Connect with us

Hi, what are you looking for?

सवाल-जवाब

कैसे लुट गया किसानों को सुरक्षा देने वाली पीएम फसल बीमा योजना का कारवां?

संसद में पेश केंद्र सरकार के आंकड़े बताते हैं कि किसानों से कहीं ज्यादा राज्य सरकारें फसल बीमा योजना से पीछा छुड़ाने में लगी हैं

फसल बीमा योजना

केंद्र सरकार ने 2016 में पूरे जोर-शोर से पीएम फसल बीमा योजना को रिलॉन्च किया ताकि किसानों को मौसम की मार से होने वाले नुकसान से सुरक्षा दी जा सके. लेकिन चार साल बाद इस योजना को ही बीमा की जरूरत दिखाई दे रही है. आज किसान ही नहीं, बल्कि राज्य सरकारें तक इससे पीछा छुड़ाने लगी हैं. यहां तक कि गुजरात सरकार ने भी इस साल पीएम फसल बीमा योजना को लागू करने से इनकार कर दिया है. इससे पहले पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, झारखंड, तेलंगाना और बिहार फसल बीमा योजना को लागू करने से पीछे हट चुके हैं. इसकी क्या वजह है, यह जानने के लिए संसद में सरकार द्वारा दिए गए जवाब को देखना होगा.

जब सरकार ने फसल बीमा क्लेम लटकने की बात खुद मानी

संसद के मानसून सत्र में राज्य सभा में सांसद जी.सी. चंद्रशेखर, प्रताप सिंह बाजवा और डॉ अमि याज्ञिक ने फसल बीमा योजना को लेकर कुल पांच सवाल पूछे थे. इनमें (1) पीएम फसल बीमा योजना (PMFBY) के तहत 2016 से अब तक रबी और खरीफ सीजन के लिए बीमा कराने वाले किसानों की कुल संख्या, (2) 2016-17 से अब तक बीमा कंपनियों को मिले प्रीमियम की राज्यवार जानकारी, (3) 2016-17 से अब तक बीमा कंपनियों द्वारा किसानों को दिए गए क्लेम की राशि का सवाल शामिल था. इसके अलावा (4) 2016-17 से अब तक किसानों का बकाया फसल बीमा क्लेम और (5)किसानों के फसल बीमा क्लेम मिलने में देरी की वजह भी पूछी थी.

फसल बीमा कंपनियां फायदे में

केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने इन सवालों का 23 सितंबर को काफी विस्तार से लिखित जवाब दिया है. इसमें राज्यवार ब्यौरा शामिल है. इसके मुताबिक खरीफ 2016 में बीमा कंपनियों को चार करोड़ आठ लाख किसानों ने फसल बीमा कराया. इसके लिए कंपनियों को 15 हजार 924 करोड़ रुपये प्रीमियम दिया गया, जबकि किसानों को 10 हजार 557 करोड़ रुपये क्लेम दिया गया. इस दौरान 4.9 करोड़ रुपये फसल बीमा का भुगतान नहीं हो पाया. रबी 2016-17 बीमित किसानों की संख्या एक करोड़ 76 लाख थी, जबकि बीमा कंपनियों को 5,738 करोड़ रुपये प्रीमियम का भुगतान हुआ. किसानों को कुल 6,193 करोड़ रुपये क्लेम मिला, जबकि 14.5 करोड़ रुपये क्लेम बकाया रहा. इसी तरह खरीफ 2017 में 3 तीन करोड़ 58 लाख किसानों ने फसल बीमा कराया. बीमा कंपनियों को कुल प्रीमियम 18 हजार 416 करोड़ रुपये मिला और क्लेम का भुगतान 18 हजार 137 करोड़ रुपये रहा. इस सीजन में फसल बीमा क्लेम में 3.7 करोड़ रुपये बकाया रहा.

ये भी पढ़ें -  संसद में कृषि विधेयकों पर शिरोमणि अकाली दल ने बीजेपी का साथ छोड़ा

खरीफ 2018 से फसल बीमा क्लेम अटकने लगा

फसल बीमा योजना में रबी 2017-18 तक क्लेम भुगतान के आंकड़े तो मामूली हैं, लेकिन खरीफ 2018 के बाद के आकंड़े बताते हैं कि जैसे पूरी योजना ही पटरी से उतर गई हो. उदाहरण के लिए, खरीफ 2018 में 3 करोड़ 45 लाख किसानों ने फसल बीमा कराया, कंपनियों को 20 हजार 822 करोड़ रुपये प्रीमियम मिला, क्लेम का भुगतान 18 हजार 522 करोड़ रुपये रहा, जबकि बीमा क्लेम बकाया बढ़कर लगभग 880 करोड़ रुपये हो गया. लेकिन खरीफ 2019 आते-आते तो फसल बीमा के बकाया क्लेम ने सारे रिकॉर्ड ही ध्वस्त कर डाले. इस साल फसल बीमा क्लेम बकाया सात हजार 337 करोड़ रुपये पहुंच गया. रबी 2019-20 में फसल बीमा क्लेम का बकाया 2074 करोड़ रुपये रहा. सरकार ने अपने जवाब में खरीफ 2018 के दावों की पूरी सूचना न होने और रबी 2019-20 के नामांकन और दावों को अंतिम रूप नहीं दिए जाने की भी जानकारी दी है.

बीच राह में हांफ गई फ्लैगशिप योजना

केंद्र सरकार की यह फ्लैगशिप योजना बीच रास्ते में ही क्यों हांफने लगी? इसे समझने के लिए टेबल-3 देखें. केंद्र सरकार ने अपने जवाब में पीएम फसल बीमा योजना के तहत क्लेम लंबित होने की वजह भी बताई हैं. इसके मुताबिक, सबसे बड़ी वजह फसल बीमा प्रीमियम में राज्य सरकारों द्वारा अपने हिस्से के प्रीमियम का भुगतान न करना है. खरीफ 2017 में अकेले गुजरात राज्य सरकार ने प्रीमियम में अपना हिस्सा नहीं दिया था, वही संख्या रबी 2019-20 तक शेयर न देने वाले राज्यों की संख्या बढ़कर आठ हो गई. इनमें गुजरात, हरियाणा, केरल, महाराष्ट्र, राजस्थान, तमिलनाडु, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश शामिल हैं. इसके अलावा रबी 2019-20 में आंध्र प्रदेश, बिहार, जम्मू-कश्मीर, मणिपुर, मेघालय और पश्चिम बंगाल ने योजना को लागू ही नहीं किया. यानी किसानों को फसल बीमा के जरिए मिलने वाली सुरक्षा खत्म हो गई.

ये भी पढ़ें -  'लोगों के हाथ में पैसे रखने से (आर्थिक) संकट का समाधान होगा'

राज्य सरकारों की हालत पतली

Advertisement. Scroll to continue reading.

अब सवाल उठता है कि आखिर राज्य सरकारें क्यों प्रीमियम का भुगतान नहीं कर पाई? बाद के दिनों में इसकी दो वजहें सामने आईं. एक तो राज्यों को प्रीमियम सब्सिडी में केंद्र के साथ आधी हिस्सेदारी भारी पड़ने लगी, दूसरा फसल बीमा क्लेम के भुगतान में कंपनियों की मनमानी ने भी बड़ी भूमिका निभाई. बीते एक साल में जिन राज्य सरकारों ने पीएम फसल बीमा योजना से खुद को अलग किया है, उन सभी ने दलील दी है कि वह प्रीमियम सब्सिडी में अपने हिस्से का जितना भुगतान करती हैं, कंपनियां किसानों को उतना क्लेम भी नहीं देती हैं. इसमें फसल बीमा कंपनियों की मनमानी सबसे प्रमुख वजह है.

फसल बीमा स्वैच्छिक होने का बुरा असर

हालांकि, इस साल की शुरुआत में केंद्र सरकार ने बैंक से फसल कर्ज के साथ फसल बीमा योजना की अनिवार्यता को खत्म कर दिया है. यानी किसान चाहे तो फसल बीमा कराए और न चाहे तो बैंक को प्रीमियम काटने से मना कर दे. पीएम फसल बीमा योजना के तहत किसानों को खरीफ सीजन के लिए अधिकतम दो फीसदी, रबी सीजन के लिए डेढ़ फीसदी और बागवानी फसलों के लिए पांच फीसदी प्रीमियम देना होता है. इसके बाद बचे प्रीमियम को केंद्र और राज्य सरकारें आधा-आधा सब्सिडी के तौर पर देती हैं. पूर्वोत्तर राज्यों के लिए यह अनुपात 90:10 का है. फसलों का प्रीमियम उनके जोखिम के आधार पर होता है.

फसल बीमा योजना के स्वैच्छिक होने के बाद फसल बीमा कराने वाले किसानों की संख्या में भी गिरावट आई है. इसका असर फसल बीमा के लिए प्रीमियम दरों पर पड़ा है. उनमें भारी इजाफा हुआ है. इसी वजह से गुजरात सरकार ने एक साल के लिए फसल बीमा योजना को लागू करने से इनकार कर दिया. वहीं, मध्य प्रदेश में सरकार को कम प्रीमियम रेट पाने के लिए बार-बार फसल बीमा के लिए टेंडर रद्द करने पड़े.

ये भी पढ़ें -  क्या आप मानते हैं कि बिहार, हरियाणा और तेलंगाना में मैन्युअल स्कैवेंजर्स की संख्या जीरो है?

जाहिर है कि किसान जहां फसल बीमा क्लेम न मिलने से, वहीं राज्य सरकारें प्रीमियम सब्सिडी के खर्च की वजह से पीएम फसल बीमा योजना से भाग रही हैं. इसका सबूत 23 सिंतबर को ही राज्य सभा में सासंद वी विजयसाई रेड्डी को दिए गए जवाब में मिलता है. इसमें कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने राज्यों में फसल बीमा सब्सिडी के बकाया पैसे की जानकारी दी है. इसके मुताबिक फसल बीमा सब्सिडी का आंध्र प्रदेश पर 1302 करोड़, गुजरात पर 858 करोड़, राजस्थान पर 538 करोड़, मध्य प्रदेश पर 470 करोड़ रुपये, तेलंगाना पर 467 करोड़ और झारखंड पर 357 करोड़ रुपया बकाया है. (देखें- टेबल-4)

राज्यों का बोझ उठाने से इनकार

अपने इसी जवाब में केंद्र सरकार ने यह भी साफ किया है कि वह राज्यों पर बकाया फसल बीमा प्रीमियम का बोझ नहीं उठाने जा रही है. जाहिर है कि केंद्र सरकार राज्य सरकारों को इसके लिए दोषी ठहरा सकती है, लेकिन सवाल है कि आखिर राज्य सरकारों की माली हालत इतनी कैसे खराब हो गई कि वह अपने हिस्से की सब्सिडी का बोझ नहीं उठा पा रही हैं? अगर केंद्र सरकार इस योजना के जरिए किसानों को सुरक्षा देने के मुद्दे पर गंभीर नहीं हुई तो जिस तरह से मौसम की मार खेती को चोट पहुंचा रही है, उसमें किसानों की खुशहाली लाना तो दूर, उसकी तस्वीर बनाना भी मुश्किल होगा.

Advertisement. Scroll to continue reading.

राज्य सभा

क्यों यह सोचना गलत है कि कोरोना की दूसरी लहर अचानक आई या केंद्र सरकार को पता नहीं था

संसद के बजट सत्र यानी मार्च में ही कोरोना की दूसरी लहर से निपटने को लेकर सरकार से सवाल पूछे गए थे. इसके जवाब में केंद्र सरकार ने जो कुछ भी कहा था, वह जमीन पर कहीं दिखाई ही नहीं दिया. पढ़िए ये रिपोर्ट…

कोरोना, दूसरी लहर, लाशें, वैक्सीन, मास्क, चुनाव प्रचार,
12 मार्च, 2021 को अहमदाबाद में 'आजादी के अमृत महोत्सव कार्यक्रम' में पीएम नरेंद्र मोदी, Photo credit- PIB

आज केंद्र सरकार भले ही कोरोना के बढ़ते आंकड़ों में पॉजिटिविटी की तलाश कर रही हो. लेकिन सच यही है कि शहर हो या गांव, हर तरफ मौत की बरसात जारी है, श्मशान दहक रहे हैं, नदियों में शव तैर रहे हैं, परिवार बिखर रहे हैं, बच्चे अनाथ और बुजुर्ग बेसहारा हो रहे हैं. आज की तारीख में शायद ही कोई परिवार बचा हो, जिसने अपने किसी प्रियजन को न खोया हो. आखिर ये हालात कैसे बन गए? क्या कोरोना महामारी की दूसरी लहर वाकई बिना सूचना दिए आ गई? या केंद्र सरकार ने सब कुछ जानते हुए इस खतरे की अनदेखी की?

इस सवालों का जवाब पाने के लिए आपको संसद के बजट सत्र के दूसरे हिस्से यानी मार्च में लौटना होगा. यह वही समय था, जब पश्चिम बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी में विधानसभा चुनाव के लिए सरगर्मियां बढ़ गई थीं. सत्ताधारी भाजपा और विपक्षी दलों के नेता इन राज्यों में अपनी रैलियां और चुनावी सभाएं करने लगे थे. इतना ही नहीं, उत्तराखंड में कुंभ की तैयारियां भी जोर पकड़ चुकी थीं.

इन सब के बीच 16 मार्च को राज्य सभा में दो सांसदों विकास कुमार और डेरेक ओ ब्रायन (Derek O’Brien) ने कोरोना की दूसरी लहर आने का सवाल उठाया. केंद्र सरकार से उन्होंने पूछा कि भारत में दूसरी बार कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं, इससे निपटने के लिए सरकार ने क्या-क्या उपाय किए हैं?
सांसदों के इन सवालों (संख्या-2356) का केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने दिया. उन्होंने बताया, ‘भारत सरकार सितंबर, 2020 के बाद से लगातार गिरावट के बाद कोरोना के मामलों में दोबारा बढ़ोतरी की पूरी सक्रियता से निगरानी कर रही है। (Government of India is actively monitoring the resurgence of COVID-19 cases after sustained decline that was witnessed since mid-September 2020.) इस जवाब से साफ है कि कोरोना की दूसरी लहर अचानक नहीं आई है और इसकी सरकार को बाकायदा जानकारी थी.

केंद्रीय मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने आगे कहा कि मामलों में उछाल आने और इससे जुड़ी जरूरतें पूरी करने के लिए संबंधित राज्य सरकारों के साथ मिलकर संस्थागत प्रयास किए गए हैं. इसमें औपचारिक संचार, वीडियो कॉन्फ्रेंस और केंद्रीय दलों की तैनाती जैसे कदम शामिल हैं. (Any surge in cases reported and the need for institutionalizing necessary public health measures is taken up with the concerned States through formal communication, video conferences and deployment of Central team.)

ये भी पढ़ें -  'लोगों के हाथ में पैसे रखने से (आर्थिक) संकट का समाधान होगा'

जमीन पर क्या काम हुआ

केंद्र की सक्रिय निगरानी और राज्यों को दी गई सलाह का जमीन कितना असर पड़ा? इस जवाब के ठीक एक महीने बाद यानी अप्रैल में देश भर में लाशें क्यों गिरने लगीं? क्यों मेडिकल ऑक्सीजन के अभाव में लोग तड़प-तड़प कर मरने लगे? केंद्र सरकार को ऑक्सीजन की इस जरूरत का अंदाजा क्यों नहीं हुआ? जबकि बीते साल ही स्पष्ट हो गया था कि कोरोना मरीजों के इलाज में मेडिकल ऑक्सीजन सबसे जरूरी है. इन सवालों को भी छोड़ दिया जाए तो भी यह सवाल आता है कि केंद्र सरकार ने बीते साल कोरोना महामारी से निपटने के लिए जो भी कदम उठाए थे, उन्हें जमीन पर उतारने में गंभीरता क्यों नहीं दिखाई?

वेबसाइट स्क्रॉल के मुताबिक, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की स्वायत्त संस्था सेंट्रल मेडिकल सर्विस सोसाइटी ने बीते साल अक्टूबर में देश के 150 जिला अस्पतालों में प्रेशर स्विंग एडजॉर्ब्शन ऑक्सीजन प्लांट्स (Pressure Swing Adsorption oxygen plants) प्लांट लगाने के लिए टेंडर आमंत्रित किया. यह प्लांट वातावरण में मौजूद ऑक्सीजन को एकत्रित करके उसे पाइप के जरिए अस्पतालों में पहुंचाता है. इससे बाहर से लिक्विड मेडिकल ऑक्सीजन खरीदने की जरूरत खत्म हो जाती है.

कोरोना के इलाज में ऑक्सीजन की अहमियत होने के बावजूद बजट आवंटन में देरी हुई और टेंडर की प्रक्रिया लटकी गई. फिर सरकार ने 162 ऑक्सीजन प्लांट्स (12 बाद में जोड़े गए) के लिए 201.58 करोड़ रुपये जारी किए. लेकिन अप्रैल 2021 तक यानी लगभग छह महीने बाद सिर्फ 11 ऑक्सीजन प्लांट ही लगे और उनमें से सिर्फ पांच ही चालू हो पाए.

Advertisement. Scroll to continue reading.

बाद में केंद्र सरकार ने भी माना कि 162 ऑक्सीजन प्लांट्स में से सिर्फ 33 प्लांट्स ही लग पाए हैं. इनके चालू होने की बात तो खुद केंद्र सरकार ने भी नहीं कही. अगर यह जमीनी हकीकत है तो संसद में सरकार ने जिस सक्रिय निगरानी का दावा किया था, वह क्या कागजों में हो रही थी?

राज्यों को सलाह को खुद केंद्र ने कितना माना

ऑक्सीजन प्लांट और दवाओं के अकाल का भोगा हुआ सच जनता के सामने है. अब बात करते हैं कोरोना से बचाव के उपायों के बारे में. संसद में अपने इसी जवाब में केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री ने कहा था कि सभी राज्य सरकारों को (1) सभी हितधारकों के साथ तालमेल करके मिशन मोड पर नियंत्रणकारी उपायों को सख्ती से लागू करने, (2) निगरानी, संपर्कों का पता लगाने और जांच को बढ़ाने, (3) कोविड से बचाव मददगार व्यवहार को बढ़ावा देने के लिए आईईसी अभियान को सघन बनाने, (4) मामलों में वृद्धि के लिए अस्पतालों की पर्याप्त बुनियादी सुविधाएं सुनिश्चित करने, (5) मामलों को समय पर रेफर करके और उचित इलाज के जरिए मौतों को न्यूनतम करने (6) कोविड टीकाकरण अभियान को तेज करने की सलाह दी गई है.

लेकिन जब केंद्र सरकार संसद में यह जानकारी दे रही थी, उसके पहले से उसके प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और दूसरे मंत्री चुनाव वाले राज्यों में इसका उल्लंघन कर रहे थे. मार्च से अप्रैल तक की चुनाव प्रचार रैलियों और उनमें जुटते हजारों लोगों की तस्वीरें बताती हैं कि कैसे राज्यों को दी गई सलाह की खुद सरकार में बैठे लोगों ने परवाह नहीं की, विपक्ष और दूसरे दल तो दूर की बात हैं. इससे जुड़े कुछ ट्वीट अंत में दिए गए हैं. स्पष्ट करना जरूरी है कि कोविड प्रोटोकॉल के उल्लंघन में विपक्षी दल पीछे या कम भागीदार नहीं थे. यह अलग बात है कि अप्रैल के आखिरी हफ्ते में कांग्रेस ने कोरोना के बढ़ते मामलों के आधार पर अपनी रैली रद्द करके सत्ताधारी बीजेपी को भी ऐसा कदम उठाने के लिए मजबूर कर दिया.

हालांकि, चुनाव प्रचार में जिम्मेदार शीर्ष नेताओं के गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार ने आम जनता के बीच कोरोना का खतरा टलने का संदेश दे दिया. नेताओं की देखा-देखी जनता भी लापरवाह हो गई. सरकारें और राजनीतिक दल चुनावों से फुरसत पाकर इस बारे में कुछ सोचते, इससे पहले ही कोरोना वायरस ने पूरी ताकत से हमला बोल दिया. इसमें लचर स्वास्थ्य सेवाओं और इसे सुधारने में सरकारों की गैर-जिम्मेदारी ने आग में घी डालने का काम किया.

नोट- स्वास्थ्य संविधान की व्यवस्था में राज्य का विषय है, लेकिन इसमें हमेशा से केंद्र की दखल रही है. इतना ही नहीं, बेहद सीमित संसाधनों वाले राज्यों पर कोरोना जैसी महामारी से निपटने की जिम्मेदारी डालना, अपनी जिम्मेदारी से भागने जैसा कदम है.

 

 

Advertisement. Scroll to continue reading.

 

लेख-विशेष

वेंटिलेटर्स न मिलने से लोग मर रहे हैं, आखिर केंद्र ने साल भर में तैयारी क्या की?

कोरोना की दूसरी लहर में कोविड मरीजों को ऑक्सीजन के बाद वेंटिलेटर्स की सबसे ज्यादा जरूरत पड़ रही है. लेकिन देश में तो 10 हजार की आबादी पर भी मुकम्मल एक वेंटिलेटर नहीं है. पढ़िए ये रिपोर्ट…

वेंटिलेटर्स, कोरोना, कोविड,
Photo credit- Mhealth lab org

दुनिया के 46 फीसदी कोरोना मामले और एक चौथाई मौतें अकेले भारत में हुई हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ का यह ताजा आंकड़ा है. भारत में खुद सरकार ने कोरोना महामारी की तीसरी लहर आने की आशंका भी जता दी है. लेकिन क्या देश के पास इससे निपटने के लिए जरूरी स्वास्थ्य सेवाएं मौजूद हैं? यह सवाल इसलिए जरूरी है, क्योंकि दूसरी लहर में ऑक्सीजन, आईसीयू बेड और वेंटिलेटर्स की कमी की आज पूरी दुनिया में चर्चा है, लोगों को इलाज के अभाव अपनों को खो रहे हैं. ये केंद्र सरकार की तमाम तैयारियों और दावों को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं. केंद्र सरकार इसलिए, क्योंकि इस महामारी से निपटने के लिए ज्यादातर राज्यों के पास न तो संसाधन हैं और न ही विशेषज्ञता.

पेड़ों के नीचे इलाज क्यों

आज अस्पताल से लेकर श्मसान तक फैली अव्यवस्था को देखते हुए सवाल उठता है कि भारत में कोरोना का पहला मामला आने के बाद स्वास्थ्य सुविधाओं में कितना सुधार किया गया? इस बारे में केंद्र सरकार 16 लाख से लेकर 18 लाख से भी ज्यादा कोविड बेड बनाने के दावे कर रही है. लेकिन सोशल मीडिया पर एक वीडियो शेयर हो रहा है, जिसे मध्य प्रदेश के आगर मालवा का बताया जा रहा है. इसमें मरीजों को पेड़ों के नीचे लिटाकर इलाज किया जा रहा है. अगर केंद्र सरकार ने सचमुच 16 या 18 लाख बेड बना लिए थे (देखें- टेबल-1) तो ऐसी तस्वीरें क्यों आ रही हैं? (संसदनामा इस वीडियो की पुष्टि नहीं करता है.)

एक हजार आबादी पर कितने कोविड बेड

लोक सभा में सांसद दिनेश त्रिवेदी के सवाल के जवाब में केंद्र ने 20 सितंबर, 2020 को संसद में कोविड बेड की जानकारी दी थी. केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने बताया था कि जनगणना-2011 की आबादी के हिसाब से प्रति 1000 आबादी पर 1.6 कोविड बेड उपलब्ध हैं. लेकिन एक हकीकत यह भी है कि सरकारी दावों में शामिल कई बेड सिर्फ कागजों में ही बने हैं. पढ़ें ये रिपोर्ट- क्या केंद्र सरकार ने कोविड हॉस्पिटल बनाने के बारे में संसद में झूठे आंकड़े दिए थे?

विशेषज्ञ तो भारत में कोरोना जांच की मौजूदा संख्या पर सवाल उठा रहे हैं. उनका कहना है कि यह मरीजों की वास्तविक संख्या का पता लगाने के लिहाज से नाकाफी हैं. यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन के इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मीट्रिक्स एंड इवैल्युएशन (Institute for Health Metrics and Evaluation) भारत में कोविड मामलों का आकलन करने के लिए एक मॉडल बनाया है. इसके निदेशक ने आशंका जताई है कि भारत सिर्फ तीन या चार फीसदी मामलों की ही पहचान कर रहा है. इस मॉडल के मुताबिक शुक्रवार को भारत ने तीन लाख 86 हजार संक्रमण के नए मामले बताए, जबकि वास्तव में कुल संक्रमण एक करोड़ हो सकता है.

Advertisement. Scroll to continue reading.

आंकड़ों के इस विवाद को छोड़ भी दें तो अभी जितने मरीज हैं, उन्हीं को अस्पताल में बेड के लिए भटकना पड़ रहा है. इसे और सटीक तरीके से समझने के लिए प्रति हजार व्यक्ति पर कोरोना मरीजों की संख्या निकाल लेते हैं. 8 मई, 2021 के केंद्र के आंकड़ों के मुताबिक, देश में कोरोना के 37 लाख 23 हजार 446 सक्रिय मामले हैं. देश की आबादी लगभग एक अरब 40 करोड़ है. इस आधार पर 1000 की आबादी पर कोरोना के मरीजों की संख्या 2.6 आती है.

लेकिन सभी कोरोना मरीजों को अस्पताल जाने की जरूरत नहीं पड़ती है. सिर्फ 10-15 फीसदी मरीजों को ही अस्पताल में भर्ती कराने की जरूरत आती है. मौजूदा सक्रिय मामले के आधार पर तीन लाख 72 हजार 344 मरीजों को अस्पताल में भर्ती करके इलाज की जरूरत है. लेकिन सरकार ने जो कोविड बेड बताए हैं, उनमें आइसोलेशन बेड सबसे ज्यादा हैं और ऑक्सीजन युक्त बेड, आईसीयू और वेंटिलेटर्स कुल मिलाकर इतने नहीं है कि मौजूदा जरूरत को पूरा कर सकें. (देखें टेबल-1)

अब अगर सिर्फ वेंटिलेटर्स की बात करें तो केंद्र सरकार ने बजट सत्र में कोविड मरीजों के लिए राज्यवार आवंटित वेंटिलेटर्स की जानकारी दी थी. इसके मुताबिक, केंद्र सरकार ने 5 मार्च, 2021 तक 38 हजार 867 वेंटिलेटर्स आवंटित किए, जिनमें से 35 हजार 269 वेंटिलेटर्स लगा दिए गए थे. लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि कई अस्पतालों में वेंटिलेटर्स लगे हैं, लेकिन उन्हें चलाने वाले ऑपरेटर्स और उनका इस्तेमाल कर पाने वाले विशेषज्ञ नहीं हैं.

इससे पहले 23 सितंबर, 2020 को  केंद्रीय राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने बताया था कि 20 सितंबर 2020 तक राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को कुल 30,841 वेंटिलेटर्स भेजे गए हैं. वहीं, अप्रैल में केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री हर्ष वर्धन ने बताया कि बीते साल राज्यों को 34 हजार 228 वेंटिलेटर्स (ventilators) भेजे गए थे और लगभग छह हजार अतिरिक्त वेंटिलेटर्स भेजे जा रहे हैं. इनको मिलाकर मोटा आंकड़ा निकालें तो लगभग 40 हजार वेंटिलेटर्स केंद्र सरकार ने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को भेजे हैं.

नाकाफी रही तैयारी

सेंटर फॉर डिजीज डायनिमिक्स, इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी (Center for Disease Dynamics, Economics and Policy) और प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के मुताबिक, 2020 में महामारी फैलने के समय भारत में सिर्फ 48 हजार वेंटिलेटर्स (निजी और सरकारी सब मिलाकर) थे, जबकि देश को जरूरत कम से कम 1.5 लाख वेंटिलेटर्स की है. अगर नए और पुराने वेंटिलेटर्स को मिला लिया जाए तो आज की तारीख में कुल 88 से 90 हजार वेंटिलेटर्स होंगे, जो साल भर पहले डेढ़ लाख वेंटिलेटर्स की जरूरत से काफी कम हैं.

10 हजार आबादी पर कितने वेंटिलेटर्स

Advertisement. Scroll to continue reading.

2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत की आबादी लगभग एक अरब 40 करोड़ है. कुल 90 हजार वेंटिलेटर्स के आधार पर अगर प्रति हजार की आबादी पर संख्या निकालें तो यह आंकड़ा 0.06 आता है. यह प्रति दस हजार की आबादी पर 0.6 हो जाता है. तो साफ है कि केंद्र सरकार के भारी-भरकम दावों के उलट आज दस हजार की आबादी पर एक मुकम्मल वेंटिलेटर उपलब्ध नहीं है. ध्यान देने की बात है कि कोरोना संक्रमित मरीजों में से पांच फीसदी को क्रिटिकल केयर की जरूरत पड़ती है. यानी 8 मई के सक्रिय मामलों के आधार पर एक लाख 86 हजार 172 मरीजों को आईसीयू और वेंटिलेटर्स की जरूरत हो सकती है. लेकिन इन दोनों को मिलाने पर भी जरूरत पूरी नहीं होती है. (देखें-टेबल-1)

वेंटिलेटर्स निर्माण की क्षमता

ऐसा नहीं है कि देश जरूरत भर का वेंटिलेटर्स बनाने में सक्षम नहीं है. कोरोना की पहली लहर आने के बाद सार्वजनिक उद्यम भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड ने केंद्र सरकार को 28 हजार से ज्यादा वेंटिलेटर्स की आपूर्ति की है. इतना ही नहीं, बीईएल रोजाना 500 से लेकर एक हजार तक वेंटिलेटर्स बनाने में सक्षम है. इसके अलावा कई अन्य कंपनियां भी वेंटिलेटर्स का उत्पादन करती हैं.

क्या सरकार कोरोना को खत्म मान बैठी

कोरोना संक्रमित मरीज की टूटती सांसों को वेंटिलेटर्स के सहारे की जरूरत पड़ती है. 12 फरवरी, 2021 को केंद्र सरकार ने संसद में बताया कि उसने बीईएल को 30 हजार वेंटिलेटर्स बनाने का ऑर्डर दिया गया है. द हिंदू बिजनेसलाइन के मुताबिक, बीईएल ने बेहद कम समय में 30 हजार वेंटिलेटर्स की आपूर्ति कर दी. लेकिन केंद्र सरकार ने वेंटिलेटर्स की संख्या बढ़ाने के लिए कोई कदम क्यों नहीं उठाए? क्या केंद्र सरकार ने कोरोना महामारी को खत्म मान लिया था? क्या केंद्र सरकार संसाधनों की कमी से जूझ रहे राज्यों को जिम्मेदार बताकर महामारी से निपटने की अपनी जिम्मेदारी से बच सकती है? अगर देश में स्वास्थ्य सेवाओं का यही हाल रहा तो तीसरी लहर कितना कोहराम मचाएगी, इसका आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है.

ये भी पढ़ें -  सीमा ढाका ने अकेले 76 बच्चों को खोज निकाला, लेकिन गुमशुदा बच्चों पर संसद में सरकार ने क्या कहा?

लेख-विशेष

डॉ. हर्षवर्धन! कोविड हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर पर या तो सरकार बीते साल झूठ बोल रही थी या आप अब?

कोरोना मरीजों के लिए केंद्र सरकार ने अगर लाखों बिस्तर पिछले साल ही बना लिए थे, तो आज लोगों को सड़क किनारे, पार्किंग में या अस्पतालों के लिए भटकते हुए दम क्यों तोड़ना पड़ रहा है. पढ़िए ये विशेष रिपोर्ट…

कोविड, आइसोलेशन, कोरोना संक्रमण, ऑक्सीजन
Photo Credit-PIB

“अब शाम होने वाली थी. पापा उखड़ती हुई सांस में बोले कि मुझे घर ले चलो, अब नहीं बचूंगा, मम्मी और मेरे बच्चों से मिलवा दो. लेकिन मैं नहीं माना. अब मैं और मेरा भाई, जो खुद भी कोविड पॉजिटिव है, करीबी हॉस्पिटल लाल बहादुर शास्त्री हॉस्पिटल आ गए. यहां तक आते-आते मेरे पापा अब बेहोश हो चुके थे. दो घंटो में यहां हमारे सामने कई लोग मर चुके थे. डॉक्टर ने कहा कि इनको लेकर सफदरजंग या राम मनोहर लोहिया अस्पताल जाओ. दिल्ली सरकार की एंबुलेंस बुलाई, जो डेढ़ घंटे तक नहीं आई. फाइनली हमने पापा के लिए जैसे-तैसे एंबुलेंस अरेंज की और आरएमएल की ओर निकल पड़े. नहीं पता था कि ये पापा की ज़िंदगी का आखिरी पड़ाव है…

…हॉस्पिटल में जाने के एक घंटे तक डॉक्टर ने पापा को देखा तक नहीं. फिर उनको ऑक्सीजन पर शिफ्ट कर दिया और मुझे एक पर्चा थमा दिया कि ये पांचवीं मंजिल है, जहां पर बेड मिल जाए तो देख लो. थोड़ी ही देर बाद वो बोले कि पापा को अब इंट्यूबेट (Intubate) करना होगा. लेकिन मैक्सिमम चांस है कि ना बच पाए. पहले एक डॉक्टर ने कोशिश कि जिससे नहीं हो पाया. पापा की दोनों आखों और गले को इंट्यूबेट करने में फाड़ चुके थे. अब सीनियर डॉक्टर आया और उसने पाइप लगा दिया. मैं और मेरा भाई कोविड मरीजों के बीच अपने पापा को 12 घंटों तक गुब्बारे से हवा देते रहे…

…अब सुबह हो चुकी थी. हमारे साथ जो मरीज़ आए थे, उनमें से बहुत सारे मर चुके थे. डॉक्टर ने मेरे पापा की विलपॉवर देख कर कहा कि प्लीज डॉक्टर चढ्ढा, डॉक्टर राना या किसी मिनिस्टर से बात कर लो, आपके पापा बच जाएंगे। मैंने मिनिस्टर हर्षवर्धन जी तक को फ़ोन करवा भी दिया और खुद भी किया. No help.”

ये आपबीती दिल्ली के एक टीवी पत्रकार विक्रांत बंसल की है, जो उन्होंने एक फेसबुक पोस्ट के जरिए साझा की है. वे कोविड संक्रमित अपने पिता को लेकर दिल्ली-एनसीआर में 20 से ज्यादा छोटे-बड़े अस्पतालों में गए. लेकिन कहीं भी उन्हें मुकम्मल इलाज नहीं मिल सका. अंत में उनके पिता की उखड़ी सांसों ने उनका साथ छोड़ दिया. इससे आहत विक्रांत बंसल ने अपनी पोस्ट के अंत में लिखा- ‘भगवान से एक ही अनुरोध है या तो सबको पॉलिटीशियन बना दो, नहीं तो सब पॉलिटीशियन को सबक सिखा दो.’

कोरोना महामारी की दूसरी लहर आने के बाद बेबसी की ऐसी कहानियां आपको देश के हर कोने में मिल जाएंगी.  लोग अपने परिजनों का इलाज कराने के लिए अस्पताल दर अस्पताल और शहर दर शहर भटक रहे हैं. लेकिन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन का दावा है कि सरकार कोरोना महामारी से निपटने के लिए पिछले साल के मुकाबले मानसिक और भौतिक स्तर पर बेहतर तरीके से तैयार है. हालांकि, आपको यह जानकर हैरानी होगी कि केंद्र सरकार कोविड़ संक्रमितों के इलाज के हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर के बारे में अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग आंकड़े पेश किए हैं.

मसलन बीते साल संसद के मानसून सत्र में सांसद श्रीनिवास दादासाहेब पाटील और सांसद टीआर बालू को दिए जवाब में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने बताया था कि 14 सितंबर, 2020 तक पहले, दूसरे और तीसरे श्रेणी के कोविड समर्पित 15 हजार 372 अस्पताल बनाए गए हैं. इसके अलावा उन्होंने 15 लाख 49 हजार 931 आइसोलेशन बिस्तर, दो लाख 31 हजार 876 ऑक्सीजन सपोर्ट वाले बिस्तर, 62 हजार 979 आईसीयू और 32 हजार 862 वेंटिलेटर्स होने की जानकारी दी थी. यानी 14 सितंबर 2020 तक देश में कोविड मरीजों के लिए कुल 18 लाख 77 हजार 648 बिस्तर मौजूद थे. अगर वेंटिलेटर्स को आईसीयू बेड्स में शामिल मान लिया जाए, जैसा कि कुछ जवाब में सरकार ने कहा है, तो कुल बिस्तरों की संख्या 18 लाख 44 हजार 786 निकलती है.

ये भी पढ़ें -  सावधान! दोपहिया वाहनों के लिए देश की सड़कें जानलेवा बनती जा रही हैं

लेकिन आपको जानकार ताज्जुब होगा कि  सरकार ने एक दिन बाद का यानी 15 सितंबर, 2020 तक का जब लोक सभा में आंकड़ा पेश किया तो उसमें बिस्तरों की संख्या अप्रत्याशित रूप से घट गई. सांसद दिलीप शाकिया और रमेश चंद कौशिक को दिए जवाब में केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने बताया कि डीआरडीओ ने 1000 बेड से लेकर 10 हजार बेड्स की क्षमता वाले फील्ड हॉस्पिटल्स बनाए हैं. (संसदनामा की पड़ताल में यह दावा बेबुनियाद निकला है. पढ़ने के लिए यहां पर क्लिक करें)

इसी जवाब में उन्होंने आगे बताया कि ’15 सितंबर, 2020 तक, कोविड मरीजों के इलाज के लिए कुल 15,360 सुविधा केंद्र बनाए गए हैं, जिनमें बिना ऑक्सीजन वाले 13 लाख 20 हजार 881 आइसोलेशन बेड्स, दो लाख 31 हजार 516 ऑक्सीजन सपोर्टेड आइसोलेशन बेड, 63 हजार 194 आईसीयू बिस्तर (32,409 वेंटिलेटर्स सहित) शामिल हैं.’ इस जवाब के मुताबिक, देश में कुल बिस्तरों की कुल संख्या 16 लाख 16 हजार 591 निकलती है, जो एक दिन पहले यानी 14 सितंबर, 2020 तक बताई गई संख्या से लगभग सवा दो लाख कम है. इतना ही नहीं, वेंटिलेटर्स की संख्या भी एक दिन पहले के मुकाबले घट गई. यह कैसे संभव है कि बिस्तरों और वेंटिलेटर्स की संख्या समय बीतने के साथ बढ़ने की जगह पर घट जाए. (देखें- टेबल-1)

Advertisement. Scroll to continue reading.

इतना ही नहीं, एक अन्य अतारांकित प्रश्न के जवाब में केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने 16 सितंबर तक के बिस्तरों का आंकड़ा दिया. इसमें कोरोना संबंधी इलाज के लिए बिस्तरों की संख्या बढ़कर 18 लाख 52 हजार 652 पहुंच गई. (देखें- टेबल-1) यह सवाल सांसद धनुष एम. कुमार, राजीव रंजन सिंह, रंजीत सिन्हा हिंदूराव नाइक निंबालकर, राजेश नारणभाई चूड़ासमा, निहाल चंद चौहान, सौगत राय, असादुद्दीन ओवैसी, सैय्यद इम्तियाज जलील, कुमारी राम्या हरिदास, डी. के. सुरेश, एंटो एंटोनी, बी.बी. पाटील, वी.के.श्रीकंदन, उत्तम कुमार रेड्डी और सु. थिरुनवक्करासर ने पूछा था.

संसद में केंद्र सरकार के जवाब में बिस्तरों की संख्या घटती-बढ़ती रही. ये कैसे हुआ, अपने आप में पहेली है, क्योंकि जो सुविधाएं विकसित हुईं, वे एक दिन के अंतर पर तोड़ी या जोड़ी कैसे जा सकती हैं? इसे लिपिकीय त्रुटि या तालमेल की कमी कहा जा सकता है, लेकिन इन आंकड़ों में जितना अंतर है, उसे अनजाने में हुई गलती नहीं कहा जा सकता है. जैसे लोक सभा में 23 सितंबर, 2020 को सांसद टीआर बालू के एक सवाल के जवाब में केंद्र सरकार ने 21 सितंबर, 2020 तक कोविड मरीजों के लिए कुल 16 लाख 19 हजार 595 बिस्तर होने का दावा किया, जबकि 16 सितंबर तक उसने यह आंकड़ा 18 लाख 52 हजार बताया था. यह अंतर राज्य सभा में पेश आंकड़ों में भी दिखाई देती है. (देखें- टेबल-1)

ये भी पढ़ें -  सीमा ढाका ने अकेले 76 बच्चों को खोज निकाला, लेकिन गुमशुदा बच्चों पर संसद में सरकार ने क्या कहा?

अगर ये आंकड़े कागजी या मनगढ़ंत नहीं हैं तो तो फिर छह महीने बाद जब कोरोना वायरस की दूसरी लहर ने जोर पकड़ा, तब लोगों को अस्पताल में ऑक्सीजन युक्त बेड, आईसीयू और वेंटिलेटर्स क्यों नहीं मिल पाए? सरकार भले ही इसका जवाब मामलों में अप्रत्याशित उछाल को बता रही हो, लेकिन केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री डॉ. हर्षवर्धन का दावा है कि देश में मरीजों के इलाज के लिए पर्याप्त इंतजाम हैं.

17 अप्रैल, 2021 की पीआईबी की एक रिलीज के मुताबिक, उन्होंने कहा कि कोरोना मरीजों का इलाज करने के लिए त्रिस्तरीय हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर के तहत 2084 कोविड समर्पित हॉस्पिटल, 4043 कोविड समर्पित हेल्थ सेंटर और 12 हजार 673 कोविड केयर सेंटर बनाए गए हैं, जिनमें कुल 18 लाख 52 हजार 265 बिस्तर हैं. हालांकि, उन्होंने बिस्तरों की अलग-अलग संख्या नहीं बताई. इससे यह तुलना कर पाना संभव नहीं हो पा रहा है कि सरकार ने बीते छह महीनों में कितने नए ऑक्सीजन युक्त बिस्तर, आईसीयू और वेंटिलेटर्स को जोड़ा है.

(The three-tier health infrastructure to treat COVID according to severity now includes 2084 Dedicated COVID Hospitals (of which 89 are under the Centre and the rest 1995 with States), 4043 Dedicated COVID Health Centres and 12,673 COVID Care Centres. They have 18,52,265 beds in total including the 4,68,974 beds in the Dedicated COVID Hospitals.” Reminding the Health Ministers that 34,228 ventilators were granted to the States by the Centre last year, Dr. Harsh Vardhan assured a fresh supply of the lifesaving machines: 1121 ventilators are to be given to Maharashtra, 1700 to Uttar Pradesh, 1500 to Jharkhand, 1600 to Gujarat, 152 to Madhya Pradesh and 230 to Chhattisgarh.)

फिलहाल जो जमीनी हालात हैं, वह सरकार के इन भारी-भरकम आंकड़ों का समर्थन नहीं कर रहे हैं. इससे कई सवाल भी उठ रहे हैं. मसलन, बिस्तरों की संख्या में बेतरतीब उतार-चढ़ाव क्या इसलिए दिखाई दे रहा है कि सरकार ने अस्थायी अस्पतालों को बंद कर दिया था या वे अस्पताल सिर्फ कागजों में ही बने थे? अगर सरकार ने अस्थायी अस्पतालों बंद किया या बिस्तरों को हटाया था तो ऐसा करने का आधार क्या था, कोई वैज्ञानिक सलाह या रिपोर्ट? अभी तो खबर आई है कि प्रयोगशालाओं के एक समूह ने सरकार को कोरोना वायरस के खतरनाक वेरिएंट के तेजी से फैलने के बारे में फरवरी में ही आगाह कर दिया था. लेकिन सरकार ने उस पर ध्यान ही नहीं दिया. .

ये भी पढ़ें -  संसद में कृषि विधेयकों पर शिरोमणि अकाली दल ने बीजेपी का साथ छोड़ा

अगर इतने बेड हैं तो फिर ये मारा-मारी क्यों?

नेचर पत्रिका में प्रकाशित लेख के मुताबिक, कोविड संक्रमित लोगों में से सिर्फ 14 फीसदी को अस्पताल में भर्ती करके इलाज करने की जरूरत पड़ती है. वहीं, ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज के डायरेक्टर डॉ. रणदीप गुलेरिया का कहना है कि कि कोविड संक्रमित मरीजों में 10 से 15 फीसदी को ही ऑक्सीजन या दवाओं की जरूरत पड़ती है, क्योंकि 85-90 फीसदी कोविड पॉजिटिव मामलों में बुखार, खांसी, गला खराब होने जैसे हल्के लक्षण या बिना लक्षण के होते हैं. उन्होंने यह भी कहा कि सिर्फ पांच फीसदी मामलों में गंभीर इलाज और दवाओं व वेंटिलेटर की जरूरत पड़ती है. डायरेक्टर गुलेरिया ने बीते साल कोरोना महामारी की पहली लहर आने के बाद कहा था कि 20 फीसदी लोगों को अस्पताल आने की जरूरत पड़ती है.

डायरेक्टर गुलेरिया के इस आकलन के मुताबिक, इस समय अधिकतम 15 फीसदी यानी लगभग पांच लाख मरीज अस्पताल और ऑक्सीजन युक्त बेड की मांग कर रहे हैं, क्योंकि 2 मई, 2021 को देश कुल सक्रिय मामले 33 लाख 49 हजार थे. इसके मुकाबले सरकारी इंतजामों को देखें तो ऑक्सीजन युक्त बेड और आईसीयू जोड़कर यह आंकड़ा कभी भी साढ़े तीन लाख से ऊपर नहीं गया है. यह आकलन पिछले साल के आंकड़ों पर आधारित है, क्योंकि सरकार ने इस साल अब तक अलग-अलग आंकड़े नहीं दिए हैं. इसी तरह पांच फीसदी मरीजों को आईसीयू और वेंटिलेटर्स की जरूरत पड़ती है. इस आधार पर इस समय 1.7 लाख मरीजों को आईसीयू और वेंटिलेटर्स की जरूरत है, लेकिन सरकार के पास दोनों को मिलाकर भी इनकी संख्या एक लाख तक नहीं पहुंचती है.

Advertisement. Scroll to continue reading.

ऐसे में विपक्ष का यह आरोप वाजिब लगता है कि सरकार ने बीते एक साल में कोरोना महामारी से निपटने के लिए कोई तैयारी नहीं की. एक बात बहुत साफ है कि शुरुआत में ही यह तय हो गया था कि कोरोना संक्रमित मरीजों के इलाज में ऑक्सीजन युक्त बिस्तरों की सबसे ज्यादा जरूरत पड़ती है. इसके बावजूद सरकार ने मेडिकल ऑक्सीजन की व्यवस्था करने के लिए पुख्ता प्रयास नहीं किए. पीएम केयर्स फंड के तहत ऑक्सीजन प्लांट्स लगाने के लिए टेंडर निकाले, लेकिन एक साल के भीतर वे चालू नहीं हो सके.

यह कहना गलत नहीं होगा कि केंद्र सरकार ने इन खामियों को दूर करने की जगह झूठे और विरोधाभासी आंकड़ों से अपनी छवि चमकाने की नीति अपनाई, जिसने इलाज के अभाव में कोरोना की मारक क्षमता को बढ़ा दिया. लेकिन सरकार की प्राथमिकता में अब भी प्रचार और अपनी छवि चमकाना है. रेल मंत्री पीयूष गोयल ने पांच टैंकर ऑक्सीजन लेकर जा रही एक ट्रेन का ड्रोन से शूट किया गया वीडियो ट्वीट किया है, जिसे देखकर लोग यही सवाल उठा रहे हैं.

लेख-विशेष

केंद्र अगर ट्रेनों और स्टेशनों पर मेडिकल बॉक्स लगा देता तो हजारों सांसें आज सहारा पा रहीं होती

ट्रेनों और स्टेशनों पर मेडिकल बॉक्स लगाने के नाम पर साल बदल गए, लेकिन संसद में केंद्र सरकार के न तो जवाब बदले और न ही जमीनी हालात. पढ़िए कैसे एक लापरवाही हजारों सांसों का सहारा कम कर गई?

मेडिकल बॉक्स, ऑक्सीजन सिलिंडर, रेलवे, केंद्र सरकार, सुप्रीम कोर्ट
Photo credit- Pixabay

कोरोना वायरस की दूसरी लहर के बीच ऑक्सीजन सिलिंडर की भारी किल्लत है. ऑक्सीजन सिलिंडर की कालाबाजारी हो रही है. जिस अनुपात में कोरोना वायरस संक्रमित मरीज बढ़े हैं, उसमें रातोंरात इतने ऑक्सीजन सिलिंडर कहां से आएं, यह सवाल लगातार बना हुआ है. लेकिन आपको जानकर ताज्जुब होगा कि अगर केंद्र सरकार ने एम्स के विशेषज्ञों की सिफारिश को लागू कर दिया होता तो आज कई हजार लोगों की सांसों को सहारा मिल रहा होता.

दरअसल, साल 2017 सुप्रीम कोर्ट ने एम्स के डॉक्टरों की एक समिति बनाई थी. सात सदस्यीय इस समिति के अध्यक्ष एम्स में आपातकालीन मेडिसिन विभाग के प्रमुख प्रोफेसर डॉ. प्रवीण अग्रवाल थे. इस समिति ने साल 2018 में सभी यात्री ट्रेनों और रेलवे स्टेशनों पर एक मेडिकल बॉक्स लगाने की सिफारिश की थी. इस मेडिकल बॉक्स में प्राथमिक उपचार के लिए स्ट्रेचर, जरूरी दवाइयों और अन्य उपकरणों के साथ ऑक्सीजन के दो-दो रियूजेबल सिलिंडर भी रखे जाने थे. इसके लिए रेलवे बोर्ड ने अप्रैल 2018 में अपने महाप्रबंधकों को पत्र भी लिखा था. लेकिन इस बारे में जमीनी स्तर पर कोई काम नहीं हुआ. इसका सबूत संसद में रेल मंत्री पीयूष की ओर से दिए गए जवाब हैं.

सांसदों ने ट्रेनों और रेलवे स्टेशन पर मेडिकल बॉक्स या चिकित्सा सुविधा देने के बारे में संसद में लगातार सवाल पूछे. इसमें पक्ष-विपक्ष दोनों सांसद शामिल थे. लेकिन हैरानी की बात है कि रेल मंत्रालय ने इस बारे में नवंबर 2019 (तारांकित प्रश्न-54) में संसद में जो जवाब दिया, लगभग सवा साल बाद फरवरी 2021 (अतारांकित प्रश्न संख्या- 309) में भी हूबहू वही जवाब दोहरा दिया. दोनों जवाब में एक भी शब्द का हेर-फेर नहीं किया. यहां तक कि 24 मार्च 2021 को सांसद विजय कुमार के सवाल पर दिए जवाब में भी लगभग पुरानी बातें ही दोहराई गईं.

ये भी पढ़ें -  केंद्रीय गृह मंत्रालय के मुताबिक टुकड़े-टुकड़े गैंग से जुड़ा कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद का बयान बेबुनियाद है

अगर काम हुआ तो सरकार का जवाब क्यों नहीं बदला

इन सभी जवाबों में रेल मंत्री पीयूष गोयल ने कहा, ‘माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुपालन में और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में गठित विशेषज्ञों की समिति द्वारा की गई सिफारिशों के अनुसार, सभी रेलवे स्टेशनों और यात्री गाड़ियों में जीवनरक्षक दवाइयों, उपकरणों और ऑक्सीजन सिलिंडर इत्यादि वाले मेडिकल बॉक्स मुहैया कराने के आदेश जारी किए गए हैं.’ (चित्र-1 और 2 अंत में) अगर केंद्र सरकार और रेल मंत्रालय ने इस दिशा में रत्ती भर भी काम किया होता तो वह संसद में 2019 से लेकर 2021 तक एक ही जवाब क्यों दोहराती?

(In compliance of orders of Hon’ble Supreme Court and as recommended by Committee of experts constituted at All India Institute of Medical Sciences (AIIMS), instructions have been issued to provide a Medical Box containing life saving medicines, equipments, oxygen cylinder etc. at all Railway stations and passenger carrying trains. Front line staff i.e. Train Ticket Examiner, Train Guards/ Superintendents, Station Master etc. are trained in rendering First Aid. Regular refresher courses are conducted for such staff. List of near-by hospitals and doctors along with their contact numbers is available at all Railway Stations. Ambulance services of Railways, State Government/ Private Hospitals and ambulance service providers are utilized to transport the injured/sick passengers to the hospitals/doctor’s clinics.)

तो कितने ऑक्सीजन सिलिंडर मिल जाते?

एम्स की विशेषज्ञ समिति ने हर एक मेडिकल बॉक्स के साथ दो ऑक्सीजन सिलिंडर और चार ऑक्सीजन मास्क (दो बड़ों के लिए और दो बच्चों के लिए) रखने की सिफारिश की थी. इंडियन रेलवे के फैक्ट एंड फीगर्स 2016-17 के मुताबिक, देश में रेलवे स्टेशनों की संख्या 7,349 है, जबकि यात्री ट्रेनों की संख्या 13,523 है. इन सब पर अगर एक-एक मेडिकल बॉक्स लग जाते तो कुल 20,872 मेडिकल बॉक्स होते. इनमें दो-दो रियूजेबल ऑक्सीजन सिलिंडर का मतलब है कि आज रेलवे के पास 41 हजार 744 ऑक्सीजन सिलिंडर होते. इन सिलिंडरों से कम से कम इतने ही ऑक्सीजन सप्लाई वाले बेड बनाए जा सकते थे, जो इस मुश्किल वक्त में टूटती सांसों के लिए बड़ा सहारा बन जाते.

Advertisement. Scroll to continue reading.
ये भी पढ़ें -  अपने-अपने सदनों में बैठे सांसद, अब कोरोना से पहले की तरह चलेगी संसद

एम्स की समिति ने और क्या-क्या सिफारिशें की थी

एम्स की विशेषज्ञ समिति ने सभी ट्रेनों और रेलवे स्टेशन पर लगाए जाने वाले मेडिकल बॉक्स में कुल 88 आइटम शामिल करने की सिफारिश की थी. इसमें दवाएं और उपकरण शामिल हैं. इसके साथ यह भी कहा था कि इनकी समय-समय पर जांच हो और डेट एक्सपायरी होने के बाद इन्हें बदला जाए. इसके अलावा समिति ने ट्रेन और स्टेशन के स्टाफ को नियुक्ति के समय प्राथमिक उपचार देने के लिए प्रशिक्षित करने और तीन साल पर दोबारा प्रशिक्षित करने का सुझाव दिया था. इसके अलावा रेलवे स्टाफ को ट्रेन में यात्रा करने वाले डॉक्टर या नजदीकी स्टेशन पर उपलब्ध डॉक्टर की सेवाएं लेने और तीन साल पर इस मेडिकल बॉक्स की उपयोगिता की समीक्षा करने की भी सिफारिश की थी.

सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिका पर बनाई थी समिति

सुप्रीम कोर्ट में जयपुर-कोटा ट्रेन पर सफर के दौरान एक रेलवे स्टाफ की मौत को लेकर एक जनहित याचिका लगाई गई थी. इसी याचिका की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च अदालत ने एम्स के विशेषज्ञों की समिति बनाती थी. गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में लगातार सरकार को हिदायत देता रहा है. जुलाई 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने चिकित्सा सुविधा के अभाव में ट्रेनों और रेलवे स्टेशनों पर होने वाली मौतों पर सख्त टिप्पणी की थी. द टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस मदन बी लोकुर और जस्टिस दीपक गुप्ता की बेंच ने कहा था, ‘आपके (रेलवे) पास प्राथमिक उपचार की बुनियादी सुविधा नहीं है? आप इस बारे में हमें नहीं बता रहे हैं. अगर यह (चिकित्सा सुविधा) वहां पर नहीं है तो यह बहुत ही भयावह है.’

ये भी पढ़ें -  परीक्षा 2004 के पहले, नौकरी बाद में मिली फिर पुरानी पेंशन का लाभ क्यों नहीं?

सुप्रीम कोर्ट ने विजयवाड़ा में रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से उतरने के बाद एक व्यक्ति की मौत के मामले की सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की थी. इससे पहले इस मामले की सुनवाई करते हुए नेशनल कंज्यूमर डिस्प्यूट रिड्रेशल कमीशन (एनसीडीआरसी) ने माना था कि उस व्यक्ति की मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई थी. इसमें उपभोक्ता फोरम ने रेलवे बोर्ड को उस व्यक्ति की विधवा को 10 लाख रुपये का हर्जाना देने का फैसला सुनाया था. रेलवे बोर्ड ने इसी फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी.

गौरतलब है कि 2018 में ही रेल मंत्रालय ने लोक सभा में माना था कि बीते तीन सालों में ट्रेन में सवार होने के बाद 1600 यात्रियों की मौत हुई है.

 

Advertisement. Scroll to continue reading.