भारत की संसद के माननीय सभापति/अध्यक्ष जी, विषय: संसद की उत्पादकता मापने का फार्मूला
माननीय सभापति/अध्यक्ष जी, भारतीय संविधान के अनुसार गठित लोकतंत्र की सर्वोच्य संस्था भारतीय संसद की पीठ के आप दोनों सर्वोच्च हैं. मैं बहैसियत एक नागरिक यह जानने की जुर्रत कर रहा हूं कि आप दोनों का संसद की उत्पादकता को मापने का पैमाना क्या है? मेरे सामने यह संकट खड़ा हो गया है कि मैं संसद को लोकतंत्र और संविधान के उद्देश्यों की नजर से देखूं या फिर जनप्रतिनिधियों की संस्थाओं को किसी कारखाने द्वारा निर्मित निर्जीव उत्पादों की भाषा के चश्मे से पढ़ूं.
आप दोनों ने संसद के मानसून सत्र की उत्पादकता का एक लेखा-जोखा पेश किया है, लेकिन मेरे सामने देश के करोड़ों मजदूरों और किसानों के चेहरे आ जाते हैं. संसद में निर्वाचित प्रतिनिधियों की स्थिति और परिस्थितियां सामने आ जाती हैं. सड़कों पर प्रतिरोध और समाज में बढ़ता असंतोष मेरी चेतना को झकझोरने लगता है. कविता की पंक्तियां गूंजने लगती हैं.
सभापति जी,
आपने राज्य सभा के 252वें सत्र की उत्पादकता को प्रमाणित करने के लिए यह लेखा-जोखा पेश किया है. “असामान्य स्थितियां हमें जीवन की नई सामान्यताएं सिखा रही हैं.” इस सत्र में सदन की उत्पादकता 100.47 फीसदी रही. विगत तीन सत्रों में सामान्यत: उत्पादकता ऊंची रही है. विगत 4 सत्रों में सदन की कुल उत्पादकता 96.13 फीसदी रही है.
आपने बताया है कि आप सदन से विगत 22 वर्षों से जुड़े रहे हैं. मैं बेहद अदब के साथ जानना चाहता हूं कि क्या जब कभी आप बतौर विपक्ष सदन में रहे हैं, तब क्या आपने संसद की उत्पादकता को इसी तरह मापा है? सवाल लोकतंत्र के मूल्यों का है. सरकार चलाने के लिए पार्टियां आती हैं और जाती हैं. लेकिन राज्य सभा जैसी संस्था कभी भंग भी नहीं होती. उसे संसदीय लोकतंत्र में जो गरिमा और सम्मान प्राप्त है उसकी कोई भाषा नहीं है, वह भावों में है, भरोसे में है, भविष्य के प्रति आश्वस्ति में है.
लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार उपसभापति को हटाने का प्रस्ताव आया तो उसके साथ सदन के सदस्यों को रात भर सदन से बाहर बैठकर अपनी गुहार लगाने का इतिहास भी बना है. इतिहास बनने का पलड़ा किस तरफ झुका है, यह सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है. आप अतीत का हवाला देकर वर्तमान में अपनी कार्रवाईयों को न्यायोचित ठहराते हैं. लेकिन लोकतंत्र भविष्य की तरफ देखता है और उसके लिए मूल्यों का निर्माण ही उसकी सुरक्षा के लिए एकमात्र भरोसा हो सकता है.
आपने बताया है कि “विपक्ष के नेता और अन्य सदस्यों द्वारा तीन श्रम कानूनों को पारित न करने का आग्रह करने वाले पत्र में ऐसा कोई भी संकेत होता कि वे लौट रहे हैं और विधेयक पर बहस को टाल दिया जाए, तो हम स्वयं सरकार से इस विषय पर बात करते, लेकिन पत्र में ऐसा कोई आश्वासन भी नहीं था. बल्कि उल्टे कुछ सदस्यों ने जो कुछ किया, उसे न्यायोचित ठहराने की ही कोशिश की. ऐसी स्थिति में हमें विधेयकों पर बहस के लिए अनुमति देनी पड़ी.”
पहली बात तो बहस के लिए दो पक्षों का होना उसकी अनिवार्य शर्त है. दूसरी बात कि विपक्ष आपसे संवाद करने के लिए पत्र लिख रहा है, लेकिन आप संवाद की जगह निलंबन की कार्रवाई को उचित और माफी की शर्तें लादकर लोकतंत्र के हक में क्या कर रहे हैं? सभापति किसी कंपनी के सीईओ नहीं हैं. यदि उत्पादक की भूमिका में हैं भी तो लोकतंत्र की संस्कृति के रचनाकार के रुप में हैं. यह विडंबना है कि पदों की मर्यादाएं भंग हो रही हैं. राजनीति में आर्थिक कलापों की भाषा लोकतंत्र का पैमाना बन रही है. उत्पादकता कानून बनाने की संवैधानिक औपचारिकता पूरी करने तक सीमित होती जा रही है. संविधान की पंक्तियों के बीच की लाइनें मिटाई जा रही हैं.
मैं तो कहता हूं कि आपकी संसद के सत्र के बारे में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण पंक्ति यह है “यद्यपि सत्र के दौरान सदन की उत्पादकता संतोषजनक रही फिर भी कुछ ऐसे विषय हैं जो चिंताजनक हैं.” इन विषयों को खोलना जरूरी लगता है. इस पंक्ति में लोकतंत्र सुनाई पड़ रहा है.
माननीय लोकसभा अध्यक्ष जी,
आपने बताया कि वैश्विक महामारी के दौरान भी इस सत्र में सदन की कार्य उत्पादकता 167 प्रतिशत रही है, जो अन्य सत्रों की तुलना में अधिक है. इस उपलब्धि के लिए आप सभी माननीय सदस्य बधाई के पात्र हैं.
अध्यक्ष जी, आपके सदन में सत्ताधारी पार्टी का प्रचंड बहुमत है. आपके सदन को लोकसभा कहा जाता है. यह आम जनों का सदन कहा जाता है. लेकिन मैं आपकी उत्पादकता का प्रतिशत सुनकर थोड़ा परेशान और हैरान हो रहा हूं. क्योंकि सदन में प्रतिनिधियों की जिस उत्पादकता का श्रेय आप ले और दे रहे हैं, उन प्रतिनिधियों के लोग तो सड़कों पर नारे लगा रहे हैं. लोग उन्हें लोकतंत्र के हितों के विरुद्ध होने की घोषणा कर रहे हैं. एक खतरे से घिर जाने का अंदेशा व्यक्त कर रहे हैं.
अध्यक्ष जी, क्या कभी ऐसा हुआ है कि सदन में प्रश्नों के जबाव, खासतौर से – आंकड़े नहीं हैं – माखौल बन रहे हैं. आपके उत्पादकता के नए इतिहास को लोकतंत्र की भाषा में कैसे और क्या लिखा जा सकता है? बड़ी मुश्किल से लोकतंत्र के लिए हमने जगहें तैयार की हैं. कारखानेदार हड़ताल का विरोधी होता है, उसे हर हालात में मुनाफा चाहिए. लोकतंत्र के लिए बनाई गईं अदालतें भी कारखानेदारों की भाषा सीख गईं. किसी आपातकाल को तो सबसे ज्यादा उत्पादक माना जाना चाहिए. फिर हम अपने देश में आपातकाल का इसीलिए क्यों विरोध करते हैं कि मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया था?
अध्यक्ष जी ,
आपके सदन में उत्पादकता का पैमाना क्या हो? मेरी राय है कि संसद में लोकतंत्र का पैमाना संसद से बाहर उसकी उत्पादकता की स्वीकार्यता ही हो सकती है. ऐसा क्यों हो रहा है कि संसद जिसे ऐतिहासिक उपलब्धता बताती है, उसके खिलाफ लोग सड़कों पर दिखाई देने लगते हैं.
संसदीय बहसों से लोक भाषा के शब्द और भाव बाहर किए जा रहे हैं. झुठा ड्रामा, घड़ियाली आंसू, लूटो लूटो लूटो करप्शन करते चलो, बदमाश, संघी, झुठी मक्कारियां, कट मनी, लूट जैसे शब्द कार्यवाही से बाहर कर दिए गए. एक अध्ययन किया जा सकता है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान संसदीय कार्यवाहियों से किन-किन शब्दों को बाहर किया गया है ?
मैं आपसे बड़े अदब से यह जानना चाहता हूं कि मुझे वे कुछ आधार बताएं जो संसद में लोकतंत्र के लिए उत्पादकता को मापने में सहायता कर सकें. संसद सरकार के अध्यादेशों के एक्सटेंशन केन्द्र और साउथ और नॉर्थ ब्लॉक एनेक्सी नहीं हैं. अनुरोध है कि आप लोकतंत्र के लिए उत्पादकता पर सदन में वास्तविक बहस को आमंत्रित करें.
साभार,
अनिल चमड़िया
(नवजीवन में पूर्व प्रकाशित)