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लोक सभा

केंद्र सरकार आंकड़ों के मामले में इतनी कंगाल क्यों है या यह कोई रणनीति है?

चाहे कोई देश हो या संस्था, वह बगैर सटीक आंकड़ों और अध्ययनों के सही योजना बनाने के दावे नहीं कर सकती है.

Photo credit - Dr. Ambedkar foundation

केंद्र की मौजूदा सरकार अक्सर ‘न्यूनतम सरकार-अधिकतम शासन’ की बात दोहराती है. मगर तल्ख हकीकत है कि यह सरकार संसद में पूछे जाने वाले सवालों के जवाब ‘आंकड़े नहीं हैं’ या ‘कोई अध्ययन नहीं है’ कहकर देती है. उदाहरण के लिए केंद्र सरकार ने कोरोना संक्रमण से निपटने के लिए लॉकडाउन घोषित कर दिया. अनिश्चितता में घिरे प्रवासी मजदूरों ने शहरों से गांव-घर की ओर पैदल चलना शुरू कर दिया. लेकिन सभी मजदूर अपनी तय मंजिल पर नहीं पहुंच पाए. रास्ते में सैकड़ों मजदूर हादसे के शिकार हो गए. लेकिन जब केंद्र सरकार से ऐसे मजदूरों की जानकारी मांगी गई तो उसने साफ-साफ कह दिया कि उसके पास आंकड़े नहीं हैं.

सड़क दुर्घटनाओं का आंकड़ा है तो मजदूरों का क्यों नहीं?

दरअसल, लोक सभा में सांसद जसवीर सिंह, डॉ. मोहम्मद जावेद, डी. के. सुरेश डीन कुरियाकोस ने सरकार से पूछा था- (1) देश में लॉकडाउन के दौरान मार्च और अप्रैल 2020 के दौरान कितने मजदूर पैदल चलकर अपने घर गए? (2) देश में उक्त अवधि के दौरान सड़क घटनाओं में कितने प्रवासी मजदूर मारे गए? (3) प्रवासी मजदूरों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय ने क्या कदम उठाए हैं?

लोक सभा में सड़क परिवहन और राजमार्ग राज्य मंत्री जनरल वीके सिंह ने लिखित जवाब दिया. उन्होंने बताया कि लॉकडाउन के दौरान पैदल यात्रा करने वालों सहित 1.06 करोड़ से अधिक प्रवासी मजदूर अपने गृह राज्य लौटे. उन्होंने आगे बताया कि मार्च-जून के दौरान राजमार्गों सहित सभी सड़कों पर 81,385 सड़क दुर्घटनाएं हुईं, जिनमें 29,415 दुर्घटनाएं घातक थीं. इसके ठीक बाद राज्य मंत्री जनरल वीके सिंह ने कहा, ‘हालांकि, यह मंत्रालय लॉकडाउन के दौरान सड़कों दुर्घटनाओं में मारे गए प्रवासी श्रमिकों के संबंध में अलग से डेटा नहीं रखता है.’ अब सवाल उठता है कि जब सरकार सड़क हादसों की जानकारी जुटा सकती है तो उसमें मारे गए लोगों की सूचना क्यों नहीं इकट्ठा कर सकती है?

बच्चों पर लॉकडाउन के बुरे असर का कोई अध्ययन नहीं

केंद्र सरकार के पास आंकड़े के ना होने का यह कोई अकेला मामला नहीं है. लॉकडाउन में जब जरूरी सेवाओं को छोड़कर सारी गतिविधियों पर रोक लग गई तो बच्चे, बड़े और बूढ़े सभी घरों में कैद हो गए. इसका सबसे बुरा असर बच्चों पर पड़ा, उनकी सारी शारीरिक गतिविधियां और खेलकूद बंद हो गया. मानसून सत्र में लोक सभा में सांसद बालूभाऊ उर्फ सुरेश नारायण धानोरकर ने केंद्र सरकार से पूछा- (1) क्या कोविड-19 लॉकडाउन का बच्चों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर कोई विपरीत प्रभाव पड़ा है? (2) अगर हां तो उसका ब्यौरा क्या है? (3) बच्चों और अभिभावकों के बीच मानसिक स्वास्थ्य की जागरूकता फैलाने और कोरोना वायरस के डर को दूर करने के लिए क्या कदम उठाए गए हैं? इस पर केंद्रीय परिवार कल्याण राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने बताया कि सरकार ने बच्चों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर लॉकडाउन से पड़े प्रभाव का मूल्यांकन करने वाला कोई अध्ययन नहीं कराया है.  उन्होंने बताया कि  उनके मंत्रालय ने मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक हेल्पलाइन नंबर जारी किया था. सवाल उठता है कि लगभग 130 करोड़ की आबादी वाले देश में एक हेल्पलाइन नंबर से कितने बच्चों को मानसिक स्वास्थ्य संबंधी सलाह मिल पाई होगी?

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लॉकडाउन में खुदकुशी बढ़ने की भी जानकारी नहीं

लोकसभा में सांसद किरण खेर ने पूछा कि बीते कुछ महीनों के दौरान आत्महत्या के मामलों में कितनी बढ़ोतरी हुई है, अगर हुई है तो इसकी क्या वजह है, क्या महामारी के कारण अनेक लोग मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना कर रहे हैं? इस सवाल के जवाब में केंद्रीय परिवार कल्याण राज्यमंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने कहा कि सरकार ने खुदकुशी या मानसिक स्वास्थ्य पर कोविड-19 महामारी का मूल्यांकन करने वाला कोई अध्ययन नहीं कराया है.

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निजी अस्पतालों की मनमानी का भी आंकड़ा नहीं

लोकसभा में कोरोना महामारी के दौरान सरकार से रियायती दरों पर जमीन लेने वाले अस्पतालों की मनमानी को लेकर भी सवाल पूछा गया. सांसद पी वेलुसामी ने पूछा कि कि क्या निजी अस्पताल ओपीडी मरीजों के लिए तय कोटे के बिस्तरों का भुगतान वाली सेवाओं के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं, क्या बिस्तर न खाली होने पर आरक्षित कोटे की सीटों को भुगतान वाले बिस्तरों में बदल दिया गया है, अगर हां तो सरकार के पास अस्पताल के दावों की निगरानी करने वाला कोई तंत्र है? इसके जवाब में केंद्रीय राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने कहा कि संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक स्वास्थ्य राज्य का विषय है, इसलिए केंद्र सरकार इस बारे में कोई आंकड़े नहीं जुटाती है. सरकार भले ही स्वास्थ्य को राज्यों विषय बता रही हो, लेकिन कोरोना महामारी के समय एपिडेमिक एक्ट लागू है, जो मूलत केंद्र सरकार की शक्तियों के अधीन आता है.

जनहित याचिकाओं की संख्या का भी पता नहीं

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इन सवालों के विषय कोरोना महामारी से जुड़े थे तो संभव है कि सरकार आंकड़े न जुटा पाई हो. लेकिन आंकड़े जुटाने के लिहाज से दूसरे मामले में भी यही हाल है. जब लोकसभा में सरकार से सवाल पूछा गया कि क्या उसके पास मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए दायर होने वाली जनहित याचिकाओं का ब्यौरा है? क्या मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए दायर होने वाली पीआईएल को कोई महत्व दिया जाता है यदि हां तो उसका व्यवहार क्या है, बीते तीन सालों में और मौजूदा वर्ष के दौरान सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में कितनी जनहित याचिकाएं दाखिल की गई, कितने मामलों का निपटारा किया गया, इनके लंबित रहने के क्या कारण है, क्या सरकार को जनहित याचिकाओं में अनावश्यक मुकदमे दर्ज किए जाने के बारे में जानकारी है?

लोकसभा में इन सवालों को सांसद जी सेल्वम, धनुष एम कुमार, सीएन अन्नादुरई, गजानन कीर्तिकर और गौतम सिगामणि पोन ने पूछा. लेकिन इस को लेकर केंद्र सरकार के पास कोई आंकड़ा नहीं था. केंद्रीय विधि और न्याय मंत्री श्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि इस बारे में सूचना जुटाई जा रही है,  सदन के पटल पर रख दी जाएगी. सवाल उठता है कि जब देश की अदालतें लंबित मामलों के बोझ से कराह रही हों. तब सरकार के पास ऐसे मुकदमों की जानकारी क्यों नहीं है जो जनहित के नाम पर स्वहित की पूर्ति के लिए लगाए जा रहे हों?

केंद्र सरकार के पास अपने मंत्रालयों के ही आंकड़े नहीं हैं

न्यायपालिका तो सरकार से अलग है, लेकिन केंद्र सरकार के पास तो अपने ही विभागों के आंकड़े नहीं है. लोक सभा में सांसद उपेंद्र सिंह रावत ने कहा कि केंद्र सरकार के मंत्रालयों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिला कर्मचारी की संख्या कितनी है? क्या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग की महिला कर्मचारियों की भर्ती के लिए कोई विशेष अभियान चलाने का प्रस्ताव है, यदि हां तो इसका ब्यौरा क्या है? यदि नहीं तो इसकी वजह क्या है? इन सवालों का केंद्रीय लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय के राज्य मंत्री डॉक्टर जितेंद्र सिंह ने जवाब दिया. उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार अपनी सेवाओं में लैंगिक आधार पर आंकड़ों को अलग से नहीं जुटाता है. यह तो हैरान करने वाली बात है कि सरकार के पास अपने ही कर्मचारियों की जानकारी कैसे नहीं है, जबकि नियुक्ति से लेकर प्रमोशन तक कर्मचारियों की सामाजिक पृष्ठभूमि की जानकारी ली जाती है.

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बीपीएल परिवारों का 9 साल पुराना आंकड़ा

आंकड़ों को लेकर केंद्र सरकार की लापरवाही का एक और नमूना देखे. लोक सभा में सांसद कृष्ण पाल सिंह यादव ने पूछा कि क्या सरकार के पास गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले (बीपीएल) परिवारों की संख्या का राज्यवार आंकड़ा हैं? क्या बीपीएल परिवारों की संख्या में बीते दो सालों में कोई कमी आई है? इसका जवाब केंद्रीय सांख्यिकी राज्यमंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने दिया. उन्होंने बताया कि साल 2011-12 (नौ साल पहले) में एनएसएस के 68वें दौर के सर्वे के आधार पर योजना आयोग ने गरीबी रेखा और गरीबी अनुपात का आकलन किया था. इसके मुताबिक राष्ट्रीय स्तर बीपीएल परिवारों की संख्या लगभग 22 फीसदी (21.9%) थी.  चौंकाने वाली बात है कि सांसद कृष्ण पाल सिंह यादव ने जब बीते दो साल में बीपीएल परिवारों की संख्या घटने की जानकारी मांगी थी तो सरकार लगभग नौ साल पुराना आंकड़ा क्यों बता रही है? इसका सीधा मतलब है कि सरकार ने इस दौरान गरीबी रेखा  और बीपीएल परिवारों की संख्या को लेकर कोई आंकड़े ही नहीं जुटाए हैं.

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किसानों की आमदनी कितनी बढ़ी, नहीं पता

गरीबों की संख्या ही नहीं, किसानों की आमदनी बढ़ने के आंकड़ों के मामले में भी सरकार का यही हाल है. उसके पास अपने प्रयासों से खेती की लागत घटने के आंकड़े तो हैं, लेकिन इसका जवाब नहीं है कि इससे किसानों की आमदनी कितनी बढ़ी है? अब सवाल और चिंता है कि जब सरकार के पास जरूरी आंकड़े ही नहीं हैं तो उसकी बनाई नीतियों सटीक और सफलता हासिल करने वाली कैसे हो सकती हैं?

आंकड़ों की कमी का खामियाजा

क्या आंकड़ों की कमी ही वजह नहीं है कि सरकार को नोटबंदी, जीएसटी और लॉकडाउऩ जैसे फैसलों से जुड़े दिशा-निर्देशों को बार-बार बदलना पड़ा? न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन का नारा देने वाली सरकार को अपने दिशानिर्देशों में बार-बार बदलाव करने पड़े. अब सवाल उठता है कि क्या सरकार जवाबदेही से बचने के लिए आंकड़ों को जुटाने से बच रही है या यह खामी बहुत तेज फैसले लेने वाली सरकार साबित करने से उपजी है? वजह जो भी हो लेकिन केंद्र सरकार के पास आंकड़ों की यह तंगी जनता के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक विकास को खतरे में डाल सकती है.

लोक सभा

कोरोना पर वाइट पेपर सरकार पर निशाना साधने के लिए नहीं है: राहुल गांधी

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सरकार को सुझाव दिया कि दूसरी लहर से पहले जो काम और जरूरतें पूरी करने के लिए सरकार ने कदम नहीं उठाए थे, उन्हें तीसरी लहर आने से पहले पूरा करना चाहिए, जिसमें हॉस्पिटल बेड्स, इन्फ्रास्ट्रक्चर, ऑक्सीजन और दवाइयों की जरूरतें शामिल हैं.

श्वेत पत्र, कांग्रेस, राहुल गांधी
Photo credit- INC

कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और लोक सभा सांसद राहुल गांधी ने मंगलवार को कोविड-19 महामारी पर एक श्वेत पत्र (वाइट पेपर) जारी किया. उन्होंने इस मौके पर संवाददाताओं के सवालों का भी जवाब दिया. इसमें उन्होंने कहा कि यह श्वेत पत्र को सरकार पर उंगली उठाने के लिए नहीं है.

राहुल गांधी ने कहा, ‘कोरोना की समस्या आप सभी जानते हैं; देश को जो दर्द पहुंचा, लाखों लोगों की मृत्यु हुई; कोरोना ने क्या किया है यह पूरा देश जानता है; हमने यह श्वेत पत्र डिटेल में तैयार किया है और इस श्वेत पत्र के दो-तीन लक्ष्य हैं.’

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा, ‘इस श्वेत पत्र का लक्ष्य किसी पर ऊंगली उठाना नहीं है, इसका लक्ष्य ये नहीं है कि सरकार ने कुछ गलत किया; हम गलती की तरफ इशारा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि हम जानते हैं कि आने वाले समय में इन गलतियों को ठीक करना करना होगा.’

उन्होंने कहा, ‘पूरा देश जानता है कि दूसरी लहर से पहले हमारे वैज्ञानिकों और डॉक्टर्स ने दूसरी लहर की बात की थी; उस समय जो कार्य सरकार को करने थे, जो व्यवहार होना चाहिए था, वह नहीं रहा और पूरे देश को दूसरी लहर का असर सहना पड़ा.’

राहुल गांधी ने यह भी कहा, ‘यह बहुत ही स्पष्ट है कि पहली और दूसरी लहर से निटपने का सरकार का तरीका आपदाकारी था. यह (श्वेत पत्र) एक ब्लूप्रिंट है कि तीसरी लहर से कैसे निपटना है, जो कि आने जा रही है. हमारा मकसद जो कुछ भी गलत हुआ, उस पर सरकार को सूचनाएं और प्रमुख बातें उपलब्ध कराई जा सकें.’

कोरोना महामारी की संभावित तीसरी को लेकर भी राहुल गांधी ने चेताया. उन्होंने कहा, ‘आज हम फिर से वहीं खड़े हैं; पूरा देश जानता है कि तीसरी लहर आने वाली है; वायरस म्यूटेट कर रहा है और तीसरी लहर आएगी ही; इसलिए हम एक बार फिर कह रहे हैं कि सरकार को तीसरी लहर को लेकर पूरी तैयारी करनी चाहिए.’

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कांग्रेस नेता ने सरकार को सुझाव दिया कि दूसरी लहर से पहले जो काम और जरूरतें पूरी करने के लिए सरकार ने कदम नहीं उठाए थे, उन्हें तीसरी लहर आने से पहले पूरा करना चाहिए, जिसमें हॉस्पिटल बेड्स, इन्फ्रास्ट्रक्चर, ऑक्सीजन और दवाइयों की जरूरतें शामिल हैं.

संवाददाताओं के सवालों का जवाब देते हुए राहुल गांधी ने कहा कि समस्या को स्वीकार किए बगैर उसका समाधान कर पाना नामुमकिन है. उन्होंने यह भी कहा कि सरकार को लगातार काम करना होगा, टीकाकरण इस महामारी से लड़ने का मुख्य स्तंभ है, इसलिए जल्द से जल्द 18 साल से ऊपर की सारी आबादी का टीकाकरण सुनिश्चित करना होगा. राहुल गांधी के मुताबिक, इससे लोगों की रोजी-रोटी को हो रहे नुकसान को रोका जा सकता है.

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लेख-विशेष

केंद्र अगर ट्रेनों और स्टेशनों पर मेडिकल बॉक्स लगा देता तो हजारों सांसें आज सहारा पा रहीं होती

ट्रेनों और स्टेशनों पर मेडिकल बॉक्स लगाने के नाम पर साल बदल गए, लेकिन संसद में केंद्र सरकार के न तो जवाब बदले और न ही जमीनी हालात. पढ़िए कैसे एक लापरवाही हजारों सांसों का सहारा कम कर गई?

मेडिकल बॉक्स, ऑक्सीजन सिलिंडर, रेलवे, केंद्र सरकार, सुप्रीम कोर्ट
Photo credit- Pixabay

कोरोना वायरस की दूसरी लहर के बीच ऑक्सीजन सिलिंडर की भारी किल्लत है. ऑक्सीजन सिलिंडर की कालाबाजारी हो रही है. जिस अनुपात में कोरोना वायरस संक्रमित मरीज बढ़े हैं, उसमें रातोंरात इतने ऑक्सीजन सिलिंडर कहां से आएं, यह सवाल लगातार बना हुआ है. लेकिन आपको जानकर ताज्जुब होगा कि अगर केंद्र सरकार ने एम्स के विशेषज्ञों की सिफारिश को लागू कर दिया होता तो आज कई हजार लोगों की सांसों को सहारा मिल रहा होता.

दरअसल, साल 2017 सुप्रीम कोर्ट ने एम्स के डॉक्टरों की एक समिति बनाई थी. सात सदस्यीय इस समिति के अध्यक्ष एम्स में आपातकालीन मेडिसिन विभाग के प्रमुख प्रोफेसर डॉ. प्रवीण अग्रवाल थे. इस समिति ने साल 2018 में सभी यात्री ट्रेनों और रेलवे स्टेशनों पर एक मेडिकल बॉक्स लगाने की सिफारिश की थी. इस मेडिकल बॉक्स में प्राथमिक उपचार के लिए स्ट्रेचर, जरूरी दवाइयों और अन्य उपकरणों के साथ ऑक्सीजन के दो-दो रियूजेबल सिलिंडर भी रखे जाने थे. इसके लिए रेलवे बोर्ड ने अप्रैल 2018 में अपने महाप्रबंधकों को पत्र भी लिखा था. लेकिन इस बारे में जमीनी स्तर पर कोई काम नहीं हुआ. इसका सबूत संसद में रेल मंत्री पीयूष की ओर से दिए गए जवाब हैं.

सांसदों ने ट्रेनों और रेलवे स्टेशन पर मेडिकल बॉक्स या चिकित्सा सुविधा देने के बारे में संसद में लगातार सवाल पूछे. इसमें पक्ष-विपक्ष दोनों सांसद शामिल थे. लेकिन हैरानी की बात है कि रेल मंत्रालय ने इस बारे में नवंबर 2019 (तारांकित प्रश्न-54) में संसद में जो जवाब दिया, लगभग सवा साल बाद फरवरी 2021 (अतारांकित प्रश्न संख्या- 309) में भी हूबहू वही जवाब दोहरा दिया. दोनों जवाब में एक भी शब्द का हेर-फेर नहीं किया. यहां तक कि 24 मार्च 2021 को सांसद विजय कुमार के सवाल पर दिए जवाब में भी लगभग पुरानी बातें ही दोहराई गईं.

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अगर काम हुआ तो सरकार का जवाब क्यों नहीं बदला

इन सभी जवाबों में रेल मंत्री पीयूष गोयल ने कहा, ‘माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुपालन में और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में गठित विशेषज्ञों की समिति द्वारा की गई सिफारिशों के अनुसार, सभी रेलवे स्टेशनों और यात्री गाड़ियों में जीवनरक्षक दवाइयों, उपकरणों और ऑक्सीजन सिलिंडर इत्यादि वाले मेडिकल बॉक्स मुहैया कराने के आदेश जारी किए गए हैं.’ (चित्र-1 और 2 अंत में) अगर केंद्र सरकार और रेल मंत्रालय ने इस दिशा में रत्ती भर भी काम किया होता तो वह संसद में 2019 से लेकर 2021 तक एक ही जवाब क्यों दोहराती?

(In compliance of orders of Hon’ble Supreme Court and as recommended by Committee of experts constituted at All India Institute of Medical Sciences (AIIMS), instructions have been issued to provide a Medical Box containing life saving medicines, equipments, oxygen cylinder etc. at all Railway stations and passenger carrying trains. Front line staff i.e. Train Ticket Examiner, Train Guards/ Superintendents, Station Master etc. are trained in rendering First Aid. Regular refresher courses are conducted for such staff. List of near-by hospitals and doctors along with their contact numbers is available at all Railway Stations. Ambulance services of Railways, State Government/ Private Hospitals and ambulance service providers are utilized to transport the injured/sick passengers to the hospitals/doctor’s clinics.)

तो कितने ऑक्सीजन सिलिंडर मिल जाते?

एम्स की विशेषज्ञ समिति ने हर एक मेडिकल बॉक्स के साथ दो ऑक्सीजन सिलिंडर और चार ऑक्सीजन मास्क (दो बड़ों के लिए और दो बच्चों के लिए) रखने की सिफारिश की थी. इंडियन रेलवे के फैक्ट एंड फीगर्स 2016-17 के मुताबिक, देश में रेलवे स्टेशनों की संख्या 7,349 है, जबकि यात्री ट्रेनों की संख्या 13,523 है. इन सब पर अगर एक-एक मेडिकल बॉक्स लग जाते तो कुल 20,872 मेडिकल बॉक्स होते. इनमें दो-दो रियूजेबल ऑक्सीजन सिलिंडर का मतलब है कि आज रेलवे के पास 41 हजार 744 ऑक्सीजन सिलिंडर होते. इन सिलिंडरों से कम से कम इतने ही ऑक्सीजन सप्लाई वाले बेड बनाए जा सकते थे, जो इस मुश्किल वक्त में टूटती सांसों के लिए बड़ा सहारा बन जाते.

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एम्स की समिति ने और क्या-क्या सिफारिशें की थी

एम्स की विशेषज्ञ समिति ने सभी ट्रेनों और रेलवे स्टेशन पर लगाए जाने वाले मेडिकल बॉक्स में कुल 88 आइटम शामिल करने की सिफारिश की थी. इसमें दवाएं और उपकरण शामिल हैं. इसके साथ यह भी कहा था कि इनकी समय-समय पर जांच हो और डेट एक्सपायरी होने के बाद इन्हें बदला जाए. इसके अलावा समिति ने ट्रेन और स्टेशन के स्टाफ को नियुक्ति के समय प्राथमिक उपचार देने के लिए प्रशिक्षित करने और तीन साल पर दोबारा प्रशिक्षित करने का सुझाव दिया था. इसके अलावा रेलवे स्टाफ को ट्रेन में यात्रा करने वाले डॉक्टर या नजदीकी स्टेशन पर उपलब्ध डॉक्टर की सेवाएं लेने और तीन साल पर इस मेडिकल बॉक्स की उपयोगिता की समीक्षा करने की भी सिफारिश की थी.

सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिका पर बनाई थी समिति

सुप्रीम कोर्ट में जयपुर-कोटा ट्रेन पर सफर के दौरान एक रेलवे स्टाफ की मौत को लेकर एक जनहित याचिका लगाई गई थी. इसी याचिका की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च अदालत ने एम्स के विशेषज्ञों की समिति बनाती थी. गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में लगातार सरकार को हिदायत देता रहा है. जुलाई 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने चिकित्सा सुविधा के अभाव में ट्रेनों और रेलवे स्टेशनों पर होने वाली मौतों पर सख्त टिप्पणी की थी. द टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस मदन बी लोकुर और जस्टिस दीपक गुप्ता की बेंच ने कहा था, ‘आपके (रेलवे) पास प्राथमिक उपचार की बुनियादी सुविधा नहीं है? आप इस बारे में हमें नहीं बता रहे हैं. अगर यह (चिकित्सा सुविधा) वहां पर नहीं है तो यह बहुत ही भयावह है.’

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सुप्रीम कोर्ट ने विजयवाड़ा में रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से उतरने के बाद एक व्यक्ति की मौत के मामले की सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की थी. इससे पहले इस मामले की सुनवाई करते हुए नेशनल कंज्यूमर डिस्प्यूट रिड्रेशल कमीशन (एनसीडीआरसी) ने माना था कि उस व्यक्ति की मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई थी. इसमें उपभोक्ता फोरम ने रेलवे बोर्ड को उस व्यक्ति की विधवा को 10 लाख रुपये का हर्जाना देने का फैसला सुनाया था. रेलवे बोर्ड ने इसी फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी.

गौरतलब है कि 2018 में ही रेल मंत्रालय ने लोक सभा में माना था कि बीते तीन सालों में ट्रेन में सवार होने के बाद 1600 यात्रियों की मौत हुई है.

 

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लोक सभा

इंटरव्यू में SC और OBC उम्मीदवारों से भेदभाव पर केंद्र ने संसद में कुछ बोला क्यों नहीं?

इंटरव्यू में एससी और ओबीसी से भेदभाव का सवाल डिक्की की रिपोर्ट की वजह से इन दिनों चर्चा में है. इसके बावजूद संसद में सरकार का मौन कई सवाल खड़े कर रहा है. पढ़िए ये खबर

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Photro credit- pixabay

सरकारी नौकरियों के लिए चयन प्रक्रिया के दौरान जाति के नाम पर भेदभाव का मुद्दा चर्चा में है. संसद के बजट सत्र के दौरान सांसद कौशल किशोर, अर्जुन लाल मीणा और पी. पी. चौधरी ने लोकसभा में इस पर सरकार से जवाब मांगा. सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय से उन्होंने पूछा कि क्या सरकार ने इस पर ध्यान दिया है कि भर्ती में बाद के चरणों में अनुसूचित जातियों (एससी) और अन्य पिछड़ा वर्गों (ओबीसी) के सदस्यों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है? यदि हां तो इस भेदभाव को दूर करने के लिए सरकार ने क्या कदम उठाए हैं?

क्या सरकार ने दलित इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज (डिक्की) की रिपोर्ट पर विचार किया है कि उम्मीदवारों की धर्म व सामाजिक पृष्ठभूमि की जानकारी सिविल सेवाओं और अन्य केंद्रीय व राज्य स्तर की परीक्षाओं में साक्षात्कार के समय उजागर नहीं करनी चाहिए? यदि हां तो उसका ब्यौरा क्या है?

सांसदों ने यह भी पूछा कि क्या एससी और ओबीसी वर्ग के कल्याण के लिए बजटीय आवंटन के उपयोग और लागू करने में कोई प्रणालीगत समस्या आ रही है? यदि हां तो उसका ब्यौरा क्या है? एससी और ओबीसी समुदाय के कल्याण के लिए योजनाओं के कार्यान्वयन और प्रगति व वित्तीय आवंटन के उपयोग की निगरानी के लिए तंत्र का ब्यौरा क्या है?

सांसदों की इन सवालों का जवाब सामाजिक न्याय और अधिकारिता राज्य मंत्री रतनलाल कटारिया ने दिया. अपने जवाब में उन्होंने वह सारी योजनाएं और कदमों का हवाला दिया, जो सरकार ने एससी, एसटी और ओबीसी के सामाजिक कल्याण के लिए उठाए हैं. मगर उन्होंने यह नहीं बताया कि भर्ती प्रक्रिया के दौरान एससी और ओबीसी उम्मीदवारों के साथ भेदभाव होने की बात उसकी जानकारी में है या नहीं. उन्होंने दलित इंडियन चेंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज की (इससे जुड़ी) रिपोर्ट का मसौदा 12 फरवरी 2021 को ईमेल से मिलने की जानकारी जरूर दी. डिक्की रिपोर्ट मिलने के बावजूद इस मामले में सरकार का कुछ जवाब न देना अपने आप में सवाल है.

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हालांकि, केंद्रीय राज्य मंत्री रतनलाल कटारिया ने दावा किया कि सरकार ने अनुसूचित जातियों अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्ग के कल्याण के लिए सेवाओं में प्रारंभिक भर्ती के समय ही नहीं, नियुक्तियों के दौरान भी कई उपाय किए गए हैं. उन्होंने बताया कि एससी वर्ग के कल्याण के लिए आवंटित राशि को किसी अन्य कार्यों के लिए खर्च नहीं किया जा सकता है.

दलित चेंबर ऑफ कॉमर्स (डिक्की) ने अपनी एक रिपोर्ट में सुझाव दिया है कि साक्षात्कार के दौरान एससी एसटी और ओबीसी के अभ्यर्थियों के उपनाम को छुपा लेना चाहिए. उसके ऐसा कहने की वजह साफ है कि चयन प्रक्रिया में साक्षात्कार के समय ही अभ्यर्थियों के नाम पता चलते हैं, जिससे उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ता है. हालांकि, जिस तरह से संसद में सरकार ने इस बात कुछ साफ बोलने से इनकार किया है, उससे यह नहीं लगता है कि वह इस समस्या को स्थायी तौर पर सुलझाने के लिए गंभीर है.

सवाल केवल नौकरियों की प्रक्रिया के दौरान वंचित वर्ग से आने वाले उम्मीदवारों के साथ भेदभाव का नहीं है, बल्कि आरक्षण को सही से लागू करने का भी है. संसद में खुद केंद्र सरकार ने बताया है कि कैसे देश के 42 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में आरक्षित वर्ग के सैकड़ों पद (बैकलॉग) खाली हैं, जबकि अनारक्षित वर्ग के सभी पद भरे हैं. अगर भेदभाव नहीं है तो यह कैसे संभव है कि जिस भर्ती प्रक्रिया के जरिए सामान्य पदों के लिए योग्य उम्मीदवार मिल रहे हैं, उसी भर्ती प्रक्रिया के तहत आरक्षित वर्ग की सीटें नहीं भर पा रही हैं?

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इसके अलावा सरकार ने जिस तरह से बैंकों और लोक उद्यमों के निजीकरण करने की योजना बनाई है, उससे इनमें मिलने वाली नौकरियों में आरक्षण अपने आप खतरे में आ गया है. संसद में सांसदों ने कई बार निजीकरण को आरक्षण पर हमला बताते हुए सरकार से जवाब मांगा है. कुछ सांसदों ने तो निजी क्षेत्र में आरक्षण को लागू करने की मांग भी उठाई है. लेकिन सरकार ने इस पर कोई आश्वासन नहीं दिया है.

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डॉ. अंबेडकर फाउंडेशन एससी-एसटी वर्ग को कौन-कौन सी मदद देता है?

डॉ. अंबेडकर फाउंडेशन एससी और एसटी वर्ग के लिए कुल 13 योजनाएं चलाता है. लेकिन क्या आपको पता है कि इसमें किस-किस तरह की मदद शामिल है?

डॉ. अंबेडकर फाउंडेशन, dr. abedkar foundation

साल 1992 में बना डॉ. आंबेडकर फाउंडेशन बाबा साहब डॉ. बी. आर. अंबेडकर के विचारों और संदेशों को फैलाने व वंचित तबके के लोगों की मदद करने करने के लिए कई योजनाएं चलाता है. सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय के तहत काम करने वाला यह संगठन हर साल हजारों लोगों की मदद करता है. इनमें शादी से लेकर शिक्षा और इलाज के लिए मदद देने की योजनाएं शामिल हैं.

संसद के बजट सत्र में लोकसभा सांसद गौतम सिंगा मणि पोन, सीएन अन्नादुरई, गजानन कीर्तिकर, धनुष एम कुमार और अरविंद सावंत ने डॉ. अंबेडकर फाउंडेशन से जुड़ा सवाल उठाया. उन्होंने सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय से पूछा कि डॉ आंबेडकर फाउंडेशन की ओर से बीते तीन वर्षों के दौरान एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग के लिए किए गए कार्यों का ब्यौरा क्या है? यह भी पूछा कि उपरोक्त योजनाएं लक्षित समूहों तक पहुंचें, इसलिए उन्हें लोकप्रिय बनाने के लिए कौन-कौन से कदम उठाए गए हैं? सांसदों ने यह भी पूछा कि योजनाओं को लागू करते समय डॉ. अंबेडकर फाउंडेशन को किन-किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है और सरकार ने योजनाओं को प्रभावी तरीके से लागू करने के लिए क्या-क्या कदम उठाए हैं?

लोकसभा में सांसदों के उठाए गए सवालों का जवाब सामाजिक न्याय और अधिकारिता राज्य मंत्री रतनलाल कटारिया ने दिया. उन्होंने बताया कि डॉ आंबेडकर फाउंडेशन सिर्फ अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) की मदद करने की योजनाएं चलाता है. उन्होंने बताया कि डॉ आंबेडकर फाउंडेशन ओबीसी वर्ग के लिए कोई योजना नहीं चलाता है.

डॉ आंबेडकर फाउंडेशन की तरफ से चलने वाली योजनाओं में डॉ. अंबेडकर चिकित्सा सहायता स्कीम, अंतरजातीय विवाह के जरिए सामाजिक एकीकरण को बढ़ावा देने के लिए डॉ. अंबेडकर स्कीम, अत्याचार से पीड़ित अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के परिवारों की मदद करने के लिए डॉ. अंबेडकर राष्ट्रीय राहत, अनुसूचित जाति और जनजाति के मेधावी छात्रों के लिए डॉ. अंबेडकर राष्ट्रीय मेरिट अवार्ड स्कीम का संचालन करता है. मेधावी छात्रों की सहायता की योजना सेकेंडरी स्कूल और हायर सेकेंडरी स्कूल दोनों के लिए मिलती है

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लोकसभा में पेश आंकड़ों को देखें तो डॉ. अंबेडकर चिकित्सा सहायता स्कीम के तहत 2017-18 में लाभार्थियों की संख्या 197 थी, जो 2018-19 में 290 और 2019-20 में बढ़कर 371 पहुंच गई. इसी तरह अंतरजातीय विवाह के लिए आर्थिक सहायता पाने वाले लाभार्थियों की संख्या भी लगातार बढ़ी है. हालांकि, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अत्याचार पीड़ितों को मिलने वाली सहायता लगातार घटी है. यह 2019-20 में शून्य हो गई, जो चौंकाने वाली बात है, क्योंकि 2017-19 के नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो का आंकड़ा बताता है कि अनुसूचित जाति के उत्पीड़न के मामले 15 फीसदी बढ़ गए हैं.

इसी तरह एससी-एसटी वर्ग से जुड़े मेधावी छात्रों को स्कूल परीक्षा में बेहतरीन प्रदर्शन के आधार पर लाभ पाने वाले लाभार्थियों की संख्या गिरी है. साल 2017-18 में जहां 386 छात्रों को 115 करोड़ रुपये मिले, वही 2018-19 में यह संख्या घटकर 355 हो गई, जो 2019 में 279 तक पहुंच गई. इसके तहत दी जाने वाली सहायता राशि 85 करोड़ रुपये हो गई.

लोक सभा में डॉ आंबेडकर फाउंडेशन से जुड़े सवाल सांसद अजय भट्ट ने भी पूछे थे. उन्होंने घातक बीमारियों के लिए बीते 3 साल में लोगों को दी गई सहायता का ब्यौरा मांगा था. उन्होंने यह भी पूछा था कि क्या सरकार ने इसकी निगरानी के लिए कोई नियामकीय संस्था बनाई है. इन सवालों का जवाब सामाजिक न्याय और अधिकारिता राज्य मंत्री रतनलाल कटारिया ने ही दिया. उन्होंने बताया कि डॉ आंबेडकर फाउंडेशन अभी कुल 13 योजनाएं चलाता है, जो सभी राज्यों के लिए होती हैं, न कि किसी एक राज्य विशेष के लिए.

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डॉ आंबेडकर फाउंडेशन से चिकित्सा सहायता लेने वाले लाभार्थियों में लगभग सभी राज्यों से लोग शामिल हैं. हालांकि, संसद में दिए गए आंकड़ों से साफ पता चलता है कि मणिपुर और पंजाब के लाभार्थी इसमें सबसे ज्यादा हैं. इसके बाद उत्तर प्रदेश का नंबर है. लेकिन साल 2020-21 में मणिपुर के लाभार्थियों की संख्या नाटकीय ढंग से घट गई है. वहीं, उत्तर प्रदेश से लाभार्थियों की संख्या में भारी इजाफा हुआ है. पंजाब अभी भी लाभार्थियों में दूसरे स्थान पर है.

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