केंद्र के कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों ने आंदोलन तेज करने का ऐलान किया है. इस बीच केंद्र सरकार ने कानूनों में संशोधन का प्रस्ताव रखते हुए कुछ नरमी जरूर दिखाई है. लेकिन इसके साथ कथित झूठ और उसका सच बताने के नाम पर सरकार जो कर रही है, वह चौंकाने वाला है. सरकार ने शनिवार को पूरे पेज का एक विज्ञापन जारी किया है. इसमें कई ऐसी बातों का खंडन किया गया है, जो किसान कह ही नहीं रहे हैं.
सरकार कोई आंकड़ा क्यों नहीं दे रही
किसानों की सीधी मांग है कि सरकार तीनों कृषि कानूनों को वापस ले, तब बाकी मांगों पर बात की जाए. इसमें फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी आधार देने की मांग प्रमुख है. हालांकि, सरकार ने अपने विज्ञापन में पहले झूठ के तौर पर लिखा है कि ‘एमएसपी की व्यवस्था खत्म हो रही है’ और इसका सच बताया है कि ऐसा नहीं होगा. इसमें सरकार ने भाषा के स्तर पर खेल किया है.
दरअसल, किसान यह कह ही नहीं रहे हैं कि एमएसपी की व्यवस्था ‘खत्म हो रही है’, बल्कि उनका कहना है कि ‘खत्म हो जाएगी.’ किसान इसके लिए सरकारी स्तर पर मौजूद रिपोर्ट, नए कृषि कानूनों के प्रभाव और मंत्रियों के बयान को आधार बना रहे हैं.
न्यूनतम समर्थन मूल्य की सिफारिश करने वाला कृषि मूल्य और लागत आयोग (सीएसीपी) अपनी हर रिपोर्ट में कहता है कि पंजाब और हरियाणा में धान-गेहूं की सरकारी खरीद पर सीमा लगाई जाए.
इतना ही नहीं, सरकार पीडीएस के तहत नगद पैसे देने की बात कर रही है. ऐसा हुआ तो सार्वजनिक वितरण के लिए अनाज की जरूरत खत्म हो जाएगी. जाहिर है कि तब सरकार इसकी खरीद नहीं करेगी. रही बात एपीएमसी मंडियों के बंद होने की तो जून में नए कानूनों के लागू होने के बाद इन मंडियों के राजस्व में भारी गिरावट आई है.
अकेले मध्य प्रदेश में 70 फीसदी तक कारोबार गिरने की खबर है. इसी आधार पर किसानों का कहना है कि एपीएमसी मंडियां जब राजस्व की कमी से बंद हो जाएंगी तब सरकार यह कहते हुए सरकारी खरीद से पीछे हट जाएगी कि हमारे पास अनाज खरीदने की व्यवस्था नहीं है. इसी लिए किसान एमएसपी की गारंटी देने वाले कानून की मांग कर रहे हैं.
कानून में कुछ, विज्ञापन में कुछ
विज्ञापन में सरकार का दावा है कि ठेका खेती में एग्रीमेंट फसल के लिए होगा, ना कि जमीन के लिए. लेकिन इसी कानून की धारा-3 के उपखंड-3 में प्रावधान है कि कोई भी एग्रीमेंट कम से कम एक फसल चक्र के लिए और अधिकतम पांच साल के लिए होगा.
अगर कोई फसल पांच साल या उससे ज्यादा समय की है तो एग्रीमेंट उतने ही समय के लिए किया जाएगा. हां, यह प्रावधान जरूर है कि जमीन के मालिकाना हक में कोई बदलाव नहीं होगा.
लेकिन पांच साल या उससे ज्यादा समय के लिए कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग को किसान कैसे रद्द कर पाएगा, यह सोचने वाली बात है. सबसे अहम बात यह है कि किसानों को आखिर कोर्ट जाने की छूट क्यों नहीं दी गई है? (हालांकि, सरकार ने अब इसमें बदलाव करने का प्रस्ताव रखा है.)
सरकार ने अपने विज्ञापन में इस आशंका को झूठ बताया है कि ठेका खेती में भुगतान नहीं मिल पाएगा. दरअसल सरकार ने नए कानून में सिर्फ पैन कार्ड के आधार पर व्यापारियों को किसानों से उत्पाद खरीदने की छूट दी है.
किसान का पैसा लेकर भागने का मामला महाराष्ट्र के बड़वानी में आ चुका है. मध्य प्रदेश के होशंगाबाद में एक कंपनी कॉन्ट्रेक्ट फॉर्मिंग के बाद किसानों से धान खरीदने से इनकार कर चुकी है.
झूठ के सच में छिपा सबसे बड़ा झूठ
केंद्र सरकार ने अपने विज्ञापन के जरिए इस शिकायत को झूठ बताया है कि कानून बनाने से पहले किसानों से कोई चर्चा नहीं की गई. उसका कहना है कि नए कानूनों को बनाने पर विचार-विमर्श की प्रक्रिया 20 साल पहले शुरू हो गई थी. मतलब दो दशकों तक विचार विमर्श चला है.
विज्ञापन के मुताबिक, साल 2000 में शंकर गुरु कमेटी से इसकी शुरुआत हुई थी. इसके बाद 2003 में मॉडल एपीएमसी एक्ट, 2007 में एपीएमसी रूल्स, 2010 में हरियाणा, पंजाब बिहार और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्रियों की समिति और 2013 में 10 राज्यों के कृषि मंत्रियों की सिफारिश, 2017 का मॉडल एपीएमएल एक्ट और आखिरकार 2020 में संसद द्वारा इन कानूनों को मंजूरी.
इस विज्ञापन को पढ़ते हुए कुछ ऐसा लगता है कि जैसे कोई कह रहा हो कि पोते के जन्म से पहले ही उसके दादा से पूछकर उसकी नाप लिख ली गई थी, बस कपड़ा अभी-अभी सिलाकर उपहार में दिया गया है, जिसे बच्चे को हर हाल में पहनना ही होगा.
संसदीय प्रक्रिया का मजाक क्यों
अगर एक बार के लिए मान भी लिया जाए कि सरकार 20 साल से इस पर चर्चा कर रही थी. तब सरकार यह भी बताए कि ऐसी कौन सी आपातस्थिति बन गई कि सरकार संसद के मानसून सत्र होने के इंतजार नहीं कर सकी और उसे संविधान के आपातकालीन प्रावधान यानी अध्यादेश का इस्तेमाल करके कानून बनाना पड़ा.
इसके बाद सरकार ने संसद में विपक्ष की इस मांग को क्यों नहीं माना कि अध्यादेशों की जगह लेने वाले विधेयकों को सेलेक्ट या संयुक्त संसदीय समिति को भेज दिया जाए.
हालांकि, इस पर केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद का कहना है कि इन कानूनों पर एमएस स्वामीनाथन और मनमोहन सिंह जैसे विशेषज्ञ पहले ही चर्चा कर चुके थे, इसलिए इन्हें संसद की सेलेक्ट कमेटी को नहीं भेजा गया.
यह तो सीधे तौर पर संसद की संप्रभुता का माखौल है? क्या सरकार संसदीय और गैर-संसदीय प्रक्रिया का घालमेल करना चाहती है? संसद के बाहर क्या-क्या किया गया, इससे संसद के भीतर की प्रक्रिया को कैसे दरकिनार किया जा सकता है?
एक ही बात बार-बार दोहराई गई
केंद्र सरकार ने अपने विज्ञापन में सच-झूठ के कॉलम के अलावा अलग से यह दोहराया है कि इन कानूनों से एमएसपी सिस्टम खत्म नहीं होगा, एपीएमसी मंडिया बंद नहीं होंगी, किसानों की जमीन कोई भी नहीं छीन सकता और किसानों का एग्रीमेंट द्वारा बंधन नहीं होगा. केंद्र सरकार ने कृषि कानूनों से किसानों को होने वाला फायदा भी गिनाया है.
विज्ञापन का दावा है कि किसानों को बंधन मुक्त राष्ट्रीय बाजार मिलेगा, जिससे आय बढ़ेगी. एमएसपी सिस्टम जारी रहेगा, किसान अधिक दाम के लिए खरीदार से मोलभाव कर सकते हैं. किसान एपीएमसी मंडी और उसके बाहर भी जहां अधिक दाम मिले वहां ले जाकर फसल बेच सकते हैं.
फसल के मूल्यों के अप्रत्याशित उतार-चढ़ाव से मुक्ति मिलेगी, उच्च मूल्य की नई किस्म की फसलों के लिए बाजार मिलेगा. फसल बुवाई से पहले और कटाई के बाद दोनों स्थिति में आवश्यकता के अनुरूप कमाई के बेहतर विकल्प होंगे. ग्रामीण युवाओं के लिए कृषि व्यवसाय में अधिक अवसर होगा. ग्रामीण क्षेत्र में निवेश आने से युवाओं के लिए रोजगार बढ़ेगा.
किसानों पर बेअसर मौखिक वादे
गौर से देखा जाए तो इन बातों को सरकार जून से दोहरा रही है, लेकिन किसानों पर इनका कोई असर नहीं हो रहा है. इसकी वजह इन दावों का किसानों की समस्याओं या आशंकाओं से कोई लेना-देना नहीं है.
केंद्र सरकार के मुताबिक, नए कानूनों ने किसानों को अधिक दाम के लिए खरीदार से मोलभाव करने की ताकत दी है. जून में लागू कृषि कानूनों को आज लगभग छह महीने से ज्यादा समय हो गया है. कायदे से किसानों को इन कानूनों का फायदा मिलना शुरू हो जाना चाहिए था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ है. आज किसानों को धान के लिए बमुश्किल 11 सौ रुपये प्रति क्विंटल मिल पा रहा है, जबकि एमएसपी 1868 रुपये प्रति क्विंटल है. आगे फसलों के दाम सुधर जाएंगे, इसकी क्या गारंटी है.
पंजाब और हरियाणा जैसे कुछ एक राज्यों को छोड़कर पूरे देश में सरकारी खरीद की व्यवस्था जिस कदर लचर है, उससे सरकारी खरीद सुधरने की भी उम्मीद नहीं है. अगर खुले बाजार में धान का दाम एमएसपी के आसपास भी नहीं पहुंच रहा है तो किसान कहीं भी फसल बेचने ले जाए, उसे घाटा ही होना है.
अनुभव क्या कहता है
केंद्र सरकार का यह कहना है कि नया कानून किसानों को कीमतों में अप्रत्याशित उतार-चढ़ाव से मुक्ति दिलाएगा. कैसे, समझ से परे है. कीमत में उतार-चढ़ाव वस्तुओं के उत्पादन, उपलब्धता और सरकार के आयात-निर्यात के फैसले से तय होता है. इन कानूनों में ऐसा कोई मैकेनिज्म नहीं बनता दिखाई दे रहा है जो इनके बीच कोई तालमेल पैदा करे. अलबत्ता, आवश्यक वस्तु अधिनियम में अनाज को स्टॉक लिमिट की छूट देने से जमाखोरी और बाजार में अनिश्चितता आने का खतरा जरूर खड़ा हो गया है. संसद ने नए कानून पारित होने के तुरंत बाद जब आलू और प्याज के दाम बेकाबू हुए तो खुद केंद्र सरकार को जमाखोरी की आशंका खारिज करने के लिए स्टॉक लिमिट लगानी पड़ी.
बिहार के अनुभव पर चर्चा क्यों नहीं
केंद्र सरकार कहना है कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के तहत उच्च मूल्य की फसलों को बाजार मिलेगा. किसान भी यही बात कह रहे हैं. उनका तो यहां तक कहना है कि इससे धान, गेहूं और दाल जैसे दूसरे अनाज की खेती में गिरावट आएगी, जो खाद्य सुरक्षा का जोखिम पैदा कर सकती है. रही कृषि क्षेत्र में निवेश आने और इससे युवाओं को रोजगार मिलने की बात तो इसकी असलियत जानने के लिए बिहार की तरफ देखना चाहिए.
बिहार ने 2006 में लगभग ऐसे ही सपनों और वादों के साथ अपने यहां एपीएमसी एक्ट को खत्म कर दिया था. लेकिन यहां के किसानों के लिए एमएसपी तो दूर, मक्का जैसी फसलों के आधे दाम भी नहीं मिल पा रहे हैं.
आपदा में अवसर का आरोप
सरकार जिस तरह से बेहद कमजोर तर्कों से अपने फैसले का बचाव कर रही है, उससे कोरोना आपदा में कॉरपोरेट्स के लिए अवसर तलाशने के आरोपों को आधार मिल रहा है. यह हकीकत है कि सामान्य दिनों में और सामान्य संसदीय प्रक्रिया से इन कानूनों को पारित कराने के लिए सरकार को 100 बार सोचना पड़ता.
अब सरकार आंदोलन को शांत कराने की जगह भले ही विज्ञापन के सहारे अपना पक्ष मजबूत करने में लगी हो, लेकिन वह भूल रही है कि मनगढंत झूठ का मनगढंत सच भी आखिरकार झूठ ही होता है, और इसका विज्ञापन दुष्प्रचार कहलाता है.
लेख-विशेष
कृषि कानूनों पर केंद्र सरकार का सच किसानों के सच से अलग क्यों है?