल अधिकार बनाने की मांग

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संविधान सभा के अन्य सदस्य महबूब अली बेग साहिब बहादुर ने संविधान में प्रेस की आजादी को अलग से शामिल करने और मूल अधिकारों को पूरी सुरक्षा देने की मांग रखी. उन्होंने कहा, ‘मूल अधिकार, मूल अधिकार हैं, स्थायी हैं, पवित्र हैं और (इन पर) कार्यपालिका व विधायिका का अधिकार क्षेत्र खत्म करते हुए राज्य की दबावकारी शक्तियों के खिलाफ सुरक्षा की गारंटी मिलनी चाहिए. अगर कार्यपालिका और विधायिका के अधिकार क्षेत्र को सीमित नहीं किया जाता है तो सभी बुनियादी अधिकार महज साधारण अधिकार बनकर रह जाएंगे.’ उन्होंने आगे कहा कि यह अधिकार न्यायपालिका को मिलना चाहिए कि किसी नागरिक ने सीमाओं का उल्लंघन करके राज्य की सुरक्षा को खतरे में डाला है या नहीं.

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विधायिका और कार्यपालिका के अधीन रखने का विरोध

महबूब अली बेग साहिब बहादुर ने अमेरिका के संविधान में किए गए 14वें संशोधन का हवाला दिया. उन्होंने कहा कि अमेरिका में 14वां संविधान संशोधन कांग्रेस (वहां की संसद) को ऐसा कोई कानून बनाने से रोकता है जो अभिव्यक्ति की आजादी, संघ बनाने की स्वतंत्रता और प्रेस की आजादी के खिलाफ जाता हो. उन्होंने आगे कहा कि यह 1791 का वक्त था, तब अमेरिका ने तय किया कि किसी नागरिक के अपनी सीमाओं के उल्लंघन करने और राज्य की सुरक्षा को खतरे में डालने के बारे में कोई फैसला न्यायपालिका करेगी, न कि कार्यपालिका और विधायिका.

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महबूब अली बेग साहिब बहादुर ने ब्रिटेन का भी उदाहरण दिया, जहां लिखित संविधान नहीं है. लेकिन लॉ ऑफ लैंड (The law of the land) विचार और अभिव्यक्ति की आजादी देता है, जिन्हें विधि की प्रक्रिया का पालन किए बगैर सीमित नहीं किया जा सकता है. उन्होंने कहा कि केवल जर्मनी के संविधान में मूल अधिकारों को विधायिका के अधीन रखा गया, जिसका नतीजा था कि हिटलर कानून बनाकर जर्मनवासियों को बगैर सुनवाई के यातना गृहों में डाल पाया.

‘सब कुछ विधायिका की दया पर छोड़ दिया गया’

सरदार हुकुम सिंह ने भी संविधान में प्रेस की आजादी को शामिल करने की मांग उठाई थी. उन्होंने कहा था कि अनुच्छेद 13(1) (संविधान के प्रारूप) में बताए गए अधिकारों को किसी भी व्यक्ति द्वारा अलग नहीं किये जा सकते, यहां तक कि स्वेच्छा से भी कोई इन्हें नहीं छोड़ सकता है. उन्होंने आगे कहा, ‘सभा करने की आजादी, प्रेस की आजादी और अन्य आजादी को बहुमूल्य बनाया गया, लेकिन सब कुछ विधायिका की दया पर छोड़ दिया गया, जिसने इसकी सारी खूबसूरती और आकर्षण को छीन लिया.’

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‘एक हाथ से देने, दूसरे हाथ से लेने जैसा मामला’

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वहीं, काजी सैयद करीमुद्दीन ने संविधान में प्रेस की आजादी को अलग से शामिल करने को बहुत जरूरी संशोधन बताया. उन्होंने कहा कि डॉ. अंबेडकर को इसे स्वीकार करना चाहिए. काजी सैयद करीमुद्दीन ने डॉ. अंबेडकर की किताब ‘राज्य और अल्पसंख्यक’(States and Minorities) का हवाला दिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता को छोड़कर प्रेस की आजादी और संगठन बनाने की स्वतंत्रता को सीमित करने वाला कोई भी कानून नहीं बनाया जाएगा.’ उन्होंने यहां तक कहा कि अगर अनुच्छेद-13 को उसके मौजूदा स्वरूप में ही पारित कर दिया गया तो जो भी वाक् और अभिव्यक्ति की आजादी या प्रेस की आजादी दे रहे हैं, वह नहीं बचेगी, यह तो एक हाथ से देना और दूसरे हाथ से लेना जैसा होगा.

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‘प्रेस की आजादी अभिव्यक्ति की आजादी में शामिल’

प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना ने भी वाक् और अभिव्यक्ति की आजादी के साथ प्रेस की आजादी को अलग से शामिल करने की मांग उठाई. उन्होंने कहा, ‘उम्मीद है कि डॉ. अंबेडकर इस सब-क्लॉज में प्रेस की आजादी को लाने के लिए कोई बदलाव जरूर करेंगे.’ हालांकि, संविधान सभा के सदस्य एम. अनंतशयनम अयंगार ने अनुच्छेद-13 में संशोधन करके प्रेस की आजादी को शामिल करने की मांग को बेबुनियाद बताया. उन्होंने कहा, ‘विचारों की स्वतंत्रता तो मूल अधिकार है. कोई भी किसी को विचार करने से नहीं रोक सकता. यह केवल अभिव्यक्ति की आजादी है, जिसे दिया जाना है. अब प्रेस की आजादी इसी अभिव्यक्ति की आजादी का हिस्सा है.’

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प्रेस किसी का कोई विशेषाधिकार नहीं है

संविधान सभा में इन तमाम सवालों का प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. बी. आर. अंबेडकर ने जवाब दिया. उन्होंने प्रेस की आजादी को लेकर एम. अनंतशयनम अयंगार के विचारों से पूरी तरह सहमति जताई. डॉ. अंबेडकर ने कहा, ‘प्रेस किसी व्यक्ति या नागरिक को बताने का एक तरीका है. प्रेस कोई ऐसा विशेषाधिकार नहीं है, जिसे किसी नागरिक को उसकी व्यक्ति क्षमता में नहीं दिया जा सकता है या वह इसका इस्तेमाल नहीं कर सकता है.’ उन्होंने आगे कहा, ‘किसी अखबार का संपादक हो या प्रबंधक, सभी देश के नागरिक हैं और इसलिए वे जब किसी अखबार में लिखने का फैसला करते हैं, तो वे अपनी अभिव्यक्ति की आजादी का ही इस्तेमाल कर रहे होते हैं. और मेरे हिसाब से प्रेस की आजादी का अलग से उल्लेख करने की जरूरत नहीं है.’

प्रेस तो जन-जन का अधिकार है

संविधान सभा के सदस्यों की मांग के उलट डॉ. अंबेडकर को लगता था कि प्रेस की आजादी का अलग से उल्लेख इसे विशेषाधिकार बना देगा, जबकि यह जन-जन को हासिल अधिकार है. यानी कोई भी नागरिक जब चाहे अपनी अभिव्यक्ति की आजादी के तहत अखबार, पत्र-पत्रिका और संचार-जनसंचार के दूसरे साधनों का इस्तेमाल कर सकता है.

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पत्रकारिता जनता के साथ कब खड़ी होगी?

आज के दौर में जिस तरह से पत्रकारिता पर सरकारी नियंत्रण बढ़ रहा है, जैसे सरकार की कमियों को उजागर करने वाले पत्रकारों के खिलाफ एफआईआर या राजद्रोह जैसे मामले दर्ज हो रहे हैं, वह देश में प्रेस के बढ़ते संकट को बता रहा है. इसी वजह से 2020 की रिपोर्टर्स विद्आउट बॉर्डर के प्रेस आजादी सूचकांक में भारत 142वें स्थान पर आया है.

अंत में यह सवाल बचा रह जाता है कि अगर प्रेस की आजादी को संविधान में अलग से शामिल कर लिया जाता तो क्या भारत में पत्रकारिता ज्यादा मजबूती और निडरता से जनता के सवालों के साथ खड़ी हो पाती?

संविधान सभा

क्यों विपक्ष को खलनायक साबित करना संसदीय लोकतंत्र की पुरानी बीमारी है?

कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी ने केंद्र सरकार द्वारा किसान आंदोलन के मुद्दे पर विपक्ष के साथ किए जा रहे व्यवहार को लेकर वही सवाल उठाया है, जिससे 72 साल पहले संविधान सभा को जूझना पड़ा था.

सासंद कानून निर्माता या पार्टी का कार्यकर्ता
Photo credit- Twitter (Lok Sabha)

दिल्ली की सीमा पर हजारों किसान केंद्र के कृषि कानूनों के खिलाफ लगभग एक महीने से प्रदर्शन कर रहे हैं. इन की मांग है कि सरकार इन कानूनों को तत्काल वापस ले. इस दौरान किसानों के साथ सरकार की बातचीत बेनतीजा रही है. विपक्ष भी लगातार किसानों की आवाज सुनने की मांग कर रहा है. इसके जवाब में सरकार और सत्ताधारी दल विपक्ष पर किसानों को उकसाने के आरोप लगा रहे हैं. इसमें मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक सभी शामिल हैं.

विपक्ष पर इवेंट मैनेजमेंट का आरोप

शुक्रवार को किसान सम्मान निधि वितरण कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘आज जिन राजनीतिक दलों के लोग अपने आप को इस राजनीतिक प्रवाह में जब देश की जनता ने उन्हेंम नकार दिया है तो कुछ न कुछ ऐसे इवेंट कर रहे हैं, इवेंट मैनेजमेंट हो रहा है ताकि कोई सेल्फीा ले ले, कोई फोटो छप जाए, कहीं टी.वी. पर दिखाई दें और उनकी राजनीति चलती जाए….पंजाब के किसानों को गुमराह करने के लिए आपके पास समय है, केरल के अंदर यह व्यवस्था नहीं है, अगर ये व्यवस्था अच्छी है तो केरल में क्यों नहीं है? क्यों आप दोगुली नीति लेकर के चल रहे हो? ये किस तरह की राजनीति कर रहे हैं जिसमें कोई तर्क नहीं है, कोई तथ्य नहीं है। सिर्फ झूठे आरोप लगाओ, सिर्फ अफवाहें फैलाओ, हमारे किसानों को डरा दो और भोले-भाले किसान कभी-कभीी आपकी बातों में गुमराह हो जाते हैं.’

विपक्ष पर किसानों को गुमराह करने आरोप

प्रधानमंत्री ने आगे कहा, ‘ये लोग लोकतंत्र के किसी पैमाने को, किसी पैरामीटर को मानने को तैयार नहीं हैं। इन्हें सिर्फ अपना लाभ, अपना स्वार्थ नजर आ रहा है और मैं जितनी बाते बता रहा हूँ, किसानों के लिए नहीं बोल रहा हूँ, किसानों के नाम पर अपने झंडे लेकर के जो खेल खेल रहे हैं अब उनको ये सच सुनना पड़ेगा और हर बात को किसानों को गाली दी, किसानों को अपमानित किया ऐसे कर-कर के बच नहीं सकते हो आप लोग। ये लोग अखबारों और मीडिया में जगह बनाकर राजनीतिक मैदान में खुद के जिंदा रहने की जड़ी-बूटी खोज रहे हैं। लेकिन देश का किसान उसको पहचान गया है अब देश को किसान उनको ये जड़ी-बूटी कभी देने वाला नहीं है। कोई भी राजनीति, लोकतंत्र में राजनीति करने का उनका हक है, हम उसका विरोध नहीं कर रहे। लेकिन निर्दोष किसानों की जिंदगी के साथ न खेलें, उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ न करें, उन्हें गुमराह न करें, भ्रमित न करें।’

विपक्ष कमजोर है या ताकतवर?

प्रधानमंत्री के इस पूरे भाषण का लबोलुआब है कि विपक्ष किसानों को आंदोलन के लिए उकसा रहा है. सवाल है कि किसान आखिर उस विपक्ष पर कैसे भरोसा करने लगा, जिसे भरोसा न कर पाने की वजह से ही चुनावों में खारिज कर चुका है. एक बात यह भी है कि अगर विपक्ष आज इतना ताकतवर हो गया है कि वह किसानों का आंदोलन खड़ा कर ले जाए तब उसे कमजोर या जनता द्वारा खारिज बताना कितना सही है? इसी बात को 24 दिसंबर को विपक्षी दल कांग्रेस की नेता प्रियंका गांधी ने भी उठाया, जब उन्हें और दूसरे नेताओं को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को ज्ञापन देने जाने से पहले दिल्ली पुलिस ने हिरासत में ले लिया था. इसके बाद उन्होंने कहा था, ‘कभी वे कहते हैं कि हम इतने कमजोर हैं कि विपक्ष की मान्यता पाने के लायक नहीं हैं. वे कहते हैं कि हम इतने ताकतवर हो गए हैं कि हमने लाखों किसानों को (दिल्ली की) सीमा पर एक महीने से धरना करने के लिए मना लिया है.’ प्रियंका गांधी ने कहा था कि सरकार सिर्फ विपक्ष को हर चीज के लिए जिम्मेदार ठहराकर अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकती है, किसानों की आवाज को सुनना सरकार की जिम्मेदारी है, क्योंकि सरकार की जनता के प्रति जवाबदेही है.  विपक्ष को दबाने का आरोप कांग्रेस नेता राहुल गांधी भी लगा चुके हैं. गुरुवार को राष्ट्रपति से मिलने के बाद उन्होंने कहा था कि आप (सरकार) हमें, हमारे सांसदों और नेताओं को बाहर नहीं जाने देते हैं, फिर कहते हैं सब ठीक है. बीच में लखनऊ में दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को पुलिस ने एक स्कूल को देखने जाने से रोक दिया था, जबकि इसके पीछे कोई कानूनी आधार मौजूद नहीं था. ऐसे बहुत से मामले हैं, जिसमें सत्ता का इस्तेमाल कर विपक्ष के सामान्य अधिकारों को बाधित किया जा रहा है.

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विपक्ष को भी जनता ही चुनती है

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किसान आंदोलन के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराने के जो बयान आ रहे हैं, उसने संसदीय लोकतंत्र में पक्ष के दमन की पुरानी बहस को एक बार फिर सामने ला दिया है. दरअसल, संसदीय लोकतंत्र में कार्यपालिका और विधायिका का स्पष्ट बंटवारा नहीं होता है. लेकिन बहुमत के आधार पर सत्ता पक्ष और विपक्ष पूरी सक्रियता से काम करता है. यहां विपक्ष का मतलब सरकार का विरोधी दल नहीं, बल्कि उस पर नियंत्रण रखने वाला जनता का चुना हुआ उपाय है. जनता का चुना हुआ कहने का मतलब है कि चुनाव के बाद एक दल या गठबंधन पर्याप्त संख्या पाकर सरकार बनाता है, जबकि दूसरे दल या गठबंधन विपक्ष बनते हैं. यानी विपक्ष के पीछे भी जनादेश है, बस सरकार बनाने भर का बहुमत नहीं होता है. इसके बावजूद सत्ता पक्ष द्वारा अपनी नाकामी, कमजोरी या बहुमत के दम पर आने वाली सीनाजोरी छिपाने या अपने खिलाफ जनता के फैसले असंतोष से बचने के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराया जाने लगता है.

विधायिका में विपक्ष को समकक्ष का दर्जा

संविधान के तहत शक्तियों के बंटवारे में भले ही विपक्ष को स्पष्ट हिस्सा नहीं दिया गया है. लेकिन विधायिका में कानून निर्माता के तौर पर विपक्षी दल के सांसद और सत्ता दल के सांसदों के बीच कोई फर्क नहीं किया गया है. इसके बावजूद सत्ता पक्ष की ओर न केवल विपक्ष को कमजोर साबित करने, बल्कि बहुमत के दम पर उसकी अवहेलना करने या उसे अनसुना करने की कोशिश की जाती है. यह शिकायत नई नहीं है. संविधान निर्माताओं के सामने यह सवाल शक्तियों के बंटवारे के समय सामने आया था.

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संविधान सभा में भी उठा था सवाल

संविधान सभा की 10 दिसंबर 1948 की बैठक में प्रो. के टी शाह ने संविधान में कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के स्पष्ट बंटवारे और तीनों को एक-दूसरे से स्वतंत्र बताने वाला प्रावधान जोड़ने का प्रस्ताव रखा था. उनका कहना था कि इसके जरिए ही नागरिक आजादी और कानून के शासन की व्यवस्था को सुरक्षित रखा जा सकेगा. प्रो. के टी शाह का यह भी कहना था कि अगर कभी न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संपर्क रहा तो संविधान की व्याख्या, नागरिक अधिकारों की रक्षा और न्याय प्रशासन को अवांछित तरीके से प्रभावित किए जाने का डर रहेगा.

संसदीय राजनीति में विपक्ष का दमन क्यों

संविधान सभा में काजी सैयद करीमुद्दीन ने प्रोफेसर के टी शाह के प्रस्ताव का खुला समर्थन किया. उन्होंने संसदीय लोकतंत्र की उस खामी को सामने रखा जो आज तो और भी विकराल हो चुकी है. काजी सैयद करीमुद्दीन ने कहा कि यह दिन के उजाले की तरह साफ है कि संसदीय व्यवस्था में राजनीतिक विरोधियों को तबाह कर दिया जाता है, उन्हें नजरअंदाज किया जाता है. उन्होंने कहा, ‘अगर आप देश में शांति चाहते हैं, और आप यह भी चाहते हैं कि सत्ताधारी और विपक्षी दल देश में पनपें तो यह बहुत जरूरी है कि गैर-संसदीय सिस्टम को अपनाया जाए.’ उन्होंने आगे कहा कि संसदीय प्रणाली में मेलजोल है ही नहीं, बल्कि एक ऐसी व्यवस्था है जहां राजनीतिक विरोधियों को तबाह किया जाता है, मेलजोल वाली व्यवस्था वह होती है, जहां सभी राजनीतिक दलों को साथ-साथ काम करने की छूट होती है, जहां विपक्षियों को भी तवज्जो दी जाती है. सैयद करीमुद्दीन ने कहा कि शासन की संसदीय प्रणाली में अनुशासन और सहनशीलता नहीं है, इसलिए मेलजोल वाले ढांचे की उम्मीद नहीं है.

तीनों अंगों में टकराव हुआ तो…

दरअसल, इससे पहले संविधान सभा के सदस्य के. हनुमंथैया ने प्रो. के टी शाह के प्रस्ताव का विरोध किया था. उनका कहना था कि अगर किसी देश के तीनों अंगों में टकराव हुआ तो शांति के लिए खतरा पैदा हो जाएगा. उन्होंने शासन के तीनों अंगों के बीच मेलजोल वाले संबंध को सही ठहराया. के. हनुमंथैया का यह भी कहना था कि न्यायपालिका निष्पक्ष रहे, इसके लिए उसे सरकार (कार्यपालिका) या संसद (विधायिका) से ज्यादा शक्ति देने की जरूरत नहीं है, यह सोचना बेबुनियाद है कि सुप्रीम कोर्ट के कुछ जज 400 सदस्यों वाली संसद से बेहतर साबित होंगे.

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जनता कितनी सतर्क है?

हनुमंथैया के विपरीत शिब्बन लाल सक्सेना ने भी प्रो. के. टी शाह का सैद्धांतिक समर्थन किया था. प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अंबेडकर के एक भाषण का हवाला देकर उन्होंने कहा था कि अमेरिकी शासन प्रणाली ज्यादा सुरक्षा देती है, जबकि ब्रिटिश शासन प्रणाली (संसदीय प्रणाली) उत्तरदायित्व, फिलहाल हमने उत्तरदायित्व को चुना है. हालांकि, शिब्बन लाल सक्सेना ने यह भी कहा कि इंग्लैंड के लोगों ने उस चर्चिल को सत्ता से हटाने में देरी नहीं की, जिसने इंग्लैंड की आजादी की रक्षा की थी, क्या हम कभी अपने यहां ऐसा माहौल बना पाएंगे कि लोग उस आदमी को सत्ता से उखाड़ फेंकें जो उनके लिए अच्छा नहीं होगा. उन्होंने कहा कि जब तक हम ऐसा नहीं कर पाएंगे, संसदीय लोकतंत्र काम नहीं कर सकता है. हालांकि, उन्होंने प्रो. के टी शाह के प्रस्ताव का इस आधार पर विरोध किया कि संविधान को बनाने का काम बहुत आगे निकल चुका है, इसलिए इसमें अब बदलाव करने का मतलब है कि संविधान के पूरे ढांचे को बदलना पड़ेगा. लेकिन उन्होंने इस बात की जरूरत बतायी थी कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता को हर हाल में विधायिका और कार्यपालिका से अलग रखने की जरूरत है.

अमेरिकी व्यवस्था को न अपनाने में कोई नुकसान नहीं

प्रो. के टी शाह के प्रस्ताव पर संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ बी आर अंबेडकर ने भी जवाब दिया था. उन्होंने कहा था कि यह सच है कि अमेरिका के संविधान में कार्यपालिका और विधायिका के बीच शक्तियों का स्पष्ट बंटवारा मौजूद है, लेकिन इस सख्त बंटवारे और इससे आने वाले टकराव को लेकर बहुत से अमेरिकियों और राजनीति शास्त्र के विद्वानों में असंतोष भी है. डॉ. बी आर अंबेडकर ने अंत में कहा कि भारत ने अमेरिका जैसा शक्तियों के बंटवारे को नहीं अपनाकर अपना कोई नुकसान नहीं किया है. इसका मकसद टकराव मुक्त व्यवस्था की जगह, मेलजोल वाली व्यवस्था को लाना और जनकल्याण के व्यापक लक्ष्य को सुनिश्चित करना था. हालांकि, इस बहस में सत्ता के हाथों विपक्ष के दमन का सवाल छूटा ही रह गया. शायद ऐसा इसलिए भी हुआ कि विपक्ष अपने अस्तित्व को बचाने के लिए सक्रिय रहे और सत्ता परिवर्तन के विकल्प के जरिए शक्ति संतुलन कायम रख सके.

संविधान सभा

संसदीय राजनीति में संसद ठप तो राजनीति चालू क्यों है?

संसद का शीतकालीन सत्र न होने में कोई संवैधानिक सवाल आड़े नहीं आ रहा. लेकिन इसमें काफी कुछ ऐसा है जो संविधान सभा में जताई गई आशंकाओं को लगभग-लगभग सच साबित कर रहा है.

संविधान सभा में संसद सत्र बुलाने पर क्या चर्चा हुई थी

संसदीय राजनीति का यह नया स्वरूप सामने आया है, जहां संसद का कामकाज ठप करके सिर्फ राजनीति को आगे बढ़ाया जा रहा है. सरकार ने संसद का शीतकालीन सत्र नहीं बुलाया है कि कहीं सांसद कोरोना संक्रमण की चपेट में न आ जाएं, लेकिन उसके मंत्री और नेता हजारों-हजार की भीड़ वाली चुनावी रैलियां कर रहे हैं. सत्ताधारी बीजेपी के वरिष्ठ नेता और देश के गृहमंत्री अमित शाह पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार कर रहे हैं, प्रधानमंत्री के लिए किसान सभाओं का आयोजन किया जा रहा है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या कोरोना महामारी को संसद सत्र टालने के लिए बहाना बनाया जा रहा है? गौरतलब है कि संसद सत्र को बुलाने की व्यवस्था पर संविधान सभा में विस्तृत चर्चा हुई थी. इसके बाद राष्ट्रपति को सत्र बुलाने का अधिकार दिया गया था.

किसानों की आवाज कौन सुनेगा

इस बारे में केंद्र सरकार का कहना है कि सभी राजनीतिक दलों की राय से संसद सत्र नहीं बुलाया जा रहा है. लेकिन कांग्रेस और डीएमके जैसे विपक्षी दलों ने न केवल सरकार के इस फैसले का विरोध किया है, बल्कि किसानों के आंदोलन से पैदा हुए हालात को देखते हुए संसद का सत्र तत्काल बुलाने की मांग की है. दरअसल, कड़ाके की सर्दी के बीच पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के हजारों किसान दिल्ली की सीमाओं पर धरना दे रहे हैं. यहां पर धरना इसलिए दे रहे हैं, क्योंकि सरकार ने उन्हें दिल्ली नहीं जाने दिया है. अगर लोकतंत्र में जनता के प्रति जवाबदेह उसकी या उसके किसी हिस्से की आवाज नहीं सुनेगी और संसद तक उसकी आवाज नहीं पहुंचने देगी तो संसदीय राजनीति से उम्मीद रखने वाले कहां जाएंगे? क्या सरकार बहुमत और चुनावी लोकप्रियता के आधार पर संसद का रास्ता रोक रही है?

सत्र बुलाने के क्या-क्या प्रावधान हैं

भारतीय संविधान के अनुच्छेद-85 में संसद सत्र बुलाने, सत्र समाप्त करने और लोक सभा का विघटन करने का प्रावधान है. इसके खंड (1) के मुताबिक, राष्ट्रपति समय-समय पर, संसद‌ के प्रत्येक सदन को ऐसे समय और स्थान पर, जो वह ठीक समझे, अधिवेशन के लिए बुलाएगा, लेकिन एक सत्र की अंतिम बैठक और आगामी सत्र की प्रथम बैठक के लिए तय तारीख में छह महीने का अंतर नहीं होगा. खंड (2) के मुताबिक, राष्ट्रपति, समय-समय पर- (क) सदनों का या किसी सदन का सत्रावसान कर सकेगा; (ख) लोकसभा का विघटन कर सकेगा.

संसद का सत्र पूरे साल चलाने की उठी थी मांग 

संविधान सभा में संसद का सत्र बुलाने, सत्रावसान और विघटन संबंधी अनुच्छेद-69 (बाद में अनुच्छेद-85 बना) पर 18 मई 1948 को चर्चा हुई थी. इस पर चर्चा की शुरुआत करते हुए प्रोफ़ेसर के टी शाह ने सुझाव रखा था कि हर साल की शुरुआत में कम से कम एक सत्र बुलाया जाए और किन्हीं दो सत्रों के बीच तीन महीने से ज्यादा का अंतर न रखा जाए. इसके साथ उन्होंने यह शर्त भी जोड़ने का सुझाव दिया कि जो भी सत्र बुलाया जाए, वह ब्रिटेन की तरह पूरे संसदीय वर्ष तक चालू माना जाए. इन सुझावों के पीछे प्रोफेसर के टी शाह का सीधा तर्क था कि इससे संसदीय कामकाज को निपटाने के लिए समय की कमी नहीं रहेगी. ब्रिटिश संसद से तुलना करते हुए उन्होंने यह भी कहा था कि वहां साल भर में 200 दिन से ज्यादा काम होता है, लेकिन यहां (भारत) 100 दिन भी विधायिका काम नहीं करती है. उनका यह भी कहना था कि भविष्य में संसदीय कामकाज का विस्तार होने पर समय की कमी संसदीय जिम्मेदारियों को निभाने में बाधा बन जाएगी.

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साल में कम से कम तीन बैठक की मांग

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संविधान सभा के एक अन्य सदस्य एच वी कामथ ने एक साल में संसद के दो नहीं, बल्कि तीन सत्र बुलाने का प्रावधान करने का सुझाव दिया था. उन्होंने भी संसदीय कामकाज के लिए समय की कमी का हवाला दिया. एच वी कामथ ने कहा कि भारतीय संविधान के मसौदे में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट-1935 के प्रावधान को हूबहू कॉपी कर लिया गया है जो ठीक नहीं है, अमेरिकी कांग्रेस और ब्रिटिश संसद साल में कम से कम आठ से नौ महीने तक सत्र में रहती हैं. उन्होंने आगे कहा, “मैं देश में लोकतंत्र के भीतर संसद की बात कर रहा हूं, न कि तानाशाही की, और मुझे उम्मीद है कि हम देश में लोकतंत्र रखने जा रहे हैं, न कि तानाशाही, इसलिए लोकतंत्र में कोई भी संसद साल में छह महीने के बाद बैठक करते हुए जनता के प्रति जिम्मेदारियों को नहीं पूरा कर सकती है.” एच वी कॉमथ ने यह भी कहा कि गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के तहत साल में दो बार संसद सत्र बुलाने का प्रावधान था, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ जब साल में दो बार से ज्यादा संसद सत्र बुलाया गया हो, इसलिए भारतीय संविधान में संसद के कम से कम तीन सत्र (पहला बजट सत्र, साल के बीच में-जुलाई से अगस्त- लगभग दो महीने का और तीसरा सर्दी में अक्टूबर से नवंबर के बीच) बुलाने का प्रावधान किया जाए.

अगर राष्ट्रपति सत्र बुलाने से इनकार कर दे तो?

प्रो. के टी शाह ने राष्ट्रपति द्वारा संविधान के तहत तय समय में संसद सत्र न बुलाने का विकल्प जोड़ने का सुझाव दिया था. उन्होंने कहा था कि गर राष्ट्रपति तय समय में संसद सत्र नहीं बुलाएं तो लोक सभा में अध्यक्ष और राज्य सभा में सभापति को अपने-अपने सदन का सत्र बुलाने और सभी विधायी कार्य संचालित करने का अधिकार होना चाहिए. सवाल उठता है कि क्या प्रोफेसर के टी शाह की यह आशंका आज सही साबित हो रही है? चूंकि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह से काम करता है, इसलिए आज कहा जा सकता है कि उसने संसद का शीतकालीन सत्र नहीं बुलाया है. यह अलग बात है कि दो सत्रों के बीच छह महीने से ज्यादा समय नहीं हुआ है, इसलिए किसी संवैधानिक प्रावधान का उल्लंघन नहीं हो रहा है.

राष्ट्रपति निरंकुश हो जाए तब क्या होगा?

प्रो. के टी शाह का यह भी कहना था कि दुनिया में राष्ट्रपति द्वारा संविधान की शक्तियों को अपने हाथ में लेने के मामले देखे गए हैं, इसलिए संविधान में ऐसी किसी स्थिति से निपटने का उपाय होना चाहिए. उन्होंने कहा कि इसकी कोई गारंटी नहीं है कि भारत में कभी ऐसा नहीं हो सकता है. इसलिए प्रोफेसर के टी शाह ने संविधान में यह प्रावधान जोड़ने का सुझाव दिया कि किसी संसद सत्र अवसान के बाद 90 दिन बीतने पर अगर राष्ट्रपति संसद सत्र बुलाने में सक्षम न हों या उनकी इच्छा न हो तो प्रधानमंत्री को दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों को सत्र बुलाने के लिए कहने का अधिकार होना चाहिए. इतना ही नहीं अगर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों ही संसद सत्र बुलाने में अनिच्छुक हों या सक्षम न हो तो यह संवैधानिक जिम्मेदारी दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों के पास होनी चाहिए कि वह अपने-अपने सदनों का सत्र बुलाएं और सामान्य विधायी कामकाज को जारी रखें. हालांकि, प्रो. के टी शाह की आशंका को संसदीय प्रणाली के ढांचे में पूरी तरह असंभव माना गया, क्योंकि यहां विधायिक और कार्यपालिका के बीच अमेरिकी सिस्टम जैसा अलगाव नहीं है. इसीलिए संविधान सभा में सवाल उठा कि क्या के टी शाह प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को अलग-अलग देख रहे हैं?

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प्रधानमंत्री को मिले संसद सत्र बुलाने का अधिकार

संविधान सभा के अन्य सदस्य तजामुल हुसैन ने एच वी कामथ और के टी शाह के सुझाए संशोधनों का समर्थन किया. उन्होंने के टी शाह के संशोधन में यह भी जोड़ दिया कि अगर आपातकालीन स्थिति में प्रधानमंत्री के कहने पर लोक सभा और राज्य सभा के पीठासीन अधिकारी संसद सत्र नहीं बुलाते हैं तो प्रधानमंत्री को संसद सत्र बुलाने का अधिकार होना चाहिए.

वहीं, संविधान सभा के सदस्य शिब्बन लाल सक्सेना ने कहा कि संसद सत्र निरंतरता में होना चाहिए और राष्ट्रपति को ऐसा कोई अधिकार नहीं होना चाहिए कि वह संसद सत्र बुलाने से इनकार करके विधायिका की पूरी व्यवस्था को व्यर्थ बना दे. उन्होंने आगे कहा कि विदेशी सत्ता ने हमारे यहां एक काल्पनिक संसद बनाने की कोशिश की थी, लेकिन हमें उस संसद के साथ आगे नहीं बढ़ना चाहिए, बल्कि वास्तविक संसद बनानी चाहिए, जिसके सत्र लंबे हों ताकि वह जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को पूरा कर सके.

संसद सत्र बुलाने की शक्ति स्पीकर को देने के सुझाव पर शिब्बन लाल सक्सेना ने कहा कि भारत में राष्ट्रपति ब्रिटेन में राजा की जगह पर आएगा, जो कि एक सांकेतिक पद है, उसके पास बहुत ज्यादा शक्तियां नहीं होंगी, इसलिए कोई खतरा नहीं है, इसलिए वे इस मांग से सहमत नहीं है,  लेकिन संसद सत्र को निरंतरता में रखने का सुझाव मान लेना चाहिए. एक अन्य सदस्य आर के सिध्वा ने भी संसद सत्र की संख्या और समय बढ़ाने का सुझाव दिया था.

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डॉ अंबेडकर ने क्या कहा था?

संविधान सभा में आए इन तमाम सुधारों का मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉक्टर बी आर अंबेडकर ने जवाब दिया था. उन्होंने कहा कि गवर्मेंट ऑफ इंडिया एक्ट-1935 और आजाद भारत के राजनीतिक माहौल से तुलना करना सही नहीं है. उन्होंने आगे कहा कि आगे सरकार कभी इतनी सक्षम होगी कि वह विधायिका की अनदेखी करने की कोशिश करें.

ज्यादा संसद सत्र बुलाए जाने के सुझाव पर डॉ बी आर अंबेडकर ने कहा कि मौजूदा प्रावधान ज्यादा संसद सत्र बुलाने से नहीं रोकता है. उन्होंने आशंका जताई कि अगर बार-बार सत्र बुलाया गया तो ज्यादा और बोझिल सत्र की वजह से संसद सदस्य शायद सत्रों से ऊब जाएं. संसद सत्र न बुलाने या इसमें देरी की आशंका को खारिज करते हुए डॉ बी आर अंबेडकर ने कहा कि सरकार की जिम्मेदारी जनता के प्रति है लेकिन यह जिम्मेदारी सिर्फ अच्छा प्रशासन देने तक सीमित नहीं है, बल्कि विधायिका जैसे उपायों को प्रभावी बनाए रखने से भी जुड़ी है, यह उनकी पार्टी के कार्यक्रमों को लागू करने के लिए भी जरूरी होगा.

पीठासीन अधिकारी संसद बुलाकर क्या करेंगे

डॉ. बी आर अंबेडकर ने संसद सत्र बुलाने की शक्ति दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों को देने के सुझाव को भी गैर-जरूरी बताया. उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति जब प्रधानमंत्री की सलाह पर काम करेंगे तो उनके संसद सत्र न बुलाने जैसी कोई गुंजाइश ही नहीं बनती है. डॉ. अंबेडकर ने आगे कहा कि अगर कोई राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह के बावजूद संसद सत्र नहीं बुलाता है तो जाहिर है कि वह ऐसा करके संविधान का उल्लंघन करेगा और उसके खिलाफ महाभियोग लाकर उसे हटाया जा सकता है. उन्होंने आगे कहा कि इस सुझाव को मान लिया जाए तो जब कभी किसी सही कारण से राष्ट्रपति संसद सत्र नहीं बुलाएंगे और फिर पीठासीन अधिकारी संसद सत्र बुला लेंगे तो आगे क्या होगा?

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राष्ट्रपति के संसद सत्र न बुलाने का मतलब होगा कि सरकार के पास संसद को देने के लिए कोई काम नहीं होगा, क्योंकि सत्र न बुलाने का फैसला तो राष्ट्रपति आखिरकार सरकार की सलाह पर ही करेगा. ऐसी सूरत में विधायिका को लोक सभा अध्यक्ष या राज्य सभा के सभापति में से कोई भी काम नहीं दे पाएगा, इसलिए के टी शाह के संशोधनों को स्वीकार करने की कोई वजह नहीं है.

लोक कल्याण की भावना है शासन की शर्त

संविधान सभा की इस पूरी बहस से साफ है कि भारतीय संविधान को सकारात्मक सोच और लोक कल्याण की भावना से प्रेरित शासन व्यवस्था को ध्यान में रखकर बनाया गया है. यही वजह है कि संविधान सभा ने उन तमाम आशंकाओं को यह कहकर खारिज कर दिया कि जनता के बीच से चुनकर आई सरकारें उसके प्रति जवाबदेह होंगी और संविधान के प्रावधानों में जिस बात का उल्लेख नहीं होगा, उसमें लोक हित और उच्चतर नैतिक आदर्शों के आधार पर फैसले करेंगी. संविधान निर्माताओं का यह भी मानना था कि भारत की जनता ने दासता के दौरान जो दर्द झेला है, जो मौलिक अधिकारों का हनन और पक्षपात सहा है, उसे भारतीय संविधान के तहत बनने वाली शासन व्यवस्था के सभी अंग किसी भी सूरत में नहीं दोहराएंगे और जनकल्याण  प्रेरित व राग-द्वेष से मुक्त होकर काम करेंगे. यही वजह है कि डॉ. बी आर अंबेडकर ने संसद सत्र न बुलाने या इसमें देरी की सारी आशंकाओं को खारिज करके इसे सरकार की जनता के प्रति जवाबदेही में शामिल बताया था.

तो फिर समस्या कहां है

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लेकिन क्या आज वास्तव में ऐसा हो रहा है? शासन व्यवस्था संविधान के उच्चतर आदर्शों और लोक कल्याण की लोकप्रिय उन्माद को बढ़ावा देने वाली नीतियों पर काम कर रही हैं. सरकारें संविधान की मूल भावना को नहीं, बल्कि उसके प्रावधानों की अस्पष्टता या विवेकाधीन शक्तियों के जरिए शासन करने की कोशिश कर रही हैं. इसी का नतीजा है कि आज हजारों किसान सड़कों पर उतरे हुए हैं. कृषि कानूनों को अध्यादेशों के जरिए लागू किया गया, जबकि इस आपातकालीन प्रावधान को इस्तेमाल करने की स्थिति नहीं थी. इतना ही नहीं, कानून बनाने से पहले व्यापक विचार-विमर्श की लोकतांत्रिक जरूरत को नजरअंदाज किया गया. संसद में भी विधेयकों को पारित कराते समय मत विभाजन की जगह ध्वनिमत जैसी कमजोर प्रक्रिया को अपनाया गया. ऐसे में इन कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन इस बात का स्पष्ट सबूत हैं कि अगर सरकार ने कानून बनाने से पहले असहमतियों को दूर करने के उपाय किए होते तो आज उसे न तो इतनी सफाई देनी पड़ती और न ही देशव्यापी किसान आंदोलन का सामना करना पड़ता.