संसद के भीतर हो या बाहर, केंद्र की एनडीए सरकार अक्सर एक बात दोहराती है कि कृषि, राज्य सूची का विषय है. सितंबर में संपन्न हुए मानसून सत्र के दौरान सरकार ने कई सवालों के जवाब में इस बात को दोहराया है. यह बात संवैधानिक तौर पर बिल्कुल सही है कि कृषि, राज्य सूची का विषय है, लेकिन व्यवहार में ऐसा कभी हो नहीं पाया है. इसकी वजह है कि खेती देश की अर्थव्यवस्था की जान है, केंद्र सरकार इससे खुद को अलग करके देश को चलाने के दावे को पूरा नहीं कर पाएगी. यही वजह है कि राज्य सूची के विषय को लेकर केंद्र के स्तर पर न केवल भारी-भरकम कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय काम करता है, बल्कि केंद्र सरकार खेती से जुड़ी तमाम योजनाएं सीधे अपने संसाधनों से चलाती है. इतना ही नहीं, सभी प्रमुख फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य भी केंद्र सरकार ही घोषित करती है. इस आधार पर होने वाली सरकारी खरीद को अपनी उपलब्धि के तौर पर पेश भी करती है. हाल ही में केंद्र सरकार खेती-किसानी की दिशा बदलने वाले तीन कानूनों को संसद से पारित कराने में सफल रही है और इसे किसानों को आजादी दिलाने वाला कदम बता रही है.
सवाल उठता है कि केंद्र सरकार कृषि मंत्रालय, कृषि योजनाएं और कृषि कानून बनाने के बावजूद इसे अपनी प्रत्यक्ष जिम्मेदारी क्यों नहीं बताती है? क्या केंद्र सरकार के लिए राज्य सूची का विषय जवाबदेही से भागने का बहाना है? इन सवालों का जवाब इस बात में छिपा है कि केंद्र सरकार कब और किस मौके पर खेती को राज्य सूची का विषय बताती है?
संसद के मानसून सत्र के दौरान 23 सितंबर को केंद्र सरकार (कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय) ने राज्य सभा में कुल 33 अतारांकित प्रश्नों के जवाब दिये. इसमें से दो सवालों के जवाब में सरकार ने साफ तौर पर कहा है कि कृषि राज्य (सूची) का विषय है, जबकि इन सवालों का इससे कोई लेना-देना ही नहीं था.
दरअसल, राज्य सभा में सांसद फूलो देवी नेताम ने सरकार से पूछा था कि (1) सरकार खेती की लागत घटाने के लिए कौन-कौन सी योजनाएं चला रही है? (2) ऐसी योजनाओं को कुल कितना बजट दिया गया है और उसमें कितना खर्च हो पाया है? (3) ऐसी योजनाओं के लाभार्थी किसानों की संख्या कितनी है? (4) बीते पांच साल में लागत घटाने वाली योजनाओं के चलते प्रति एकड़ खेती पर लागत कितनी घटी है और किसानों की आय कितनी बढ़ी है? और (5) क्या सरकार कृषि से जुड़े संसाधनों पर जीएसटी घटाने पर विचार कर रही है?
इसके लिखित जवाब में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने पहली लाइन ही में लिख दिया कि ‘कृषि, राज्य का विषय है.’ आगे बताया कि भारत सरकार पीएम सिंचाई योजना, कृषि यंत्रीकरण उपमिशन जैसी योजनाओं के जरिए उत्पादन बढ़ाने और खेती की लागत घटाने के लिए राज्य सरकारों को सुविधाएं देती है। दरअसल, सवालों में चार नंबर का सवाल केंद्र सरकार के लिए चुनौती बन चुका है. सरकार लगातार अपने फैसलों से खेती की लागत घटाने और किसानों की आय को बढ़ाकर 2022 तक दोगुनी करने के वादे कर रही है. लेकिन, जिस तरह से डीजल और खेती की दूसरी लागत (खाद, बीज, कीटनाशक) के दाम बढ़े हैं, उससे लागत घटने की जगह बढ़ी है. इसमें सबसे दिलचस्प बात है कि सरकार के पास बीते सालों में खेती की लागत में गिरावट के कोई ठोस आंकड़े नहीं हैं.
राज्य सभा में सांसद के. पी. मुन्नुस्वामी को दिए गए जवाब में सरकार ने कहा, ‘कृषि, राज्य का विषय है और राज्य सरकारें प्रदेश में कृषि के विकास के लिए उपयुक्त उपाय करती हैं.’ हालांकि, भारत सरकार राज्य के प्रयासों को नीतिगत और बजटीय सहायता देती है। कृषि के मामले में केंद्र को राज्यों की याद आने की वजह सांसद के पी मुन्नुस्वामी का सवाल है. दरअसल, उन्होंने पूछा था कि (1) क्या सरकार दोषपूर्ण कृषि नियोजन में सुधार करने और इसके क्रियान्वयन (लागू करने) पर विचार कर रही है? और (2) खाद्य फसलों के नकदी फसल के रूप में उत्पादन का ब्यौरा क्या है? ये दोनों सवाल खेती से जुड़ी सभी संस्थाओं चाहे केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार या फिर अन्य संस्थाएं, सबकी जवाबदेही तय करने वाले हैं.
इससे इतर जब सरकार से किसान सम्मान निधि या पीएम फसल बीमा योजना, सिंचाई योजना या मृदा परीक्षण जैसी तमाम योजना से जुड़ा सवाल पूछा गया तो इसमें दूर-दूर जिक्र आया कि कृषि राज्यों का विषय है. इसके उलट सरकार ने अपनी उपलब्धियों और उससे आंकड़ों को विस्तार से सामने रख दिया. तो क्या क्या केंद्र सरकार विषयों के संवैधानिक बंटवारे को अपनी जवाबदेही से बचने के लिए इस्तेमाल करती है?
इसका जवाब पाने के लिए एक और सवाल-जवाब देखते हैं. 23 सितंबर को ही राज्य सभा में सांसद पी. विल्सन ने पीएम किसान सम्मान निधि में घोटाले पर सरकार से जवाब मांगा. यह बात साफ है कि किसान सम्मान निधि पूरी तरह से केंद्र सरकार की योजना है. लेकिन केंद्र सरकार ने इस योजना को लागू करने में निगरानी की जिम्मेदारी से अपना पल्ला झाड़ लिया. कृषि मंत्री के लिखित जवाब में कहा गया कि किसान सम्मान निधि योजना के पात्रों के सत्यापन की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की होती है. सवाल उठता है कि जिस योजना का पूरा बजट केंद्र सरकार उठाती हो, पैसा केंद्र सरकार से सीधे किसानों के खाते में जाता है, उसकी निगरानी में राज्य सरकार को ही अकेले क्यों जिम्मेदार ठहराया जा रहा है? सभी मौकों पर इस योजना को अपनी उपलब्धि बताने वाली मौजूदा केंद्र सरकार क्या कभी राज्यों का जिक्र करती है। क्या योजना के उजले पक्ष को केंद्र सरकार अपना बताएगी और खामियों या कमियों का सेहरा राज्यों के सिर बांध देगी?
चूंकि केंद्र सरकार कृषि को राज्य सूची का विषय मानती है तो पीएम किसान सम्मान निधि योजना का बजट राज्यों को क्यों नहीं सौंप देती है? कारण कि जब लाभार्थियों की पहचान और सत्यापन के साथ निगरानी का सारा काम राज्य सरकारें ही कर रही हैं तो पैसे का भुगतान भी वही ज्यादा स्पष्ट जवाबदेही बनेगी? राज्य सरकार भी खुद को छन्नी समझने की जगह पर ज्यादा बेहतर भूमिका में देख पाएंगी. वैसे भी सरकार ने सांसद के. पी. मुन्नुस्वामी को दिए जवाब में खुद ही कह चुकी है कि राज्य सरकार को कृषि क्षेत्र में केंद्र सरकार से नीतिगत और आर्थिक मदद मिलती है.
हालांकि, ऐसा होने की संभावना बेहद कम है. खास तौर पर जिस तरह से केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को भरोसे में लिए बगैर कृषि संबंधी अध्यादेश (अब संसद से पारित होकर कानून बन चुके हैं) को लागू किया, वह बताता है कि खेती को राज्यों का विषय एक रणनीति से ज्यादा कुछ नहीं है. इसे राज्य सरकारें संवैधानिक दायरे का उल्लंघन तक बता चुकी हैं. यही वजह है कि पंजाब, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की राज्य सरकारें इन कानूनों को अपने-अपने राज्यों में बेअसर करने के लिए विधानसभाओं से खास संशोधनों के साथ विधेयक भी पारित कर चुकी हैं. ये विधेयक कानून बन पाएंगे या नहीं, यह अलग सवाल है. लेकिन इससे यह साफ है कि इन कानूनों पर राज्य सरकारों को केंद्र से घनघोर असहमति है जो केंद्र-राज्य संबंधों के लिए संस्थागत तौर पर कतई अच्छा नहीं है.
अगर संवैधानिक स्थिति की बात करें तो भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची में तीन तरह की सूचियां शामिल हैं. इनमें सबसे पहले यूनियन लिस्ट (संघ की सूची) है, जिसमें देश की सुरक्षा और विदेश मामलों से लेकर एकीकरण से जुड़े सारे विषय शामिल है. इस सूची में अफीम की खेती और भारतीय जल क्षेत्र में मछली पकड़ने का विषय को छोड़कर खेती-किसानी का एक भी विषय शामिल नहीं है. हां, इंटर स्टेट ट्रेड एंड कॉमर्स (अंतरराज्यीय वाणिज्य और व्यापार) जरूर संघ की सूची में शामिल है.
राज्य सूची को देखें तो इसमें पुलिस प्रशासन और अन्य दूसरे विषयों के साथ कृषि और पशुपालन शामिल है. इसमें कृषि शोध और शिक्षा, रोगों और कीटों से फसलों का बचाव, पशु चिकित्सा सेवा और इसके लिए प्रशिक्षण शामिल हैं. यहां तक कि सूदखोरी, सूदखोर और कृषि कर्ज से राहत भी राज्य सूची में शामिल है.
संघ सूची और राज्य सूची से अलग एक तीसरी सूची भी है, जिसे समवर्ती सूची कहते हैं, उसमें केंद्र और राज्य दोनों को कानून बनाने का अधिकार हासिल है. इसमें खेती-किसानी से जुड़े विषयों को देखें तो खाने-पीने की वस्तुओं में मिलावट, मूल्य नियंत्रण, अनाज और खाद्य तेलों की सप्लाई और वितरण और इनके कारोबार जैसे विषय शामिल हैं.
केंद्र सरकार कृषि क्षेत्र से जुड़े फैसले करने के लिए कीमत नियंत्रण, अनाज की सप्लाई और उनके अंतरराज्यीय कारोबार जैसे विषयों का सहारा लेती है, जो कानूनी तौर पर सही है. लेकिन, जिस तरह से राज्यों की अनदेखी की जाती है या कृषि क्षेत्र के बुनियादी सवालों से भागने की कोशिश होती है, उसे अच्छा नहीं कहा जा सकता. खास तौर पर केंद्र के कृषि कानूनों को पहले अध्यादेश के रूप में लाने और फिर उसे संसद से पारित कराने में भले ही संवैधानिक बंटवारे का उल्लंघन न दिखे, लेकिन भारतीय शासन व्यवस्था में राज्यों की स्थिति को कमजोर करने वाला है. सवाल तो यह भी है कि क्या एक कमजोर राज्य और एक बेहद ताकतवर केंद्र के बीच सहकारी संघवाद जैसी कोई बात सच्चे अर्थों में हो सकती है? अगर हो सकती है तो उसकी उम्र क्या होगी?