केंद्र सरकार के कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली के सिंधु बॉर्डर पर किसानों का आंदोलन बीते 15 दिनों से जारी है. इस दौरान किसानों से केंद्र सरकार की बातचीत बेनतीजा रही है. इस बीच केंद्र सरकार ने किसानों के सामने नए कानूनों के तहत बनने वाली निजी मंडियों का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य बनाने, उन्हें टैक्स के दायरे में लाने और राज्य सरकारों को व्यापारियों का रजिस्ट्रेशन तय करने का अधिकार देने का प्रस्ताव रखा है. लेकिन किसानों ने इसे ठुकरा दिया है. उनकी सीधी मांग है कि केंद्र सरकार कोरोना संकट के समय लाए गए तीनों कानूनों को वापस ले और फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीद की गारंटी देने वाला कानून बनाए.
आंदोलन तेज करेंगे किसान
किसानों ने अपनी मांगों के लिए सरकार पर दबाव बढ़ाने के लिए आंदोलन को और तेज करने का ऐलान किया है. इसके तहत 14 दिसंबर को भाजपा कार्यालय का घेराव करना, दिल्ली को जोड़ने वाले हाईवे को जाम करना, जियो सिम को जलाना और दिल्ली से दूर राज्यों में प्रदर्शन करना शामिल है. इससे पहले किसानों ने आठ दिसंबर को भारत बंद बुलाया था, जिसका विपक्षी दलों ने भी समर्थन किया था. इस बीच बुधवार को 25 विपक्षी दलों के नेताओं ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से मुलाकात करके तीनों केंद्रीय कानूनों को रद्द करने का अनुरोध किया है. विपक्षी दलों का कहना है कि इन कृषि कानूनों को उचित चर्चा किए बगैर अलोकतांत्रिक ढंग से पारित कराया गया था.
सरकार का क्या है दावा
इन तमाम विरोध प्रदर्शनों और शिकायतों के बीच केंद्र सरकार की ओर से कृषि कानूनों के लाभ बताने वाले प्रचार अभियान जारी हैं. केंद्र सरकार में आयुष मंत्री श्रीपद नाईक ने इन तीनों कानूनों का लाभ बताने वाले पोस्टर जारी किए हैं. इन पोस्टरों को देखकर साफ हो जाता है कि सरकार और किसानों का इन कानूनों को लेकर सच बिल्कुल ही अलग है या दोनों अलग-अलग जगह पर खड़े होकर इन कानूनों को देख रहे हैं. गुरुवार को केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने किसानों को बातचीत जारी रखने की अपील करते हुए भी लगभग इन्हीं दावों को दोहराया है.
मौजूदा मंडी व्यवस्था खत्म होने का डर
किसानों को डर है कि केंद्र के नए कृषि कानूनों से मंडियों की मौजूदा व्यवस्था समाप्त हो जाएगी, क्योंकि निजी मंडियां टैक्स मुक्त हैं, इसलिए व्यपारी वहां चले जाएंगे. उनका यह भी कहना है कि अगर मंडी व्यवस्था खत्म हो गई तो सरकार खरीद तंत्र न होने का बहाना करके फसलों को खरीदने से इनकार कर देगी. इसके लिए किसान बिहार का उदाहरण दे रहे हैं, जिसने मंडी सुधार के नाम पर 2006 में एपीएमसी एक्ट को खत्म कर दिया था. लेकिन यहां के किसानों को सही दाम के लिए सबसे ज्यादा भटकना पड़ रहा है.
किसानों को अच्छी कीमत मिलने का दावा
वहीं, सरकार का कहना है कि ऐसा कुछ नहीं होगा, बल्कि निजी मंडियां बनने से एक प्रतिस्पर्धी माहौल बनेगा, जिससे किसानों को अपनी फसलों के सही दाम मिल पाएंगे. इसके जवाब में किसान पूछ रहे हैं कि सरकार ने जून में ही इन कानूनों को अध्यादेश के माध्यम से लागू कर दिया था, उसके बाद से अब तक देश के किस कोने में कोई प्रतिस्पर्धी माहौल बना है, जिससे किसानों को सही दाम या न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल पाया है. किसानों को मक्का और मूंग के बाद अब धान को आधा-तीहा दाम पर बेचना पड़ रहा है.
एमएसपी पर खरीद बंद होने की आशंका
किसानों का कहना है कि यह कदम कारपोरेट्स को बढ़ावा देने के लिए उठाया गया है. किसानों को आशंका है कि कॉरपोरेट्स को फायदा पहुंचाने के लिए सरकार आने वाले समय में एमएसपी पर खरीद बंद कर देगी. किसानों की इस आशंका की वजह बहुत साफ है. सरकार अभी राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून की जरूरत पूरा करने के लिए अनाज खरीदती है. हालांकि,, इसकी जगह लोगों को सीधे पैसा देने की बात विचाराधीन है. अगर सरकार ने पीडीएस के तहत पैसा देना शुरू कर दिया तो फिर अनाज की सरकारी खरीद की जरूरत खत्म हो जाएगी. दूसरी बात केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी बीते साल साफ-साफ कह चुके हैं कि एमएसपी की व्यवस्था में बदलाव करने की जरूरत है, यह दुनिया के मुकाबले ज्यादा है. इसके अलावा कृषि मूल्य और लागत आयोग, जो फसलों की एमएसपी तय करने के लिए सुझाव देता है, भी अपनी रिपोर्ट में लगातार कह रहा है कि पंजाब और हरियाणा में गेहूं और धान की सरकारी खरीद को सीमित करना चाहिए. यही वजह है कि केंद्र सरकार का एमएसपी पर फसलों की खरीद जारी रखने का आश्वासन किसानों के गले नहीं उतर रहा है.
किसानों को जमाखोरी का डर
आवश्यक वस्तु अधिनियम में किया गया बदलाव भी किसानों को चिंता का विषय है. सरकार ने अनाज दलहन तिलहन खाद्य तेल प्याज आलू जैसी वस्तुओं को आवश्यक वस्तुओं की स्टॉक लिमिट की शर्त से बाहर कर दिया है. 1955 में इस प्रावधान को जमाखोरी रोकने के लिए लाया गया था. सरकार का कहना है कि अब फसलों का पर्याप्त उत्पादन है, इसलिए जमाखोरी जैसे हालात की नौबत नहीं आएगी. इससे निजी क्षेत्र का कोल्ड स्टोरेज और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में निवेश आएगा और किसानों को अपने उत्पादों की अच्छी कीमत के साथ सुरक्षित भंडारण की सुविधा मिल सकेगी. लेकिन बीते दिनों जिस तरह से आलू और प्याज के दाम उछले, उसने आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलावों से जमाखोरी न बढ़ने के सरकार के दावे को कटघरे में खड़ा कर दिया है. खुद केंद्र सरकार ने प्याज के बढ़ते दाम पर काबू पाने के लिए स्टॉक लिमिट तय करने यानी जमाखोरी को रोकने का ही फैसला किया. इस मामले में किसानों का कहना है कि जमाखोरी होगी, बाजार में बनावटी तरीके से फसलो की कीमतों में उतार-चढ़ाव लाया जाएगा, क्योंकि सरकार के पास निजी कोल्ड स्टोरेज या वेयरहाउस की निगरानी करने का कोई उपाय नहीं है. ऐसे में ऐसी सूरत में अगर सरकार महंगाई से निपटने के लिए आयात-निर्यात के फैसले करती है तो अंत में किसानों को ही चोट पहुंचेगी.
ठेका खेती में एमएसपी जिक्र क्यों नहीं?
ठेका खेती यानी कांट्रेक्ट फार्मिंग को लेकर किसानों को डर है कि सरकार ने इसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य को किसानों की मिलने वाली न्यूनतम कीमत का आधार नहीं बनाया, जिससे कंपनियां मनमानी शर्तों पर किसानों से सौदेबाजी करेंगी और फसलों का दाम तय करेंगी. इतना ही नहीं, फसलों की गुणवत्ता खराब बताकर उसे लेने से इनकार करने जैसा जोखिम भी किसानों की मुश्किलें बढ़ा देगा. इसके अलावा विवाद की स्थिति में किसान कोर्ट भी नहीं जा सकेंगे. किसानों का यह भी कहना है कि कंपनियां उन फसलों की ही खेती कराएंगी, जो बजार में मुनाफा देती हैं, इससे अनाज उत्पादन घटने और खाद्य सुरक्षा का जोखिम आने का भी खतरा है.
कानूनों में बदलाव का प्रस्ताव
हालांकि, सरकार ने कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग एक्ट में बदलाव करके किसानों को अदालत जाने का विकल्प शामिल करने का प्रस्ताव रखा है. उसका कहना है कि कांट्रैक्ट फार्मिंग में फसलों के दाम उनकी खेती से पहले ही तय हो जाएंगे, इसलिए किसानों को न तो कोई घाटा होगा और न ही दाम में किसी उतार-चढ़ाव का उन पर बुरा असर ही आएगा.
फिलहाल कृषि कानूनों के लाभ-हानि पर किसान और सरकार दोनों ही अलग-अलग छोर पर खड़े दिखाई दे रहे हैं. लेकिन इन तमाम बातों के बीच फसलों का उचित दाम सबसे प्रमुख मुद्दा है. इससे आज देश का हर किसान जूझ रहा है. सरकारी खरीद को छोड़कर किसानों को कभी भी फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य या इसके बराबर दाम नहीं मिल पा रहा है. इससे निपटने के लिए ही किसान एमएसपी की गारंटी देने वाले कानून की मांग कर रहे हैं. लेकिन सरकार इस पर आश्वासन से ज्यादा कुछ देने को तैयार नहीं दिखाई दे रही है.