हम सभी जानते हैं कि कानून बनाना संसद का और उसे लागू करना सरकार का काम है. कोई भी कानून बनाने के दौरान इतनी चर्चा होती है कि उसमें किसी तरह का भ्रम बचे रहने या पैदा होने की कोई गुंजाइश नहीं बचती है. हालांकि, सरकार की मानें तो कृषि कानूनों के मामले में यह शर्त लागू नहीं होती है. खुद केंद्र सरकार ने संसद को बताया है कि उसे ‘कृषि कानूनों पर भ्रम’ को दूर करने के लिए विज्ञापनों पर लाखों रुपये फूंकने पड़े हैं.
राज्य सभा में उठा विज्ञापन का सवाल
राज्य सभा में सांसद सैयद नासिर हुसैन और राजमणि पटेल ने आतारांकित प्रश्न के तहत संसद में कृषि कानूनों के विज्ञापन पर खर्च का सवाल उठाया. सरकार से उन्होंने जानकारी मांगी कि (1) देश में सितंबर 2020 से जनवरी 2021 के बीच सरकार के ‘कृषि कानूनों के संबंध में भ्रांति दूर करने’ से संबंधित प्रचार अभियान पर कुल कितने रुपये खर्च किए गए हैं? (2) सितंबर 2020 से जनवरी 2021 के बीच सरकार के ‘कृषि कानूनों के संबंध में भ्रांति दूर करने’ से संबंधित प्रचार अभियान पर ‘विदेश में’ कुल कितने रुपये खर्च किए गए हैं? (3) उन सभी सरकारी विभाग, एजेंसी और भारतीय दूतावासों का ब्यौरा क्या है, जिन्हें ‘कृषि कानूनों के संबंध में भ्रांति दूर करने’ से संबंधित प्रचार अभियान को शेयर करने और प्रचारित करने के लिए कहा गया था?
कृषि कानूनों पर भ्रम दूर करने में लाखों खर्च
राज्य सभा में सांसदों के इन सवालों का जवाब केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने दिया. उन्होंने बताया कि (1) सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अनुसार ब्यूरो ऑफ आउटरीच एंड कम्यूनीकेशन (बीओसी) ने कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय की तरफ से सितंबर 2020 और जनवरी, 2021 के बीच देश में कृषि कानूनों के प्रचार अभियान के लिए विज्ञापन जारी करने के लिए लगभग सात करोड़ 26 लाख (7,25,57,246) रुपये जारी करने का वादा किया है.
वहीं, किसानों और अन्य हितधारकों को जागरूक बनाने, कृषि कानूनों पर गलतफहमी को दूर करने और वास्तविकता बताने के लिए हिंदी, अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषाओं के समाचार पत्रों में प्रिंट विज्ञापन जारी किए गए. कृषि सहकारिता और किसान कल्याण विभाग ने भी किसानों और अन्य हितधारकों के बीच इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सोशल मीडिया और वेबिनार के जरिए कृषि कानूनों का व्यापक प्रचार-प्रसार किया. इसके साथ कृषि कानूनों पर तीन प्रमोशनल और दो एजुकेशनल फिल्में बनाने के लिए लगभग 68 लाख (67,99,750) रुपये भी खर्च किए. इसके अलावा प्रिंट विज्ञापनों के लिए रचनात्मक कार्यों को बढ़ावा देने के विविध खर्च के तौर पर लगभग डेढ़ लाख (1,50,568) रुपए खर्च किए गए.
विदेश में भी प्रचार, लेकिन खर्च शून्य
केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने बताया कि विदेश मंत्रालय से प्राप्त सूचना के मुताबिक, किसी कानूनों के बारे में विदेशों में गलतफहमी दूर करने के प्रचार अभियान पर खर्च शून्य रहा है. हालांकि, मिशन या केंद्र ने नियमित कूटनीतिक कामकाज के एक हिस्से के रूप में कृषि कानूनों के बारे में नवीनतम प्रगति, सरकार के नजरिए और कृषि कानूनों से जुड़े बार-बार पूछे जाने वाले प्रश्न यानी एफएक्यू (FAQ) और अन्य उपयोगी सूचनाएं प्रवासियों तक पहुंचाने के लिए अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल किया है. भारत सरकार के संबंधित विभागों ने भी सोशल मीडिया पर कृषि कानूनों के बारे में जागरूकता पैदा करने का काम किया है.
कृषि कानूनों पर भ्रम की स्थिति कैसे बनी
अपने जवाब में केंद्र सरकार का साफ कहना है कि उसने कृषि कानूनों पर भ्रम को दूर करने के लिए प्रचार अभियान चलाया. अब सवाल आता है कि संसद से पारित होने के बावजूद किसी कानून में भ्रांति या भ्रम की जगह कहां और क्यों बची रह गई? ऐसा क्या हुआ कि एक कानून जो पहले अध्यादेश के रूप में आया और फिर सरकार के दावे के मुताबिक संसद में बाकायदा चर्चा करके पारित किया गया, फिर उसके बारे में लोगों में गलतफहमी कैसे फैल गई?
इन सवालों का जवाब है कि सरकार ने कानूनों को बनाने में हड़बड़ी दिखाई. इसका सबूत सामान्य प्रक्रिया की जगह कानूनों को अध्यादेश के रूप में लाया गया. वह भी ऐसे वक्त में जब पूरे देश में कोरोना महामारी से लड़ने के लिए लॉकडाउन लागू था. सरकार ने अध्यादेश लाने से पहले लोगों को ना तो कानून के बारे में बताया और ना ही उनसे कोई चर्चा ही की. यह भी हकीकत है कि यह काम कानून बनाने के दौरान किसी जगह पर नहीं किया गया, जबकि किसान सड़कों पर उतरकर इसके खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे. यहां तक कि संसद में विपक्ष के विरोध के बावजूद इन कानूनों को राज्य सभा में विवादित तरीके (नियमों के खिलाफ ध्वनिमत का इस्तेमाल करके) से पारित कराया गया.
सरकार प्रचार से किसका भ्रम दूर हुआ
केंद्र सरकार ने कृषि कानूनों का भ्रम दूर करने के लिए करोड़ों रुपये फूंक डाले. लेकिन इससे किसका भ्रम दूर हुआ? किसान तो अभी भी इन कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली की सीमाओं पर मोर्चा खोले हुए हैं. बीते साल 26 नवंबर से जारी आंदोलन अब किसान पंचायत के रूप में देश के अलग-अलग हिस्सों में फैल रहा है. किसान इन कानूनों को अपने वजूद के खिलाफ बता रहे हैं. ऐसे में जब कृषि कानून से जुड़ा सबसे बड़ा तबका यानी किसान ही उनसे इत्तेफाक नहीं रखता तो फिर सरकार किसे इन कानूनों का महत्व या फायदे समझाना चाहती है?
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