सांसद और ग्राम प्रधान में तुलना पहली नजर में हास्यास्पद लग सकती है. लेकिन कोरोना संकट की यही हकीकत है कि सांसदों की भूमिका ग्राम प्रधानों से भी कमजोर पड़ गई है. प्रधान और दूसरे प्रतिनिधियों के पास जहां विकास कार्य कराने से लेकर कोरोना संकट से निपटने के उपाय करने के लिए पर्याप्त बजट है, वहीं सांसदों के पास ना तो सांसद निधि यानी एमपी लोकल एरिया डेवलपमेंट फंड (एमपीलैड्स) बचा है और न ही दूसरा कोई बजट.
सांसद निधि पर कोरोना की मार
दरअसल, केंद्र सरकार ने कोरोना संकट से निपटने के लिए मई 2020 में ही सांसद निधि (MPLADS) को अगले दो साल यानी वित्त वर्ष 2020-21 और 2021-22 के लिए स्थगित कर दिया है. सरकार का कहना है कि इस पैसे को कोरोना महामारी और अर्थव्यवस्था पर इसके असर से निपटने में खर्च किया जाएगा. यही वजह है कि वित्त वर्ष 2020-21 के लिए अब तक एमपीलैड में एक भी रुपया नहीं आया है. इतना ही नहीं, 2019-20 में 31 मार्च तक जारी होने वाली राशि को भी रोक दिया गया है. सांसदों से जिलाधिकारियों के पास पड़े एमपीलैड्स फंड के इस्तेमाल को लेकर प्राथमिकताएं तय करने के लिए कहा गया है ताकि पहले से चल रहे काम आधे-अधूरे न लटके रहें.
एमपीलैड्स क्या है
विकास कार्यों का विकेंद्रीकरण हो और इसमें जनप्रतिनिधि के रूप में सांसदों की भागीदारी आए, इस मकसद से सांसद क्षेत्र विकास निधि योजना (एमपीलैड्स) को शुरू किया गया था. इसके तहत सांसद को अपने क्षेत्रों में बुनियादी कार्य कराने की सिफारिश करने का अधिकार होता है. इसके हिसाब से जिला प्रशासन विकास कार्यों को कराता है. यानी सांसद निधि के मामले में सांसद की भूमिका सिर्फ और सिर्फ सलाहकारी है. लेकिन यह उन्हें एक जनप्रतिनिधि के रूप में स्थानीय जरूरतों को पूरा करने में सक्षम बनाता है.
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यही वजह है कि जब एमपीलैड्स को रोका गया तो विपक्षी दलों के सांसदों ने इस पर सवाल उठाया. कहा जा रहा है कि जब कोरोना संकट से निपटने के लिए स्थानीय जरूरत के हिसाब से काम करने की जरूरत है, तब सरकार ने एमपीलैड्स को रोककर उनकी भूमिका को सीमित कर दिया है. एमपीलैड्स योजना के तहत लोक सभा और राज्य सभा सांसद सालाना पांच करोड़ रुपये के विकास कार्यों की सिफारिश कर सकते हैं.
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एमपीलैड के आवंटन में कमी
एमपीलैड्स योजना के तहत 2011-12 से प्रति सांसद सालाना पांच करोड रुपये का आवंटन होता है. इसके लिए नोडल एजेंसी सांख्यिकी मंत्रालय को बनाया गया है. इसी की वेबसाइट बताती है कि एमपीलैड योजना के लिए बीते कुछ सालों में तय राशि और आवंटित राशि में अंतर लगातार बढ़ा है. (देखें- टेबल एक)
वेबसाइट से सालाना रिपोर्ट गायब
केंद्र सरकार ने एमपीलैड योजना को भले ही इस साल सस्पेंड किया हो, लेकिन सांख्यिकी मंत्रालय ने इसकी वेबसाइट पर वार्षिक रिपोर्ट अपलोड करना बहुत पहले से बंद कर दिया है. इसकी वेबसाइट पर अंग्रेजी में 2016-17 तक और हिंदी में 2014-15 तक की सालाना रिपोर्ट ही मौजूद है. आंकड़ों को छिपाने जैसे आरोपों का सामना कर रही केंद्र सरकार का यह मंत्रालय आखिर सालाना रिपोर्ट क्यों नहीं प्रकाशित कर रहा है, यह अपने आप में बड़ा सवाल है.
हालांकि, इसकी वेबसाइट से पता चलता है कि 17वीं लोक सभा के तहत वित्त वर्ष 2018-19 में सांसद निधि का पूरा पैसा नहीं जारी किया गया. (देखें टेबल-2) मौजूदा वित्त वर्ष में एक भी पैसा जारी नहीं किया गया है. इसके अलावा यह योजना आवंटित फंड को इस्तेमाल न कर पाने की चुनौती से भी जूझ रही है. जैसे 17वीं लोक सभा में आवंटित राशि का सिर्फ 56 फीसदी हिस्सा ही खर्च हो पाया है. (देखें टेबल-3)
क्या एमपीलैड योजना खत्म भी हो सकती है
केंद्र सरकार ने जिस तरह से विपक्षी दलों को भरोसे में लिए बगैर एमपीलैड योजना को दो साल के लिए रोका है, उसने कई आशंकाओं को जन्म दे दिया है. इसमें एक आशंका इस योजना को बंद करने की भी है. इसके पीछे दलील है कि संविधान के मुताबिक सांसद का काम विधायी कार्य यानी कानून बनाना है, न कि कानूनों को लागू करना या विकास कार्य कराना, यह सरकार यानी कार्यपालिका की जिम्मेदारी है.
एमपीलैड्स को लागू करने में होेने वाली हीलाहवाली भी इसकी आलोचना की एक बड़ी वजह रही है. नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने अपनी रिपोर्ट में कई बार कहा है कि इस योजना के तहत आवंटन का बड़ा हिस्सा समय पर खर्च नहीं हो पाता है. इसके साथ-साथ एमपीलैड्स योजना में भ्रष्टाचार और फंड के दुरुपयोग के भी आरोप लगते रहे हैं.
सुप्रीम कोर्ट का एमपीलैड्स पर फैसला
हालांकि, इन तमाम आशंकाओं के बीच एक बात गौर करने वाली है कि सुप्रीम कोर्ट एमपीलैड्स योजना को संवैधानिक बता चुकी है. इसकी संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सर्वोच्च न्यायालय ने मई 2010 में फैसला सुनाया था. इसमें तत्कालीन चीफ जस्टिस केजी बालकृष्णन की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय बेंच ने कहा था, ‘हम मानते हैं कि एमपीलैड योजना वैध है. इसमें हमारी दखल की कोई जरूरत नहीं है.’ अदालत ने यह भी कहा था कि महज पैसों के दुरुपयोग के आधार पर इस योजना को खारिज नहीं किया जा सकता है, इसकी लोक सभा और राज्य सभा की स्थायी समितियां निगरानी करती हैं और कई स्तरों पर पारदर्शिता तय करने के इंतजाम हैं.
सर्वोच्च अदालत ने यह भी माना था कि एमपीलैड योजना की वजह से स्थानीय स्तर पर पेयजल, बिजली, लाइब्रेरी और खेल-कूद की सुविधाएं जैसे विकास कार्यों में मदद मिली है. अदालत ने कहा था कि यह मानने की कोई वजह नहीं है कि जिला प्रशासन एमपीलैड् योजना को लागू नहीं कर सकता, यह योजना जनता के कल्याण के लिए है. संविधान के अनुच्छेद 282 की व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इस योजना के लिए बजट आवंटित करने की संसद की शक्ति को पूरी तरह से संवैधानिक बताया था.
सनद रहे
एमपीलैड योजना का ऐलान संसद में 23 दिसंबर 1993 को तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने किया था. इसके लिए दिया जाने वाला बजट पूरी तरह से केंद्र सरकार का होता है और यह बजट वित्त वर्ष बीतने के साथ खत्म नहीं होता है, बल्कि इसमें बचा हुआ पैसा अगले साल के बजट में जुड़ जाता है. 1993-94 में जब इस योजना को शुरू किया गया था, तब सांसदों को सालाना पांच लाख रुपये मिलते थे. इसे 1994-95 में बढ़ाकर एक करोड़ और 1999-98 में दो करोड़ रुपये सालाना कर दिया गया था. वित्त वर्ष 2011-12 में इसे पांच करोड़ रुपये सालाना कर दिया गया था. इसके तहत लोक सभा सांसद अपने निर्वाचन क्षेत्र में, राज्य सभा सांसद संबंधित प्रदेश में कहीं भी और दोनों सदनों के नामित सांसद देश में कहीं भी सांसद निधि से काम कराने की सिफारिश कर सकते हैं. इससे स्थानीय विकास में सांसदों की भूमिका महत्वपूर्ण बन जाती है.
सांसदों को राष्ट्रीय एकता, सौहार्द और भाई-चारा बढ़ाने के लिए देश में कहीं भी सालाना 25 लाख रुपये का काम कराने की सिफारिश का अधिकार है. वहीं, देश में गंभीर किस्म की प्राकृतिक आपदा होने पर एक करोड़ रूपये और अपने राज्य में प्राकृतिक आपदा के दौरान 25 लाख रुपये तक के काम की सिफारिश कर सकते हैं.
सांसद निधि के तहत पेयजल सुविधा, शिक्षा, बिजली, गैर-पारंपरिक ऊर्जा स्रोत, स्वास्थ्य, सफाई और परिवार कल्याण, सिंचाई, रेलवे, रोड, खेल-कूद, कृषि और सहायक कार्य, हैंडलूम के लिए कलस्टर डेवलपमेंट और शहरी विकास शामिल है.
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